Monday, January 9, 2012
Thursday, January 5, 2012
(गीत ) मानव कितना विवश है !
नये साल में इस आँगन में कुछ भी नया नहीं है ,
लगता है जैसे साल पुराना अब तक गया नहीं है !
काले धन का यह काला
व्यापार जस का तस है,
धन -पशुओं के आगे आज
मानव कितना विवश है !
बंदी बन कर बेगुनाह को अंधियारे की कैद मिली
यह बेदर्द क़ानून है जिसके दिल में दया नहीं है !
पढ़-लिख बेरोजगार घूमते
इस नये भारत को देखो,
लोकतंत्र की मंडी में हर दिन
सपनों की तिजारत को देखो !
लूटकर जनता के धन को इतराते हैं जो खूब यहाँ ,
उन शैतानी आँखों में कुछ भी शर्म-ओ -हया नहीं है !
--- स्वराज्य करुण
Wednesday, January 4, 2012
वस्तु-विनिमय प्रणाली का पुनर्जन्म !
इतिहासकारों के अनुसार हजारों साल पहले मानव-सभ्यता और संस्कृति के विकास क्रम में जब आर्थिक लेन-देन के लिए मुद्राओं का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था , उन दिनों लोग वस्तु-विनिमय प्रणाली से काम चला लेते थे. अनाज के बदले पशु धन और पशु धन के बदले अनाज का लेन-देन हुआ करता था . लोग अपने गाँव के लोहार से लोहे का औजार, बढाई से लकड़ी का सामान , बुनकर से कपड़े बनवाते तो उन्हें इन सामानों की कीमत का भुगतान अनाज के रूप में करते थे .लगता है कि वस्तु-विनिमय की वही पुरानी परम्परा दोबारा लौट कर आ रही है , इक्कीसवीं सदी के इस आधुनिक युग में कम से कम हमारे देश के कुछ राज्यों के बाज़ारों में आप और हम इसे आसानी से महसूस कर सकते हैं .
वस्तु-विनिमय प्रणाली का पुनर्जन्म तो हुआ है, लेकिन पहले की तुलना में इसमें एक फर्क यह है कि आज यह एकतरफा है .यानी सामान खरीदकर रूपए भुगतान के बाद अगर आपको बाकी पैसे वापस चाहिए तो दुकानदार चिल्हर नहीं होने की बात कहकर कोई भी छोटा -मोटा सामान आपको थमा देगा, जिसकी ग्राहक को भले ही ज़रूरत ना हो. कुछ दिनों पहले आकाश के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ . मेडिकल स्टोर से 96 रूपए के टेबलेट खरीदकर भुगतान के लिए एक सौ रूपए का नोट देने पर दुकानदार ने चार रूपए वापस न करते हुए आकाश को चाकलेट की चार टिकिया थमा दी. अगले दिन उसी मेडिकल स्टोर से आकाश ने कुछ और दवाइयां खरीदी .बिल एक सौ चार रूपए का हुआ .उसने सौ के नोट के साथ दुकानदार की तरफ चाकलेट की वही चार टिकिया बढ़ा दी ,तो उसने सौ का नोट तो रख लिया .लेकिन चाकलेट की टिकिया के बदले चार रूपए नगद मां...गने लगा. बात नहीं बनी और आकाश दवाइयां वापस कर सौ का नोट वापस लेकर लौट गया. आज कल चिल्हर सिक्के या एक रूपए और दो रूपए के नोट बाज़ार में मुश्किल से ही नज़र आते हैं .क्या वज़ह है ,कोई बताने वाला नहीं है.
सिक्के तो शायद सिक्के गलाने वालों के हाथों गायब हो रहे हैं,लेकिन एक और दो रूपए के नोट क्यों और कहाँ विलुप्त हो रहे हैं ? चिल्हर की समस्या के कारण दुकानदार अपने ग्राहक को चाकलेट या कोई माउथ-फ्रेशनर जैसी चीज थमाकर बीच का रास्ता निकालना चाहता है , लेकिन ग्राहक अगर वस्तु के रूप में किसी चीज की कीमत का भुगतान करना चाहे ,तो दुकानदार उसे लेने से इंकार कर देता है . यानी यह लेन-देन एकतरफा होता है . बाज़ार में चिल्हर की किल्लत से निजात पाने के लिए वस्तु-विनिमय की हजारों वर्ष पुरानी और विलुप्त हो चुकी परिपाटी का नया जन्म एक नए रूप में हो चुका है. देखते हैं -आगे चलकर यह परिपाटी और कौन से नए आकार में हमारे सामने होगी और हम बाज़ार से सामान खरीदते हुए कैसे उसका सामना करेंगे ?
- स्वराज्य करुण
Monday, January 2, 2012
क्या उसके आने का कोई अर्थ है ?
क्या नए साल में डीजल-पेट्रोल ,आटे-दाल का बाज़ार भाव कुछ कम होगा ? क्या मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्चा कम होगा ? क्या दवाइयों की कीमतें घटेंगी ? क्या अस्पतालों में गम्भीर बीमारियों के इलाज के खर्च में और डाक्टरों की फीस में कोई कमी आएगी ? क्या परिवार के लिए गुज़ारे लायक मकान सस्ते में खरीदे जा सकेंगे ? क्या देश और दुनिया के करोड़ों बेरोजगारों को इस नए साल में कोई नौकरी मिलेगी ? कोई रोजगार मिलेगा ?
क्या पर्यावरण की रक्षा के लिए हरे-भरे जंगलों को बचाया जा सकेगा ? क्या इस नए वर्ष में किसानों के स्वाभिमान की रक्षा के लिए खेती को भी उद्योग का दर्जा मिल पाएगा ? क्या दुनिया के विभिन्न देशों के बीच तनातनी खत्म होगी ? क्या रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के कलंक से समाज को मुक्ति मिल सकेगी ? क्या कृष्ण-कन्हैया के देश हमारे भारत में शराब के बदले दूध की नदियाँ बहेंगी ? क्या मिलावटखोरों और मुनाफ़ाखोरों का साम्राज्य खत्म होगा ? क्या इस नए साल में सरकारी और गैर सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन में ,मालिक और मजदूर की कमाई में ज़मीन-आसमान का अमानवीय फर्क खत्म हो पाएगा ? क्या परिश्रम और योग्यता का कहीं कोई सम्मान होगा ? क्या विदेशी बैंकों में जमा देशी डकैतों की अरबों-खरबों रूपयों की काली कमाई देश में वापस लायी जा सकेगी और उसे देश की तरक्की के कामों में लगाया जा सकेगा ?
अगर यह सब हो पाए ,तब तो साल २०१२ के आने का कोई मतलब है वरना २०११ में ही क्या खराबी थी ? यह सब तो कल यानी २०११ में भी था जैसे -तैसे इन सबको हम झेल ही रहे थे ! वर्ष २०१२ अगर २०११ से कुछ अलग दिखे तब तो उसके आने का कोई अर्थ है , वरना उसका आना व्यर्थ है. मेरे ख़याल से अगर ये तमाम सवाल वर्ष २०११ में भी बिना जवाब के रह गए थे , जिंदगी फिर भी चल रही थी किसी तरह, इसलिए शायद वही ठीक था हमारे लिए .लेकिन भाई लोगों ने २०११ को नौ दो ग्यारह होने के लिए मजबूर कर दिया . --- स्वराज्य करुण
Saturday, December 31, 2011
(ग़ज़ल ) राम का हनुमान अब रावण हो गया !
खामोश अचानक वातावरण हो गया
भरी सभा द्रौपदी का चीरहरण हो गया !
लुटेरों की बस्ती में चीखते रह जाओगे ,
... खुले आम सपनों का अपहरण हो गया !
... खुले आम सपनों का अपहरण हो गया !
कौन किसे बचाने यहाँ आगे आएगा ,
छुपे हुए चेहरों का अनावरण हो गया !
छुपे हुए चेहरों का अनावरण हो गया !
कौन जाए खोजने सत्य की सीता को ,
राम का हनुमान अब रावण हो गया !
राम का हनुमान अब रावण हो गया !
चरण-धूलि कौन ले अब किसी कृष्ण की
हर कदम कंस का आचरण हो गया !
हर कदम कंस का आचरण हो गया !
रात-दिन,साल सब इस तरह बीत गए ,
वक्त आज बेरहम संस्मरण हो गया !
वक्त आज बेरहम संस्मरण हो गया !
--- स्वराज्य करुण
Thursday, December 22, 2011
सावधान ! हिन्दी पर हुआ बेशर्मों का हमला !
हैं कितने खुश हिन्दी के हत्यारों को देखिये
लगा रहे जो 'हिंग्लिश ' के नारों को देखिये !
खा कर हिंद का दाना ,गाते हैं अंग्रेजी गाना
खुले आम नाच रहे इन गद्दारों को देखिये !
बेशर्मों ने हिन्दी पर इस बार बड़ी बेरहमी से हमला किया है. हमें सावधान और सचेत होकर उनका मुकाबला करना होगा .दिल्ली की अंग्रेजी शीर्षक वाली एक पत्रिका ने अपने २८ दिसम्बर २०११ के हिन्दी संस्करण में 'हिंग्लिश' यानी कथित अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी की तरफदारी करते हुए प्रकाशित आवरण कथा में बड़ी बेशर्मी से ऐलान कर दिया है कि सरकारी हिन्दी का ज़नाजा उठ गया है .इसके साथ ही नीचे और भी बेशर्मी से नारा लिखा गया है-इंग्लिश हिन्दी जिंदाबाद .इतने पर भी जब जी नहीं भरा तो इसने आवरण कथा का शीर्षक दे दिया -वाह ! हिंग्लिश बोलिए ! नरेंद्र सैनी की आवरण कथा के इस वाक्य पर भी जरा गौर करें-- 'देश के युवाओं के बीच खासी लोकप्रिय हो रही भाषा को केन्द्र सरकार ने भी अपनाया ' यहाँ कथित रूप से इस लोकप्रिय भाषा का आशय हिन्दी और अंग्रेजी की बेमेल और बेस्वाद खिचड़ी यानी 'हिंग्लिश' से है. ज़रा सोचिये क्या वाकई यह तथा कथित 'हिंग्लिश' भारत के युवाओं में लोकप्रिय हो रही है ? इसके बावजूद इस वाक्य में ऐसा लिखना और छापना देश के युवाओं को भाषा के नाम पर गुमराह करने की कोशिश और साजिश नहीं, तो और क्या है ? पत्रिका के इसी अंक में 'हिन्दी मरेगी नहीं,बढ़ेगी ' शीर्षक से मनीषा पाण्डेय ने अपने आलेख में फरमाया है- ''हिंग्लिश को लेकर साहित्यिक गलियारों में स्वीकृति के स्वर मज़बूत होने लगे हैं ''.ऐसा लिख कर क्या हिन्दी साहित्य और हिन्दी के साहित्यकारों को अपमानित नहीं किया जा रहा है ? क्या हमारे हिन्दी लेखकों को चुनौती नहीं दी जा रही है ?
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान बिनु मिटे न हिय को शूल !
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - '' हिन्दी ही भारत की राष्ट्र भाषा हो सकती है,अमर शहीद भगत सिंह सिंह का भी कहना था -'' हिन्दी में राष्ट्र भाषा होने की सारी काबिलियत है .जबकि प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' ने देशवासियों को सतर्क करते हुए लिखा था - ''हिन्दी पर अनेक दिशाओं से कुठाराघात की तैयारी है ,ताकि उसकी अटूट शक्ति को कमज़ोर किया जा सके'' .
भाषा चाहे देशी हो ,या विदेशी , हर भाषा की अपनी खूबियाँ होती हैं . किसी भी भाषा से , चाहे वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, व्यक्तिगत बैर भाव नहीं होना चाहिए ,लेकिन अगर कोई भाषा किसी देश की संस्कृति को और उसके राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही नष्ट करने की कोशिश में जुट जाए , तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा . अंग्रेजी के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. क्या हम इतनी जल्दी भूल गए कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करने के लिए लाखों हिंदुस्तानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी ,जेल की यातनाएं झेलीं ,तब कहीं करीब चौंसठ साल पहले १५ अगस्त १९४७ को बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों को यहाँ से भगाया जा सका ? भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए आज ज़रूरत इस बात की है कि हम हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के समग्र विकास के लिए चिन्तन करें और इस दिशा में काम करें , भारतीय भाषाओं में भरपूर साहित्य सृजन हो , हर भारतीय अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के बजाय अपनी भाषा के स्कूलों में दाखिला दिलवाए .
मुझे लगता है कि आज एक बार फिर इंग्लिस्तान से एक नहीं ,बल्कि हजारों बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी के नए अवतार के रूप में 'हिंग्लिश ' भाषा के साथ भारत को गुलाम बनाने के लिए आ रही हैं , और हमारे ही देश के छिपे हुए नहीं , बल्कि खुले आम घूमते कुछ गद्दार किस्म के लोग उनके क़दमों में बिछ कर और अंग्रेजी की हिमायत में पूंछ हिलाकर उनका स्वागत कर रहे हैं .हिन्दुस्तान के ऐसे दुश्मनों और हिन्दी भाषा पर प्राणघातक हमला करने और उसकी हत्या की कोशिश करने वालों से हमें सावधान रहना होगा. . -- ----स्वराज्य करुण
राष्ट्र भाषा हिन्दी को एक मरणासन्न भाषा बताने का दुस्साहस करते हुए संतोष कुमार का एक लेख भी इस पत्रिका में 'सरकारी हिन्दी की अंतिम हिचकियाँ 'शीर्षक से छपा है,जिसमे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से सम्बन्धित राज भाषा विभाग के २६ सितम्बर २०११ के उस परिपत्र की छायाप्रति भी छापी गयी है,जिसमें सरकारी काम-काज के पत्रों में सरल हिन्दी के नाम पर अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी के इस्तेमाल की सलाह दी गयी है. यह सरकारी परिपत्र भी हास्यास्पद है ,जिसमें काम काजी हिन्दी लिखने के लिए अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए एक उदाहरण भी दिया गया है ,जो इस प्रकार है-
'कॉलेज में एक रि-फारेस्टेशन अभियान है, जो रेगुलर चलता रहता है .इसका इस साल से एक और प्रोग्राम शुरू हुआ है, जिसमें हर स्टूडेंट एक पेड़ लगाएगा '
अब इन्हें कौन समझाए कि 'रि-फारेस्टेशन' के बजाय अगर 'वृक्षारोपण' , 'रेगुलर' के बजाय 'नियमित' 'प्रोग्राम' के बजाय 'कार्यक्रम' और 'स्टूडेंट'' के बजाय 'विद्यार्थी ' अथवा 'छात्र' कहा और लिखा जाए तो भी हिन्दी का सामान्य ज्ञान रखने वाले लोग हिन्दी के इन शब्दों को आसानी से समझ जाएंगे, लेकिन लगता है कि दिल्ली के गलियारों में घूमने और पलने-बढ़ने वालों को हिन्दी भाषा अब किसी दुश्मन की तरह लगने लगी है.तभी तो उन्होंने ऐसा फरमान जारी किया है. तभी तो अंग्रेजी मानसिकता वाले हमारे देशी अंग्रेजों का दिल खूब उछल-कूद मचाए हुए है .यही कारण है कि अंग्रेजी शीर्षक वाली पत्रिका के हिन्दी संस्करण में भी इतनी ज़ोरदार खुशी का इज़हार किया जा रहा है. भारत को भाषाई रूप से पहले अंग्रेजी का और आगे चलकर अंग्रेजों का गुलाम बनाने की साजिश भी इसमें साफ़ झलकती है. मिसाल के तौर पर इस पत्रिका में नरेंद्र सैनी की आवरण कथा के शुरुआती वाक्यों को देखिये-- ''यह पार्टी टाइम है. जश्न मनाइए कि भारत सरकार ने आपके आगे हार मान ली है. पिछले ६० साल से सरकार आप पर ऐसी हिन्दी थोपने की कोशिश कर रही थी ,जिसे आप बोलते तक नहीं . ....सरकारी प्रोटीन और विटामिन खिलाने से हिन्दी नाम का बच्चा जवान नहीं हो सकता था .अब केन्द्र सरकार ने कहा है कि हिन्दी को सरल बनाना समय की मांग है और इसलिए 'हिंग्लिश 'भी चलाओ . '' हैरत की बात यह है कि राजभाषा विभाग के जिस परिपत्र की फोटोकापी इसी पत्रिका के पृष्ठ १८ पर 'सरकारी हिन्दी की अंतिम हिचकियाँ ;शीर्षक से संतोष कुमार के लेख के साथ छपी है,उसमें कहीं भी हिंग्लिश' शब्द का उल्लेख नहीं है .इसके बावजूद सैनी ने अपने आलेख में लिख दिया है कि सरकार ने 'हिंग्लिश' भी चलाने के लिए कहा है. यह ज़रूर है कि परिपत्र में सरकारी काम-काज में सरल और सहज हिन्दी के प्रयोग के लिए नीति- निर्देश दिए गए हैं पर 'हिंग्लिश ' का कोई ज़िक्र नहीं है.हाँ, कठिन हिन्दी के बदले अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की गैरज़रूरी सलाह ज़रूर दी गयी है , जिससे मेरे जैसे आम नागरिक सहमत नहीं हो सकते .
भारत २८ प्रदेशों और ७ केन्द्र शासित राज्यों का एक आज़ाद मुल्क है ,जहां हर प्रदेश ,हर राज्य की अपनी अपनी लोकप्रिय भाषाएँ हैं,जो अपने आप में काफी समृद्ध हैं . हिन्दी इन सभी प्रादेशिक भाषाओं को परस्पर जोड़ने का काम करती है .हिन्दी को भारतीय संविधान में राज भाषा का दर्जा प्राप्त है . हिन्दी भारत की एक सम्पन्न भाषा है . उसका शब्द भंडार बहुत विशाल है . इसलिए उसे सरकारी पत्र व्यवहार के लिए जब तक कठिन हिन्दी शब्दों के आसान विकल्प उपलब्ध हैं ,तब तक अंग्रेजी से उधारी में शब्द मांगने की ज़रूरत नहीं है. अगर सरकारी काम-काज में, शासकीय पत्राचार में हिन्दी को आसान बनाने के लिए अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की सलाह दी जा सकती है,तो सरकारी दफ्तरों को इसके लिए अन्य भारतीय भाषाओं से शब्दों चयन के लिए क्यों नहीं कहा जा सकता ? इसमें दो राय नहीं कि आज सरकारी हिन्दी के सरलीकरण की ज़रूरत है, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा का ही दबदबा है ,जबकि निचली अदालतों में बहुत कठिन उर्दू मिश्रित हिन्दी का प्रचलन है. राज भाषा विभाग को सामान्य प्रशासनिक दफ्तरों के साथ-साथ सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया में भी राज भाषा के रूप में हिन्दी के प्रचलन को बढ़ावा देना चाहिए. इसके लिए अगर हिन्दी में सरल शब्द नहीं मिल रहे हों ,तो हम अपने ही देश की प्रादेशिक भाषाओं से शब्द ग्रहण कर सकते हैं. इससे जहां हिन्दी और भी ज्यादा धनवान होगी, वहीं राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा मिलेगा. हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के लिए वर्षों पहले मील का पत्थर रखने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कभी लिखा था-निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान बिनु मिटे न हिय को शूल !
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - '' हिन्दी ही भारत की राष्ट्र भाषा हो सकती है,अमर शहीद भगत सिंह सिंह का भी कहना था -'' हिन्दी में राष्ट्र भाषा होने की सारी काबिलियत है .जबकि प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' ने देशवासियों को सतर्क करते हुए लिखा था - ''हिन्दी पर अनेक दिशाओं से कुठाराघात की तैयारी है ,ताकि उसकी अटूट शक्ति को कमज़ोर किया जा सके'' .
भाषा चाहे देशी हो ,या विदेशी , हर भाषा की अपनी खूबियाँ होती हैं . किसी भी भाषा से , चाहे वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, व्यक्तिगत बैर भाव नहीं होना चाहिए ,लेकिन अगर कोई भाषा किसी देश की संस्कृति को और उसके राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही नष्ट करने की कोशिश में जुट जाए , तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा . अंग्रेजी के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. क्या हम इतनी जल्दी भूल गए कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करने के लिए लाखों हिंदुस्तानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी ,जेल की यातनाएं झेलीं ,तब कहीं करीब चौंसठ साल पहले १५ अगस्त १९४७ को बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों को यहाँ से भगाया जा सका ? भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए आज ज़रूरत इस बात की है कि हम हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के समग्र विकास के लिए चिन्तन करें और इस दिशा में काम करें , भारतीय भाषाओं में भरपूर साहित्य सृजन हो , हर भारतीय अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के बजाय अपनी भाषा के स्कूलों में दाखिला दिलवाए .
मुझे लगता है कि आज एक बार फिर इंग्लिस्तान से एक नहीं ,बल्कि हजारों बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी के नए अवतार के रूप में 'हिंग्लिश ' भाषा के साथ भारत को गुलाम बनाने के लिए आ रही हैं , और हमारे ही देश के छिपे हुए नहीं , बल्कि खुले आम घूमते कुछ गद्दार किस्म के लोग उनके क़दमों में बिछ कर और अंग्रेजी की हिमायत में पूंछ हिलाकर उनका स्वागत कर रहे हैं .हिन्दुस्तान के ऐसे दुश्मनों और हिन्दी भाषा पर प्राणघातक हमला करने और उसकी हत्या की कोशिश करने वालों से हमें सावधान रहना होगा. . -- ----स्वराज्य करुण
Wednesday, December 21, 2011
क्या पढ़ना है तय करेगी अदालत ?
क्या आज की पढ़ी-लिखी जनता इतनी नासमझ है कि उसे क्या पढ़ना है और क्या नहीं पढ़ना है, यह किसी अदालत में तय होगा ? दुनिया भर में साक्षरता और शिक्षा तेजी से बढ़ती जा रही है. टेलीफोन , रेडियो, सिनेमा और टेलीविजन जैसे आधुनिक सूचना माध्यमों के विस्तार के बाद अब कम्प्यूटर उपकरणों के साथ मोबाइल फोन और इंटरनेट जैसे अत्याधुनिक संचार माध्यम भी आम जनता के लिए सर्व-सुलभ है . तब वक्त के इस नए दौर में क्या किसी किताब पर प्रतिबंध लगा देने से भर से उस किताब में व्यक्त विचार आम जनता तक नहीं पहुँच पाएंगे ?
विचार भले ही किसी इंसान के मस्तिष्क में जन्म लेते हों , लेकिन समाज में उनका फैलाव हवा की निराकार तरंगों जैसा होता है. हवा को हम नहीं देख पाते केवल उसे अनुभव कर सकते हैं ,ठीक उसी तरह मानव मस्तिष्क से उपजे किसी भी विचार को शब्दों में पढ़कर या सुनकर सिर्फ महसूस किया जा सकता है . यह अलग बात है कि उसे कोई किस रूप में ग्रहण करता है . लेकिन प्रतिबंध लगा देने से कहीं कोई वैचारिक प्रवाह न कभी रुक पाया है और न कभी रुक पाएगा . सैकड़ों-हजारों साल पहले जब ऐसे आधुनिक संचार उपकरण नहीं थे , उस जमाने में भी कई ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना हुई और वे तत्कालीन समाज में विभिन्न माध्यमों से जन-जन तक पहुँची.भारत में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का 'रामचरित मानस ' और संत कबीर के दोहे इसकी जीती-जागती मिसाल हैं, जो भारत की हिन्दी पट्टी में आज भी जन-जन की जुबान पर हैं .
आज दुनिया के सभी देशों में साक्षरता और शिक्षा का काफी प्रसार हो चुका है . पढे-लिखे लोगों की संख्या भी पहले के मुकाबले काफी ज्यादा है .हर पढ़े-लिखे इंसान में अच्छे -बुरे को पहचानने की क्षमता होती है. उसे क्या पढ़ना और क्या नहीं , इसका फैसला भी वह अपने विवेक से कर सकता है. हम भारतीयों के महान सांस्कृतिक ग्रन्थ 'भगवत गीता ' के अनुवाद पर आधारित एक पुस्तक पर रूस में प्रतिबंध लगाने की मांग पर अदालती विवाद वास्तव में आश्चर्यजनक और.दुर्भाग्यजनक है. इस्कॉन के संस्थापक ए. सी. भक्तिवेदांत द्वारा लिखित 'भगवत गीता यथा रूप' के रूसी अनुवाद पर प्रतिबंध के लिए वहाँ साइबेरिया के तोमस्क शहर की अदालत में विगत जून माह से यह मामला चल रहा है .खबर आयी है कि अदालत ने फैसला फिलहाल २८ दिसम्बर तक स्थगित रखा है., लेकिन इस मामले से यह सवाल भी उठने लगा है कि अगर पुस्तक पर पाबंदी लग भी जाए तो क्या उसका महत्व कम हो जाएगा ? ए. सी भक्तिवेदान्त और उनके इस्कॉन के लाखों अनुयायी भारत में भी हैं जो इस पुस्तक को अगर चाहें तो इंटरनेट पर भी जारी कर सकते हैं ,फिर हजारों किलोमीटर दूर देश की कोई अदालत उस पर पाबंदी लगाती रहे ,क्या फर्क पड़ता है ? बताया जाता है कि रूस में तो 'गीता' का पहला अनुवाद लगभग ९५ साल पहले वर्ष १९१६ में आ गया था ,जिसका अनुवाद अन्ना कर्म्न्स्काया ने किया था .जवाहर लाल नेहरु पुरस्कार से सम्मानित लेखक सिम्सोबर्ग ने भी वर्ष १९७८ में 'गीता' का अनुवाद किया था. अब इतने लम्बे अंतराल के बाद ए. सी. भक्तिवेदांत की पुस्तक के बहाने क्या ' भगवत गीता' की मूल पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया जाएगा ,या उसके अनुवाद को, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है . अखबारों में कहीं यह छप रहा है कि रूस में 'गीता' पर पाबंदी लगाने की मांग हो रही है ,तो कहीं बताया जा रहा कि ए. सी भक्तिवेदांत के अनुवाद पर पाबंदी के लिए अदालत में याचिका लगी है . बहरहाल विवाद अभी थमा नहीं है ,लेकिन इससे 'श्रीमद भगवत गीता' की रचना -भूमि ' यानी हमारे भारत में जनता का उद्वेलित होना बहुत स्वाभाविक है. भारतीय संसद में भी इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी है .विदेश मंत्री एस. एम्. कृष्णा ने रूस में चल रहे इस विवाद को घटिया हरकत बताया है ,वहीं भारत स्थित रूस के राजदूत एलेक्जेंडर एम्.कदाकिन ने भी इस पर अपने देश की सरकार की ओर से अफ़सोस जताते हुए कहा है कि यह घटना साइबेरिया के उस विश्वविद्यालय में हुई .जो अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए पहचाना जाता है. रूसी राजदूत ने तो यह भी कहा है कि एक पवित्र ग्रन्थ को लेकर अदालत में मुकदमा चलाना उचित नहीं है. उनका यह भी कहना है कि 'श्रीमद भगवत गीता ' भारत सहित पूरी दुनिया के लिए ज्ञान का स्रोत है .उसे लेकर विवाद खड़ा करना ठीक नहीं है . यह अच्छी बात है कि इस मामले में रूसी सरकार का नज़रिया भी भारत के पक्ष में है .
सच तो यह है कि दुनिया के सभी धर्म ग्रन्थ इंसान को इंसानियत की राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं . हमें सभी धर्मों और सभी धार्मिक ग्रंथों का आदर करना चाहिए .आज भगवत गीता पर रूस में कानूनी विवाद शुरू हुआ है, कल अगर रामायण, महाभारत , बाइबल .कुरआन या अन्य किसी प्राचीन धार्मिक-सांस्कृतिक पुस्तक पर पाबंदी की मांग होने लगे और कोई सिरफिरा दुनिया की किसी अदालत में याचिका दायर कर दे , तब क्या होगा ? सोचकर दहशत होती है . - स्वराज्य करुण
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