Wednesday, October 5, 2022

(पुस्तक -चर्चा ) अग्नि -स्नान : आत्मग्लानि से पीड़ित रावण की आत्मकथा

                                            (आलेख : स्वराज्य करुण )

भारत में और विशेष रूप से उत्तर भारत में विजयादशमी का  दिन रावण पर श्रीराम के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है। लंकापति रावण भले ही प्रकाण्ड विद्वान रहा हो ,लेकिन अपनी अहंकारी मनोवृत्ति  और  सीताजी के अपहरण के जघन्य अपराध की वजह से उसका और उसके वैभवशाली साम्राज्य का पतन हो गया।  विजयादशमी का एक महान संदेश यह भी है कि व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए। बहरहाल , सभी मित्रों को विजयादशमी की हार्दिक शुभेच्छाओं सहित  आज मैं यहाँ रावण की ज़िन्दगी पर केन्द्रित उपन्यास 'अग्निस्नान' की चर्चा कर रहा हूँ। मेरे विचार से यह उपन्यास  रावण के अपराधबोध के साथ -साथ उसकी आत्मग्लानि की आत्मकथा भी है। 

   कालजयी महाकाव्य 'रामायण ' के श्रीराम भारतीय समाज और संस्कृति के रोम -रोम  में रमे हुए हैं। लोक आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में भारत की धरती के कण -कण में उनकी महिमा व्याप्त है। वह भारतीय संस्कृति के लोक नायक हैं। आशा और विश्वास के आलोक पुंज हैं।  लेकिन जिस प्रकार दिन और रात हमारी पृथ्वी और प्रकृति के दो अनिवार्य पहलू हैं ,उसी तरह किसी भी ऐतिहासिक और पौराणिक घटना पर आधारित कथाओं और महाकाव्यों में नायकों  और खलनायकों  का होना भी अनिवार्य है। नायक अच्छाई का और खलनायक बुराई का प्रतीक होते हैं और दोनों के बीच संघर्ष में नायक विजयी होता है।  खलनायक की पराजय मनुष्य को हमेशा सदमार्ग पर चलने का संदेश दे जाती है।महर्षि वाल्मीकि रचित संस्कृत महाकाव्य 'रामायण' और उस पर आधारित महाकवि तुलसीदास के अवधी महाकाव्य 'रामचरितमानस'  का भी यही संदेश है। इन महाकाव्यों के पौराणिक प्रसंगों पर इस आधुनिक युग मे  कई नाटक भी  लिखे गए हैं । रामलीलाओं का नाट्य  मंचन तो पता नहीं ,कब से होता चला आ रहा है !  फिल्में भी बनी हैं , टेलीविजन सीरियल भी आए हैं और उपन्यास भी लिखे गए हैं। 

                                                       


लेकिन हिन्दी में 'रामायण' के  खलनायक 'रावण ' पर केंद्रित उपन्यासों में  सिर्फ आचार्य चतुरसेन के "वयं रक्षामः' की याद आती है। निश्चित रूप से वह उनका  एक अत्यंत महत्वपूर्ण और कालजयी उपन्यास है।   इसी कड़ी में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार शिवशंकर पटनायक का  उपन्यास 'अग्नि स्नान'  भी है , जो  'वयम रक्षामः 'की तुलना में अब तक कम प्रचारित है। लेकिन प्रवाहपूर्ण भाषा में पौराणिक घटनाओं का रोचक और रोमांचक वर्णन अग्नि -स्नान ' के पाठकों को भी अंत तक अपने मोहपाश में बांधकर रखता है।  उपन्यास का मूल संदेश यही है कि व्यक्ति कितना ही विद्वान क्यों न हो ,शारीरिक ,सामाजिक ,आर्थिक,राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से कितना ही  बलशाली क्यों न हो , सिर्फ़ एक चारित्रिक दुर्बलता उसे पतन के गर्त में ढकेल देती है । 

         रावण  निश्चित रूप से महाप्रतापी था।  वेदों और पुराणों का महापंडित और भाष्यकार था । रक्ष -संस्कृति का प्रवर्तक था । उसने स्वयं वेदों की अनेक ऋचाओं के साथ  महातांडव मंत्र की भी रचना की थी। वह परम शिवभक्त था। उसकी कठिन तपस्या से प्रभावित होकर भगवान शिव ने उसे नाभिकुण्ड में अमृत होने का वरदान दिया था ।  उसने अपने  तत्कालीन समाज में अनार्यो को एकता के सूत्र में बांधने के लिए  रक्ष -संस्कृति की स्थापना की थी ।लेकिन काम -वासना के उसके चारित्रिक दुर्गुण ने , सत्ता के अहंकार ने , मायावती , वेदवती , रंभा और सीता जैसी नारियों के अपमान ने उसे युद्ध के मैदान में राम के अग्नि बाणों से शर्मनाक पराजय के साथ अग्नि -स्नान के लिए बाध्य कर दिया।

       आत्मग्लानि की आत्मकथा 

रावण की हार तो हुई ,लेकिन पत्नी मंदोदरी और भ्राता विभीषण को छोड़कर उसके समूचे वंश का नाश हो गया।  उपन्यास 'अग्नि -स्नान ' रावण के अपराध बोध और पश्चाताप की महागाथा है। उसकी आत्मग्लानि की आत्मकथा है। हालांकि इसमें उसके व्यक्तित्व की विशेषताओं को भी  उभारा गया है। 


                                                               


                                                   उपन्यासकार शिवशंकर पटनायक 

श्रीराम के हॄदय की विशालता 

   वहीं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के हॄदय की विशालता को भी प्रेरणास्पद ढंग से उपन्यास में  रेखांकित किया गया है। रणभूमि में रावण अग्नि बाणों से आहत होकर मृत्यु शैया पर है। राम अपने भ्राता लक्ष्मण को उससे राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजते हैं। वह कहते हैं -"महाप्रतापी ,महापंडित व महान शिव भक्त लंकेश को मैंने  पुनः प्राण तथा चेतना इसलिए प्रदान की है,ताकि अनुज लक्ष्मण लंकाधिपति से सम्यक ज्ञान ,विशेषकर राजनीति से संबंधित शिक्षा प्राप्त कर सके। " 

 श्रीराम के व्यक्तित्व से प्रभावित रावण     

   राम के व्यक्तित्व से रावण भी प्रभावित हो गया था। लक्ष्मण को शिक्षा प्रदान करने से पहले रावण उनसे कहता है -- "अल्पायु में ही राघवेंद्र श्री राम ने साधन -विहीन होकर भी जिस कला ,चातुर्य तथा व्यवहार बल से अबोध ,अज्ञानी वानर ,भालुओं को संगठित कर अपराजेय माने जाने वाले लंकाधिपति तथा समस्त समय -वीर राक्षसों को पराजित कर दिया ,उनका व्यक्तित्व ही राजनीति का सार है। भला फिर किसी राजनैतिक ज्ञान की महत्ता कहाँ रह जाती है ?" 

लक्ष्मण को रावण की शिक्षा आज भी प्रेरणादायक

इसके बावजूद  रावण जिस तरह लक्ष्मण को अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ राजनीति की शिक्षा देते हैं ,वह आज के समय में भी प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राजनीतिज्ञ के लिए जानने ,समझने और प्रेरणा ग्रहण करने लायक है। वह कहता है --"राजा को अनासक्त भाव से मनोविकारों यथा -काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद तथा मत्सर पर विजय प्राप्त करनी चाहिए ,क्योंकि ये राजा को सार्थक उत्थान से रोकते हैं।राजा को द्यूत ,मदिरा और स्त्री-प्रसंग से भी अनिवार्य रूप से बचना चाहिए ,क्योंकि ये विवेक को नष्ट करते हैं। अविवेकी राजा में उत्तम निर्णय लेने का गुण नहीं होता ,तथा वह आगत परिणामों को भी नज़र -अंदाज़ कर जाता है,जिससे वह नष्ट तो होता ही है ,उसके कारण राज्य की प्रजा का जीवन भी नारकीय हो जाता है।" मृत्यु शैया पर पड़े रावण की आँखों में उसके वैभवशाली और शक्तिशाली राजकीय जीवन की प्रत्येक घटना किसी चलचित्र की तरह तैर रही है। वह स्वयं इनका वर्णन कर रहा है। इसमें  इस महाप्रतापी के  पश्चाताप की और आत्मग्लानि की  अनुगूंज भी है। उसे अपने जीवन की प्रत्येक घटना फ्लैशबैक में याद आ रही है। अपने पितामह ऋषि पुलस्त्य पत्नी मंदोदरी और भाई विभीषण  की नसीहतें भी उसे पतन के मार्ग पर चलने से रोक नहीं पायी।

   रक्ष -संस्कृति का नष्ट होना 

  उसने जिस अच्छे  उद्देश्य से  रक्ष -संस्कृति की स्थापना की थी ,वह उसके ही अविवेकपूर्ण  कार्यो की वजह से नष्ट  होती चली गयी। उसने ताड़का को नैमिषारण्य और वज्रमणि (सूर्पनखा)को दंडकारण्य का प्रभार सौंपा था। ताड़का और वज्र मणि के सैनिक रक्ष संस्कृति के विपरीत आचरण करते हैं। एक स्थान पर रावण कहता है --"ताड़का ,सुबाहु, मारीच तथा राक्षस -सेना ने मेरे द्वारा स्थापित संस्कृति के विरुद्ध आचरण किया था ,जबकि यज्ञ में विघ्न उपस्थित करना ,ऋषियों को अपमानित करना ,उनके आश्रमों को क्षति पहुँचाना तथा निरंकुश व मर्यादा विहीन आचरण करना वर्जित था। रावण आगे कहता है -- वास्तव में नियंत्रण के अभाव में राक्षसों की संख्या में तो कल्पनातीत वृद्धि हुई थी ,किंतु संस्कृति का भाव उनमें लेशमात्र भी नहीं था।मुझे यह स्वीकारने में संकोच नहीं है कि उनका आचरण मात्र धर्म -विपरीत ही नहीं ,अत्यंत निम्न कोटि का था।वे दुर्दांत पशु की तरह आचरण कर रहे थे।सभी आत्म केन्द्रित व पर-पीड़क हो गए थे। उनमें लंकाधिपति रावण के प्रति गर्व तो था ,किन्तु भय नहीं था। मुझे निश्चय ही अपनी संस्कृति से अनुराग था। मैंने संस्कृति के उन्नयन के लिए जिस साधना ,त्याग व युद्धबल का प्रयोग किया था ,वे सभी मुझे निरर्थक प्रतीत होने लगे थे। किसी भी संस्कृति में दया ,क्षमा ,त्याग ,संवेदनशीलता,जीवन -मूल्यों के प्रति आस्था ,धर्म ,चिंतन-दर्शन आदि तो आवश्यक हैं,साथ ही संस्कृति को अहिंसक भाव से भी युक्त होना चाहिए।किन्तु मैं जो अब राक्षसों के कृत्यों को देख रहा था ,उनकी संस्कृति में तो केवल बर्बरता,पर -पीड़ा ,हिंसा तथा अधार्मिकता की ही प्रबलता थी। मैंने शोषण ,अत्याचार तथा उत्पीड़न के विरुद्ध इस संस्कृति की कामना की थी ,किन्तु देवों अथवा आर्यों से कहीं अधिक तो राक्षस ही शोषण ,उत्पीड़न तथा अत्याचार को बढ़ावा दे ही नहीं रहे थे ,अपितु मूर्तरूप में उसे क्रियान्वित भी कर रहे थे।स्थिति तो यह थी कि जितना सत्ता -मद मुझे नहीं था ,उससे कहीं अधिक उनमें व्याप्त हो गया था । स्पष्ट प्रतीत होने लगा था कि राक्षस का अर्थ ही आतंक ,अत्याचार और बलात्कार था।" 

अविवेकपूर्ण आचरण से पतन की ओर 

रावण के इस कथन से  हालांकि यह प्रकट होता है कि रक्ष -संस्कृति को लेकर उसका  चिंतन  मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण था , लेकिन वह स्वयं अविवेकपूर्ण आचरण की वजह से पतन की ओर अग्रसर हो रहा था।  उसके विद्वतापूर्ण व्यक्तित्व का एक आदर्श पहलू यह भी था कि लंका विजय के लिए प्रस्थान के पहले जब  श्रीराम समुद्र के किनारे भगवान शिव की प्राण प्रतिष्ठा करना चाह रहे थे और उन्हें इस कार्य के लिए ब्राम्हण पुरोहित नहीं मिल रहा था ,तब इस बारे में  सुनकर रावण ने स्वप्रेरणा से यह कार्य करने निर्णय लिया और एक पुरोहित का रूप धारण कर , राम की सेना के बीच आया और उनके हाथों यज्ञ सम्पन्न करवाकर शिव लिंग की स्थापना की। यह स्थान रामेश्वरम के नाम से प्रसिद्ध है।

 सदगुणों  के बावज़ूद विरोधाभासी चरित्र 

 इस प्रकार के अनेक सद्गुणों  के बावज़ूद रावण के चरित्र में भयानक  विरोधाभास था। उसने असुराधिपति तिमिधवज की पत्नी मायावती से छलपूर्वक बलात्कार किया । जो उसकी (रावण की )पत्नी मंदोदरी की बड़ी बहन थी।  बलात्कार के मानसिक आघात से पीड़ित तो थी ही ,उसका पति तिमिधवज आर्यों और देवों की सेना से हुए  एक युद्ध में मारा भी गया था। इस  दोहरी मानसिक पीड़ा ने मायावती को सती के रूप में अग्नि-स्नान के लिए बाध्य कर दिया था। उसने अपने भाई कुबेर के पुत्र जल कुबेर की प्रेयसी रंभा से बलात्कार किया। ब्रम्हर्षि कुशध्वज की पुत्री वेद कन्या वेदवती से उसकी तपस्या के दौरान  बलात्कार का प्रयास किया ,जिसने अग्नि प्रज्ज्वलित कर अपनी रक्षा की और  धरती में समा गई। लेकिन उसने रावण को श्राप दिया कि वह अगले जन्म में विदेह जनक सूता के रूप में,अयोनिजा जानकी के रूप में जानी जाएगी और उसकी मृत्यु का कारण बनेगी। वही वेदवती राजा जनक की पुत्री सीता के रूप में स्वयंवर में भगवान श्रीराम को वरण करती है, जिसका अपहरण  रावण द्वारा छलपूर्वक किया जाता है और जिसकी खोज में राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ वानरों की सेना लेकर लंका की ओर प्रस्थान करते हैं। उपन्यास में भगवान श्रीराम द्वारा किष्किंधा नरेश वानर राज बाली की छलपूर्वक वध किये जाने की घटना का भी उल्लेख है।

    श्रीराम के समक्ष पश्चाताप

  इन समस्त घटनाओं का वर्णन मरणासन्न अवस्था मे रावण करता है।अंत मे वह युद्ध भूमि में ही भगवान श्रीराम के समक्ष पश्चाताप करते हुए अपने तमाम अपराधों को स्वीकारता है। वह कहता है -"तुमने अग्नि -बाण चलाकर मेरा सर्वस्व जला दिया।श्रीराम तुमने उचित किया।दसकंधर रावण की नियति यही है कि वह अग्नि -दग्ध होता रहे।आगत में जो नारी -अस्मिता को खंडित करने का प्रयास करेगा अथवा सामाजिक मूल्यों एवं मानवीय संवेदनाओं का हनन करने का घिनौना कृत्य करेगा,वह रावण की नियति को प्राप्त कर अग्नि -स्नान को बाध्य होगा।रावण ने भले ही गो -लोक प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है ,पर उसके कृत्य रावण को जीवित रखेंगे और समय स्वयमेव श्रीराम का रूप लेकर उसे अग्नि -स्नान कराता रहेगा। आगत के लिए यही सत्य , शाश्वत रूप में स्वीकार्य होगा ,क्योंकि रावण की नियति ही है अग्नि -स्नान ।"  रावण के प्रायश्चित से भरे इन वाक्यों के साथ ही 256 पृष्ठों के इस उपन्यास का समापन होता है।

शिवशंकर पटनायक : पौराणिक उपन्यासों के लेखक 

उपन्यासकार शिवशंकर पटनायक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। वह महासमुन्द जिले के तहसील मुख्यालय पिथौरा के रहने वाले हैं। विगत कुछ वर्षों में उनके अनेक कहानी संग्रह ,निबंध संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। इनमें  रामायण और महाभारत के पात्रों पर केन्द्रित उपन्यास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।  माता कौशल्या की आत्मकथा को उन्होंने 'कोशल नंदिनी ' के रूप में उपन्यास के सांचे में ढाला है तो 'आत्माहुति' केकैयी के जीवन पर आधारित है। वहीं ' भीष्म प्रश्नों की शरशैय्या पर' , 'कालजयी कर्ण'  और 'एकलव्य' महाभारत के इन चर्चित चरित्रों पर केन्द्रित हैं।  इन कृतियों ने यह साबित कर दिया है कि शिवशंकर पटनायक  पौराणिक उपन्यासों के भी  सिद्धहस्त लेखक हैं।   प्राचीन महाकाव्यों के पौराणिक चरित्रों पर अलग -अलग उपन्यास लिखना कोई मामूली  बात नहीं है। इसके लिए उनकी भावनाओं को ,उनकी संवेदनाओं को ,उनके भीतर की मानसिक उथल -पुथल को हृदय की गहराइयों से महसूस करने वाला लेखक ही इस  कठिन चुनौती को स्वीकार कर सकता है । पौराणिक घटनाओं के  तथ्यपूर्ण  वर्णन के लिए प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना पड़ता है ,जिन्हें कथोपकथन में और पात्रों के संवादों में अपनी कल्पनाशीलता के साथ सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने पर ही एक बेहतरीन उपन्यास की रचना होती है। इस नज़रिए से देखें तो अपने अनेक पौराणिक उपन्यासों की श्रृंखला में 'अग्नि -स्नान' शिवशंकर पटनायक का एक सफल और कालजयी उपन्यास है ।-- स्वराज्य करुण 

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