-- स्वराज करुण
काले ,घुंघराले बादलों
के बीच सूर्योदय और सूर्यास्त !
उनकी रिमझिम बरसती
जल बूंदों की सरसराहट से भरा
एक भीगा हुआ दिन !
जब दोपहर को भी लगता है जैसे
अभी तो सुबह के छह बजे हैं !
शहर की सीमेंट -कांक्रीट वाली
उबड़ -खाबड़ सड़कों से टकरा कर
टपकती ,उछलती बूंदें भी नहीं बुझा पातीं
धरती की प्यास !
सोख लेता है उन्हें
वन ,टू ,थ्री ,फोर बी.एच.के.वाला
पथरीला बेजान -सा जंगल ,
या फिर पी जाते हैं बहुमंजिले फ्लैट्स के
गगनचुंबी पहाड़ !
कभी बहुत ज़्यादा पड़ी बौछारें
तो निचली बस्तियों की
बजबजाती नालियों से सैलाब बनकर
ग़रीबों की झुग्गियों में
घुस जाती हैं आषाढ़ ,सावन और
भादो के काले ,घुंघराले बादलों की बूंदें
और कर देती हैं उनका जीना मुहाल !
झुग्गियाँ पीढ़ी -दर -पीढ़ी देख रही हैं -
इस तरह होती है शहर में बारिश
बहुत कुछ बदल गया देश में ,
लेकिन नहीं बदला तो
शहरों में होने वाली
बारिश का यह सालाना मंज़र !
---स्वराज करुण
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार ओंकार जी ।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 30 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद मीना जी ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार यशोदा जी ।
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