Sunday, September 15, 2019

(आलेख ) रंग क्षितिज पर स्वर्गीय सूरज 'राही '


         
(वर्ष 1980 का एक  संस्मरणात्मक आलेख : स्वराज करुण)

कला के उपवन में कुछ ऐसी भी कलियाँ होती हैं जो खिलने से पहले ही नियति के क्रूर हाथों द्वारा तोड़ ली जाती हैं ।कुछ ऐसी संभावनाएँ भी होती हैं जो समाज के लिए रोशनी की मीनार साबित हो सकती थीं ,पर समय के सागर में वे असमय ही विलीन हो जाती हैं। ऐसी ही महकती कलियों और संभावनाओं  में स्वर्गीय सूरज 'राही' भी शामिल किए जाएंगे ।
  आज से  लगभग एक दशक पूर्व यहाँ (पिथौरा में ) देहली नेशनल ड्रामा पार्टी का आगमन हुआ था ।इस सुप्रसिद्ध व्यावसायिक नाट्य संस्था के प्रमुख कलाकारों में सूरज ' राही' और उनके माता -पिता भी शामिल थे ।पिता श्री मोहम्मद यासीन और माता श्रीमती सरोजा देवी लगभग 20 वर्षों तक इस नाट्य संस्था से सम्बद्ध रहे ।दोनों ही कुशल रंगकर्मी हैं ।इस प्रकार सूरज ' राही ' (पारिवारिक नाम सैय्यद मंसूर अली ) की अभिनय कला     उनको पारिवारिक देन कही जा सकती है। इस ड्रामा पार्टी के सामाजिक नाटकों तथा फिल्मी नाट्य रूपांतरणों में अभिनय , गायन और निर्देशन में प्रमुख भूमिका सूरज राही की ही रहती थी । पार्टी द्वारा खेले गए हिन्दी व उर्दू  के कई सामाजिक ,धार्मिक तथा ऐतिहासिक नाटक आज भी यहाँ याद किए जाते हैं । कुछ दिनों बाद यह पार्टी तो अगले पड़ाव के लिए चल पड़ी लेकिन पिथौरा की मोहक देहाती आबोहवा ने इसके कुछ कलाकारों का मन मोह लिया और वे यहीं के निवासी बन गए । राही के माता -पिता भी सपरिवार यहाँ बस गए । पिता श्री यासीन सम्प्रति यहाँ के मौलवी हैं ।
     छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय नाचा मण्डलियों में मचेवा का नाचा भी एक है ।यहाँ बसने के बाद 'राही" शीघ्र ही इस नाचा से सम्बद्ध हो गए । एक मंजे हुए कलाकार की प्रतिभा और उनके अनुभव का लाभ लोक कलाकारों को मिला और मचेवा का नाचा प्रसिद्धि के शिखर की ओर बढ़ने लगा । नाचा में प्रचलित परम्परागत प्रहसनों को सूरज ने आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ा ।लोक नाटकों की परम्परागत धारा को उन्होंने एक नयी दिशा दी । उनके निर्देशन में सामाजिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं पर आधारित लोक नाटकों का प्रभावशाली मंचन किया जाने लगा ।वे स्वयं नाटकों के प्लॉट तैयार करते और गीत और संगीत का माधुर्य घोलकर दर्शकों का मन मोह लेते। उनके द्वारा तैयार छत्तीसगढ़ी नाटकों में 'छोटे -बड़े मंडल" जहाँ समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं पर प्रहार करता है , वहीं ' कोर्ट मैरिज ' विवाह की रूढ़ मान्यताओं पर वार करने से नहीं चूकता ।लोक नाटक 'किसान " में एक किसान - विधवा के जीवन संघर्ष का जीवन्त चित्रण हुआ है ,वहीं 'दहीवाली' में पतिव्रता नारी का अपने पथभ्रष्ट पति को  सही रास्ते पर लाने की घटना को सजीव अभिव्यक्ति मिली है। मचेवा नाचा के कलाकारों ने सूरज 'राही' के निर्देशन में इन नाटकों से काफी लोकप्रियता अर्जित की । लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि यह नाचा प्रायः वर्ष भर कहीं न कहीं कार्यक्रमों में व्यस्त रहता ।न केवल छत्तीसगढ़ , वरन सीमावर्ती प्रांत महाराष्ट्र और उड़ीसा में भी इसने छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति का गौरवशाली प्रदर्शन किया ।कुछ वर्षों पूर्व इस्पात नगरी भिलाई में आयोजित लोक कला महोत्सव में भी इसे काफ़ी प्रशंसा मिली ।राही ने कुछ अन्य नाचा मंडलियों को भी अपना रचनात्मक सहयोग दिया ।
       शायद ही किसी वर्ष  वे अपने गृह - ग्राम पिथौरा में दो माह से  अधिक समय लगातार रहे हों ! नाचा के साथ वे सुदूर गाँवों ,कस्बों और शहरों के दौरे पर रहते । वर्ष का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने लोक नाटकों के लिए समर्पित कर दिया था । जब भी उन्हें समय मिलता ,वे अपने गृह -ग्राम पिथौरा के शौकिया कलाकारों का मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन करने में सबसे आगे रहते । नवोदितों के लिए उनके मन में अपार स्नेह था ।स्थानीय किशोरों और नवयुवकों की 'पिथौरा संगीत समिति ' की स्थापना में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा । यहाँ 'ताज मटका पार्टी ' की स्थापना भी उन्होंने ही की । मटकों में बंधे घुंघुरुओ की ध्वनि गीत -गज़लों और कव्वालियों की मिठास में दुगुनी वृध्दि कर देती है ।सन 1977 -78 में स्थापित इन दोनों संस्थाओं के शौकिया कलाकारों को सूरज 'राही " ने समर्पित भाव से प्रशिक्षण दिया । वे एक सुयोग्य संगीतज्ञ भी थे । स्थानीय कलाकारों की ये दोनों संस्थाएं आज भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की याद दिलाती हैं ।
      चार अगस्त 1947 को कलकत्ते में नेशनल ड्रामा पार्टी के शिविर में जन्मे सूरज 'राही ' की कला यात्रा 28 फरवरी 1980 को यादों के अमिट निशान छोड़कर अचानक समाप्त हो गयी ।नाचा का कार्यक्रम प्रस्तुत करने वे अपने साथियों सहित जा रहे थे कि बागबाहरा के  पास जीप दुर्घटना में घायल हो गए । कई दिनों तक डी. के.अस्पताल रायपुर में इलाज चला ,पर अंततः नियति ने उन्हें हमसे छीन लिया ।इलाज के दौरान ही उनका निधन हो गया । मंच पर  थिरकते पैर थम गए , हवाओं में गीत और संगीत का माधुर्य घोलती आवाज़ थम गयी ,हज़ार - हज़ार दिलों पर छा जाने वाला अभिनेता मौत के  अँधेरे में खो गया । रंग क्षितिज पर तेजी से उभरता एक 'सूरज ' अचानक डूब गया ,छोड़कर अँधेरी रातों के लिए यादों के सितारे ।
      -स्वराज करुण
( मेरा यह आलेख  साप्ताहिक 'चिन्तक ' दुर्ग के दीपावली विशेषांक 1980 में प्रकाशित  )

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-09-2019) को     "मोदी का अवतार"    (चर्चा अंक- 3461) (चर्चा अंक- 3454)  पर भी होगी।--
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete