Monday, August 21, 2017

अब क्यों नहीं बजते ये फ़िल्मी गाने ?

कुछ दशक पहले के फ़िल्मी गीतों में मनोरंजन के साथ कोई न कोई सामाजिक सन्देश भी हुआ करता था । उन गीतों के जरिए देश और समाज की बुराइयों पर और बुरे लोगों पर तीखे प्रहार भी किए जाते थे । जैसे -
*दो जासूस करे महसूस
कि दुनिया बड़ी खराब है ,
कौन है सच्चा ,कौन है झूठा ,
हर चेहरे पे नकाब है ।
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*क्या मिलिए ऐसे लोगों से ,
जिनकी फितरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए ,
असली सूरत छिपी रहे।
जिनके नाम से दुखी है जनता
हर बस्ती , हर गाँव में ,
दया - धरम की बात करें वो
बैठ के भरी सभाओं में ।
दान की चर्चा घर -घर पहुंचे,
लूट की दौलत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए ,
असली सूरत छुपी रहे !
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* इस दुनिया में सब चोर - चोर ,
कोई छोटा चोर ,कोई बड़ा चोर !
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* बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई !
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* हे रामचन्द्र कह गए सिया से ,
ऐसा कलयुग आएगा ,
हंस चुगेगा दाना दुनका ,
कौआ मोती खाएगा !
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* देख तेरे संसार की हालत
क्या हो गई भगवान ,
कितना बदल गया इंसान !
कहीं पे झगड़ा ,कहीं पे दंगा,
नाच रहा नर होकर नंगा !
इन्हीं की काली करतूतों से
हुआ ये मुल्क मसान
कितना बदल गया इंसान !
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*समाज को बदल डालो ,
ज़ुल्म और लूट के
रिवाज़ को बदल डालो !
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* ये पब्लिक है ,
ये सब जानती है !
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पहले तो ऐसे गाने सामाजिक -सांस्कृतिक आयोजनों और सार्वजनिक समारोहों में खूब बजा करते थे , रेडियो से भी प्रसारित होते थे लेकिन आजकल ये एकदम से गायब हो गए हैं, या नहीं तो तो गायब कर दिए गए हैं ! शायद इसलिए कि आज के अधिकांश इंसानों को ऐसा लगता है कि ये फ़िल्मी गाने उनकी पोल खोल रहे हैं । इस वजह से उन्हें अपराध बोध के साथ शर्मिंदगी महसूस होती है । उन्हें इन गीतों में अपना चेहरा और चरित्र नज़र आता है । कारण चाहे जो भी हो , इन सन्देश परक गीतों की ताकत आज भी कम नहीं हुई है । ये फ़िल्मी गाने निस्संदेह पावरफुल हैं और आज के इंसान की व्यक्तिगत और सामाजिक चेतना को झकझोरने और उसे आइना दिखाने की हिम्मत और हैसियत रखते हैं । इन फ़िल्मी गीतों के  रचनाकारों को हमारा सलाम ।
लेकिन मौजूदा वक्त की फिल्मों में ऐसे गाने कहाँ ? वर्तमान फ़िल्मी गीतकारों से कोई उम्मीद करना व्यर्थ है ,क्योंकि उन्हें ग्लैमर के साथ पैसा अधिक लुभावना लगता है , जबकि उस दौर के अधिकतर फ़िल्मी गीतकार चूंकि साहित्यिक परिवेश से आते थे ,इसलिए उन्हें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का भी एहसास था । आज वो बात कहाँ ? - स्वराज करुण

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-08-2017) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक 2704) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वर्तमान में तो फ़िल्मी गीत लिखने वालों को खुद पता नहीं क्या लिख रहे हैं, इसलिए याद भी नहीं रहे। पुराने गीत आज भी लोगों की जुबान पर हैं।

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  3. बदलाव की बयार बह रही है ... इसलिए सब बदल रहा है ...

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  4. आज भी पुराने गीत ही सुने जाते हैं। नए गाने तो केवल बजते हैं जिनकी रिदम पर युवा थिरक लेते हैं। सुनता कौन है।

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