Sunday, April 30, 2023

(आलेख) सरहदों के मिलन -बिंदु पर आकर

(आलेख :  स्वराज्य करुण  )

जहाँ कुछ ही कदमों के फासले पर बदल जाती हैं संस्कृतियाँ ,भाषाएँ  और बोलियाँ ,वहाँ  इस बदलाव को देखना और महसूस करना क्या आपको  रोमांचक नहीं  लगता ? मुझे तो लगता है। देश के भीतर ऐसे कई सीमावर्ती  मिलन -बिंदु हैं ,जहाँ आकर हम और आप स्वयं को रोमांचित महसूस कर सकते हैं ,जहाँ  हमें अपने भारत की सांस्कृतिक विविधता के भी  कई रंग देखने को मिलते हैं।  

    ऐसा ही रोमांच हमें  पड़ोसी देशों से लगी हमारी अंतर्राष्ट्रीय  सीमाओं पर भी होता है , लेकिन मैं जिनकी चर्चा कर रहा हूँ ,वो हमारी आंतरिक (घरेलू ) सरहदें हैं। हालांकि  अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर कई तरह की सख़्त बंदिशें भी होती हैं ,लेकिन देश के अंदर राज्यों के बीच  अंतर्राज्यीय सरहदों पर  सब कुछ सहज भाव से चलता  है ,क्योंकि इन सरहदों के इधर -उधर  रहने के बावज़ूद हम सब एक हैं, एक ही देश के निवासी हैं । पिछले साल इन्हीं गर्मियों में उधर से गुजरते हुए  अपने मोबाइल कैमरे से  मैंने ये दृश्य संकलित कर लिए।  इन तस्वीरों में  नज़र आ रहे दो सरकारी बोर्ड हमारे देश के दो प्रदेशों  की सरहदों के मिलन बिंदुओं  के सूचक हैं। नीले रंग का बोर्ड ओड़िशा के लोक निर्माण विभाग का है और पीले कलर का बोर्ड छत्तीसगढ़ सरकार के लोक निर्माण विभाग का । दोनों बोर्डों के बीच कुछ ही कदम पैदल  चलकर हम एक -दूसरे के राज्यों में आ -जा सकते हैं। इन चंद कदमों के फासले पर ही काफी कुछ बदल जाता है। बच्चों की स्कूली पढ़ाई की भाषा बदल जाती है , शासन -प्रशासन बदल जाता है। सामाजिक -सांस्कृतिक  राजनीतिक और प्रशासनिक  गतिविधियाँ बदल जाती हैं।


                                             



बोलचाल के लिए उधर  छत्तीसगढ़ मे छत्तीसगढ़ी और हिन्दी का चलन है  और इधर ओड़िशा के इलाके में ओड़िया भाषा और सम्बलपुरी बोली। हालांकि एक दूसरे के  इलाकों में स्थानीय लोग एक -दूसरे की भाषाओं और बोलियों के भी अभ्यस्त हैं। इन भाषाओं और बोलियों में एक -दूसरे के यहाँ लोक संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम भी समय -समय पर ख़ूब होते हैं। काम -काज के सिलसिले में एक -दूसरे के यहाँ आना -जाना भी हमेशा लगा ही रहता है। (स्वराज्य करुण ) यह स्थान छत्तीसगढ़ के तहसील मुख्यालय बसना (जिला -महासमुंद) से मात्र साढ़े तेरह किलोमीटर पर ओंग नदी के किनारे है। इधर से गुजरने वाली  सड़क बसना (छत्तीसगढ़ )से  ओड़िशा के सबडिविजनल मुख्यालय पद्मपुर की दिशा में जा रही है ,जो बसना से लगभग  40 किलोमीटर पर है। इस पुल से छत्तीसगढ़ के विकासखंड मुख्यालय बसना की दूरी मात्र साढ़े तेरह किलोमीटर है। कभी -कभी मुझे लगता है कि इस नदी का नाम 'ओम नदी'  या 'अंग नदी'  रहा होगा और शायद  समय के साथ आंचलिक उच्चारण के असर से जन -जीवन में इसका नाम 'ओंग' प्रचलित हो गया। पिछले साल जब मैं उस रास्ते से गुज़र रहा था ,तो वहाँ  छत्तीसगढ़ की तरफ की सड़क का उन्नयन और चौड़ीकरण किया जा रहा था। । उधर ओड़िशा की तरफ कुछ वर्ष पहले ओंग नदी पर एक बड़े पुल का निर्माण हो चुका है और आगे के  लगभग 26 किलोमीटर के रास्ते का चौड़ीकरण और डामरीकरण भी। इस रास्ते पर ओंग नदी का पुल पार करने के बाद आपको जगदलपुर भी मिलेगा , लेकिन वह  छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले का मुख्यालय जगदलपुर नहीं ,ओड़िशा का एक कस्बा है। इसके  आस - पास है  पहाड़ियों का  सुरम्य नैसर्गिक परिवेश । 

      दोनों सरहदों के मिलन -बिंदु के इर्द-गिर्द   कुछ पेड़ आम के भी हैं ,जो इन दिनों गर्मियों में फलों से लदे हुए नज़र आते है। फल अभी पके नहीं हैं। राहगीर कुछ फल चटनी और अचार बनाने के लिए तोड़ भी लें तो यहाँ कोई रोक -टोक नहीं है । यानी लगता है कि ये सार्वजनिक पेड़ हैं। अच्छा भी है। पहले ज़माने में राजा -महाराजा लोग जनता के लिए और कुछ करें या न करें ,लेकिन  सड़कों के किनारे फलदार पौधे जरूर लगवाते थे , जो बड़े होकर राहगीरों को छाया और स्वादिष्ट फल  मुफ़्त में दिया करते थे। ये पेड़ उनके लगवाए हुए हैं या  नहीं ,ये तो मुझे नहीं मालूम ,लेकिन जिन्होंने भी लगवाए होंगे , उनके इस परोपकार की प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। उनसे प्रेरणा भी लेनी चाहिए।

    आलेख      -- स्वराज्य करुण 

  

(आलेख) जल -जीवन के साथ सूखने लगा जन -जीवन

(आलेख : स्वराज्य करुण  )

हमारी संस्कृति और हमारे जन -जीवन से जुड़ी नदियाँ पहले बारहमासी हुआ करती थीं ,अब उनमें से अधिकांश ' बरसाती नदियाँ ' कहलाने लगी हैं। ठीक भी है। बारहों महीने तो उनमें पानी नहीं रहता ।  आजकल उनके जल में जीवन की कुछ हलचल सिर्फ़ बरसात के दिनों में ही  नज़र आती है। पहले नदियों में नौकाओं के जरिए यातायात और माल परिवहन भी होता था । देश के भीतर  जल मार्ग से व्यापार व्यवसाय होने की जानकारी भी  इतिहास में मिलती है । कई नदियों के किनारे पुरातत्वविदों को उत्खनन में प्राचीन बंदरगाहों के अवशेष भी मिले हैं। 

    पहाड़ों की संतान हैं उनकी गोद से निकलने वाले नदी -नाले। लेकिन विगत सैकड़ों वर्षों से मानव के हाथों से हो रहे प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित और निर्मम दोहन की वजह से पहाड़ उजड़ने लगे और  नदियाँ भी सूखने लगीं ,पहाड़ों से निकलकर नदियों से मिलने वाले झरने भी सूखने लगे और जल मार्ग विलुप्त हो गए। यह सिलसिला आज भी जारी है। नदियों के साथ - साथ कई प्राकृतिक बरसाती नाले भी सूखकर बेजान होते जा रहे हैं। जब हमारी प्राकृतिक जल -धाराएँ सूखने लगीं तो धरती पर हमारा 'जन - जीवन 'भी इस समस्या से अछूता कैसे रह सकता है ?लिहाजा जल -जीवन के साथ जन -जीवन भी सूखने लगा । 


                                                    


                                   ( दृश्य  - पश्चिम ओड़िशा के ओंग नदी का , पिछले साल गर्मी के मौसम में ) 


     खेती के लिए पानी और सिंचाई भी जरूरी है। बिजली और  पेयजल के लिए भी पानी का बारहमासी स्रोत चाहिए। इसलिए नदियों पर छोटे-  बड़े बांधों के जरिए उनका पानी रोका जाने लगा तो उनकी  जल धाराएँ आगे नहीं बढ़ पायीं और आगे चलकर नदियाँ सूखने लगीं । बरसाती नाले भी।  मानव बसाहटों का कचरा नदी -नालों में डाला जाने लगा। ये प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषण का शिकार होने लगे।

     बड़े -बड़े उद्योगों को चलाने के लिए विशालकाय पाइप लाइनों के जरिए नदियों का  पानी सोखा जाने लगा। भू -जल का भी निर्मम शोषण होने लगा। हालांकि मानव जीवन के लिए तरह -तरह के उद्योग भी जरूरी हैं ,लेकिन उनमें पानी के  इस्तेमाल के लिए क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकती ? वाटर रिचार्जिंग और रेन वाटर हार्वेस्टिंग की सहज -सरल तकनीक  शायद उनके लिए विकल्प बन सकती है। उनके लिए ही क्यों , आम जनता के लिए भी यह बहुत उपयोगी है। अब तो कई राज्यों में सरकारी और निजी भवन और  मकान बनाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग की तकनीक अनिवार्य कर दी गयी है।बरसात में छत पर जमा होने वाले पानी को पाइपों के माध्यम से ज़मीन के भीतर भेजकर इमारतों के आस -पास के गिरते हुए भू -जल स्तर को संभाला जा सकता है। बहुमूल्य  खनिज, वन और जल -सम्पदा के रूप में हम इंसान  प्रकृति से बहुत कुछ लेते हैं ,लेकिन जितना उससे लेते हैं ,उसके बदले हम उसे क्या और कितना देते हैं ? इस पर भी हमें विचार करना चाहिए ।

      भारत में नदियों को माता कहकर सम्बोधित किया जाता है ,क्योंकि वे अपने अमृत तुल्य पानी से मनुष्य का लालन -पालन करती हैं। लेकिन देश के कई शहरी इलाकों में नदियों के  इस  'अमृत जल ' को उनके बेटे -बेटियों  ने ही  विषैला बना दिया है। गंगा और यमुना के किनारे बसे कई शहरों से इस प्रकार के चिन्ताजनक सचित्र समाचार गाहेबगाहे आते रहते हैं। यह जरूर है कि नये दौर में वाटर ट्रीटमेंट तकनीक के जरिए हम नदियों के  प्रदूषित ,जहरीले पानी को भी साफ़ करके पीने योग्य बना रहे हैं। लेकिन यह तो कृत्रिम उपाय है। (स्वराज्य करुण) कृत्रिमता कभी  नैसर्गिकता का विकल्प नहीं बन सकती।  अगर जीवन को स्वस्थ रखना है तो नदी -नालों को भी स्वच्छ रखना होगा । उनकी गोद में कचरा डालना बंद करना होगा। उनके किनारों पर और उनके उदगम पहाड़ों पर  सघन वृक्षारोपण करना होगा। वर्तमान में प्राकृतिक वनों का असंतुलित दोहन भी नदी -नालों के सूखते जाने का एक बड़ा कारण है। नदी -नालों के किनारे बसे  कई गाँवों ,कस्बों और शहरों में ग्रीष्म ऋतु में पानी के लिए हाहाकार क्यों मचता है ,जबकि पानी का नैसर्गिक स्रोत तो उनके नज़दीक ही होता है ? इसके कई कारण हो सकते हैं।

   बाकी तो बड़े -बड़े विशेषज्ञ ही बताएंगे कि इस गंभीर समस्या के निराकरण के क्या -क्या उपाय हो सकते हैं ?   पिछले साल इन्हीं गर्मियों के दिनों में ओड़िशा में ओंग नदी के पुल से गुजरते हुए गर्मियों में सूखी इस  नदी की हालत को देखकर मन में ऐसे कई विचार आए  ,जिन्हें मैंने तस्वीरों सहित आप सबके चिन्तन-मनन के लिए  यहाँ प्रस्तुत  किया। 

आलेख : स्वराज्य  करुण

Friday, April 28, 2023

उत्कल गौरव मधुसूदन दास ; ओड़िशा राज्य के प्रथम स्वप्न दृष्टा

 

          (आलेख - स्वराज्य  करुण  )

  छत्तीसगढ़ , झारखण्ड और बंगाल के निकटतम पड़ोसी उत्कलवासी आज 28 अप्रैल को आधुनिक ओड़िशा राज्य के प्रथम स्वप्नदृष्टा  स्वर्गीय मधुसूदन दास को उनकी जयंती के दिन ज़रूर याद कर रहे होंगे । उन्होंने आज से लगभग 120 साल पहले अलग ओड़िशा राज्य का सपना देखा था और जनता को इसके लिए प्रेरित और संगठित किया था। 


                 


 ओड़िशा के समाचार पत्रों , ओड़िशा के टीव्ही चैनलों और सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों में भी आज लोग अलग -अलग तरीके से लोग उनके व्यक्ति और कृतित्व की चर्चा कर रहे होंगे। उत्कलवासियों ने उन्हें  'उत्कल गौरव 'का लोकप्रिय और आत्मीय सम्बोधन दिया । वह आज भी इसी सम्बोधन से याद किये जाते हैं । भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाकटिकट भी जारी किया था  ।वह बैरिस्टर (वकील ) होने के साथ -साथ विद्वान लेखक , चिन्तक और ओड़िया भाषा के लोकप्रिय साहित्यकार भी थे । उनका जन्मदिन ओड़िशा में 'वकील दिवस ' के रूप में भी मनाया जाता है ।

    स्वर्गीय मधुसूदन दास का जन्म 28 अप्रेल 1848 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासित बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत उत्कल क्षेत्र के ग्राम सत्यभामापुर (जिला -कटक) में हुआ था । उनका  निधन 4 फरवरी 1934 को कटक में हुआ । उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से एम .ए .और वकालत की शिक्षा प्राप्त की थी । स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण  योगदान दिया । वह पहले ऐसे प्रबुद्ध नागरिक थे ,जिन्होंने सबसे पहले एक अलग ओड़िशा राज्य की परिकल्पना की और इसके लिए लोगों को संगठित कर वर्ष 1903 में उत्कल सम्मिलनी की स्थापना की और इस  मंच के माध्यम से  लगातार जन जागरण का अभियान चलाया । सितम्बर 1897 में उन्होंने ब्रिटेन जाकर लंदन में   ब्रिटिश सरकार के सामने पृथक ओड़िशा राज्य की मांग रखी ।वह 1907 में एक बार फिर लंदन गए और ओड़िशा वासियों की समस्याओं और भावनाओं की ओर  ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया । उत्कल सम्मिलनी के माध्यम से ओड़िशा राज्य निर्माण के लिए उनके नेतृत्व में जन जागरण के साथ -साथ जन आंदोलन भी चलता रहा ।

लेकिन  यह विडम्बना ही है कि ओड़िशा राज्य निर्माण का उनका सपना  उनके जीवनकाल में पूरा नहीं हो पाया । विधि का विधान देखिए कि ओड़िशा राज्य निर्माण के करीब 2 साल पहले ही 4 फरवरी 1934 को लगभग  86 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया  । ओड़िशा राज्य एक अप्रैल 1936 को अस्तित्व में आया ।  

       -स्वराज्य  करुण

आइए ,कुछ पल निकालकर करें वृक्ष-चिन्तन

 


(आलेख ; स्वराज्य करुण )

गर्मियों की तेज ,चिलचिलाती धूप में  राह चलते इंसान को कुछ पलों के सुकून के लिए शीतल छाँव की ज़रूरत होती है।  सड़कों के किनारे लगे नीम ,बरगद ,पीपल और कई अन्य छायादार पेड़ इंसान को निःशुल्क शीतलता प्रदान करते हैं। आम जैसे कई फलदार वृक्ष स्वादिष्ट फलों के साथ ठंडी छाँव भी देते हैं। पीपल का तो कहना ही क्या ?

   भारतीय संस्कृति का पूजनीय वृक्ष है पीपल । वैसे तो हमारी संस्कृति में बरगद ,आम ,आंवला  और बेल सहित  सभी वृक्ष पूजनीय हैं ,क्योंकि ये  हमारी  धरती पर  हर प्रकार से  प्राणी जगत की सेवा करते हैं ,हमें जीवित रहने के लिए बिना किसी भेदभाव के ,हर दिन भरपूर ऑक्सीजन देते हैं। अन्य प्रजातियों के वृक्षों की तरह यह भी पर्यावरण -हितैषी पेड़ है।    पीपल के बारे में कहा जाता है कि यह चौबीसों घंटे ऑक्सीजन देने वाला वृक्ष है। यह कहीं भी और कठोर भूमि पर भी उग सकता है। इसलिए आज के समय में उजड़ते पहाड़ों पर भी इसे उगाने की संभावनाओं पर हमें विचार करना चाहिए। परन्तु  अपने आस -पास देखें तो पता चलेगा कि यह तेजी से विलुप्त हो रहा है । पहले तो पीपल के पेड़ तालाबों के किनारे भी दिख जाते थे। नदी  -नालों के दोनों  किनारे भी तरह -तरह के सघन वृक्षों से सजे होते थे । लेकिन अब वो बात कहाँ ?  ऐसे में बचपन के दिनों में  अपनी स्कूली किताब 'बालभारती' में पढ़ी कविता की याद आती है --

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे -धीरे। 

पीपल सहित सभी  प्रजातियों के पेड़ --पौधों को बचाना और उनकी संख्या बढ़ाना हमारी ज़िम्मेदारी है। लेकिन आज आधुनिकता की सुनामी में  तूफ़ानी रफ़्तार से हो रहे  शहरीकरण  की वजह से वृक्षों के अस्तित्व पर संकट के घने बादल मंडरा रहे हैं। मनुष्यों की आबादी बढ़ रही है और वृक्षों की घट रही है। फिर भी मनुष्य अगर चाहे तो अपने जीवन में पेड़ -पौधों के लिए भी पर्याप्त जगह छोड़  सकता है।  -- स्वराज्य  करुण

Wednesday, April 26, 2023

(आलेख) आजकल ऐसी फिल्में क्यों नहीं बनतीं?

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित एक फ़िल्म को याद करते हुए मन में उठा सवाल )

        (आलेख -स्वराज करुण)
अच्छा ,आप लोग जरा ये बताइए , आजकल  ऐसी फिल्में  क्यों नहीं बनतीं ,जो हमारे समाज की ज्वलंत समस्याओं को लेकर दर्शकों की चेतना को झकझोरती हों ,उन्हें सोचने के लिए मज़बूर करती हों? फिल्में मनोरंजन का माध्यम जरूर हैं लेकिन उनमें समाज के लिए कोई स्वस्थ और सार्थक संदेश भी तो होना चाहिए।
  क्या सचमुच हमारा समाज बदल गया है ?क्या ज़ुल्म और लूट का रिवाज़ बदल गया है ? अगर नहीं तो क्या फिर आजकल ऐसी फिल्मों और ऐसे गीतों की जरूरत नहीं है ,जिनमें तरह -तरह के ज़ुल्म-ओ-सितम से घिरे मनुष्य की मुक्ति और समाज में एक बेहतर बदलाव की चाहत हो ?
    अगर ऐसी फिल्में नहीं आ रही हैं तो उन  पुरानी फिल्मों के ऐसे गीत भी तो अब रेडियो और टीव्ही पर सुनने -देखने को नहीं मिल रहे हैं। शायद आज की समाज -व्यवस्था को ऐसे गीत बर्दाश्त नहीं होते। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करने वाली फिल्में भी आती थीं और उनमें ऐसे गाने भी होते थे ,जो रेडियो पर भी फ़रमाइशी कार्यक्रमों में प्रसारित भी होते थे ।

                                               


        
    उदाहरण के लिए वर्ष 1970 में आई फ़िल्म 'समाज को बदल डालो' को याद कीजिए । इस फ़िल्म का  शीर्षक ही अपने -आप में एक बड़ा सन्देश लिए हुए है। लोकप्रिय शायर साहिर लुधियानवी के लिखे इस गीत को सुप्रसिद्ध संगीतकार रवि (रविशंकर शर्मा)के संगीत निर्देशन में लोकप्रिय मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ दी थी।
फ़िल्म में  अजय साहनी ,शारदा ,प्रेम चोपड़ा, प्राण ,  अरुणा ईरानी ,महमूद  और कन्हैयालाल सहित  सहित कई बड़े कलाकारों ने  बेहतरीन अभिनय किया था। जेमिनी पिक्चर्स द्वारा निर्मित यह फ़िल्म राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित की गयी है । बहरहाल आप इस फ़िल्म के शीर्षक गीत को पढ़िए ,यूट्यूब के लिंक को क्लिक करके  सुनिए और मनन कीजिए कि आजकल ऐसे फ़िल्मी गाने समाज से गायब क्यों हैं ?-
https://www.facebook.com/Brij1206/videos/10203763381107017/

समाज को बदल डालो
समाज को बदल डालो
समाज को बदल डालो
जुल्म और लूट के रिवाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो

कितने घर हैं जिनमे आज रौशनी नहीं
कितने घर हैं जिनमे आज रौशनी नहीं
कितने तन बदन हैं जिनमे ज़िन्दगी नहीं

मुल्क  और कौम के मिज़ाज़  को बदल डालो
मुल्क  और कौम के मिज़ाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो
जुल्म और लूट के रिवाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो

सैकड़ों  की मेहनतों पर एक क्यूँ पले
सैकड़ों  की मेहनतों  पर एक क्यूँ पले
ऊँच नीच से भरा निज़ाम  क्यूँ चले
आज है यही तो ऐसे आज को बदल डालो
आज है यही तो ऐसे आज को बदल डालो

समाज को बदल डालो
जुल्म और लूट के रिवाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो.

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Sunday, April 23, 2023

(आलेख ) गायब होती पुस्तक -संस्कृति ...!

 विश्व पुस्तक दिवस के मौके पर  चिन्ता और चिन्तन 

     (आलेख -स्वराज करुण   )

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पुस्तकें तो बहुत छप रही हैं ,लेकिन पढ़ने वालों की संख्या कम होती जा रही है। अन्य देशों का तो नहीं मालूम लेकिन हमारे देश में अपने आस-पास नज़र दौड़ाएँ तो आम तौर पर ऐसा ही माहौल मिलेगा। वैज्ञानिक आविष्कारों को तो नहीं रोका जा सकता ,लेकिन यह एक ज़मीनी सच्चाई है कि सूचना क्रांति के इस दौर में इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मो ने लोगों में भौतिक रूप से पुस्तक पढ़ने की आदत को लगभग ख़त्म कर दिया है।  यह एक बड़ा विरोधाभास है कि आज विश्व पुस्तक दिवस के मौके पर मैं भी यहाँ इस गंभीर समस्या की चर्चा  सोशल मीडिया के इस  प्लेटफॉर्म पर ही  कर रहा हूँ।


   


                                              

हालांकि किसी भी पुस्तक को कम्प्यूटर के स्क्रीन पर आंखें गड़ा कर पढ़ने  और छपी हुई पुस्तक को सामने रखकर पढ़ने में अनुभवों का बहुत अंतर होता है। कम्प्यूटर या मोबाइल फोन के स्क्रीन पर किताबें पढ़ना , समाचारों और विचारों को पढ़ना आसान जरूर है ,लेकिन प्रकाशित सामग्री को  (कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो ) हार्ड कॉपी के रूप में पढ़ने में है ,वह चमकीले स्क्रीन पर नहीं। साहित्यिक पुस्तकों की बात करें तो अपनी नज़रों के सामने किसी उपन्यास ,किसी कहानी संग्रह ,कविता संग्रह ,यात्रा वृत्तांत , निबंध संग्रह को देखकर पढ़ने में जो अनुभव होता है , वह कम्प्यूटर के चमकदार पर्दे पर पढ़ने में कहाँ? फिर भी अधिकांश लोग  केवल इंटरनेट पर ऑन लाइन पुस्तकें पढ़ते हैं। विशेष रूप से स्कूल कॉलेजों के विद्यार्थियों में ऑन लाइन पढ़ने की अभिरुचि देखी जाती है।अकादमिक विषयों की कई पुस्तकें महँगी होने और अनुपलब्ध होने की वजह से शायद ऑन लाइन पढ़ना उनके लिए ज्यादा आसान होता है।लेकिन इधर साहित्यिक बिरादरी  के लिए यह एक गंभीर चिन्ता ,चिन्तन और चुनौती का विषय है कि हमारे समाज में  पुस्तक संस्कृति तेजी से  गायब  हो रही है। मैंने सुना है कि केरल और बंगाल जैसे राज्यों में पुस्तक -संस्कृति आज भी जीवित है। वहाँ के साहित्यिक -सांस्कृतिक अभिरुचि सम्पन्न लोग विवाहोत्सव  और जन्मोत्सव जैसे शुभ अवसरों पर उपहार में अच्छी पुस्तकें भेंट करते हैं। यह एक अच्छी परम्परा है। ऐसा अन्य राज्यों में भी होना चाहिए। स्कूल -कॉलेजों में होने वाली विभिन्न साहित्यिक -सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं के विजेता विद्यार्थियों को पुरस्कार के रूप में  अच्छी पुस्तकें दी जानी चाहिए। इससे हमारे देश और समाज में पुस्तक -संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।

  संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक ,वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा विश्व पुस्तक दिवस वर्ष 1995 से मनाया जा रहा है।  स्कूल -कॉलेजों की पुस्तकों के अलावा भी अपनी रुचि के अनुसार हर दिन नहीं तो हर सप्ताह ,हर सप्ताह नहीं तो हर महीने कला -संस्कृति ,ज्ञान -विज्ञान ,कविता ,कहानी ,उपन्यास आदि में से किसी भी विषय और किसी भी विधा की कम से कम एक पुस्तक हमें जरूर पढ़नी  चाहिए। दुनिया में लाखों - करोड़ों लेखक हैं और उनकी लिखी लाखों -करोड़ों पुस्तकें ।  उनमें से पढ़ने लायक पुस्तकों का चयन भी आज  एक बड़ी चुनौती है।

       कम्प्यूटर तकनीक पर आधारित सोशल मीडिया के इस दौर में आज हर मनुष्य को अभिव्यक्ति का एक सर्वसुलभ मंच मिला है। ऐसे में समाज के सामने  अपने विचार रखना बहुत आसान हो गया है।  कई मायनों में यह अच्छा भी है और कई मायनों में बुरा भी। बुरा इसलिए कि इसके अपने खतरे भी हैं। यह माध्यम कई बार भ्रामक जानकारी भी फैलाता है। पढ़ने वाले को उस पर आ रहे संदेशों को पढ़ते समय अपने दिमाग का भी इस्तेमाल करना चाहिए। उन संदेशों को आँख मूंदकर सच नहीं मान लेना चाहिए।  सोशल मीडिया में तो जाने -अनजाने आज हर मनुष्य लेखक और पत्रकार की भूमिका में है। लेकिन क्या लिखना है ,क्यों लिखना है ,किसके लिए लिखना है ,इसका ध्यान कम ही लोग रख पाते हैं। कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी के इस दौर में लेखकों की आबादी और  उनकी पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है,वहीं ऐसा लगता है कि पाठकों की जनसंख्या लगातार कम से कम होती जा रही है ।  दुनिया में आज समाचार पत्र -पत्रिकाओं की संख्या और उनमें लिखने वालों की संख्या भी बढ़ी है ,पर उन्हें गंभीरता से और स्वविवेक -बुद्धि से पढ़ने वाले कितने हैं ,यह व्यापक सर्वेक्षण और शोध  का विषय है। फिर भी सरसरी तौर पर देखें तो निराशा होती है। 

पुस्तकालयों और वाचनालयों की हालत भी आम तौर पर निराशाजनक है। अब अधिकांश पाठक सिर्फ़ फेसबुक और वाट्सएप यूनिवर्सिटियों के छात्र हो गए हैं। वे अपने अधजल गगरी वाले प्रोफेसरों के अनुयायी बन जाते हैं।।उन्हें सोशल मीडिया के इन मंचों के बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं। वे लिखना ख़ूब चाहते हैं ,मोबाइल पर लिखते भी रहते हैं,लेकिन उनमें से अधिकांश में भाषाओं  और तथ्यों के  सामान्य ज्ञान की कमी भी दिखाई देती है। उनमें वैचारिक संकट भी दिखाई पड़ता है। सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर भ्रामक सूचनाओं से प्रभावित होकर लोग आनन -फानन में अपनी धारणाएँ बना लेते हैं और तथ्यों की पुष्टि किए बिना कई बार अफवाहें फैलाने का माध्यम बन जाते हैं।

फेसबुक और वाट्सएप विश्वविद्यालयों के ऐसे स्वनामधन्य छात्रों और उनके स्वनामधन्य प्रोफेसरों को  सोशल मीडिया के अलावा उसके बाहर के समाज में उपलब्ध पुस्तकों पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।लेकिन पुस्तकों के प्रति उनकी घटती अभिरुचि  चिन्ता का विषय है। एक दिक्कत यह भी है कि आज के अधिकांश कवि और  लेखक स्वयं के लिखे हुए या छपे हुए के अलावा दूसरों का लिखा /छपा पढ़ते ही नहीं। । यहाँ तक कि पत्र -पत्रिकाओं में छपी अपनी छोड़कर दूसरों की रचनाओं को पढ़ना भी वे उचित नहीं समझते। विद्वानों का कहना है कि अगर आप लेखक बनना चाहते हैं या लेखक ,कवि हैं तो दूसरों की लिखी पुस्तकों को भी अवश्य पढ़ें ,क्योंकि अच्छा पढ़े बिना कुछ भी अच्छा नहीं लिखा जा सकता । 

     हम साहित्यिक पुस्तकें जरूर पढ़ें लेकिन सिर्फ पाठक के रूप में नहीं ,बल्कि नीर - क्षीर विवेक के साथ समीक्षात्मक दृष्टि से भी। हर पाठक को एक समीक्षक भी होना चाहिए।  पुस्तकों में उन्हें क्या अच्छा लगा ,क्यों अच्छा लगा , क्या ठीक नहीं लगा ,क्यों ठीक नहीं लगा , पढ़ने के बाद इस पर भी उन्हें विचार करना चाहिए।  जरूरी नहीं कि आप किसी पुस्तक की समीक्षा लिखें ,लेकिन एक सजग पाठक के रूप में उनके पन्नों पर आपको समीक्षक जैसी दृष्टि जरूर दौड़ानी चाहिए । बहरहाल , आप सभी को विश्व पुस्तक दिवस की हार्दिक बधाई।

   आलेख -- स्वराज करुण

Saturday, April 22, 2023

(आलेख) कोई लौटा दे हमें बीते हुए दिन ...!

 (आलेख -स्वराज करुण )

 आज तीव्र गति से हो रहे शहरीकरण के इस दौर में खेतों में भी मकान बनने लगे हैं  और अमराइयाँ विलुप्त हो रही हैं। उनके साथ -साथ कोयल जैसे पंछी और उनकी मधुर कुहूक भी अब लगभग सुनने को नहीं मिलती।

  सबको शीतल छाया और स्वादिष्ट आमों की सौगात देने वाले आम के वृक्षों पर भी पर्यावरण संकट गहराता जा रहा है! अमराइयों के साथ -साथ स्वादिष्ट फल देने वाले और भी कई मूल्यवान वृक्ष भी अदृश्य होते जा रहे हैं।आज 22 अप्रैल को  विश्व पृथ्वी  दिवस के मौके पर हमें याद रखना चाहिए भारत जैसे देशों में अमराइयों का दिनों -दिन गायब होते जाना हमारी पृथ्वी  के लिए एक बड़ा खतरा है!

                                                



 शहरों में रहने वाले और शहरी वातावरण में पले -बढ़े अधिकांश बच्चे आज यह नहीं जानते कि अमराई क्या है ? गलती उनकी भी नहीं है। जब उन्होंने कभी अमराई देखी ही नहीं ,तो फिर कैसे बता पाएँगे ?शायद तस्वीर दिखाकर ही उन्हें बताया जा सकता है कि देखो ,इसे कहते हैं अमराई!  किसी यात्रा के दौरान अगर दूर कहीं कोई रही -सही अमराई दिख जाए तो हमें अपना बचपन याद आ ही जाता है। आँखों में तैरने लगते हैं उन दिनों के दृश्य ,जब गर्मियों में हममें से अधिकांश की दोपहरी अमराइयों की सुकून देने वाली छाँव में गुजरा करती थी। काश !  कोई लौटा दे हमें बीते हुए दिन! तब हॄदय अनायास कह उठता है --

ले चल मुझको किसी गाँव में ,

अमराई की घनी छाँव में ! 

-स्वराज करुण