Wednesday, December 21, 2022

(आलेख) आग उगलते खेतों में धरती माता का जलता हुआ आँचल


(आलेख : स्वराज करुण )

फसल उगाने वाले खेत आग उगलने लगें तो इससे दुःखद, दर्दनाक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या होगी? हालांकि ऐसा सभी जगह नहीं हो रहा है ,लेकिन जहाँ कहीं भी हो रहा है ,वह कृषि उत्पादन और पर्यावरण के भविष्य के लिए बहुत ख़तरनाक़ है। देश के कुछ राज्यों के कुछ इलाकों में इन दिनों  खरीफ़ फसल (धान) की कटाई के बाद 

खेतों में जलाई जा रही  पराली यानी फसल-अवशेषों  की आग से धरती माता का आँचल जलने लगा  है , यानी खेती की ज़मीन झुलसती जा रही है और उसकी उपजाऊ शक्ति नष्ट हो रही है। विडम्बना यह कि धरती माता के आँचल को उसके ही  मेहनतकश बेटे यानी हमारे  कर्मठ किसान आग के हवाले कर रहे हैं। सरकारों की ओर से की जा रही अपीलों और तमाम अच्छी योजनाओं के बावज़ूद कुछ इलाकों में पराली जलाने की प्रवृत्ति कम होने का नाम नहीं ले रही है। इस आग से,  मिट्टी में रहने वाले राइजोबियम बैक्टीरिया  ख़त्म हो रहे हैं ,जो नाइट्रोजन को मिट्टी में पहुँचा कर उसकी उर्वरता को बढ़ाते थे। पराली की आग से केंचुए भी मरते जा रहे हैं ,जो खेतों की ज़मीन को भुरभुरी बनाकर फसलों की वृद्धि में सहायक हो सकते थे। यह दृश्य कल दोपहर छत्तीसगढ़ में पिथौरा तहसील के अंतर्गत ग्राम  लहरौद से नयापारा  (खुर्द) जाने वाले रास्ते के किनारे के खेतों का है। पराली जलाकर किसान शायद भोजन के लिए घर चले गए थे ,क्योंकि  आसपास कोई नज़र नहीं आ रहा था और खेतों में आग धधक रही थी।


                                                           


                               पराली जलाए बिना खेती पहले भी होती थी : अब क्या हो गया ?

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       खेती हजारों वर्षों से हो रही है ,लेकिन हमारे देश में पराली जलाने की यह कुप्रथा विगत छह-सात साल से देखी जा रही है। किसान जब पराली नहीं जलाते थे , उनकी खेती  तब भी होती थी और बहुत अच्छे से होती थी। अब क्या हो गया? पराली जलाने की बीमारी  पंजाब और हरियाणा से निकलकर  उनके पड़ोसी दिल्ली और उत्तरप्रदेश  सहित देश के कई राज्यों में फैल गयी है ।कुछ वर्ष पहले आकाशवाणी से प्रसारित अपने मासिक कार्यक्रम  'मन की बात' में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी किसानों से खेतों में पराली नहीं जलाने की अपील की थी और कहा था कि पराली जलाने से धरती माता की त्वचा झुलस जाती है। मैंने दो सप्ताह पहले सम्बलपुर(ओड़िशा) प्रवास के दौरान हीराकुद बाँध की एक नहर के किनारे के कुछ खेतों में भी  पराली जलने के निशान देखे ।छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में भी यह समस्या है। प्रभावित राज्य सरकारें किसानों से अपील कर रही हैं कि वे पराली न जलाएँ ,उन्हें पराली के वैकल्पिक उपयोग के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है ,लेकिन कई  किसान इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।  छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किसानों को पराली नहीं जलाने और सरकारी गौठानों के लिए पैरा दान करने की समझाइश दे रहे हैं ,आम सभाओं में भी  अपील  कर रहे हैं,जिसका  सकारात्मक असर  कई गाँवों में देखा गया है ,फिर भी कुछ गाँवों में किसान पराली जला रहे हैं। इसके फलस्वरूप खेतों से उड़कर पराली का धुआँ दूर -दूर तक फैल रहा है ,जिससे गाँवों की स्वच्छ हवा प्रदूषित हो रही है। मेरे विचार से सरकारों के अलावा यह स्थानीय ग्राम पंचायतों के पंच-सरपंचों और संबंधित इलाके के  कृषि अधिकारियों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे किसानों को पराली नहीं जलाने के लिए  समझाएँ  और उन्हें पराली के वैकल्पिक उपयोगों के लिए प्रोत्साहित करें। इस विषय में किसानों में जागरूकता  लाने के लिए समाचार पत्रों के साथ -साथ रेडियो स्टेशनों और टीव्ही चैनलों का भी सहयोग लिया जाए।  

                                   पराली के धुएँ के बीच सुबह की सैर 

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     आजकल गाँवों के लोग भी सुबह की सैर के लिए निकलते हैं ,तब उन्हें पराली के धुएँ से प्रदूषित हवा में साँस लेते हुए निकलना पड़ता है।पहली नज़र में दूर से तो ऐसा लगता है कि कोहरा है ,लेकिन नज़दीक जाने पर पता चलता है कि यह पराली का धुआँ है ,जो दोपहर और शाम तक भी बना रहता है। आम तौर पर गाँवों की हवा स्वच्छ होती है ,लेकिन उसके साफ सुथरे अमृत तुल्य प्राकृतिक ऑक्सीजन में  पराली के धुएँ से कार्बन डाइऑक्साइड का ज़हर घुल जाता है ,जो निश्चित रूप से ग्रामीणों की सेहत के लिए भी हानिकारक है। खुद पराली जलाने वाले किसानों के स्वास्थ्य के लिए भी यह नुकसानदायक है।  

                                    आख़िर क्या है किसानों की मजबूरी ?

        यह भी विचारणीय है कि किसान आख़िर अपने खेतों में पराली क्यों जलाते हैं ? क्या इसके पीछे उनकी कोई मज़बूरी है ?  इसे भी समझना होगा। कुछ दिनों पहले एक किसान ने मुझसे कहा कि खेती के बढ़ते मशीनीकरण के फलस्वरूप गाँवों में पशुधन की संख्या कम होती जा रही है । अब खेतों की जुताई ट्रैक्टरों से और फसलों की कटाई हार्वेस्टरों से होने लगी है। इससे  पशुओं की उपयोगिता और उनकी संख्या भी कम हो गयी है । पहले पराली (पैरा , पुआल ) का उपयोग पशु चारे के रूप में होता था। पशुओं की संख्या घटने के कारण अब  इसका इस्तेमाल बहुत सीमित मात्रा में होता है। इसके अलावा उन्नत कृषि तकनीक और रासायनिक खादों की वजह से फसलों का उत्पादन भी काफी बढ़ गया है। तो कटाई के बाद फसल अवशेषों का क्या किया जाए ? उन्हें खेतों से उठाने में  खर्चा बहुत लगता है। किसान का कहना बहुत हद तक ठीक लगा लेकिन मेरे विचार से देश में  दूध के उत्पादन को अधिक से अधिक  बढ़ावा मिले तो गोवंश की आबादी बढ़ सकती है। इससे पशु चारे के रूप में पैरा की खपत बढ़ेगी। दूध उत्पादक सहकारी समितियों के माध्यम से राज्य सरकारें इस दिशा में प्रयास कर रही हैं। डेयरी फार्मिंग में भी किसानों की मदद के लिए अनेक सरकारी योजनाएँ हैं। 

                       पराली के अनेकानेक वैकल्पिक उपयोग : बन सकती है जैविक खाद

   इंटरनेट को खंगाला जाए तो पराली के वैकल्पिक उपयोगों के बारे में एक से बढ़कर एक बेहतरीन जानकारी मिलेगी ,जिन्हें आजमाया जाए तो समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। पराली को जलाने के बजाय  खेतों में ही सड़ाकर जैविक खाद बनाई जा सकती है।इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 'पूसा डिकम्पोजर' नामक दवा विकसित की है ,जो तरल रूप में और पावडर तथा कैप्सूल के रूप में है। फसल कटाई के बाद इसे खेतों में डालकर पराली को जैविक खाद में परिवर्तित किया जा सकता है। इससे पर्यावरण भी स्वच्छ और स्वस्थ रहेगा। न्यूज ऑन एयर (News On Air)नामक वेबसाइट ने 5 नवम्बर 2022 को इस संबंध में एक विस्तृत ख़बर दी है।इसमें बताया गया है कि 'पूसा डिकम्पोजर' के उपयोग के बारे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने  दिल्ली में एक दिवसीय कार्यशाला का भी आयोजन किया था।

                                   मशरूम उत्पादन में पैरा का इस्तेमाल

   मशरूम की खेती में भी पैरा का उपयोग होता है। हमारे इधर तो 'पैरा फुटू' के नाम से यह ख़ूब लोकप्रिय है। पैरा आधारित मशरूम की खेती करके भी किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं। कई किसान कर भी रहे हैं। अगर इस पद्धति से मशरूम उत्पादन को और भी अधिक बढ़ावा  मिले तो पराली जलाने की समस्या कम हो सकती है ।

                                    पराली से बन सकते हैं कप-प्लेट : 

                         आईआईटी दिल्ली के छात्रों का सराहनीय प्रयोग 

    एक अन्य वेबसाइट' इंडिया साइंस वायर' (India Science Wire) में 16 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई .आई. टी .)दिल्ली के इन्क्यूबेशन सेंटर से जुड़े तीन छात्रो  के  स्टार्टअप ने पराली जैसे फसल अवशेषों से कप -प्लेट (दोना पत्तल)बनाने की तकनीक विकसित की है।इस पहल की शुरुआत आईआईटी-दिल्ली के छात्र अंकुर कुमार, कनिका प्रजापत और प्रचीर दत्ता ने मई 2014 में ग्रीष्मकालीन परियोजना के रूप में शुरू की थी, जब वे बीटेक कर रहे थे। रिपोर्ट के अनुसार -  "उनका विचार था कि फसल अपशिष्टों से जैविक रूप से अपघटित होने योग्य बर्तन बनाने की तकनीक विकसित हो जाए तो प्लास्टिक से बने प्लेट तथा कपों का इस्तेमाल कम किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक प्रक्रिया और उससे संबंधित मशीन विकसित की और पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया। अंकुर कुमार ने बताया कि "जल्दी ही हमें यह एहसास हो गया कि मुख्य समस्या कृषि कचरे से लुगदी बनाने की है, न कि लुगदी को टेबलवेयर में परिवर्तित करना।"लगभग उसी समय, दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की समस्या उभरी और पराली जलाने से इसका संबंध एक बड़ा मुद्दा बन गया। उसी दौरान हमने इस नयी परियोजना पर काम करना शुरू किया था। हमारी कोशिश कृषि अपशिष्टों से लुगदी बनाना और उससे लिग्निन-सिलिका के रूप में सह-उत्पाद को अलग करने की थी। 

      इन छात्रों का कहना था --"हमने सोचा कि अगर किसानों को उनके फसल अवशेषों का मूल्य मिल जाए तो वे पराली जलाना बंद कर सकते हैं। इस प्रकार सितंबर 2017 में प्रोजेक्ट स्थापित किया गया। अभी स्थापित की गई यूनिट में प्रतिदिन 10 से 15 किलोग्राम कृषि अपशिष्टों का प्रसंस्करण किया जा सकता है।इस प्रोजेक्ट के  संस्थापकों का कहना है कि अब वे इससे जुड़ा पायलट प्लांट स्थापित करने के लिए तैयार हैं, जिसकी मदद से प्रतिदिन तीन टन फसल अवशेषों का प्रसंस्करण करके दो टन लुगदी बनायी जा सकेगी। इस तरह के प्लांट उन सभी क्षेत्रों में लगाए जा सकते हैं, जहां फसल अवशेष उपलब्ध हैं।अंकुर के अनुसार, "अगर रणनीतिक पार्टनर और निवेश मिलता है तो बाजार की मांग के अनुसार हम उत्पादन इकाइयों में परिवर्तन करके उसे फाइबर और बायो-एथेनॉल जैसे उत्पाद बनाने के लिए भी अनुकूलित कर सकते हैं।" चूंकि' इंडिया साइंस वायर ' की  यह रिपोर्ट लगभग चार साल पुरानी है ,इसलिए बाद में  क्या हुआ ,इसकी जानकारी फिलहाल मुझे नहीं है। लेकिन इतना तो तय है कि पराली से कप प्लेट भी बन सकते हैं। 

                              सड़क निर्माण में भी काम आएगी पराली 

               इस बीच इंटरनेट पर उपलब्ध 9 नवम्बर 2022 की एक ख़बर के अनुसार केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि पराली से बायो बिटुमिन बनाकर सड़क निर्माण में उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने मध्यप्रदेश में कुछ सड़क परियोजनाओं का शिलान्यास करते हुए कहा कि यह तकनीक अगले दो -तीन महीने में आ जाएगी।

                                ताप बिजली घरों में भी हो सकता है पराली का इस्तेमाल

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 इसके अलावा पराली के इस्तेमाल से ताप बिजली घरों में कोयले की खपत भी कम हो सकती है। इससे पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेगी।वेबसाइट 'डाउन टू अर्थ' की 14 मई 2020 की एक रिपोर्ट में बायोमास के रूप में पराली का इस्तेमाल कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों में किए जाने की संभावनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि वर्ष 2017 में केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को निर्देश दिए थे कि वे अपने ताप बिजली घरों में कोयले के साथ 5 से 10 प्रतिशत बायोमास पैलेट्स(छर्रे या गोली)का इस्तेमाल करें। केन्द्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रम राष्ट्रीय ताप बिजली निगम (एनटीपीसी)ने दादरी स्थित अपने संयंत्र में कोयले के साथ 10 प्रतिशत बायोमास का उपयोग किया था । एनटीपीसी ने देश भर के अपने 21 ताप बिजली घरों में इसका प्रयोग शुरू किया था । आगे क्या हुआ ,इसके बारे में  एनटीपीसी वाले ही बेहतर बता पाएंगे ,लेकिन यह तो तय है कि ताप बिजली घरों में कोयले के साथ कुछ मात्रा में पराली का इस्तेमाल किया जा सकता है।

              दोस्तों , मेरी कोशिश होगी कि पराली के विभिन्न लाभप्रद उपयोगों के बारे में समय -समय पर आपको जानकारी देता रहूँ। आप चाहें तो खुद भी इंटरनेट पर सर्च करके इस संबंध में काफी उपयोगी सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं।  (स्वराज करुण )

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