साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी से मेरे 38 साल
पुराने साक्षात्कार का पुनः स्मरण : स्वराज्य करुण
*********************************************************************************************सही मसाहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी अब इस भौतिक संसार में नहीं हैं। आज अगर वे हमारे बीच होते तो 102 साल के हो चुके होते। लालाजी का जन्म 17 दिसम्बर 1920 को छत्तीसगढ़ की तत्कालीन बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर में हुआ था। गृहनगर जगदलपुर में ही 93 साल की आयु में 14 अगस्त 2013 को उनका निधन हो गया । उनकी साहित्य साधना लगभग 77 वर्षो तक निरन्तर चलती रही । वह बस्तर की आदिवासी संस्कृति और वहाँ के लोक साहित्य के गंभीर अध्येता और विशेषज्ञ थे । मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी भोपाल द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक 'बस्तर :इतिहास एवं संस्कृति ' छत्तीसगढ़ के इस आदिवासी अंचल के सामाजिक -सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तथ्यों का एक प्रामाणिक सन्दर्भ ग्रन्थ है। उन पर केन्द्रित हरिहर वैष्णव की पुस्तक 'लाला जगदलपुरी समग्र ' भी हाल के वर्षो में प्रकाशित हुई है । लाला जगदलपुरी से मेरा यह साक्षात्कार रायपुर की साहित्यिक लघु पत्रिका 'पहचान ' के जून -अगस्त 1984 के अंक में प्रकाशित हुआ था । आज 17 दिसम्बर 2022 को उनके जन्म दिवस के मौके पर लगभग 38 साल के लम्बे अंतराल के बाद इसे पुनः प्रस्तुत करते हुए उनसे जुड़ी अनेकानेक स्मृतियाँ आंखों में तैरने लगी हैं ।**************************************************************************************************
यदि आपमें साहित्यिक अभिरुचि है और आप कभी जगदलपुर (बस्तर )जाएं और वहाँ लाला जगदलपुरी से भेंट न करें , ऐसा आपके लिए हर्गिज़ संभव नहीं। पिछले दिनों एक सरकारी काम से जगदलपुर गया तो वहाँ मुझे लालाजी से मुलाकात का भी सौभाग्य मिला ।बस्तर की पहली यात्रा और पहली बार एक समर्पित साहित्य साधक से मिलने और बातचीत करने का यह पहला मौका मेरे जीवन की सर्वाधिक मधुर स्मृतियों में शामिल हो गया है।
शाम को गरज -चमक के साथ पड़ी तेज़ बौछारों से नवतपे की गर्मी शांत हो गयी थी । हवा में ठंडक आ गयी थी और आसमान रह -रह कर टपक रहा था ।मैं लोगों से लालाजी के निवास का पता पूछते हुए निकल रहा था ।धोती -कुर्ता पहने एक दुबले -पतले सज्जन छाता लगाए नज़दीक से गुजरे । मैंने देखा -अरे ! वही तो हैं ।पत्र -पत्रिकाओं में छपी उनकी तस्वीरें मेरे स्मृति -पटल पर उभर आयीं । मैंने कुछ झिझकते हुए उन्हें रोककर पूछा -क्या आप ही लाला जगदलपुरी हैं ?स्नेह भरी आवाज़ में उन्होंने कहा - हाँ -हाँ ! कहिए आप ....?
साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी
मैंने अपना परिचय दिया ।बड़ी आत्मीयता और प्रसन्नता के साथ वे मुझे एक चाय की दुकान पर ले गए ।बाहर बूंदाबांदी ने फिर बारिश का रूप ले लिया था ।चाय के साथ हमारी बातचीत भी चलने लगी ।लालाजी जितने विशाल हॄदय वाले हैं ,उतने ही स्पष्टवादी भी । साहित्यिक क्षेत्र में फैली उठा -पटक की राजनीति से वे काफी क्षुब्ध हैं ।उन्होंने कहा --" साहित्य की दुनिया में फैली खेमेबाजी ने आज बहुत -सी प्रतिभाओं को उपेक्षा के अँधेरे में ला पटका है।" काफी देर तक बातें होती रही।
बारिश थमने पर वे मुझे अपने घर ले गए ।हाल ही में 'आंदोलन प्रकाशन' जगदलपुर द्वारा प्रकाशित अपने ग़ज़ल संग्रह ' मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश ' की एक प्रति उन्होंने मुझे भेंट की ।उनकी 51 ग़ज़लों का यह संकलन इन दिनों काफी चर्चा और प्रशंसा का विषय बना हुआ है।जिज्ञासा हुई कि उन्होंने संग्रह का शीर्षक 'मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश ' ही क्यों रखा ?क्या ज़िन्दगी और परिवेश एक सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ?क्या वे नहीं मानते कि ज़िन्दगी से ही परिवेश बनता है ?
उन्होंने कहा -" मैं परिवेश और ज़िन्दगी को एक नहीं मानता ।दोनों एक सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ।परिवेश एक परिधि है ,जिसके केन्द्र में हमारी ज़िन्दगी है ।परिवेश एक स्थानवाची शब्द है ।यद्यपि ज़िन्दगी ही परिवेश बनाती है लेकिन दोनों का अस्तित्व पृथक --पृथक होता है ।चोरों ,उठाईगीरों ,शोषकों का झुंड ही आज परिवेश बन गया है ।सामर्थ्यवान लोग दहाड़ रहे हैं और कमज़ोर मिमिया रहे हैं ।परिवेश हमारी ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ हो गया है ।" लालाजी ने आगे कहा -" परिवेश एक व्यवस्था है ,जिसके सामने आज ज़िन्दगी मिमिया रही है । मेरे ग़ज़ल संग्रह का शीर्षक यही संकेत देता है ।"
लालाजी के इस संकलन की अधिकांश ग़ज़लें हमारे समय और समाज की विसंगतियों को रेखांकित करती हैं ।लालाजी आदिवासी अंचल में रचे -बसे रचनाकार हैं।अतः उनकी कुछ ग़ज़लों में बस्तर की आदिम धरती का भी सजीव चित्रण हुआ है ।संग्रह में जहाँ जीवन का जंगली संग्राम है ,वहीं तूम्बा के साथ सरगी के वृक्षों की शीतल छाया भी । बानगी देखिए --
इस धरती के राम जंगली इसके नमन -प्रणाम जंगली
कुड़ई , कुंद, झुई सम्मोहक वनफूलों के नाम जंगली ।
अथवा
लम्बी राह ,हमसफ़र तूम्बा ग्रीष्म की दाह ,हमसफ़र तूम्बा ।
सिरचढ़ी धूप ,गाँव का राही पेड़ की छाँह ,हमसफ़र तूम्बा ।
या
प्रकृति का सहज प्यार सरगी की छाया
शीतल -शीतल उदार, सरगी की छाया ।
जीवन पर विसंगतियां तो हावी हैं ही , पर मानवीय संवेदना और सौन्दर्य का महत्व भी कम नहीं हुआ है। व्यवस्था के शिंकजे में मिमियाती ज़िन्दगी को देख कर लाला जी व्यथित हैं । समय के विरोधाभास का एक चित्र उनके संग्रह की पहली ही ग़ज़ल में देखिए --
दहकन का अहसास कराता चंदन कितना बदल गया है
मेरा चेहरा मुझे डराता , दरपन कितना बदल गया है ।
लालाजी पिछले क़रीब पाँच दशकों से लगातार लिख रहे हैं ।वे राष्ट्रभाषा हिन्दी के अलावा लोक भाषाओं ;छत्तीसगढ़ी , हल्बी और भतरी में भी निरन्तर सृजनरत हैं ।'हल्बी पंचतंत्र ' , हल्बी लोककथाएँ'और 'रामकथा ' उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं ।बस्तर की आदिवासी संस्कृति पर उन्होंने अनेक शोध -निबंध लिखे हैं ,जो विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। लालाजी निरन्तर लिखें और राष्ट्रभाषा और लोकभाषाओं के भण्डार को समृद्ध करते रहें ,यही शुभकामना है । प्रस्तुत है ,लाला जगदलपुरी के हाल ही में छपे ग़ज़ल -संग्रह 'मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश 'से एक ग़ज़ल
आसमान लौटा दे सूरज
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छद्म चेतना जिसको मारे उसकी टूटन कौन निवारे ।
होंगे कितने विवश आदमी जो अंदर ही अंदर हारे ।
चीख़ -पुकारों की सांसत में कौन पुकारे , किसे पुकारे ?
बड़ा ज़ुर्म है यहाँ न कोई निरीहता पर आँसू ढारे।
जिसको देखो वही देवता किस -किस की आरती उतारें ?
उनकी सारी सुख -सुविधाएँ ,जो अनीति के राजदुलारे ।
आसमान लौटा दे सूरज, रख ले सारे चाँद -सितारे ।
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