Friday, July 22, 2022

(आलेख) एक हजार साल से भी पुराना है छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य का इतिहास

आलेख -- स्वराज करुण 

भारत के प्रत्येक राज्य और वहाँ के प्रत्येक अंचल की अपनी भाषाएँ ,अपनी बोलियाँ ,अपना साहित्य ,अपना संगीत और अपनी संस्कृति होती है। ये रंग -बिरंगी विविधताएँ ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है ,जो इस देश को एकता के मज़बूत बंधनों में बांध कर रखती है। छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा भारतीय राज्य है , जो अपनी भाषा ,अपने साहित्य और अपनी विविधतापूर्ण लोक संस्कृति से सुसज्जित और समृद्ध है।यहाँ की भाषा और यहाँ के साहित्य को अपनी लेखनी के माध्यम से निरंतर विकसित और संरक्षित करने के लिए समर्पित साहित्य मनीषियों में डॉ. विनय कुमार पाठक भी हैं ,जो विगत आधी शताब्दी से भी अधिक समय से हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी साहित्य की सेवा में भी  लगे हुए हैं।

    बिलासपुर में 11 जून 1947 को जन्मे डॉ. पाठक की अनेक पुस्तकें विभिन्न साहित्यिक -सांस्कृतिक  विषयों में प्रकाशित हो चुकी हैं। बी. एस-सी.एम .ए. के बाद उन्होंने हिन्दी और भाषाविज्ञान में पीएच -डी. की है। उन्हें डी.लिट् की भी उपाधि मिली है। उनके दो शोधग्रंथ हैं -- (1) छत्तीसगढ़ी साहित्य का सांस्कृतिक अनुशीलन  और (2) भाषाविज्ञान के तहत छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिन्दी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ परिवर्तन  । उनके अन्य ग्रंथों में  वर्ष 2021 में प्रकाशित 382 पृष्ठों का 'विकलांग -विमर्श ' भी काफी चर्चित और प्रशंसित रहा है। देश में अपनी तरह का यह एक अनोखा  ग्रंथ है। इसमें में देश के निःशक्त जनों की सामाजिक -आर्थिक स्थिति और हिन्दी साहित्य तथा सिनेमा में उनके जीवन संघर्षो का चित्रण है। यह अपनी विषय -वस्तु और आकार -प्रकार में एक शोधग्रंथ के समकक्ष है। डॉ. पाठक छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इन दिनों वह अपने गृहनगर बिलासपुर की साहित्यिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हैं । अपनी संस्था 'प्रयास प्रकाशन ' से उन्होंने राज्य के अनेक रचनाकारों की पुस्तकों का प्रकाशन किया है।

 ननउनकी एक पुस्तक छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' का पहला संस्करण वर्ष 1971 में प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्रमिक विकास का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है । छपते ही उन दिनों आंचलिक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों के बीच इसकी डिमांड इतनी बढ़ी कि दूसरा और तीसरा संस्करण भी छपवाना पड़ा।दूसरा संस्करण 1975 में और तीसरा वर्ष 1977 में प्रकाशित हुआ था।  पुस्तक का तीसरा संस्करण उन्होंने मुझे 18 अगस्त 1977 को भेंट किया था ,जब वह आरंग के शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक थे।वहाँ रहते हुए उन्होंने स्थानीय कवियों की रचनाओं का एक छोटा संकलन 'आरंग के कवि ' शीर्षक से सम्पादित और प्रकाशित किया था।



                                                   छत्तीसगढ़ी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास

            डॉ. विनय कुमार पाठक की   पुस्तक  'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' को मैं छत्तीसगढ़ का साहित्यिक इतिहास मानता हूँ। लगभग 106 पृष्ठों की 17 सेंटीमीटर लम्बी और 11 सेंटीमीटर चौड़ी यह पुस्तक आकार में छोटी जरूर है ,लेकिन प्रकार में यह  हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की याद दिलाती है ,जिन्हें  हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए भी याद किया जाता है। डॉ. पाठक ने अपनी पुस्तक में  छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्रमबद्ध विकास को अलग -अलग कालखण्डों में रेखांकित किया है। इस पुस्तक से ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ी साहित्य का इतिहास एक हजार साल से भी अधिक पुराना है। आत्माभिव्यक्ति के तहत डॉ. पाठक ने लिखा है कि इस कृति में स्पष्ट रूप से दो खण्ड हैं, जिसमें पहला खण्ड साहित्य का है और दूसरा साहित्यकारों का। 

     वह लिखते हैं --"कई झन बिदवान मन छत्तीसगढ़ी साहित्य ल आज ले दू-तीन सौ बरिस तक मान के ओखर कीमत आंकथे। मय उन बिदवान सो पूछना चाहूं के अतेक पोठ अउ जुन्ना भाषा के साहित्य का अतेक नवा होही ? ए बात आने आए के हमला छपे या लिखे हुए साहित्य नइ मिलै,तभो एखर लोक साहित्य ल देख के अनताज (अंदाज ) तो लगाए जा सकत हे के वो कोन जुग के लेखनी आय ! छत्तीसगढ़ी के कतकोन कवि मरगें ,मेटागें ,फेर अपन फक्कड़ अउ सिधवा सुभाव के कारन ,छपास ले दूरिया रहे के कारन रचना संग अपन नांव नइ गोबिन। उनकर कविता ,उनकर गीत आज मनखे -मनखे के मुंहूं ले सुने जा सकत हे। उनकर कविता म कतका जोम हे ,एला जनैयेच मन जानहीं।"


                                                              


                                                                डॉ. विनय कुमार पाठक 

डॉ. पाठक ने लिखा है कि शब्द सांख्यिकी का नियम लगाकर ,युग के प्रभाव और उसकी प्रवृत्ति को देखकर कविता लेखन के समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने शब्द सांख्यिकी नियम लगा कर बताया है कि पूर्वी हिन्दी (अवधी)से छत्तीसगढ़ी 1080 साल पहले नवमी -दसवीं शताब्दी में अलग हो चुकी थी । पुस्तक में डॉ. वर्मा को संदर्भित करते हुए  छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास का काल निर्धारण भी किया है,जो इस प्रकार है -- मौखिक परम्परा (प्राचीन साहित्य )--आदिकाल (1000 से 1500वि) -- चारण काल (1000 से 1200 वि)-- वीरगाथा काल (1200 से 1500 तक ),फिर मध्यकाल(1500 से 1900 वि),फिर लिखित परम्परा यानी आधुनिक साहित्य (1900 से आज तक )फिर आधुनिक काल में भी प्रथम उन्मेष (1900 से 1955 तक )और द्वितीय उन्मेष (1955 से आज तक )। आदिकाल के संदर्भ में डॉ. विनय पाठक लिखते हैं --इतिहास के पन्ना ल उल्टाये ले गम मिलथे के 10 वीं शताब्दी ले 12वीं शताब्दी तक हैहयवंशी राजा मन के कोनो किसिम के लड़ाई अउ बैर भाव नइ रिहिस।उनकर आपुस म मया भाव अउ सुमता दिखथे। ए बीच  बीरगाथा के रचना होना ठीक नई जान परै।ओ  बखत के राजा मन के राज म रहत कवि मन के जउन राजा के बीरता ,गुनानवाद मिलथे (भले राजा के नांव नइ मिलै)।ओ अधार ले एला चारण काल कहि सकत हन ।12वीं शताब्दी के छेवर-छेवर मा इन मन ल कतको जुद्ध करना परिस ।ये तरह 12 वीं शताब्दी के छेवर -छेवर ले 1500 तक बीर गाथा काल मान सकत हन।ये ही बीच बीरता ,लड़ाई ,जुद्ध के बरनन होइस हे, एमा दू मत नइये।

      लेकिन इतिहासकारों और साहित्यकारों में कई बार तथ्यों को लेकर मत भिन्नताएं होती ही  हैं ,जो बहुत स्वाभाविक है।  डॉ. पाठक वर्ष 1000 से 1500 तक को आदिकाल या वीरगाथा काल के रूप में स्थापित किए जाने के डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के विचार  को आधा ठीक और आधा गलत मानते हैं। उन्होंने आगे  लिखा है --"गाथा बिसेस के प्रवृति होय के कारण ये जुग ल गाथा युग घलो कहे जा  सकत हे।एमा मिलत प्रेमोख्यान गाथा म अहिमन रानी ,केवला रानी असन अबड़ कन गाथा अउ धार्मिक गाथा म पंडवानी, फूलबासन ,असन कई एक ठो गाथा ल ए जुग के रचना कहे अउ माने जा सकत हे। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ह 1000 ले 1500 तक के जुग ल आदिकाल या बीरगाथा काल कहे हे ,जउन ह आधा ठीक अउ आधा गलत साबित होथे। "

                                 छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि धरम दास 

     आगे डॉ. पाठक ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास क्रम में  मध्यकाल और आधुनिक साहित्य से जुड़े तथ्यों की चर्चा की है। उन्होंने मध्यकालीन साहित्य में  भक्ति धारा के प्रवाहित होने के  प्रसंग में लिखा है कि  संत कबीरदास के शिष्य धरम दास को छत्तीसगढ़ी का पहला कवि माना जा सकता है। डॉ. पाठक लिखते हैं -- "राजनीति के हेरफेर अउ  चढ़ाव -उतार के कारन समाज म रूढ़ि ,अंधविश्वास के नार बगरे के कारन ,मध्यकाल म लोगन के हिरदे ले भक्ति के धारा तरल रउहन बोहाये लागिस।वइसे तो इहां कतको भक्त अउ संत कवि होगे हें ,फेर उंकर परमान नइ मिल सके के कारन उनकर चरचा करना ठीक नोहय।कबीरदास के पंथ ल मनैया कवि मन के अतका परचार-परसार होय के कारन इहां कबीरपंथ के रचना अबड़ मिलथे। एही पंथ के रद्दा म रेंगइया कबीरदास के पट्ट चेला धरम दास ल छत्तीसगढ़ी के पहिली कवि माने जा सकत हे।घासीदास के पंथ के परचार के संग संग कतको रचना मिलथे ,जउन हर ये जुग के साहित्य के मण्डल ल भरथे। "

   छत्तीसगढ़ी में कहानी ,उपन्यास ,नाटक और एकांकी ,निबंध और समीक्षात्मक लेख भी खूब लिखे गए हैं। अनुवाद कार्य भी खूब हुआ है। पुस्तक की शुरुआत डॉ. पाठक ने 'छत्तीसगढ़ी साहित्य' के अंतर्गत गद्य साहित्य से करते हुए  यहाँ के गद्य साहित्य की इन सभी  विधाओं के प्रमुख  लेखकों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। डॉ. पाठक के अनुसार   कुछ विद्वान  छत्तीसगढ़ी गद्य का सबसे पहला नमूना  दंतेवाड़ा के शिलालेख को बताते हैं ,जबकि यह मैथिली के रंग में रंगा हुआ है। 

                 आरंग का शिलालेख छत्तीसगढ़ी गद्य का पहला नमूना 

                                    ************

अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक ने लिखा है कि  आरंग में मिले सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला नमूना माना जा सकता है।इसका ठोस कारण ये है कि यह (आरंग)निमगा (शुद्ध )छत्तीसगढ़ी की जगह है और यह कलचुरि राजा अमर सिंह का शिलालेख है। सन 1890 में हीरालाल काव्योपाध्याय का 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण ' छपकर आया ,जिसमें ढोला की कहानी और रामायण की कथा भी छपी है ,जिनकी भाषा मुहावरेदार और काव्यात्मक है।अनुवादों के प्रसंग में पाठकजी ने एक दिलचस्प जानकारी दी है कि सन 1918 में पंडित शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने शेक्सपियर के लिखे 'कॉमेडी ऑफ एरर्स ' का अनुवाद 'पुरू झुरु' शीर्षक से किया था । पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने कालिदास के 'मेघदूत' का छत्तीसगढ़ी अनुवाद करके एक बड़ा काम किया है।पुस्तक में 'छत्तीसगढ़ी साहित्य म नवा बिहान 'शीर्षक ' के अंतर्गत प्रमुख कवियों की कविताओं का भी जिक्र किया गया है।

                    लिखित परम्परा की शुरुआत 

                    ****************

               छत्तीसगढ़ी साहित्य में आधुनिक काल की चर्चा प्रारंभ करते हुए अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक कहते  हैं-"कोनो बोली ह तब तक भाषा के रूप नइ ले लेवै ,जब तक ओखर लिखित परम्परा नइ होवै।" इसी कड़ी में उन्होंने आधुनिक काल के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी के लिखित साहित्य के प्रथम और द्वितीय उन्मेष पर प्रकाश डाला है। प्रथम उन्मेष में उन्होंने सन 1916 के आस -पास राजिम के पंडित सुन्दरलाल शर्मा रचित 'छत्तीसगढ़ी दानलीला 'सहित आगे के वर्षों में प्रकाशित कई साहित्यकारों की कृतियों की जानकारी दी है।

                         सुराज मिले के पाछू नवा-नवा प्रयोग 

                           *****************

      द्वितीय उन्मेष में वह लिखते हैं --"सुराज मिले के पाछू हिन्दी के जमों उप -भाषा अउ बोली डहर लोगन के धियान गिस।ओमा रचना लिखे के ,ओमा सोध करेके ,ओमा समाचार पत्र अउ पत्रिका निकारे के काम धड़ाधड़ सुरू होगे। छत्तीसगढ़ी म ए बीच जतका प्रकाशन होइस ,साहित्य म जतका नवा -नवा प्रयोग होइस ,ओखर ले छत्तीसगढ़ी के रूप बने लागिस,संवरे लागिस।अउ आज छत्तीसगढ़ी ह आने रूप म हमार आघू हावै। छत्तीसगढ़ी डहर लोगन के जउन रद्दी रूख रहिस ,टरकाऊ बानी रहिस ,अब सिराय लागिस। छत्तीसगढ़ी साहित्य ह अब मेला -ठेला ले उतरके लाइब्रेरी ,पुस्तक दुकान अउ ए .एच. व्हीलर इहां आगे। लाउडस्पीकर म रेंक के बेंचई ले उठके रेडियो, सिनेमा अउ कवि सम्मेलन तक हबरगे।गंवैहा मन के चरचा ले असकिटिया के 'काफी हाउस' अउ 'साहित्यिक गोष्ठी ' के रूप म ठउर जमा लिस। लोगन के सुवाद बदलगे, छत्तीसगढ़ के भाग पलटगे। " 

      डॉ. पाठक ने 'द्वितीय उन्मेष' में विशेष रूप से छत्तीसगढ़ी कवियों  की चर्चा की है। साथ ही उन्होंने इनमें से 25 प्रमुख कवियों के काव्य गुणों का उल्लेख करते हुए उनकी एक -एक रचनाएँ भी प्रस्तुत की हैं। इनमें सर्व प्यारेलाल गुप्त ,कुंजबिहारी लाल चौबे ,कोदूराम दलित ,श्यामलाल चतुर्वेदी, विमल कुमार पाठक, नारायण लाल परमार,डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप' , लाला जगदलपुरी, दानेश्वर शर्मा ,हरि ठाकुर ,विद्याभूषण मिश्र, लखनलाल गुप्त,विनय कुमार पाठक ,रघुवीर अग्रवाल'पथिक', हेमनाथ यदु ,बृजलाल प्रसाद शुक्ल ,कपिलनाथ कश्यप ,अखेचंद क्लांत ,मेथ्यू जहानी 'जर्जर',गयाराम साहू ,सीताराम शर्मा ,भरतलाल तिवारी ,राजेन्द्र प्रसाद तिवारी ,देवधर दास महंत और सुश्री शकुन्तला शर्मा 'रश्मि' की कविताएँ शामिल हैं।

     बहरहाल ,साहित्य मनीषी  डॉ. विनय कुमार पाठक की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार ' न सिर्फ़ इस राज्य के ,बल्कि देश के अन्य राज्यों के जिज्ञासु पाठकों ,साहित्यकारों और शोध कार्यो में दिलचस्पी रखने वाले लेखकों तथा छात्र -छात्राओं के लिए भी ज्ञानवर्धक है। हालांकि वर्ष 1977 में छपे इसके तीसरे संस्करण के बाद विगत 45 वर्षों से इसके चौथे संस्करण का बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा है । चूंकि साढ़े चार दशकों के इस लम्बे अंतराल में जमाना बहुत बदल गया है।  कम्प्यूटर क्रांति से मुद्रण तकनीक और मीडिया जगत में भी भारी बदलाव आया है। छपाई का काम बहुत आसान हो गया है। छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में इस दौरान कई परिवर्तन हुए हैं। बड़ी संख्या में नये रचनाकार आंचलिक पत्र -पत्रिकाओं में खूब  प्रकाशित हो रहे हैं। उनकी पुस्तकें भी खूब छप रही हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन सहित कई प्राइवेट टीव्ही चैनलों में उन्हें मंच भी मिल रहा है। उम्मीद है कि डॉ. पाठक जब कभी अपनी इस पुस्तक का चौथा संस्करण प्रकाशित करेंगे ,उसमें इन परिवर्तनों को शामिल करते हुए उसे एक नये स्वरूप में प्रस्तुत करेंगे।-- स्वराज करुण 

2 comments:

  1. वाह वाह! महत्वपूर्ण जानकारी।

    ReplyDelete