पुस्तक चर्चा
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कोशल नंदिनी : आत्मकथा शैली में
माता कौशल्या के जीवन पर पहला उपन्यास
प्राचीन महाकाव्यों के प्रसिद्ध पात्रों पर उपन्यास लेखन किसी भी साहित्यकार के लिए एक चुनौतीपूर्ण और जोख़िम भरा कार्य होता है।चुनौतीपूर्ण इसलिए कि लेखक को उन पात्रों से जुड़े पौराणिक प्रसंगों और तथ्यों का बहुत गहराई से अध्ययन करना पड़ता है। इतना ही नहीं ,बल्कि उसे उन पात्रों की मानसिकता को , उनके भीतर की मानसिक उथल -पुथल को या कह लीजिए कि उनके मनोविज्ञान को गंभीरता से समझना पड़ता है। घटनाओं से ताल्लुक रखने वाले इलाकों के तत्कालीन भूगोल और वहाँ की तत्कालीन समाज व्यवस्था और संस्कृति की भी जानकारी रखनी पड़ती है। लिखते समय कथानक से जुड़े तमाम चरित्रों को अपने चिन्तन के साँचे में ढालकर उन्हें अपने भीतर जीना भी पड़ता है। तभी तो उन पात्रों से सम्बंधित घटनाओं को ,उनकी बातचीत को ,उनके संवादों को वह जीवंत रूप में अच्छी तरह प्रस्तुत कर पाता है।
पौराणिक उपन्यासों के लेखक :
शिवशंकर पटनायक
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पौराणिक उपन्यास लेखन जोख़िम भरा इसलिए भी होता है कि तथ्य और प्रसंग अगर त्रुटिपूर्ण हुए तो लेखक को आलोचना का पात्र बनना पड़ता है। इन सभी कसौटियों पर देखें तो छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में पिथौरा जैसे छोटे कस्बे के निवासी शिवशंकर पटनायक एक कामयाब उपन्यासकार हैं ,जो लगभग 78 वर्ष की उम्र में भी उत्साह के साथ साहित्य के लिए समर्पित होकर कहानी ,उपन्यास और निबंध जैसी विधाओं में लगातार सृजनरत हैं।
पटनायक जी ने रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय महाकाव्यों के अनेक चर्चित चरित्रों पर कई उपन्यासों की रचना की है ,जिन्हें हिन्दी के साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला है। इनमें (1) भीष्म प्रश्नों की शर -शैय्या पर (2) कालजयी कर्ण ((3) एकलव्य आदि उल्लेखनीय हैं। रामायण और महाभारत की प्रसिद्ध महिलाओं की जीवन यात्रा को भी उन्होंने अपने उपन्यासों का विषय बनाया है। उनका एक उपन्यास ' आत्माहुति ' माता कैकेयी के जीवन पर आधारित है। अहल्या ,तारा ,मंदोदरी , कुन्ती और द्रौपदी पर केन्द्रित उनके उपन्यास 'आदर्श नारियां ' शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित हुए हैं।शिवशंकर पटनायक इसके पहले अपने पौराणिक उपन्यासों की श्रृंखला में दुर्योधन की पत्नी भानुमति पर एक उपन्यास 'नागफ़नी पर खिला गुलाब ' लिख चुके हैं।
माता कौशल्या की आत्म -कथा : कोशल नंदिनी
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इसी तारतम्य में रामायण के महानायक प्रभु श्रीराम की माता कौशल्या की जीवन -गाथा पर आधारित उनका उपन्यास 'कोशल-नंदिनी 'भी हाल ही में प्रकाशित हुआ है , जो हमारे प्राचीन इतिहास में 'कोसल ' और ' दक्षिण कोसल' के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि पर आधारित है। यह अंचल दंडकारण्य के नाम से भी प्रसिद्ध रहा है। कई विद्वानों ने इस अंचल को माता कौशल्या का मायका और भगवान श्रीराम का ननिहाल माना है। इस नाते छत्तीसगढ़ की जनता से प्रभु श्रीराम का 'मामा -भांचा ' का रिश्ता बनता है और यही कारण है कि यहाँ भानजे के चरणस्पर्श की परम्परा है। माता कौशल्या दक्षिण कोसल के महाराजा भानुवंत और महारानी सुबाला की पुत्री थीं। महानदी के किनारे श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर ) को महाराज भानुवंत की राजधानी माना जाता है।
उपन्यास की पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़
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शिवशंकर पटनायक रचित 'कोशल नंदिनी ' माता कौशल्या के जीवन पर आत्मकथा के रूप में हिन्दी में पहला उपन्यास है ,जिसकी पृष्ठभूमि तत्कालीन कोसल या दक्षिण कोसल है और छत्तीसगढ़ जिसका अभिन्न अंग रहा है। अपने उपन्यासों में पात्रों को फ्लैशबैक में ले जाकर उनके ही माध्यम से घटनाओं का वर्णन करना शिव शंकर पटनायक की लेखकीय विशेषता है। वह कहानीकार भी हैं और यही खूबी उनकी कहानियों में भी होती है।
उपन्यास' कोशल नंदिनी' की शुरुआत होती है रावण वध के बाद अवधपुरी (अयोध्या)में बने उत्साह और उत्सव के वातावरण से और समापन होता है श्रीराम के वनगमन के करुणामय प्रसंग के साथ। हालांकि दोनों घटनाओं में वनगमन पहले होना था ,लेकिन उपन्यास ने अपनी चिर-परिचित फ्लैशबैक शैली में शुरुआत की है ,जिसमें माता कौशल्या अवधपुर के राजप्रासाद में मनाए जा रहे उत्सव का वर्णन करती हैं और श्रीराम के वनगमन को वह माता कैकेयी की आत्माहुति कहकर अपनी 'आत्म-कथा ' को विराम देती हैं।
शिवाहा पर्वत और चित्रोत्पला महानदी
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उपन्यास के सभी प्रसंग पाठकों में कौतुहल जाग्रत करते हैं । लेखक ने दक्षिण कोसल के प्राचीन स्थलों को भी रेखांकित किया है, जो पाठकों के ज्ञानवर्धन की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे -- वर्तमान सिहावा पर्वत उन दिनों 'शिवाहा 'कहलाता था ,जो चित्रोत्पला महानदी का उदगम भी है। भगवान श्रीराम की बहन का नाम शांता था। वह विकलांग थीं ,लेकिन अपने गहन अध्ययन और कठोर परिश्रम से उन्होंने विकलांगता को पराजित कर दिया था।
कौशल्या जन्म की कहानी और
राजीव लोचन मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा
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माता कौशल्या का एक नाम ' अपराजिता' भी है। वह अपनी माता सुबाला से अपने जन्म की कहानी जानना चाहती हैं। सुबाला उन्हें बताती हैं कि संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने और महाराज भानुवंत ने भगवान शिव की आराधना की । वह प्रकट हुए । उन्होंने उनसे भगवान विष्णु की पूजा करने और चित्रोत्पला के संगम पर उनका मंदिर स्थापित करने की सलाह दी और कहा कि मुझमें और भगवान श्रीकांत (विष्णु)में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने भानुवंत और सुबाला को इस मंदिर की स्थापना के साथ ही ऋषि लोमश के साथ संतान कामेष्टि यज्ञ करवाने के लिए भी कहा। महारानी सुबाला अपराजिता यानी कौशल्या को बताती हैं -"-मंदिर निर्माण में सभी ने अभूतपूर्व सहयोग दिया। चित्रोत्पला महानदी के संगम पर जहाँ दो अन्य सहायक नदियाँ आकर मिलती हैं ,स्थापत्य कला से पूर्ण भगवान राजीव लोचन का मंदिर निर्मित हो गया। ऋषि लोमश का सम्पूर्ण समय निरीक्षण ,अवलोकन तथा पर्यवेक्षण में व्यतीत हुआ। स्वामी जब कभी आकस्मिक रूप से वहाँ पहुँचते ,ऋषि लोमश से अवश्य मिलते।भगवान राजीव लोचन के मंदिर के भव्य शिलान्यास के साथ निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया तथाअप्रत्याशित समयावधि में पूर्ण हो गया।आर्यावर्त के लगभग मध्य में स्वर्ण रेखा नर्मदाजी से चित्रोत्पला महानदी के उदगम स्थल शिवाहा पर्वत से आगे तक विस्तृत कोसल राज्य के प्रायःसभी ऋषि यथा --कश्यप , अत्रि ,लोमश , श्रृंगी , मुचकुंद ,अंगिरा ,सरभंग के अतिरिक्त वशिष्ठ ,विश्वामित्र ,गौतम ,अगस्त्य तथा महेन्द्र गिरि से परशुराम ऋषि भी भगवान राजीवलोचन की प्राण -प्रतिष्ठा के समय उपस्थित हो गए थे। ऋषियों ने महाराज को आशीष तथा शुभकामनाएं देकर विदा ली। इसके पांचवें दिन ऋषि लोमश ने राजीव लोचन मंदिर प्रांगण में ही संतान कामेष्टि यज्ञ प्रारंभ कर दिया।
कोसल की पावन धरा पर जन्म मेरा सौभाग्य
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उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि चित्रोत्पला महानदी और दो अन्य नदियों (पैरी और सोंढूर )का यह संगम स्थल छत्तीसगढ़ का वर्तमान तीर्थ राजिम है ,जहाँ दक्षिण कोसल के महाराजा भानुवंत ने लोमश ऋषि की देखरेख में विष्णु मंदिर के रूप में राजीव लोचन मंदिर का निर्माण करवाया था। उपन्यास में माता सुबाला अपनी पुत्री अपराजिता (कौशल्या)को बताती हैं कि यज्ञ के फलस्वरूप भगवान लक्ष्मीनारायण ने स्वप्न में महाराज भानुवंत को संतान प्राप्ति का वरदान दिया और आगे चलकर पुत्री अपराजिता का जन्म हुआ। अपने जन्म की कथा सुनकर वह कहती है --"वास्तव में यह मेरा सौभाग्य था कि कोसल की पावन धरा पर मैंने जन्म लिया।"
प्रजा हितैषी राजा -महाराजा
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उपन्यास के महत्वपूर्ण घटनाचक्र में एक ज्ञानवर्धक प्रसंग रामायण काल के राजाओं के प्रजा हितैषी स्वभाव को भी प्रकट करता है ,जो देश की चार प्रमुख नदियों के अवतरण का भी प्रसंग है। माता कौशल्या ने यह कथा ऋषि कश्यप से सुनी थी। उपन्यास में कौशल्या के।माध्यम से लेखक ने इसका वर्णन किया है।
यह महाराज चित्रवंत की कथा है ,जिन्होंने कोसल राज्य की प्रजा के आग्रह पर राज्य में गंगा की तरह एक जीवनदायिनी नदी की आवश्यकता को देखते हुए वन में रहकर अनेक वर्षों तक मातागंगा की कठोर तपस्या की। माता गंगा प्रकट होती हैं और उनसे वरदान मांगने के लिए कहती हैं। इस पर महाराज चित्रवंत उनसे प्रजा हित में कोसल राज्य में आने का आग्रह करते हैं।लेकिन वह अपनी विवशता बताकर कहती हैं -- "मैं तुम्हारी भावनाओं की सराहना करती हूँ,किन्तु विवश हूँ।भगवान विष्णु के चरणों से निकलकर त्रिलोचन भगवान आशुतोष महादेव की जटा पर बंधी हूँ। सर्व कल्याण ही तुम्हारा लक्ष्य है।अतः ,पुत्र , तुम हताश न होकर सदाशिव महादेव को संतुष्ट करो।"
देश की चार प्रमुख नदियों का अवतरण
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महाराज चित्रवंत तनिक भी निराश हुए बिना भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गए। महादेव प्रकट हुए और उन्होंने चित्रवंत से वरदान मांगने कहा। उनके यह कहने पर कि आप तो अंतर्यामी हैं ,आप मेरे हॄदय की पीड़ा को जानते हैं , भगवान महादेव मुस्कान सहित कहते हैं -- "भगीरथ ने अपने पूर्वजों अर्थात महाराज सागर के 60 हजार पुत्रों के मोक्ष के लिए धरती पर गंगा का अवतरण कराया था ,किन्तु तुम तो अपनी प्रजा तथा दक्षिणवासी वनवासियों के जीवन ,जल तथा मोक्ष के लिए देवी गंगा का प्राकट्य चाह रहे हो।यह काम -विकार रहित लोक -कल्याण के लिए कामना है।इस पर्वत अंचल तथा दक्षिण के वनवासी ,सभी मेरे अनन्य भक्त हैं अतः पुत्र चित्रवंत ! यह पर्वत मेरे नाम के अनुरूप शिवाहा के नाम से विख्यात होगा । इसके कुण्ड से देवी गंगा पूर्व दिशा की ओर चित्रोत्पला के नाम से , तथा कोसल राजधानी की उत्तरी सीमा में स्थित विन्ध्य से स्वर्ण -रेखा नर्मदा जी के रूप में पश्चिम दिशा में प्रवाहित होंगी। " महाराज चित्रवंत ने उनसे दक्षिण के वनवासियों के बारे में भी विचार करने का आग्रह किया। इस पर भगवान शिव बोले --मैं तुम्हारी व्यापक तथा सार्थक भावना को जनता हूँ पुत्र ! निश्चिंत रहो ।देवी गंगा दक्षिण में मातृत्व की प्रतिमूर्ति की तरह गोदावरी के नाम से प्रवाहित होंगी। पुत्र ! उत्तर में गंगा , दक्षिण में गोदावरी , पूर्व में चित्रोत्पला और पश्चिम में स्वर्ण -रेखा नर्मदा , आर्यावर्त में चारों दिशाओं में गंगा प्रवाहित होंगी ।"
कोसल राज्य की सीमाएं
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लेखक ने उपन्यास में तत्कालीन कोसल राज्य की भौगोलिक सीमाओं का भी उल्लेख किया है । अयोध्या से माता कौशल्या अपने पुत्र( बालक) राम को लेकर मायके यानी कोसल प्रदेश जा रही हैं ,जिसकी सीमा विन्ध्य पर्वत के तट से , स्वर्ण -रेखा नर्मदा जी से चित्रोत्पला महानदी के तट पर स्थित श्रीपुर तक कोसल प्रजा ने जिस प्रकार राम का स्वागत किया ,वह वर्णनातीत था ।
कथाओं और उप -कथाओं का ताना -बाना
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माता कौशल्या की आत्मकथा के रूप में उपन्यास का ताना -बाना कई प्राचीन कथाओं और उप -कथाओं के अटूट धागों से बुना गया है। इसके लगभग सभी प्रमुख पात्रों को लोकहितैषी चिन्तन करते हुए भी दिखाया गया है। एक स्थान पर कौशल्या अपनी माता से कहती हैं -- सर्व कल्याण के लिए निजत्व का मूल्य ही कहाँ होता है माता ?
प्रजा वत्सल महाराज
चित्रवंत का कठोर संकल्प
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कोसल की प्रजा जब तत्कालीन महाराज चित्रवंत से जीवन यापन तथा धार्मिक अनुष्ठान के साथ मोक्ष के लिए कोसल को भी गंगा की तरह एक जीवन दायिनी नदी की आवश्यकता बताती है ,तब वह प्रजा की कामना का आदर करते हुए कहते हैं --" उस राजा का जीवन ही धिक्कार युक्त है ,जो अपनी प्रजा की इच्छा की पूर्ति न कर सके। जल ही तो जीवन है। इस दृष्टि से प्रजा ने जीवन की मांग की है। राजत्व का सिद्धांत है , राजा का प्रथम दायित्व है कि वह प्रजा के जीवन की रक्षा करे।" यह कहकर चित्रवंत ऋषियों की उपस्थिति में संकल्प लेते हैं -- मैं चित्रवंत पिता स्वर्णवंत, प्रपिता हरिवंत आप समस्त महान ऋषियों की शपथ लेता हूँ कि यदि मेरी अगाध आस्था महाकाल महा मृत्युंजय महादेव पर समग्र रूप से हो तथा तनिक भी त्रुटि ना हो ,तो मैं माँ गंगा को कोसल में ही नहीं , अपितु दक्षिण आर्यावर्त में भी आने को विनम्रता तथा भक्ति से बाध्य कर दूंगा और यदि ऐसा न कर सका,तब जीवन लेकर कोसल (श्रीपुर) नहीं लौटूंगा।" महाराज चित्रवंत अपने अल्पायु पुत्र कृपावंत को राज गद्दी सौंपकर सघन वन की ओर तापस वेश धारण कर प्रस्थान कर जाते हैं। यह प्रसंग इस बात का प्रमाण है कि तत्कालीन समय के अनेक राजा और महाराजा अपनी प्रजा के प्रति अपने सामाजिक उत्तरदायित्व कितनी गंभीरता से महसूस करते थे।
प्रणम्य हैं कोसल के वनवासी
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कोसल राज्य की नैसर्गिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक विशेषताओं और विशेष रूप से यहाँ की जनजातीय संस्कृति का भी लेखक ने वर्णन किया है। माता सुबाला अपने पति भानुवंत से कहती हैं --"स्वामी ! ये वनवासी ही तो वास्तव में प्रणम्य हैं। निष्काम तथा निष्पाप जीवन जीने की कला में अप्रतिम तथा मृत्युभय की छाया से दूर ,जीवंतता के लिए अनुकरणीय तथा प्रशंसनीय। "
इसके बाद वह पुत्री अपराजिता (कौशल्या) को सम्बोधित करते हुए वनवासियों की प्रशंसा में कहती हैं -- "पुत्री अपराजिता! इनके कारण ही कोसल अद्वितीय है। वन ,खनिज , बहुमूल्य धातु तथा अन्य राजकीय सम्पदा के अघोषित राज रक्षक हैं ,जिनमें राज मुद्रा या अन्य अनुग्रह प्राप्त करने की तनिक भी लालसा नहीं है।"
महाराज भानुवंत भी सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं --"ये मात्र राज रक्षक नहीं , अपितु राज -सैनिक भी हैं ,जिन्होंने कोसल को दिया ही है, निरंतर देते भी हैं ,किन्तु कुछ प्राप्त करने की तनिक भी कामना नहीं करते ।"
उपन्यासकार का कथन
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उपन्यास के प्रारंभ में लेखक ने 'अनौपचारिक दो शब्द ' शीर्षक से अपनी भूमिका में लिखा है --" वास्तव में यह मेरे लिए एक चुनौती की तरह था। समस्त रामायणों में श्रीराम कथा को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। माता कौशल्या अत्यन्त ही महत्वपूर्ण पात्र हैं ,किन्तु उनसे सम्बंधित सभी घटनाएं और चरित्र चित्रण श्रीराम के ही चतुर्दिक घूमते हैं। उनका पृथक अस्तित्व है ही नहीं। साहित्य में कौशल्या के संबंध में अध्ययन सामग्री का नितांत अभाव है।साहित्यकार किसी राज्य विशेष का ही नहीं ,अपितु लोक हित में यथार्थ का प्रतिनिधित्व करता है। अतः उपन्यास में वर्णित तथ्य लगभग प्रामाणिक हैं।हाँ , कथानक के विस्तार के लिए मर्यादित कल्पना का प्रयोग तो किया गया है ,किन्तु कथा की मौलिकता को तनिक भी प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया गया है।"उपन्यासकार का यह भी विचार है कि आध्यात्मिक या पौराणिक पात्रों को लेकर उपन्यास लिखना दुष्कर कार्य है ,क्योंकि जन -आस्था के प्रति सचेत रहना अति आवश्यक होता है। ।
पाठकीय अभिमत
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एक पाठक की हैसियत से मेरा यह मानना है कि अगर प्रूफ की गलतियों को सुधार कर पढ़ा जाए तो 'कोशल नंदिनी' माता कौशल्या की धारा प्रवाह आत्म -कथा के रूप में सचमुच एक अदभुत उपन्यास है। उपन्यासकार का परिश्रम सराहनीय है।
उन्होंने भावनाओं के आवेग में बहते हुए , किसी उफनती नदी के प्रवाह जैसी भाषा में इसकी रचना की है ,लेकिन मात्र डेढ़ सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में लगभग हर पन्ने पर प्रूफ की गलतियां नदी के इस प्रवाह को बाधित करती प्रतीत होती हैं। आशा है कि अगले संस्करण में इन त्रुटियों को सुधार लिया जाएगा। बहरहाल , माता कौशल्या की इस आत्म कथा में पौराणिक कहानियों और लघुकथाओं की एक ऐसी नेटवर्किंग है ,जिसका सम्मोहन पाठकों में कथानक के अंत तक उत्सुकता बनाए रखता है।
आलेख -- स्वराज करुण
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