मुझे समय की बुरी नज़र से  डर लगता है ,
भीड़ भरे इस शहर से बेहद डर लगता है !
हर तरफ यहाँ अजनबी चेहरों के मेले ,
हर तरफ यहाँ अजनबी चेहरों के मेले ,
रूपयों का ही बाज़ार चारों प्रहर लगता है !
बाहर -बाहर जितना आलीशान दिख रहा,
भीतर जाओ तो भुतहा खंडहर लगता है !
कभी गाँव था अपनों का इसी जगह पर ,
जहाँ आज यह बेगानों का घर लगता है !
हरी घास के नर्म बिछौने कौन ले गया ,
धरती का प्यारा आंचल पत्थर लगता है !
.जिसने छीनी महतारी की ममता हमसे ,
उसके हाथों छुपा हुआ खंज़र लगता है !
इन्साफ और क़ानून तो सिर्फ़ कहने की बातें ,
बेहिसाब ,बेदर्द यहाँ का मंज़र लगता है !
-- स्वराज्य करुण
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (22-11-2014) को "अभिलाषा-कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा" (चर्चा मंच 1805) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी ! आपका हार्दिक आभार .
Deleteयशोदाजी ! बहुत-बहुत धन्यवाद .
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल !
ReplyDeleteआईना !
सुंदर भाव लिये बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteहरी घास के नर्म बिछौने कौन ले गया ,
ReplyDeleteधरती का प्यारा आंचल पत्थर लगता है !
बहुत सुन्दर भाव