उस छोटे शहर के एक छोटे से मोहल्ले में ड्रायक्लीनिंग की एक छोटी सी दुकान थी ,जहां सफ़ेद बनियाइन और सफ़ेद पायजामा पहने सुबह से शाम तक ग्राहकों के कपड़ों पर लोहा चलाते शेख मोहम्मद 'गनी आमीपुरी को जगदलपुर की उस बस्तरिया बस्ती के सभी लोग 'गनी भाई ' के नाम से जानते और मानते थे .साधारण चेहरे और साधारण सी पोशाक में एक असाधारण और अत्यधिक संवेदनशील काव्य-प्रतिभा को संजोया हुआ यह शख्स जहां दिन में अपनी रोजी-रोटी के लिए लोगों के कपड़ों की सलवटों को सपाट करने की कोशिश में इलेक्ट्रिक आयरन से जूझता , वहीं देश और दुनिया के बारे में अपने दिल की बात दिल वालों तक पहुंचाने की लिए रात के सन्नाटे में कागज और कलम से हो जाती थी उसकी दोस्ती .
उर्दू में 'गनी ' का आशय आर्थिक दृष्टि से संपन्न एक ऐसे व्यक्ति से है ,जो सहृदय , दयालु और दानी है. आर्थिक सम्पन्नता के नाम पर गनी भाई के पास किराए के छोटे से एक कमरे वाले मकान के अलावा कुछ भी नहीं था ,लेकिन वह मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण एक सहृदय कवि थे ,जिन्होंने सहज-सरल शब्दों से सजी अपनी रचनाओं के ज़रिये मानव समाज को हमेशा मानवता का पैगाम बाँटा .इसलिए 'गनी' नाम उन पर सार्थक बैठता है. उनकी छोटी सी दुकान पर लगभग हर शाम हिन्दी ,उर्दू , छत्तीसगढ़ी और बस्तरिया बोली हल्बी के कवियों की बैठक जमती और चाय की चुस्कियों के साथ साहित्यिक गप्पबाजी और कविताओं का भी दौर चलता .
आज हिन्दी दिवस के प्रसंग में गनी भाई को याद करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हिन्दी भाषा की जैसी सेवा उन्होंने की , शायद कम ही लोग कर पाते होंगें . गनी जी की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि हिन्दी वाले उनको हिन्दी का कवि मानते और उर्दू वाले उन्हें उर्दू का शायर . दरअसल वह आजीवन उर्दू लिपि में हिन्दी की सेवा करते रहे. हिन्दी साहित्य को गनी भाई ने उर्दू लिपि में कई सशक्त रचनाएँ दी. इस तरह देश की दो प्रमुख भाषाओं के बीच उन्होंने एक पुल का काम किया . इसलिए अगर उन्हें 'हिन्दी और उर्दू का सेतुबंध ' कहा जाए ,तो गलत नहीं होगा . उन्होंने हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब को अपने जीवन में साक्षात उतारा देश और दुनिया के हालात से परिचित और प्रभावित कवियों की रचनाओं में इंसानी ज़ज्बात दिल की गहराइयों से उभर कर आते हैं .गनी जी की रचनाओं में भी यह बात साफ़ नज़र आती है .उनकी एक ग़ज़ल की इन पंक्तियों में इसे आप भी महसूस कीजिये-
बेकार है, ख्वाहिश है उजालों की जो मन में ,
सूरज तो अभी कैद है दौलत के भवन में !
इस पार है चिथड़ों से लदी जिंदगी उस पार ,
इक लाश है लिपटी हुई रेशम के कफ़न में !
पूछो तो भला उनसे अमल करते हैं कितना ,
क़ानून बनाते हैं जो दिल्ली के भवन में !
है परचम-ए-नफरत को उठाए हुए हर शख्स ,
मोहताज़ मोहब्बत है 'गनी 'अपने वतन में !
उर्दू अक्षरों में हिन्दी सेवा वाकई गनी जी की एक बड़ी विशेषता थी ,लेकिन यह उनकी सीधी -सच्ची विनम्रता का ही एक उदाहरण था कि ऐसा कोई ज़िक्र आने पर वह अक्सर कहा करते थे- ''आप भले ही इसे मेरी विशेषता कह लें, पर मै तो इसे अपनी कमजोरी मानता हूँ .काश ! हिन्दी यानी देवनागरी लिपि के मेरे अक्षर सुडौल बन पाते .... लेकिन क्या करूँ ? पढाई -लिखाई मेरी कुल छह ज़मात तक हो पाई और वह भी केवल उर्दू माध्यम से . यह तो साहित्यिक मित्रों का बड़ा सहारा है ,जो उर्दू लिपि की मेरी रचनाओं को देवनागरी में लिख कर प्रकाशन के लिए पत्र-पत्रिकाओं को भेज भी देते हैं .''
गनी जी का कहना था - लिपि चाहे कुछ भी हो , मै जनता की भाषा में लिखता हूँ . मेरे लिए आम बोलचाल की भाषा में हिन्दी और उर्दू का फर्क कर पाना बहुत मुश्किल है. मेरी धारणा है कि जो आम बोलचाल की हिन्दी है, वही आम बोलचाल की उर्दू भी है. गनी भाई वास्तव में भाषाई एकता के प्रतीक थे .उनका जन्म नवंबर १९३२ में उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के ग्राम आमीपुर में हुआ था. जीवन के कठिन संघर्षों ने उन्हें मुंबई महानगर की सड़कों पर आठ साल तक भटकाया . वह सन १९५६ से १९६४ तक वहाँ चेम्बूर में एक ड्रायक्लीनिंग की दुकान पर नौकरी करते रहे . फिर १९६४ के आस-पास बस्तर जिले के मुख्यालय शहर जगदलपुर आ गए और करीब सत्ताईस बरस तक ,यानी वर्ष १९९१ में अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वहीं के होकर रह गए . छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल की धरती के आंचल में समा गए गनी भाई. एक मुलाक़ात में उन्होंने मुझे बताया था - '' यहाँ जगदलपुर आने के बाद शुरुआती कुछ अरसा तो जिंदगी को व्यवस्थित करने में बीत गया .सन १९६८ में उदगम साहित्य समिति के सदस्यों से संपर्क हुआ और मै भी समिति का सदस्य बन गया . एक स्वस्थ और सुरुचिपूर्ण माहौल मिला और लिखना मेरी आदतों में शुमार हो गया .''
गनी भाई को पहली बार प्रकाशन मिला सन १९७१ में ,जब वहाँ युवा साहित्यकार प्रकाशन द्वारा अपनी सायक्लोस्टाइल्ड पत्रिका 'सृजन' के प्रवेशांक में उनकी एक ग़ज़ल और एक रुबाई छापी गयी . उनकी इस पहली प्रकाशित ग़ज़ल का मतला कुछ यूं था -
चमन वालों से फूलों की हँसी देखी नहीं जाती
कभी इनसे गरीबों की खुशी देखी नहीं जाती !
सृजन में ही अपनी प्रथम प्रकाशित रुबाई में उन्होंने लिखा -
ये दुनिया ख़ाक दुनिया है , जहां इंसान बिकते है,
तबाही ,बेबसी के खौफ से ईमान बिकते हैं ,
सुकून मिलता नहीं दिल को कभी नफरत की आंधी से,
जिधर देखो उधर ही मौत के सामान बिकते हैं !
दुनिया से लगातार गायब होती जा रही इंसानियत को लेकर गनी भाई काफी बेचैन रहा करते थे ,क्योंकि वह इंसानियत के कवि थे . उनको पक्का यकीन था-
जब तलक न आएगी इंसानियत इंसान में ,
ज़ुल्म होते ही रहेंगे मेरे हिन्दुस्तान में !
उनकी यह ग़ज़ल सागर (मध्यप्रदेश ) के साप्ताहिक 'गौर-दर्शन ' के दीपावली विशेषांक में सन १९८३ में छपी थी . इस साप्ताहिक में उन दिनों उनकी रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती थी . अपनी बात कहने के लिए गनी भाई प्रतीकों का सहारा तो लेते ही थे ,लेकिन प्रतीकों की तलाश में अपनी ज़मीन को छोड़ चाँद -तारों तक छलांग लगाने की कोशिश उन्होंने कभी नहीं की .अपने आस-पास की दुनिया में बिखरी चीजों के बीच से ही वह प्रतीक निकाल लिया करते थे . पटना (बिहार ) के साप्ताहिक 'समर क्षेत्र ' में २१ अगस्त १९८२ को छपी उनकी एक ग़ज़ल की बानगी देखिये --
जलती है जैसे जिंदगी ,जलता है लाईटर ,
मेरा वजूद आज फलसफा है लाईटर !
जैसे किसी के दिल में शोला छुपा हुआ ,
वैसे ही बंद आग का गोला है लाईटर !
अंधे कुएं में मुझको धकेला है ऐ गनी ,
कब कौन और किसको दिखाता है लाईटर !
जीवन की निराशा को गनी भाई ने अपने एक गीत में कुछ इस तरह व्यक्त किया है -
पथ मिले अनेको जीवन में ,पर
स्वर्ण विहान मिला न मुझको ,
इस जग के चौराहे पर भी
कोई मीत मिला न मुझको ,
खोज-खोज आँखें पथराई ,
हर कोशिश नाकाम हो गयी !
उनका यह गीत १९७३ में दुर्ग के हिन्दी दैनिक 'चिंतक' में प्रकाशित हुआ था . चाहे लखनऊ (उत्तरप्रदेश) की मासिक पत्रिका 'युवा-रश्मि ' हो , या छत्तीसगढ़ के रायपुर से छपने वाले दैनिक नव-भारत ,युगधर्म, महाकोशल , महासमुंद का साप्ताहिक 'बांगो-टाईम्स ' हो, या जगदलपुर के ' दण्डकारण्य समाचार ',कांकेर बन्धु, अंगारा ,
लगभग हर पत्र-पत्रिका ने उनकी रचनाओं को हाथों-हाथ प्रकाशित किया . आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से काव्य-पाठ के अलावा समय-समय पर गनी जी के गीतों का संगीतमय प्रसारण भी हुआ . सन १९७८ में प्रयास प्रकाशन ,बिलासपुर से श्री उत्तम गोसाईं द्वारा संपादित सहयोगी काव्य संग्रह 'छत्तीसगढ़ के नए हस्ताक्षर ' में गनी जी को भी शामिल किया गया था . संकलन में गनी जी का परिचय कुछ यूं दिया गया है- '' गनी भाई जंगल के महकते फूल हैं. जीवन पथ के अविरल संघर्षों में सुरभित आपके गीत और ग़ज़ल दिल-दिमाग पर असरकारक होते हैं .  छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ कवि लाला जगदलपुरी द्वारा सम्पादित और सन १९८६ में प्रकाशित चार कवियों के सहयोगी काव्य-संग्रह 'हमसफर ' में गनी आमीपुरी की भी दस रचनाएँ शामिल हैं . इनमें से एक गीत में उन्होंने आज के विचित्र सामाजिक परिवेश  का जैसा चित्र खींचा है, वह दिल की आँखों से ही देखा और महसूस किया जा सकता है. इस गीत में उनकी भावनाएं कुछ इस तरह उतरी हैं-
                              भूख ने बदले यहाँ पर जीने वालों के चलन 
                             अब नहीं भाते तुलसी और मीरा के भजन !
                             रोटियों  की फ़िक्र ने ही घर से बेघर कर दिया ,
                              आफतों की भीड़ को ला सर पे मेरे धर दिया !
                              बेबसों के घर जलाते शोषकों के आचरण !वास्तव में जीवन के चक्रव्यूह में घिरे गनी भाई ने तमाम संघर्षों के बीच अपना जीवन गुज़ारा ,लेकिन समाज को समस्याओं के चक्रव्यूह से हमेशा जूझने की प्रेरणा देते रहे . उनके एक गीत की बानगी देखें -
आंसू की धाराओं पर बाँध बनेगा पक्का लेकिन,
संघर्षों का सच्चा जीवन फिर से तुम्हें बनाना होगा .
आज़ादी का श्रृंगार करो तुम नए सिरे से लेकिन
पहले धरती के बेटों का सोया भाग जगाना होगा !
गनी भाई जैसे समर्पित हिन्दी सेवकों को अगर हम याद न करें तो मेरे ख़याल से 'हिन्दी दिवस ' निरर्थक हो जाएगा . राष्ट्र भाषा हिन्दी आज गहरे संकट में है . उस पर अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी मानसिकता वालों का लगातार हमला हो रहा है . हिन्दी की गंगा-जमुनी ज़ुबान को अंग्रेजी मीडिया के ज़रिये 'हिंगलिश ' में तब्दील करने की साज़िश चल रही है,तब ऐसे निराशाजनक माहौल में हिन्दी के विकास के लिए गनी जी जैसे समर्पित हिन्दी सेवकों द्वारा निःस्वार्थ भाव से कलम के माध्यम से किए जाने वाले छोटे-छोटे प्रयास अँधेरे में जलते उन नन्हें दीपकों की मानिंद हैं ,जो एक साथ मिलकर हिन्दी जगत को अपनी रौशनी से जगमग कर सकते हैं . गनी भाई तो लगभग बाईस बरस पहले हमें छोड़ कर दुनिया से चले गए हैं ,पर अपनी रचनाशीलता से समाज को हिन्दी के विकास का एक रास्ता भी दिखा गए हैं .
-स्वराज्य करुण

गनी भाई से परिचय कराने का शुक्रिया ..
ReplyDeleteवंदना गुप्ता जी की तरफ से सूचना
ReplyDeleteआज 14- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 15 -09 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में ... आईनों के शहर का वो शख्स था
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
ReplyDeleteबिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।।
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हिन्दी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
गनी भाई से परिचय कराने के लिए आभार ....
ReplyDeleteहिन्दी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ !!!
ReplyDelete@इस पार है चिथड़ों से लदी जिंदगी उस पार,
ReplyDeleteइक लाश है लिपटी हुई रेशम के कफ़न में!
@भूख ने बदले यहाँ पर जीने वालों के चलन,
अब नहीं भाते तुलसी और मीरा के भजन!
बहुत सुन्दर! गनी भाई के बारे में जानकर अच्छा लगा, आभार!
अति सुन्दर आलेख ... हिंदी उर्दू के सेतु बंधु गनी भाई कि अत्यंत समृद्ध भावना युक्त रचनाओं के संसार से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार !!!
ReplyDeleteयह हुई न कुछ बात। कुछ हट के। धन्यवाद। ऐसे लोगों को क्या मिलता रहा है और क्या मिलता रहता है इस देश में!
ReplyDeleteगनी भाई की काव्य अनुभूति वास्तव में ज़मीनी और समसामयिक है। अफ़सोस की इनकी रचना पहले नहीं पढ़ पाया। परंतु आपने ऐसे सहृदय, सरल और निःस्पृह भाव से कविता लिखने वाले व्यक्तित्व से परिचय कराकर हिंदी ब्लॉगर्स पर उपकार किया है। धन्यवाद।
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