Thursday, May 23, 2013

जहाँ भी देखो बैनर -पोस्टर !

                         दूर -दूर तक नज़र न आए  मंज़र क्यों बहारों के 
                         जहाँ भी देखो बैनर -पोस्टर केवल ठेकेदारों के !
        
                        रंग-बिरंगे चैनल भी अब हाल चाल क्या बतलाएं 
                        नारों में रंगी दीवार से  लगते चेहरे हैं अखबारों के !
                        
                        अदालतों से बरी हो रहे दौलत के भूखे कातिल भी 
                        नीति,नीयत निर्णय सब कुछ हाथों में हत्यारों के !
                       
                        अपना दर्द किसे बतलाएं ,सभी व्यस्त हैं अपनों में 
                        इंतज़ार में सदियों से हम पीछे लम्बी कतारों के  !
        
                       नेताओं के अभिनय से हैं भौचक सारे अभिनेता 
                       गद्दारों की सेवा में लगे  सब प्रहरी पहरेदारों के !
                                                                          -स्वराज्य करुण

Sunday, January 6, 2013

दुष्कर्म ...दुष्कर्म ...और दुष्कर्म !

              दुष्कर्म ....दुष्कर्म ...और दुष्कर्म ... ! इन दिनों देश की चारों दिशाओं में घूम फिर कर यही एक शब्द बारम्बार गूँज रहा है .. ! यह सच है कि माताओं -बहनों और बेटियों के मान-सम्मान की रक्षा हर कीमत पर होनी चाहिए और उन्हें दुष्कर्म का शिकार बनाने वाले दरिन्दों  को कठोर से कठोर सजा मिलनी चाहिए ,लेकिन हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि दुष्कर्म की ऐसी घटनाएं समाज में क्यों बढ़ रही हैं ? कारणों की पड़ताल ज़रूरी है .मेरे ख्याल से इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-- 

(१ ) सिनेमा के परदे और अब छोटे परदे पर दिखाए जाने वाले छेड़छाड़ और बलात्कार के दृश्य और 'बीड़ी जलाई ले 'और 'मैं हूँ सेक्सी 'जैसे फूहड़ और बेशर्मी भरे फ़िल्मी गाने ,जिन्हें फिल्मों में स्वयं महिलाए ही गाती हैं और उन्हीं गानों पर ठुमके भी लगाती हैं (२ ) )-सिनेमा के ऐसे अश्लील दृश्यों में अभिनय करने वाले कलाकार ,चाहे वह पुरुष हों या महिला .आखिर वो ऐसा सीन करने से इनकार क्यों नहीं कर देते ? 
      (३)- शराब और दूसरी नशीली वस्तुओं का फलता-फूलता कारोबार .(४) देश में भ्रष्टाचार की काली... कमाई से पैदा हो रहे दानवी धन-पशु ,जो अपनी सफेदपोश डकैती के काले धन से ऐयाशी करना अपना राष्ट्रीय कर्त्तव्य मानते हैं .(५) - टेलीविजन चैनलों पर आ रहे बेतुके धारावाहिक ,जिनकी कहानियों में कई बार अश्लील संवादों की भरमार होती है (५ ) टी. व्ही. के परदे पर प्रायवेट चैनलों द्वारा प्रसारित हो रहे शराब के विज्ञापन 
                             (६) - स्कूल-कॉलेजों में नैतिक शिक्षा का अभाव ( आजकल शिक्षा में नैतिकता की बात को पिछड़ापन समझा जाता है ) (७ ) आधुनिकता के नाम पर अपने बेटे-बेटियों को देर रात तक होटलों,क्लबों और ढाबों में घूमने-फिरने ,खाने पीने की छूट देने वाले परिवार और हॉस्टल से बिना वजह देर रात बाहर रहने वाले विद्यार्थी ( अगर कोई रात्रिकालीन नौकरी नहीं कर रहा है या नहीं कर रही है , कोई नाईट कॉलेज से सम्बन्धित छात्र/छात्रा नहीं है ,तो आप ही बताइये - उसे देर रात कहाँ रहना चाहिए ?). (८ ) -विज्ञापनों में प्रदर्शित नंगे/ अधनंगे स्त्री-पुरुष ( आश्चर्य है कि कपड़ों के विज्ञापनों में भी नंगापन दिखाया जाता है ) इन सभी कारणों पर गौर करें तो समाज में दुराचार बढने के असली कारणों का खुलासा हो जाएगा !       -स्वराज्य करुण 


Sunday, December 2, 2012

कितनी होनी चाहिए भौतिक विकास की गति ?

     भोपाल की भयानक गैस त्रासदी के अट्ठाईस साल   तीन दिसम्बर को पूरे हो रहे हैं  . सन 1984 की यही वह दिल दहला देने वाली तारीख थी  जब अमेरिकी कम्पनी यूनियन  कार्बाइड  द्वारा स्थापित कीटनाशक फैक्ट्री से रात के अँधेरे में मिथाइल आइसो साइनाइड (MIC) गैस के जानलेवा रिसाव ने वहाँ  हजारों मासूम बच्चों और आम  नागरिकों को मौत की नींद सोने के लिए  मजबूर कर दिया  और   लाखों लोग हमेशा के लिए बीमार हो गए  .  इस भयंकर औद्योगिक हादसे के सभी पहलुओं पर दिल की गहराइयों से विचार करें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि अब यह तय करने का समय  आ गया है कि   मानव समाज  में आखिर कैसी और कितनी होनी चाहिए  भौतिक विकास की गति  ? किसी नदी की  धीमी -धीमी लहरों  जैसी या महासागर में उठने वाली सुनामी की विनाशकारी लहरों की तरह  ? मेरे ख्याल से भौतिक विकास की धीमी गति में ही समाज को ज्यादा सुख और सुकून मिल सकता है .तेज भौतिक विकास ने आज हमारे देश ,हमारी दुनिया और हमारे समाज की क्या हालत कर दी है , हम और आप देख ही रहे हैं . विगत सौ-डेढ़ सौ वर्षों  से तीव्र गतिमान विकास परमाणु बम तक जा पहुंचा और हिरोशिमा और नागासाकी में लाखों निर्दोष इंसान एक झटके में कुछ सनकी और पागल तानाशाहों के कारण मौत के शिकार हो गए .
   आज किसी एक देश के भौतिक विकास की खूनी अभिलाषा  का खमियाजा दूसरे मुल्कों को भुगतना पड़ता है . बीते  एक दशक में इराक और अफगानिस्तान में क्या हुआ ?  विकास के लिए पेट्रोलियम तेल की प्यास इतनी असहनीय हो गयी कि अमेरिका ने  इराक जैसे छोटे लेकिन एक आज़ाद मुल्क को तबाह कर उस पर कब्जा भी कर लिया .   अंग्रेजों में व्यापारिक विकास की तीव्र उत्कंठा जागी  तो उन्होंने साम-दाम-दंड - भेद  का कुचक्र चलाकर भारत को तकरीबन डेढ़ सौ साल तक गुलाम बनाकर रखा .उनके भौतिक विकास की लालसा हमे गुलामी के अभिशाप के रूप में भोगनी पड़ी औद्योगिक क्रान्ति ने  देश-विदेश में भौतिक विकास का ऐसा मायाजाल फैलाया कि संसाधनों के दोहन के लिए  उनके शासकों -प्रशासकों की नज़रों में युद्ध,हिंसा और प्रतिहिंसा सब जायज लगने लगे .   संस्कार , संस्कृति और सभ्यता  चाहे नष्ट हो जाएँ, नैतिकता तबाह हो जाए , गाँव और किसान गायब  हो जाएँ , लेकिन भौतिकता की चकाचौंध चाहने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ! उन्हें राष्ट्रों को विकास के नाम पर आर्थिक गुलामी में जकड़ने को आतुर  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ.डी.आई. का राग ज्यादा लुभावना लगता है .
       नदी के धीमे बहाव और समुद्र की सुनामी लहरों में जितना  फर्क है, उतना ही अंतर धीमे और तेज विकास में है . भौतिक संसाधनों का जिस तेजी से और विस्फोटक तरीके से विकास हो रहा है , उससे इंटरनेट ,मोबाइल फोन , सुपर सोनिक विमान और अंतरिक्ष यान तक सब कुछ हासिल करने के बाद भी आज के इंसान का मानसिक सुख -चैन लगभग खत्म हो गया है . नेट और मोबाईल जैसी संचार क्रान्ति अब चिट्ठी-पत्री और डाकिये के अस्तित्व को खत्म करने पर आमादा है . लगता है -इंसान बहुत जल्दबाजी में है . उसे आशंका है कि पहाड़ ,नदी -तालाब ,हरे-भरे वन जैसे कीमती प्राकृतिक संसाधन जल्द खत्म हो जाएंगे ,इसलिए जल-जंगल और जमीन को ज्यादा से ज्यादा और जल्द से जल्द नोच-खसोट कर खत्म कर दिया जाए . धान,गेंहूँ ,चने के खेतों में लोहे के कारखाने खड़े होने लगे और कॉलोनियों के नाम पर सीमेंट-कंक्रीट के जंगल ! क्या इंसान लोहा खाकर जिन्दा रह सकता है ?            
         सायकिल के आविष्कार से इंसान को चैन नहीं मिला .उसने मोटरसायकिल और मोटर कारें बना डालीं ,ऑटो-मोबाइल उद्योग ने सड़कों पर इतनी बड़ी तादाद में डीजल-पेट्रोल वाली गाड़ियों की फ़ौज खड़ी कर दी है कि पैदल चलना दूभर होता जा रहा है . उसी तेज रफ़्तार से सड़क हादसे भी बढने लगे हैं . डीजल-पेट्रोल से निकलने वाला धुआँ भयानक प्रदूषण फैला रहा है वाहनों की बढ़ती जनसंख्या से सड़के सिमटने लगी तो उनकी चौड़ाई बढाना ज़रूरी हो गया ,फिर हर जगह फोर-लेन और सिक्स लेन सड़क बनाने के लिए बस्तियां उजड़ने लगी ,गाँव मिटने लगे .क्या इसके बाद भी हमे भौतिक विकास की गति और ज्यादा बढाने की ज़रूरत है ? हमे याद रखना चाहिए कि जब दुनिया में न तो मोटर-कारें थीं और न कोई विमान था , न कहीं टेलीफोन , न इंटरनेट और न ही मोबाइल फोन , ये दुनिया उस समय भी तो आखिर चल ही रही थी और ज्यादा सुकून से जी रही थी .आज सुविधाएं तो बढी हैं ,लेकिन सुकून कहाँ है ?  -स्वराज्य करुण

Thursday, October 11, 2012

शानदार व्यवसाय !

                                          
                                              लोकतंत्र में राजनीति अब शानदार व्यवसाय !
                                              कोई छुप कर खाय यहाँ तो कोई खुल कर खाय !!
                                                          
                                               कोई कहता खुद को इसका पहला , दूजा पाया !
                                               तीजे और चौथे पायों के दिल को भी यह भाया !!
                                                            
                                                माल मुफ्त का बेरहमी से सबने खूब कमाया !
                                                नेताओं ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी आसान यहाँ जमाया !!
                                                            
                                                सरकारी बंगले में जिसने अपना बोर्ड लगाया !
                                                उसे वहाँ से कोई माई का लाल हटा न पाया !!
                                                             
                                                कह करुण कविराय यह तो  लक्ष्मी जी की माया !
                                                नेता बनते ही मिल जाए धन- दौलत की छाया !!
                                                             
                                                दूर गरीबी को करने की क्यों हो इतनी चिन्ता  !
                                                हर गरीब जब नेता बनकर पाए अमीर सी काया !!
                                                                                                               -स्वराज्य करुण

Sunday, September 30, 2012

रूपये तो पेड़ों पर ही लगते हैं सरदार जी !

चिल्हर संकट के कारण पैसा तो बाज़ार से कब का गायब हो चुका है .  अब तो रूपए का जमाना है .इसलिए सरदार जी को कहना ही था तो कहते कि रूपए पेड़ पर नहीं लगते ,लेकिन वो ठहरे बेचारे भोले- भंडारी! पुरानी कहावत कह गए -पैसे पेड़ पर नहीं लगते !दरअसल वह बोलना चाह रहे थे कि रूपए पेड़ पर नहीं लगते .लेकिन मै तो कहूँगा -रूपए पेड़ पर ही उगते (लगते) है .अगर मुझ पर भरोसा न हो तो जंगल महकमे के अफसरों से पूछ लीजिए . गड्ढे खोदने का रूपया .फिर उनमें पेड़ लगाने का रूपया ,फिर पेड़ काटने और कटवाने का रूपया! यानी जंगल में लगे हर पेड़ पर फूलता और फलता है रूपया !जिस पेड़ की डालियों में जितने पत्ते होंगे ,उस पर उतने ही रूपए उगेंगे !.पत्तों के आकार के हिसाब से आप रूपए का मोल भी निकाल सकते हैं .जैसे सागौन और साल वृक्ष के चौड़े पत्तों के हिसाब से आप उन्हें एक-एक हजार का नोट मान सकते हैं .रूपये तो   पेड़ों पर ही उगते (लगते ) हैं .तभी तो छोटा हो या बड़ा , देश के जंगल महकमे का लगभग हर मुलाजिम मालदार होता है .रूपयों के पेड़ देखना चाहते हैं तो जंगल नहीं ,जंगल महकमे को देखिये  !कितनी तेजी से रूपयों  की फसल कट रही है वहाँ !  यह तत्परता ज़रूरी भी है उनके लिए . कारण यह कि उनकी मेहरबानी से रूपयों के सारे पेड़ जितनी जल्दी-जल्दी   कटते जा रहे हैं , उतनी जल्दी लग नहीं रहे हैं .एक दिन ऐसा आएगा ,जब पेड़ों के सारे पत्ते झर  जाएंगे , रूपयों की लालच में लोग पेड़ों को भी उखाड कर ले जाएंगे और यह जंगल ही खत्म हो जाएगा .जब जंगल ही नहीं रहेगा ,तो  जंगल महकमे की भी ज़रूरत नहीं रह जाएगी . यही वजह है कि वो जंगल के पेड़ों पर उगते रूपयों की फसल तेजी से नोच -खसोट कर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाते जा रहे हैं .आखिर भविष्य के लिए कुछ तो बचाना होगा .  वैसे अकेले जंगल महकमें में ही क्यों ? रूपयों के पेड़ तो आज देश के हर महकमे में लगे हुए हैं . कोई उन्हें हिलाकर रूपये बटोर रहा है .तो कोई उनकी हर डाली को नोच-खसोट कर ! बाकी तो सब राजी-खुशी हैं जी ! -स्वराज्य करुण                                                                                                                                                     

Saturday, September 29, 2012

( कविता ) आठ हजार की थाली !

                                      जनता के पैसों से खाते आठ हजार की थाली !
                                      अखबारों में पढकर यह सब जनता देती गाली !!
                                      बेशरम हँसते हैं लेकिन जाम से जाम टकराकर !
                                      जनता के हर आंसू पर वो खूब बजाएं ताली !!
                                      राजनीति व्यापार है उनका भरते रोज तिजोरी ! 
                                      कुर्सी उनके लिए सुरक्षित ,साला हो या साली !!
                                      आज़ादी और लोकतंत्र भी उनके चरण पखारें !
                                      जिनके आगे माथ नवाए क़ानून वृक्ष की डाली !!
                                      पढ़ लिख कर बेकार घूमती बेकारों की पलटन !
                                      फिर भी कहते नहीं रहेगा कोई हाथ अब खाली !!
                                      सदा-सदा के लिए सलामत उनके छत्र-सिंहासन !
                                      भले चमन को खा जाए उसका ही कोई माली !!
                                       प्लेटफार्म से सड़कों तक दूध को तरसे बचपन !
                                       लेकिन उनके गालों में हर दिन खिलती लाली !!
                                       राज इसका रह जाएगा  राज बन कर हरदम !
                                       राजनीति में आते ही कैसे दूर हुई कंगाली !!
                                       हर चुनाव में साड़ी- कम्बल -दारू का बोलबाला !
                                      असल नोट नेता की जेब में ,जनता को दे जाली !!
                                       हुक्कामों के जश्न  से जगमग पांच सितारा होटल !
                                       ड्रिंक-डिनर -डिप्लोमेसी छलकाएं खूब प्याली !!
                                                                                           -स्वराज्य करु
                             

Wednesday, September 19, 2012

प्रभु ! कैसे करें आपका स्वागत ?

      
 विद्या और बुद्धि के देवता हे गणेश जी महाराज ! आपका आगमन ऐसे नाजुक समय में हो रहा है जब यह देश मानव शरीरधारी अपने भाग्य विधाताओं की बेजा हरकतों से  मुसीबतों के चक्रव्यूह में घिर गया है ! कृपया उन्हें थोड़ी सदबुद्धि तो दीजिए ,जो डीजल के दाम बढ़ाकर और रसोई गैस सिलेंडरों की कटौती करके आम जनता को परेशान कर रहे हैं , देशी बाज़ारों को जो विदेशी व्यापारियों के हाथों गिरवी रखने जा रहे है !
      हे विघ्न विनाशक ! हम तो आज धर्म संकट में पड़ गए हैं .इस घोर संकट से हमें जल्द उबारिये प्रभु ! आप ही बताइये ! हम कैसे करें आपका स्वागत ,जब कदम -कदम पर  एक से बढ़कर एक विघ्न हमारे सामने पहाड़ की तरह खड़े हो रहे हैं , देश में हर तरफ महंगाई का सैलाब नज़र आ रहा है और दाल-आटे का भाव आसमान छूने लगा है . दूध और फलों के दाम सातवें आसमान पर हैं ! होटलों में नकली दूध और नकली खोवे की मिठाईयाँ  खुले आम बिक रही हैं . हम जानते है - आपको मोदक प्रिय हैं ,लेकिन हम आपको नकली मोदकों का भोग लगाने का दुस्साहस भला कैसे कर पाएंगे ? जहां तक फलों की बात करें ,वह भी तो कार्बाइड जैसे घातक रसायनों में पका कर और नुकसानदायक  रंगों में रंग कर बेचे जा रहे है . मिलावटखोरों  का धंधा तेजी से चल रहा है और वह जनता की जिंदगी से खुल कर खिलवाड़ कर रहे है .कोई देखने ,रोकने और टोकने वाला नहीं है . डाक्टर आज भी अपने मरीजों को दूध पीने और फल खाने की सलाह देते हैं ,लेकिन इतनी महंगाई और मिलावट के इस दौर में यह कैसे संभव है ?
           हे गणपति बप्पा ! आज़ादी के बाद हमारे भारत में लाखों स्कूल और हजारों कॉलेज खुल गए ,लेकिन उनमे पढ़-लिख कर निकलते युवा हमेशा की तरह बेरोजगारों की अनंत कतार में खड़े रहने को मजबूर हैं . भ्रष्टाचार की काली कमाई से कुछ लोगों के साधारण मकान अब महल सरीखे सीना तान कर खड़े नज़र आ रहे हैं . कल तक पुरानी सायकल पर घूमने वाले कुछ लोग रातों-रात महंगी गाड़ियों के मालिक बन गए हैं. क्या यह सब उन्हें ईमानदारी की कमाई से प्राप्त हुआ है ? हे गणपति बप्पा ! देश की इस दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार लोगों को सदबुद्धि के साथ चेतावनी भी दीजिए ! फिर भी अगर वह नहीं मानते तो क्या आप अपनी अदालत में मुकदमा चलाकर उन्हें दण्डित करेंगे ? तभी तो हम आपका स्वागत कर पाएंगे !         -- स्वराज्य करुण