Monday, August 6, 2012

मानवता का दुश्मन परमाणु बम !



                                     हिरोशिमा -नागासाकी  में विनाशकारी परमाणु बादल
                                                 (६ अगस्त और ९ अगस्त १९४५ )
    
       दोस्तों ! माचिस से चूल्हा जलाकर पेट की आग बुझाई जा सकती है और किसी के घर में आग भी लगाई जा सकती है.  सुई से कपड़े सिले जा सकते हैं और किसी की आँखें भी फोड़ी जा सकती हैं . चीजों का इस्तेमाल व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है . अराजक. विध्वंसक और हिंसक मानसिकता का व्यक्ति  हर उस वस्तु का दुरूपयोग कर सकता हैं,जिसका निर्माण समाज की सुख-शान्ति के लिए और इंसान की कठिन जिंदगी को आसान बनाने के लिए हुआ है .विज्ञान के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण आविष्कारों के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है. परमाणु विज्ञान इसका एक बड़ा उदाहरण है . इसका उपयोग बिजली बनाने से लेकर चिकित्सा विज्ञान में भी हो रहा है और विनाशकारी हथियार के रूप में एटम बम बनाने के लिए भी . एटमी हथियारों बेरहम और बेशरम प्रतिस्पर्धा हमारी इस खूबसूरत दुनिया का क्या हाल  बना देगी ,इसे अगर समझना हो तो
 आज छह अगस्त को कुछ पल के लिए जापान के हिरोशिमा शहर में सिर्फ ६७ साल पहले हुई तबाही को याद करें .आज का दिन विश्व-शान्ति के लिए पूरी दुनिया में  हिरोशिमा दिवस के रूप में मनाया जाता है .

                                          तबाही  का मंजर : हिरोशिमा ६ अगस्त १९४५
                        
यह दिन हमे याद दिलाता है  अमेरिका की उस काली करतूत की ,जिसने सम्पूर्ण मानवता को शर्मसार कर दिया था . दुनिया के इतिहास में छह अगस्त १९४५ का दिन 'काला दिवस ' के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गया है . यही वह दिन है ,जब अमेरिका ने जापान के खूबसूरत शहर हिरोशिमा पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिरा कर कम से कम सत्तर हजार बेगुनाह लोगों को तत्काल मौत के घाट उतार दिया था .और इस परमाणु हमले के बाद के दुष्प्रभावों से कम से कम डेढ़ लाख लोग तरह-तरह की शारीरिक तकलीफों के कारण तड़फ-तड़फ कर दम तोड़ गए . मासूम बच्चों -बूढों और युवा इंसानों के अलावा लाखों निरीह जानवर भी बेमौत मारे गए . सम्पूर्ण हिरोशिमा चलती-फिरती लाशों के शहर में तब्दील हो गया था . मकान ज़मींदोज़ हो गए थे .शहर तबाह हो गया था . इस भयानक तबाही से भी जब खून के प्यासे दानव अमेरिका का दिल नहीं भरा तो उसने ठीक तीसरे दिन  नौ अगस्त को  एक और जापानी शहर नागासाकी पर भी परमाणु हमला करके ऐसा ही कहर ढाया . वह तो मेहनतकश जापानियों का ज़ज्बा था ,जिसने इन दोनों तबाह शहरों को कुछ ही वर्षों में देखते ही देखते  सपनों के नए शहर के रूप में नए सिरे से खड़ा कर दिया और इंसानी जिंदगी एक बार फिर अपनी रफ्तार से चलने लगी लेकिन अपने लाखों नागरिकों की एक ही झटके में हुई मौत का ज़ख्म ये दोनों शहर क्या कभी भूल पाएंगे? क्या हमारी दुनिया इसे भूल पाएगी ?     वह दूसरे  विश्व युद्ध का दौर था . ईश्वर हमारी दुनिया को दोबारा तबाही का ऐसा मंजर न दिखाए . तीसरा विश्व-युद्ध कभी मत हो ,क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के शब्दों में -चौथा विश्व-युद्ध कभी नहीं होगा ,क्योंकि तब यह दुनिया रहेगी ही नहीं . 

 
                                  जापानियों का ज़ज्बा : फिर हुआ आबाद सपनों का शहर
            
   हिरोशिमा में गिराए गए परमाणु बम की ताकत बीस हजार टन बतायी जाती है .उसमे रेडियो-एक्टिव पदार्थ यूरेनियम-२३५ का इस्तेमाल हुआ था . इस बम के गिरते ही वहाँ का तापमान दस मिलियन डिग्री तक पहुँच गया था सूरज की चमक से भी हजार गुना तेज रौशनी ने शहर को जला डाला था .आज तो अमेरिका ही नही ,बल्कि दुनिया के बहुत से देश परमाणु बम बना रहे हैं ,जिनकी तबाही की ताकत उससे भी हजारों गुना ज्यादा है . इसके बावजूद हमारी दुनिया विस्फोटकों के मुहाने पर बैठ कर एकदम बेफिक्र है . वह मानवता के इस दुश्मन से दोस्ती गाँठ रही है . खतरे को समझ कर भी नासमझ बन रही है . आइये छह अगस्त को हिरोशिमा दिवस पर हम हिरोशीमा और नागासाकी के लाखों शहीदों को याद करें और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हुए ईश्वर से यह भी गुजारिश करें कि वह परमाणु बम बनाने वालों को सदबुद्धि दें और उनके दिलों में मानवता की भावना जगाए. परमाणु- ताकत का शांतिपूर्ण उपयोग हो .वह विनाश का हथियार नहीं. विकास का औजार बने .        -स्वराज्य करुण

Tuesday, July 31, 2012

कालजयी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द



आज महान साहित्यकार कथा-सम्राट और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की जयंती है ,जिन्होंने हिन्दी में 'गोदान' जैसा कालजयी उपन्यास लिखकर भारतीय किसान के दुःख-दर्द को दुनिया के सामने रखा और समाज को चिंतन के लिए मजबूर कर दिया . उन्होंने हिन्दी और उर्दू साहित्य को करीब एक दर्जन उपन्यास और लगभग ढाई सौ कहानियां दी .मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण होने की वजह से उनकी प्रत्येक रचना अपने- आप में कालजयी कृति बनकर उनकी तरह अमर हो गयी है. हिन्दी में 'कर्मभूमि' जैसे उपन्यास के साथ-साथ 'कफ़न' तथा 'पूस की रात ' जैसी कहानियां भी उन्हें आम जनता के साहित्यकार के रूप में एक अलग पहचान दिलाती हैं .बनारस के पास ग्राम लमही में ३१ जुलाई १८८० को उनका जन्म हुआ था . उनकी जीवन-यात्रा ८ अक्टूबर १९३६ को अचानक हमेशा के लिए थम गयी . आज उनकी जयंती पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.                                                                                                      -- स्वराज्य करुण                                        


Friday, July 20, 2012

अभिनय और ऐय्याशी !

 

आप सभी से पूछना चाहता हूँ- क्या अधिकाँश फ़िल्मी कलाकारों के लिए अभिनय और ऐय्याशी एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ? अगर नहीं तो . फिर एक-एक अभिनेता की जिंदगी में पत्नी के अलावा तीन-तीन ,चार-चार घोषित-अघोषित रखैलें क्यों आती-जाती रहती हैं ? ये कलाकार फिल्मों में कहानी की मांग के अनुसार समाज को नैतिकता का पाठ पढाते  नज़र आते हैं . 
   कई औरतों से खुले आम इश्क लडाने वाले ऐसे कथित अभिनेता जब दुनिया को अलविदा कह कर विदा हो जाते हैं , अखबार ,रेडियो और टेलीविजन चैनल दिन रात इनकी शान में कसीदे पढ़ने.. लग जाते हैं और इनकी कथित महानता से भरी जीवनी सुना-सुना कर इन्हें महान कलाकार घोषित कर देते हैं और इन्हें समाज का और युवा पीढ़ी का 'रोल-मॉडल' साबित करने लगते हैं !अब इन्हें ही लीजिए ! अखबारों में छपी इनकी महान जीवन गाथा के अनुसार सबसे पहले इनका अंजू महेन्द्रू नामक महिला कलाकार से अफेयर हुआ ,फिर अपनी उम्र से पन्द्रह साल छोटी डिम्पल नामक अभिनेत्री से प्यार के इज़हार के साथ शादी हुई और कुछ साल बाद शादी टूट गयी , हालांकि डिम्पल ने तलाक नहीं लिया , फिर कोई टीना मुनीम नामक एक अभिनेत्री इनकी जिंदगी में आयी , लेकिन टीना इनकी गैर-ब्याहता के रूप में कुछ वर्षों तक साथ-साथ रही पर इन्होने टीना के कहने के बावजूद उसे शादी नहीं की , क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि डिम्पल एक दिन फिर उनकी जिंदगी में लौट आएगी , हालांकि तब तक तो टीना के साथ ही काम चलता रहा . बहरहाल डिम्पल इनके पास वापस आ गयी और टीना 'मुनीम ' से एक बहुत बड़े खरबपति की पत्नी बन गयी . 
   लगभग इसी तरह की ऐय्याशी भरी प्रेम कथाएँ कई ऐय्याश कलाकारों की है . दुर्भाग्य की बात है कि इसके बावजूद मीडिया की मेहरबानी से विज्ञापन-संस्कृति के इस बेशर्म दौर में प्रचार-प्रसार की बाजारू कला औरतबाजी करने वाले इन कथित कलाकारों को हर हालत में महान साबित करके ही दम लेती है, . (ऐसे दिवंगत महान कलाकार अगर मेरी बातों का बुरा लगा हो कृपया क्षमा करें ) -स्वराज्य करुण

Tuesday, July 17, 2012

वरिष्ठ साहित्यकार देवीसिंह चौहान का निधन


रायपुर १७ जुलाई / वरिष्ठ कवि और साहित्यकार तथा छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य मण्डल रायपुर के पूर्व अध्यक्ष प्रो. देवीसिंह चौहान का रविवार १५ जुलाई की रात यहाँ चौबे कॉलोनी स्थित उनके घर में निधन हो गया .स्वर्गीय श्री चौहान ने विगत लगभग छह दशकों से छत्तीसगढ़ को अपनी कर्म भूमि बनाकर राजधानी रायपुर में निवास करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन अध्यापन और साहित्य सेवा में लगा दिया। वह वीर रस के ओजस्वी कवि होने के  साथ-साथ एक अच्छे लेखक भी थे। बच्चों के साहित्य में भी उनकी विशेष दिलचस्पी थी। श्री चौहान की 30 किताबें प्रकाशित हुई, जिनमें कई काव्य संग्रह और महान विभूतियों तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवन गाथा पर आधारित पुस्तकें भी शामिल हैं .
   उत्तर प्रदेश में आगरा के पास यमुना नदी के तटवर्ती ग्राम रूदमुली में दस मार्च 1923 को जन्मे साहित्यकार श्री देवीसिंह चौहान ने भरतपुर और आगरा में पांच वर्षो तक और रायपुर (छत्तीसगढ़) के एक शताब्दी से भी अधिक पुराने राजकुमार कॉलेज में लगातार 38 वर्षो तक अध्यापन कार्य किया। वह इस कॉलेज में उप-प्राचार्य भी रहे।उन्होंने राजकुमार कॉलेज की पत्रिका ‘मुकुट’ का भी सम्पादन किया। उनकी प्रकाशित प्रमुख पुस्तकों में वर्ष 1963 में प्रकाशित देशभक्तिपूर्ण तथा वीर रस से परिपूर्ण कविता संग्रह ‘रक्त का प्रमाण दो’ वर्ष 1963 में प्रकाशित भावपूर्ण काव्य संग्रह ‘लहर और चांद’, वर्ष 1981 में प्रकाशित राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण काव्य संकलन ‘क्रांति के शोले’, वर्ष 1985 में प्रकाशित खण्ड काव्य ‘झासी की रानी’, वर्ष 1988 में प्रकाशित ‘आजादी और नेहरू’, वर्ष 1998 में प्रकाशित ‘मुक्ति आंदोलन और क्रांतिकारी’, वर्ष 1998 में ही प्रकाशित गणेशंकर विद्यार्थी, चन्द्रशेखर आजाद, शहीद भगत सिंह और रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी पर आधारित किताबें उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के मौके पर छत्तीसगढ़ के कवियों के सहयोगी काव्य संकलन ‘सुमनांजलि’ का भी सम्पादन और प्रकाशन किया।  उनकी लिखी ‘राष्ट्र नायक छत्रपति शिवाजी’ की जीवन गाथा वर्ष 2001 में, महाराणा प्रताप की जीवन गाथा वर्ष 2002 में, गुरूनानक देव की जीवन गाथा वर्ष 2003 में, गुरू गोविन्द सिंह जीवन गाथा वर्ष 2004 में और देश के अनेक प्रमुख शहीदों की जीवन गाथा ‘याद करो कुर्बानी’ वर्ष 2004 में प्रकाशित हुई। उन्होंने बच्चों के लिए शिशु गीत माला और बाल गीत गंगा जैसे काव्य संग्रहों की भी रचना की। 
    उनका अंतिम संस्कार कल यहां मारवाड़ी श्मशान घाट में किया गया, जहां छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य मण्डल के अध्यक्ष श्री अमरनाथ त्यागी सहित बड़ी संख्या में साहित्यकारों और प्रबुद्ध नागरिकों ने उपस्थित होकर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की।   --  स्वराज्य करुण 

Sunday, July 15, 2012

राजनीति को कैरियर समझना लोकतंत्र के लिए खतरनाक !

               
                       आश्चर्य और चिन्ता का  विषय है कि अब राजनीति को जन सेवा अथवा समाज सेवा के पवित्र माध्यम के रूप में नहीं,बल्कि किसी व्यावसायिक कैरियर के रूप में लिया जा रहा है ,मानो यह कोई सरकारी नौकरी है, जिसमें  चाहे काम करें या न भी करें , तो भी  लोगों को हमेशा अपनी बेहतर पोस्टिंग और अपने भावी प्रमोशन के लिए  बेचैनी बनी रहती है .  राजनीति को कैरियर की तरह लेने की व्यक्तिवादी  मानसिकता  एक दिन हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती  है . यह घातक मनोवृत्ति देश में किसी दिन तानाशाही को भी जन्म दे सकती है .  राजनीति में सक्रिय कोई व्यक्ति दिखावे के लिए भले ही  कुछ भी कहता और करता रहे , लेकिन उसके दिल में तो कुछ और ही भाव छुपे हुए हैं . जब कोई व्यक्ति राजनीति को निजी जिंदगी के लिए तरक्की के पायदान के रूप में इस्तेमाल करेगा ,तो  उसे  देश और समाज की भलाई की चिन्ता कहाँ होगी ? दुर्भाग्य से अब देश में लोगों को राजनीति में  'कैरियर' बनाने का प्रशिक्षण देने की  एक नई परिपाटी शुरू हो रही है .
        वैसे तो  देश और दुनिया के  विश्वविद्यालयों में राजनीति शास्त्र की पढ़ाई कोई नई बात नहीं है. यह विगत कई दशकों से होती चली आ  रही है,जिसके पाठ्यक्रमों में महान विचारकों के सिद्धांतों की जानकारी विस्तार से दी जाती है अधिकाँश विद्यार्थी  इसमें यह सोच कर प्रवेश नहीं लेते कि उन्हें नेता बनना है या राजनीति में कैरियर बनना है . लेकिन अब बेंगलुरु का भारतीय प्रबंध संस्थान (आई.आई. एम.) सेंटर फॉर सोशियल रिसर्च के साथ मिलकर लोगों को नेता बनाने के लिए दस हफ्ते का एक पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहा है , जिसकी फीस चार लाख ७५ हजार रूपए तय की गयी है . इस पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को चुनाव लड़ने ,चुनावी प्रचार और जनमत संग्रह करने और प्रभावी सांसद बनने की भी शिक्षा मिलेगी ! वहाँ राजनीतिक प्रबंधन की ट्रेनिग मिलेगी ! लेकिन क्या उन्हें सच बोलना भी सिखाया जाएगा ?
             क्या ज़माना आ गया है ? कहते हैं -राजनीति वास्तव में समाज सेवा का दूसरा नाम है . क्या समाज सेवा के लिए भी किसी प्रशिक्षण और प्रमाण पत्र की ज़रूरत होती है ? अगर हाँ ,तो मेरे ख्याल से गौतम बुद्ध ,महावीर स्वामी , संत कबीर . नानक , महात्मा गांधी , स्वामी विवेकानंद , भगत सिंहचन्द्र शेखर आज़ाद , मदर टेरेसा ,  बाबा आमटे,  नेहरू, और नेता जी सुभाष जैसे लोगों को समाज-सेवक और नेता नहीं माना जा सकता , ,क्योंकि इन्होनें  ऐसे किसी प्रबंध संस्थान से राजनीतिक और सामाजिक  प्रबंधन का कोई [प्रशिक्षण नहीं लिया था ! उनके पास ऐसी किसी ट्रेनिग का प्रमाण पत्र भी नहीं था !फिर भी जनता ने उन्हें सर -आँखों पर बैठाया ! अगर आप में मानवीय संवेदना है , गरीबों और असहायों के लिए आपके दिल में सच्चा दर्द है और आप उनके लिए कुछ करना चाहते हैं ,  तो आप अपने अच्छे कार्यों के ज़रिये जनता का दिल जीत कर  अच्छे नेता बन सकते हैं ,इसके लिए किसी मैनेजमेंट प्रशिक्षण की क्या ज़रूरत है ?                                                                                ---  स्वराज्य करुण
                         





Friday, March 9, 2012

जाग मुसाफिर जाग !

                                                            
                                                            उठ जाग मुसाफिर जाग ,
                                                            होलिका दहन के बाद हरियाणा में
                                                            भड़की आरक्षण की आग !
                                                            देश के लिए बन गया आरक्षण भस्मासुर
                                                            लेकिन भारत भाग्य विधाता 
                                                            अलमस्त नशे में चूर !
                                                            आरक्षण ने फैलाया   घनघोर जातिवाद ,
                                                            गायब होने लगा समाज से   प्यार भरा संवाद !
                                                            क्यों ज़रूरी है बोलो आरक्षण की बैसाखी ,
                                                            प्रतियोगिता में भी क्यों  हो 
                                                            भेदभाव की झांकी ?
                                                            कहते हैं कि जाति-धर्म का 
                                                            भेद नहीं  अपने संविधान में ,
                                                            फिर क्यों आग लगाता है कोई अपने हिन्दुस्तान में ?
                                                                                    -                    - स्वराज्य करुण


Thursday, March 8, 2012

होलियाना हो -हल्ले में एक गुमनाम मौत !

  कितनी स्वार्थी ,बेरहम और बेशरम है हमारी यह  दुनिया . होली के हो-हल्ले में खोए हुए ज्यादातर लोगों को इस बात से भला क्या मतलब कि  भारतीय संगीत जगत के गहरे-नीले आसमान का एक चमकीला सितारा कल होली की पूर्व संध्या पर हमेशा के लिए अस्त हो गया . रंगों के मस्ती भरे शोर-शराबे में एक प्रसिद्ध संगीत-शिल्पी की मौत की घटना गुमनामी के अँधेरे में खो गयी . टेलीविजन चैनलों में होली के हँसी -ठहाकों के बीच केवल एक पट्टी चलती रही - संगीतकार रविशंकर शर्मा का मुंबई में निधन,लेकिन उस महान संगीतकार की पचास-साठ वर्षों की संगीत साधना पर कोई कार्यक्रम प्रसारित नहीं किया गया,जैसा कि महान गज़ल गायक जगजीतसिंह और अभिनेता  देवानन्द के निधन पर किया  गया था . 
 
महान संगीत शिल्पी   :    रवि  
(०३ मार्च १९२६- ०७ मार्च २०१२)

            टी.व्ही. चैनलों में  संगीतकार रविशंकर शर्मा के निधन के  शोक-समाचार की पट्टी के ऊपर फ़िल्मी जोकरों के फूहड़ होलियाना हँसी-मजाक छाए रहे . शोक समाचार की पट्टी देखकर मैंने फेसबुक पर यह दुखद खबर लिखी , दिवंगत महान संगीतज्ञ का संक्षिप्त जीवन परिचय भी लिखा ,लेकिन फेसबुक की दुनिया में मगन अधिकाँश लोग केवल होली की मस्ती पर आधारित टीका -टिप्पणियों में आपस में व्यस्त नज़र आए .उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बाबुल की दुआएं लेती जा , आज मेरे यार की शादी है , डोली चढ़ के दुल्हन ससुराल चली और दिल के अरमां आंसुओं में बह गए जैसे सदाबहार फ़िल्मी गीतों को अपने संगीत से सजाने और संवारने वाले संगीतकार 'रवि' अब नहीं रहे . मुंबई के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया . 
    उन्होंने हिन्दी और मलयालम की कई लोकप्रिय फिल्मों के लिए संगीत दिया. रवि के संगीत से सजी हिन्दी फिल्मों में 'अलबेली (१९५५) , चौदहवीं का चाँद (१९६०), घराना (१९६१) ,खानदान (१९६५) , दो बदन (१९६६), हमराज (१९६७), आँखें (१९६८) और निकाह (१९८२ ) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं .उन्होंने 'वक्त ' ,नील कमल ' और 'गुमराह' जैसी लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों में अपना यादगार संगीत दिया. हिन्दी फिल्म 'घराना' और 'खानदान ' के लिए उन्हें प्रतिष्ठित 'फिल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजा गया था. वह मलयालम फ़िल्म जगत में 'बाम्बे रवि' और 'रवि बाम्बे' के नाम से भी लोकप्रिय थे. उनका जन्म दिल्ली में तीन मार्च १९२६ को हुआ था . उनका पारिवारिक नाम रविशंकर शर्मा था.  उनके निधन से भारतीय फिल्म संगीत के एक स्वर्णिम युग का अंत हो गया. 
   यह कैसी विडम्बना है कि एक संगीतकार की दिलकश धुनों से सजे गीतों को गुनगुनाने का लोभ हम नहीं सम्भाल पाते , लेकिन उनकी मौत का कोई नोटिस नहीं लेते ? बहरहाल , दिल को छू लेने वाले रवि के संगीत से सजे सदाबहार फ़िल्मी गीत विभिन्न महफ़िलों में , शादी-ब्याह के आयोजनों में और रेडियो और टेलीविजन पर जब कभी गूंजेंगे , रवि साहब की हमें बहुत याद आएगी. विनम्र श्रद्धांजलि.
                                                                                                                      -स्वराज्य करुण