Sunday, September 8, 2024
(पुस्तक- चर्चा ) माटी-महतारी से जुड़ी कविताएँ
एकान्त श्रीवास्तव का कविता -संग्रह 'अँजोर'
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आलेख - स्वराज करुण
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छत्तीसगढ़ी नई कविताओं के हिंदी अनुवाद सहित एकान्त श्रीवास्तव का नया संग्रह 'अँजोर' अपने शीर्षक के अनुरूप कविता की दुनिया में नई रौशनी लेकर आया है। संग्रह में 42 छत्तीसगढ़ी कविताओं के साथ -साथ उनके हिन्दी अनुवाद भी दिए गए हैं। यानी एक पृष्ठ पर छत्तीसगढ़ी तो दूसरे पृष्ठ पर उसका हिंदी अनुवाद। देखा जाए तो यह उनका एक नया प्रयोग है।इन छत्तीसगढ़ी नई कविताओं का हिंदी अनुवाद भी स्वयं कवि एकान्त श्रीवास्तव ने किया है। हिंदी की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ ' के नौ साल तक सम्पादक रहे एकान्त छत्तीसगढ़ में ही जन्मे और पले-बढ़े हैं। राजिम के पास ग्राम कोमा में उनका बचपन बीता। आगे चलकर वह भारत सरकार के राजभाषा विभाग में अधिकारी बने । फरवरी 2024 में सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अभी दिल्ली में रहते हैं। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि होने के साथ -साथ वह कहानीकार और समीक्षक भी हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में आधुनिक शैली की अतुकांत कविताएँ लिखने वालों की संख्या काफी कम है । ऐसे में एकान्त श्रीवास्तव की ये कविताएँ अनायास पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं ,जो हमारी माटी-महतारी से जुड़ी हुई हैं।
प्रकाशन संस्थान ,नईदिल्ली द्वारा पिछले वर्ष 2023 में प्रकाशित उनका यह संग्रह 'अँजोर' 168 पृष्ठों का है, जिसे उन्होंने उन्हीं के शब्दों में कवि त्रिलोचन (शास्त्री ) की अवधी में रचित काव्य -कृति 'अमोला' को और छत्तीसगढ़ की मिट्टी ,जिसका नाम कन्हार है और इसके सीधे-सच्चे रहवासियों को और कोरोना काल में खो गए तमाम प्रियजनों और कवि -लेखक बंधुओं को याद करते हुए समर्पित किया है।
चूंकि एकान्त छत्तीसगढ़ में जन्मे और यहाँ के ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं , इसलिए उनके इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के गाँवों की और यहाँ के लोकजीवन की सोंधी महक महसूस की जा सकती है। संग्रह में 'मनुख के गीत गाओ ' शीर्षक से 21 पृष्ठों की भूमिका जयप्रकाश ने लिखी है, जिसमें उन्होंने एकान्त की इन कविताओं के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है। कवि एकांत 'इन कविताओं के बारे में' शीर्षक अपने आत्मकथ्य में कहते हैं -"इनमें झाँक रहा गाँव एक भूला-बिसरा गाँव है ,जो अब आधा ही बचा है।कला या कविता उस आधे खो गये गाँव की खोज का ही रचनात्मक प्रयत्न है। उस गाँव और उस जीवन के साथ मूल्य भी पीछे छूट गये हैं,जो जीवन और सभ्यता के प्रत्येक समय आधार स्तंभ हैं।इस तरह परम्परा अधुनातन होती है । भारतीय संस्कृति के 'अग्राह्य' को त्यागकर ग्राह्य को स्वीकार करना ही कविता और समाज का धर्म है ।" कवि एकान्त के शब्दों में -"हिंदी की बड़ी कविता बोली की कविता है । "
संग्रह में एकान्त की पहली छत्तीसगढ़ी कविता 'पियास ' (प्यास) का एक अंश देखिए -
"फूल के रस ल फुलचुहकी पीथे /आँसू ल पीथे महतारी ,
मइनसे के लहू ल टोनही चुहकथे / गौंटिया ह पी थे गरीब के पछीना ।
कोन पानी ल पियँव के /माढ़ जाए मोरो पियास ,
कोन रद्दा जाँव / तैं मोला बता दे ,
कोन गाँव ,कही दे संगवारी ।
कुँवार के घाम म देहे करियागे /भुंजागे सब्बो बन -कांदी,
अंतस के दोना म मया के पानी / एक घुटका पी लेतेंव
त तर जातेंव ।
कवि ने वर्ष 2002 की अपनी इस कविता की इन पंक्तियों का हिंदी अनुवाद इस तरह किया है -
"फूल के रस को फूलचुहकी पीती है ,
आँसू को पीती है माँ ,
जादूगरनी पीती है मानुष का रक्त ,
साहूकार पीता है गरीब का पसीना ।
कौन -सा जल पियूँ
कि बुझ जाए मेरी भी प्यास ,
किस रास्ते जाऊँ
कौन -सा गाँव ?
मुझे तुम बता दो ओ संगी मेरे ।
कुँवार की धूप में
काली पड़ गयी काया,
जल गई घास और जंगल ,
तर जाता यदि एक घूँट पी लेता ,
हॄदय के दोने में प्रेम का जल ।"
संग्रह 'अँजोर ' की कविताओं में हमारी ग्राम्य संस्कृति के साथ छत्तीसगढ़ के गाँवों की ज़िन्दगी जीवंत हो उठी है। इसमें एक छत्तीसगढ़ी कविता है 'मड़ई ' , यह किसी मड़ई की चहल -पहल के बीच खाली जेब घूमते ग्रामीण की सहज -सरल अभिव्यक्ति है ,जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
"मड़ई म सकलाए हें गाँव भर के मइनखे,
आए हें आन गाँव ले घलो ,
भंडार के गाँव अउ रकसहूँ के गाँव,
उत्ती के गाँव अउ बुड़ती के गाँव,
जुरे हें सब दिसा ले।
कोदो के पाना ल चबाए हों अइसे,
जानो, मानो खाए हों पान ,
लाली -लाली रचे हे मुँहु,
मड़ई म घूमथौं अउ अइसे मेछराथंव
कोनहो पार नइ पाही
के एक्को ठन पइसा नइ हे खिसा म।"
कवि ने इन पंक्तियों का हिंदी अनुवाद किया है-
"मेले में एकत्र हुए हैं गाँव भर के लोग ,
आए हैं दूसरे गाँवों से भी ,
उत्तर के गाँव और दक्षिण के गाँव,
पूरब के गाँव और पश्चिम के गाँव,
एकत्र हुए हैं यहाँ सब दिशाओं से ।
कोदो की पत्तियों को
चबाया है इस तरह ,
जैसे मैंने खाया है पान
लाल -लाल रचे हैं होंठ ,
मेले में घूमता इतरा रहा ऐसे
किसी को पता नहीं चलेगा कि
एक भी पैसा नहीं जेब में।"
संग्रह में 'भुंइया के फूल' शीर्षक कविता की प्रारंभिक पंक्तियों में एक छत्तीसगढ़िया मनुष्य की अभिव्यक्ति को महसूस कीजिए -
खर नइ हे पानी खारून के ,
करू नइ हे जाम चंदना -चमसूर के
,फेर काबर जाबो ठंइया ला छोड़ के ,
इही भूँइया के फूल हन ,
इही भूँइया म झर बो। "
एकांत ने अपनी इस रचना का हिंदी अनुवाद इस तरह किया है -
"खारा नहीं है पानी 'खारून 'का ,
कड़ुए नहीं हैं अमरूद चंदना -चमसूर के
फिर क्यों जाएँ अपनी जगह को छोड़ कर ,
इस धरती के फूल हैं ,
इसी धरती में झड़ेंगे ।"
यह कविता अपनी धरती के प्रति मनुष्य के मोह की सहज ,लेकिन भावुक अभिव्यक्ति है।संग्रह में एक छोटी -सी कविता है 'मया म ' यानी प्यार में।
मूल छत्तीसगढ़ी में देखिए -
"तैं कुँवा ले पानी नइ,
मोला हेर लेथस ,
तैं ढेंकी म धान नइ,
मोला कूट देथस,
तैं जाँता म दार नइ,
मोला दर देथस ।
तैं चूँदी म फूल नइ,
मोला खोंच लेथस ।
का-का होवत रथे मया म
अमारी के फूल ह
सुरुज म बदल जाथे।"
एकान्त ने इसका हिंदी अनुवाद किया है ,वह भी बहुत मोहक है
" तुम कुँआ से पानी नहीं
मुझे निकालती हो ,
तुम ढेंकी में धान नहीं ,
मुझे कूटती हो ,
तुम चक्की में दाल नहीं ,
मुझे पीसती हो ,
तुम वेणी में फूल नहीं,
मुझे खोंसती हो ,
क्या -क्या होता रहता है प्यार में ,
अमारी का फूल
सूर्य में बदल जाता है।"
यह कविता ग्राम्य जीवन में प्यार की निर्मल ,निश्छल अभिव्यक्ति के साथ हमें गाँवों की हमारी विलुप्तप्राय कुँआ संस्कृति और अनाज कूटने की ढेंकी संस्कृति की भी याद दिलाती है। हैण्डपम्पों और नलकूपों के इस आधुनिक युग में गाँवों में भी कुँआ लगभग अदृश्य हो गया है।साथ ही अदृश्य हो गयी है कुँओं के आसपास होने वाली चहल -पहल। ठीक उसी तरह गाँवों के घरों में अलसुबह महिलाओं द्वारा ढेंकी में अनाज कूटने की आवाज़ भी अब कहीं गुम हो गयी है ,क्योंकि उनका स्थान गाँवों में स्थानीय स्तर पर या आस- पास धान कूटने की हॉलर मशीनों ने ले लिया है।
संग्रह की शीर्षक -कविता 'अँजोर' हमें उस युग की याद दिलाती है ,जब घरों में रात के समय कंदील(लालटेन)और अंगीठी की रौशनी से काम चलाया जाता था। उस दौर में भी गाँव के सम्पन्न व्यक्ति के घर में रात भर कंदील की रौशनी हुआ करती थी। यानी वह भी आर्थिक विषमता का दौर था। कवि एकान्त की कलम ने उस माहौल का छत्तीसगढ़ी में शब्द चित्र कुछ इस तरह खींचा है -
"हमर गाँव म तीन कोरी छानी
एक कोरी घर म कंडील बरथे।
दू कोरी घर म अंगेठा के अँजोर ,
माटी तेल बर नइ हे पइसा
कोनहो -कोनहो घर म बरथे
कुसुम अउ टोरी तेल के दियना ,
गौंटिया के घर रात भर बरथे कंडील,
उज्जर काँच के उज्जर अँजोर ।
बन म फेंकारी मारथे कोलिहा ,
दूरिहा ले दिखथे अँधियार म
गौंटिया के घर के अँजोर।
गौंटिया के घर म उगे हे चंदा
हमर कर नइ हे कोनहो तारा ।"
कवि की कलम से ही 'उजाला'शीर्षक से इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह हुआ है -
"हमारे गाँव मे हैं साठ घर ,
बीस घरों में जलती है लालटेन ,
चालीस घरों में अँगीठी का उजाला,
मिट्टी तेल के लिए नहीं है पैसा
किसी-किसी घर में जलता है
कुसुम और टोरी के तेल का दीया ।
साहूकार के घर में रातभर जलती है लालटेन,
उजले काँच की उजली रौशनी ,
जंगल में उतरता है अंधकार
पहाड़ में हुँआ-हुँआ करते हैं सियार
दूर से दिखता है अँधेरे में
साहूकार के घर का उजाला ।
साहूकार के घर में उगा है चंद्रमा
हमारे पास कोई तारा नहीं।"
हालाँकि इस आधुनिक युग में गाँवों तक बिजली पहुँच जाने से लालटेन अब इक्का -दुक्का ही नज़र आते हैं। ग़रीबों के कच्चे मकानों में भी बिजली के बल्ब जलते हैं। लेकिन एक वह भी दौर था ,जब रात में अपने घरों से अँधेरा दूर करने के लिए ग़रीबों को कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती थी ,उसका चित्रण इस कविता में है।
संग्रह की अपनी छत्तीसगढ़ी कविताओं में एकान्त छत्तीसगढ़ के जन -जीवन से और यहाँ की जनभावनाओं से जितने घुलमिल गए हैं ,वहीं इनका हिंदी अनुवाद करते हुए भी वे अपने छत्तीसगढ़िया अहसास के साथ उतने ही एकाकार नज़र आते हैं।कोई भी कवि स्वभाव से ही भावुक और संवेदनशील होता है। एकान्त श्रीवास्तव की इन कविताओं में भी अपनी धरती से जुड़ी भावुकता और संवेदनशीलता बहुत गहराई से रची -बसी है।
-स्वराज करुण
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