क्या टेक्नॉलॉजी में 
बदलाव से  इंसान की मानसिकता भी बदल जाती है  ?    माहौल देखकर तो ऐसा ही 
कुछ महसूस हो रहा है !  कुछ बरस पहले तक चिट्ठी - पत्री के जमाने  में लोग 
जिस आत्मीयता से एक - दूसरे के साथ अपने मनोभावों की अदला - बदली करते थे 
और उस आदान -प्रदान में जो संवेदनाएं होती थी , आज मोबाइल और स्मार्ट फोन 
जैसे  बेजान औजारों  एसएमएस ,ट्विटर इंटरनेट और वाट्सएप जैसी बेजान अमूर्त 
मशीनों से निकलने वाले शब्दों में  उन संवेदनाओं को महसूस कर पाना असंभव 
नहीं तो कठिन जरूर हो गया है ! 
              गाँव में  हायर सेकेण्डरी की
 पढ़ाई पूरी होने के बाद  कॉलेज की पढ़ाई के लिए शहर आकर हॉस्टल या किराये के
 मकान में रहने वाले बच्चे का अपने माता - पिता , भाई - बहन और यार दोस्तों
 को पोस्ट कार्ड या अंतर्देशीय पत्र में चिट्ठी  लिखना ,  किशोर वय में एक -
 दूसरे के प्रति आकर्षित होकर किताब - कापियों के पन्नों के बीच चिट्ठी 
रखकर एक -दूजे की भावनाओं को साझा करना ,  लेखकीय अभिरुचि वाले युवाओं का 
किसी भी सम - सामयिक विषय पर अख़बारों  में सम्पादक के नाम पत्र लिखना , 
रेडियो के शौकीन युवाओं का किसी आकाशवाणी  केंद्र  को फ़िल्मी गानों के लिए 
फरमाइशी पोस्ट कार्ड भेजना ..... अब कहाँ ?  अब तो 
अत्याधुनिक सूचना और संचार क्रांति ने इस प्रकार की बहुत सारी परम्पराओं को
 हमारे जीवन से विस्थापित कर दिया है । कवि और लेखक पहले  अपनी रचनाएँ हाथ 
से लिखकर और डाकघरों से खरीदे गए पीले रंग के लिफाफे में  सम्पादक को   
भेजा करते थे ।  पत्रकार भी अब  अपने समाचार आनन - फानन में अपने अखबारों 
को इंटरनेट से भेज देते हैं । आम नागरिकों के लिए भी इंटरनेट जैसे तेज 
संचार संसाधनों से सूचनाओं का त्वरित आदान-प्रदान बहुत आसान हो गया है .
    नई
 टेक्नोलॉजी का उपयोग गलत नहीं है ,  लोग हाईटेक हो रहे हैं लेकिन कई तरह 
के खतरे उठाकर और नैतिक-अनैतिक के फर्क को भूलकर हाईटेक होने के दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं ! ,उनसे अनजान रहना ,या जानबूझ कर अनजान बने रहना गलत है  । 
ब्लू-व्हेल जैसे मोबाइल गेम से आकर्षित होकर कई बच्चों और युवाओं ने आत्म 
हत्या जैसे घातक कदम उठा लिए हैं !  बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों 
के प्राइवेट टेलीविजन चैनलों में उपभोक्ता वस्तुओं के भ्रामक विज्ञापनों की
 भरमार जनता को भ्रमित कर रही है ,इन चैनलों में अपराध-कथाओं पर आधारित 
कार्यक्रम   लोगों की मानसिकता पर नकारात्मक प्रभाव डालने लगे हैं । 
टेलीविजन  चैनलो में नेताओं और अफसरों के  बयान देखकर आसानी से समझ में 
नहीं आता कि कौन सही और कौन गलत बोल रहा है ? नई  टेक्नॉलॉजी ने मनुष्य को 
सुविधाएं तो दी है लेकिन उसे दुविधा में भी डाल दिया है ! सही - गलत की 
पहचान मुश्किल होती जा रही है !  देश और दुनिया के   नब्बे प्रतिशत लोगों 
में यह धारणा बन गई है कि गलत आचरण ही आज सदाचरण है । समाज में कथित रूप से
 प्रभावशाली बनने के लिए शार्ट कट से   कोई  राजनीतिक पद हासिल करना  या 
किसी उच्च प्रशासनिक पद पर पहुंचना  आज के युवाओं का लक्ष्य बन गया है । 
लोग ऊंची कुर्सियों तक पहुँच तो जाते हैं ,लेकिन उच्च नैतिकता  को छू  भी 
नहीं पाते ! 
                 निरंतर  परिवर्तनशील नई टेक्नोलॉजी से लोगों की 
मानसिकता में लगातार आ रहे बदलाव का एक बड़ा असर धार्मिक आस्था केन्द्रों 
में भी देखा जा सकता है ! मन्दिरों में  पूजा -अर्चना के लिए अब  स्वयं भजन
 गाने की जरूरत नही होती । भक्तों की सुविधा के लिए म्यूजिक सिस्टम पर 
भजनों की सीडी चालू कर दी जाती है । वहाँ  भक्ति मनुष्य नही  करता  । उसका 
यह काम मशीन कर देती है । आपकी इच्छा हो तो मशीन से चल रहे भजनों  पर आप 
खामोशी से अपने होंठ हिलाते रहिए  । नई टेक्नोलॉजी से तरह-तरह के नये-नये 
उद्योग लगाना और नई-नई लम्बी-चौड़ी सडकें बनाना आसान हो गया है .इसके 
फलस्वरूप लोगों की मानसिकता में भी अजीब-ओ -गरीब बदलाव आ गया है !  लोग सब 
कुछ बहुत जल्द होते देखना चाहते हैं ,लेकिन इस हड़बड़ी में प्राकृतिक जल-सम्पदा और हरे-भरे वनों का 
विनाश भी तेजी से हो रहा है !  नई टेक्नोलॉजी से समाज की मानसिकता में 
बदलाव के साथ-साथ मौसम में भी खतरनाक बदलाव देखा जा रहा है !  दुष्परिणाम 
भी सामने आने लगे हैं ! कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे के हालात बन रहे हैं.!  
उद्योग भी जरूरी हैं ,लेकिन सिर्फ लोहे बनाने वाले उद्योग नहीं ,बल्कि खेती
 और वनोपज पर आधारित उद्योग लगें तो किसानों की भी  आमदनी बढ़ेगी और जनता को
 तरह-तरह की खाद्य-वस्तुएं  आसानी से मिल सकेंगी . वनोपज आधारित उद्योग 
लगने पर वनों की सुरक्षा पर भी लोगों का ध्यान जाएगा .इससे पर्यावरण को 
बचाने में भी मदद मिलेगी ! लेकिन इस पर कौन ध्यान दे रहा है ? 
                 
  साफ़ दिखाई द रहा है कि परमाणु बम और अन्य विनाशकारी आधुनिक हथियार बनाने 
वाले लोग और ऐसे कई देश भी  विध्वंसक मानसिकता के शिकार हो चले हैं । 
दुनिया में परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र की अवधारणा को महिमामंडित किया जा
 रहा है ,जबकि द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी
 शहरों में अमेरिकी परमाणु बमों से हुई तबाही का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं
 है .यह सिर्फ बहत्तर साल पहले वर्ष 1945 की बात है .सब जानते हैं कि   परमाणु 
हथियारों का इस्तेमाल मानवता के लिए कितना घातक  हो सकता है !  जितनी 
ज्यादा साक्षरता बढ़ रही है , शिक्षा का जितना ज्यादा प्रसार हो रहा है , 
नैतिक दृष्टि से उतना ही ज्यादा  पतन इंसानों का हो रहा है । सड़क हादसे में
 घायल होकर तड़फ रहे इन्सान  की मदद के लिए शायद ही कोई इन्सान आगे आता हो !
 समाज जीवन के किसी भी  क्षेत्र में  मनुष्य नहीं ,बल्कि मशीनों से चलने 
वाले  ह्रदय विहीन मानव शरीरों की भीड़ नज़र आती है ! 
               शायद ऐसा 
होना बहुत स्वाभाविक है ,क्योंकि समय के साथ सब कुछ बदल जाता है ,या फिर 
बदलने की प्रक्रिया में  आ जाता है ! सामाजिक   बदलाव का एक चक्र होता है ।
 वह घूमकर फिर अपनी पुरानी  जगह पर लौट सकता है । पुराने दिन लौट सकते हैं ।
  फिलहाल तो इसके आसार नज़र नहीं आ रहे ,  लेकिन  कुछ सच्चे दिलों के अच्छे 
विचार आज भी राख में चिंगारी की तरह दबे हुए हैं । शायद कभी सुलग उठें ! --स्वराज करुण