Friday, November 24, 2023

(आलेख) हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती ! लेखक -स्वराज्य करुण

(आलेख - स्वराज्य करुण ) यह पुरानी कहावत भी है और आज के दौर में हमें यह मानकर भी चलना चाहिए कि जिस तरह हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती ,ठीक उसी तरह ज़रूरी नहीं कि इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया और मीडिया के विभिन्न मंचों पर आ रही हर बात खरे सोने की तरह सच हो , जब तक कि उसमें कोई ठोस प्रमाण या ठोस तथ्य न हो। हर नई तकनीक के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं । उसका उपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। लेकिन जैसा कि समाचारों में देखा , सुना और पढ़ा जा रहा है ,इंटरनेट आधारित ए .आई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बौद्धिकता) , चैट जीपीटी और अब डीप फेक नामक नई तकनीक ने दुनिया के करोड़ों सोशल मीडिया यूजर्स के सामने एक नया संकट खड़ा कर दिया है। सदुपयोग के बजाय इन नये संचार उपकरणों के दुरुपयोग की चर्चा अधिक हो रही है। कहा जा रहा है कि ये नवीन तकनीकी उपकरण सोशल मीडिया और परम्परागत मीडिया के साथ -साथ मानव समाज में भी विश्वसनीयता का संकट पैदा कर सकते हैं। ताज़ातरीन चर्चा डीप फेक की है। इन नई तकनीकों में प्रशिक्षित कोई भी इंसान इनके जरिए समाज को भ्रमित कर सकता है। इन नवीन तकनीकों के क्या -क्या फायदे हो सकते हैं , यह स्पष्ट नहीं है ,हो सकता है कि कुछ फायदे भी हों , लेकिन इनसे हो रहे या होने वाले नुकसान की काफी चर्चा मीडिया में हो रही है। सोशल मीडिया के कुछ प्लेटफॉर्म्स में वायरल होने वाले फर्जी वीडियो की जाँच के लिए फैक्ट फाइंडिंग तकनीक भी उपलब्ध है ,लेकिन जब तक उस फर्जी वीडियो की वास्तविकता का पता लगता है ,तब तक काफी देर हो चुकी होती है और फर्जी बातें दूर तक पहुँच कर साधारण मनुष्यों को गुमराह कर सकती हैं। मैंने देखा तो नहीं है ,लेकिन सुना है कि ए. आई. तकनीक के द्वारा आपके मुखारविन्द से वह सब कुछ कहलवाया जा सकता है ,जो आपने कभी कहा ही नहीं था। यानी इसके जरिए अफवाहें भी फैलाई जा सकती हैं। इसी तरह आप लेखक या कवि हों या न हों , लेकिन चैट जीपीटी के जरिए आप किसी भी विषय पर स्वयं के नाम से लेख या कहानी लिखवा सकते हैं ,पत्रकार हों या न हों , अपने लिए अपने नाम से समाचार लिखवा सकते हैं कविताओं का सृजन कर सकते हैं । यानी फर्जी लेखक,पत्रकार और फर्जी कवि बन कर प्रसिद्ध हो सकते हैं। यह देश और दुनिया में साहित्य और पत्रकारिता के लिए भी एक बड़ा संकट बन सकता है। ए. आई .तकनीक से कुछ टीव्ही चैनलों में न्यूज रीडिंग भी की गयी है। हालांकि उसमें कुछ गलत नहीं था । अब तक तो कम्प्यूटर पर फोटोशॉप साफ्टवेयर के जरिए किसी का सिर किसी के धड़ से जोड़ा जा सकता था ,लोग फोटो शॉप के जरिए कई तरह के फर्जी फोटो भी तैयार कर लेते थे और शायद करते भी हैं , फर्जी वीडियो भी वायरल होते रहते हैं , लेकिन अब डीप फेक में तो कोई भी किसी के भी वीडियो का गलत इस्तेमाल कर सकता है। या फर्जी वीडियो बना सकता है।हाल ही में एक फर्जी वीडियो वायरल हुआ ,जिसमें माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को गरबा नृत्य करते हुए दिखाया गया।स्वयं प्रधानमंत्री ने इसका जिक्र करते हुए एक बैठक में लोगों को डीप फेक तकनीक से सावधान किया। यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने डीप फेक के खतरों को गंभीरता से संज्ञान में लिया है। नई दिल्ली में कल केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री श्री अश्विनी वैष्णव की अध्यक्षता में आयोजित एक उच्च स्तरीय बैठक में डीप फेक वीडियो अपलोड करने वालों और इसके प्लेटफॉर्म बनाने वालों पर जुर्माना लगाने का निर्णय लिया गया। मंत्री जी ने डीप फेक को लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बताया । इस बैठक में सभी प्रमुख इंटरनेट मीडिया संस्थानों के प्रमुख प्रतिनिधियों सहित कई तकनीकी विशेषज्ञ और शिक्षाविद भी शामिल हुए। बैठक में डीप फेक के खतरों से निपटने के लिए दस दिनों के भीतर एक स्पष्ट कार्ययोजना बनाने का भी निर्णय लिया गया।-स्वराज्य करुण

Tuesday, November 7, 2023

(गीत) मेहनत की मुस्कान -स्वराज्य करुण

मेहनत की मुस्कान b> सांध्य दैनिक 'छत्तीसगढ़' की साप्ताहिक पत्रिका ' इतवारी अख़बार' में 20 नवम्बर 2011 को प्रकाशित।

Sunday, November 5, 2023

(आलेख) यह देखकर हम जैसे मामूली लोग हैरान हैं !

यह देखकर दुनिया के हम जैसे मामूली लोग हैरान हैं कि हमास और इजरायल के बीच यह निर्मम लड़ाई आख़िर हो क्यों रही है ?इक्कीसवीं सदी में आकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों के दिमागों पर इस तरह के पागलपन का ग्रहण क्यों लग गया है? उनकी शिक्षा -दीक्षा पर संदेह होने लगता है। क्या उन्होंने मानवता को बर्बाद करने की शिक्षा हासिल की है ?
टीव्ही चैनलों में आ रहे भयावह दृश्य हर इंसान को विचलित कर रहे हैं। कहीं अस्पतालों पर बम बरसाए जा रहे हैं तो कहीं स्कूलों और शरणार्थी शिविरों पर हमले हो रहे हैं। क्यों इतनी मारकाट मची हुई है ? दोनों पक्षों की बमबारी में हजारों मासूम बच्चे और निरीह नागरिक मारे जा रहे हैं। बस्तियाँ तबाह हो रही हैं। जिन लोगों ने लाखों रूपये खर्च कर कई मंज़िल ऊँची इमारतों में अपने सपनों का आशियाना ख़रीदा था , वे इमारतें भी ज़मींदोज़ हो रही हैं। लोगों के सपनों का आशियाना उजड़ रहा है। बमों के बारूदी धुएँ से दुनिया का वायुमंडल भी प्रदूषित हो रहा है। मानवता कराह रही है। इस निर्मम युद्ध की ख़बरों ने रूस-यूक्रेन युद्ध के समाचारों को भी पीछे ढकेल दिया है।युद्ध चाहे कहीं भी हो रहा हो , उसमें जीत किसी की नहीं होती , हजारों लाखों लोगों की लाशों पर सिर्फ़ मानवता की हार होती है। इसलिए चाहे हमास-इजरायल की लड़ाई हो ,या रूस-यूक्रेन युद्ध , ये हिंसक संघर्ष तत्काल बंद होने चाहिए। इन युद्धों को रोकने में संयुक्त राष्ट्रसंघ की ढुलमुल नीति पूरी दुनिया को निराश कर रही है! - स्वराज करुण

Wednesday, October 18, 2023

(आलेख) इतने भजन ,इतने पूजन ,इतनी प्रार्थनाएँ , सब व्यर्थ

इतने भजन ,इतने पूजन ,इतनी प्रार्थनाएँ, इंसानी बर्बरता के आगे कोई काम न आए। क्या वे लाखों लोग अपने बचाव के लिए अपने -अपने अज्ञात ,अदृश्य ईश्वर से प्रार्थना नहीं कर रहे होंगे , जो हमास और इजरायल के बीच 12 दिनों से जारी विनाशकारी युद्ध में फँसे हुए हैं ? सब व्यर्थ गया। गजा के एक अस्पताल पर बमबारी जहाँ लज्जाजनक है ,वहीं इसके फलस्वरूप अस्पताल में 500 मौतों की ख़बर बेहद पीड़ादायक । ऐसा भी कहा जा रहा है कि इस घिनौने हमले में मरने वालों और घायलों की संख्या और भी बढ़ सकती है।
मनुष्य बीमार पड़ने पर अपने स्वास्थ्य के लिए ,अपनी प्राण रक्षा के लिए अस्पतालों की शरण लेता है, लेकिन अगर किसी अस्पताल पर ही बमबारी हो तो इंसान आख़िर जाए तो जाए कहाँ ? क्या इस क्रूरतम हमले में डॉक्टर्स ,नर्स और अस्पताल के अन्य कर्मचारी भी मरे या घायल नहीं हुए होंगे ,जो वहाँ मरीजों की सेवा के लिए तैनात थे? यह बमबारी चाहे जिसने भी की हो , वह इंसान तो हो ही नहीं सकता। उसकी हैवानियत की सबको एक स्वर से निन्दा करनी चाहिए ।हमास और इजरायल दोनों एक -दूसरे पर इस शर्मनाक करतूत का आरोप लगा रहे हैं । कौन सही है और कौन गलत , यह तय कर पाना वहाँ चल रही भयानक हिंसा और प्रतिहिंसा के माहौल में बहुत कठिन हो गया है। यह ख़ूनी लड़ाई हर हालत में रुकनी चाहिए। अस्पताल में हुई सैकड़ों मौतों के लिए दोनों पक्षों को सार्वजनिक रूप से पश्चाताप करना चाहिए ,क्योंकि अगर वे युद्ध नहीं करते तो ऐसा क्यों होता ? -स्वराज्य करुण

Wednesday, October 11, 2023

(आलेख) बंद क्यों नहीं होती ऐसी ख़ूनी लड़ाइयाँ ? लेखक -स्वराज्य करुण

आख़िर संयुक्त राष्ट्रसंघ की क्या ड्यूटी है? (आलेख -स्वराज्य करुण) यूक्रेन पर लगभग डेढ़ साल पहले शुरू हुए रूसी आक्रमण की आग अभी बुझी भी नहीं है और उधर इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध शुरू हो गया है। युद्ध चाहे यूक्रेन और रूस का हो या इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच , इन्हें तत्काल रोका जाना चाहिए। बेरहमी और पागलपन से भरी इन लड़ाइयों में अब तक इन देशों के सैकड़ों निरीह नागरिकों की मौत हो चुकी है , हजारों लोग घायल हुए हैं। युद्ध के बदहवास माहौल में मृतकों और घायलों के सही-सही आंकड़े तत्काल नहीं मिल पाते है। शायद ये आंकड़े अब तक मिली संख्याओं से अधिक होंगे।संयुक्त राष्ट्र संघ को तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए। आख़िर संयुक्त राष्ट्र संघ की क्या ड्यूटी है? उसके बड़े-बड़े दिग्गज पदाधिकारियों को आख़िर लाखों डॉलर की तनख्वाहें और सुख-सुविधाएँ आख़िर किस काम के लिए मिलती हैं ? दुनिया के तमाम देशों ने मिलकर यह संगठन बनाया किसलिए है?
किन्हीं दो देशों की खूनी लड़ाई का खामियाज़ा उन देशों के उन हजारों-लाखों लोगों को भुगतना पड़ता है ,जिनकी कोई गलती नहीं होती ,जिनका उन लड़ाइयों से कोई लेना -देना नहीं रहता। वो अपनी और अपने परिवारों की ज़िन्दगी की गाड़ी खींचने के लिए रोजी-रोटी की ज़द्दोज़हद में लगे रहते हैं। लेकिन युद्ध की आग उनकी घर-गृहस्थी को उजाड़कर रख देती है , उन्हें और उनके मासूम बच्चों , माताओं ,बहनों और बुजुर्गों सहित घर के दूसरे सदस्यों को भी जलाकर राख कर देती है।लेकिन उन राष्ट्रों के प्रमुख शासक अपने-अपने सिंहासनों की सुरक्षा के लिए , अपने -अपने अहंकार की तुष्टि के लिए अपने -अपने नागरिकों में युद्धोन्माद की लहर पैदा करके, उन्हें मानवता का दुश्मन बना देते हैं और खुद अपने-अपने महलों में हमेशा महफूज़ बने रहते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वर्ष 1945 में दो जापानी शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिकी परमाणु बमों के हमलों में लाखों नागरिक मारे गए।उसकी एक अलग दर्दनाक कहानी है। यह कड़वी सच्चाई है कि दुनिया का इतिहास राष्ट्रों के बीच हुई और हो रही लड़ाइयों से बहते बेगुनाहों के ख़ून से भी लिखा गया है और लिखा जा रहा है। अगर दुनिया पढ़े-लिखे ,सुशिक्षित लोगों की है , अगर दुनिया में शिक्षा और साक्षरता बढ़ चुकी है , तो ऐसी लड़ाइयाँ बंद होनी चाहिए। वैसे ये बात तो है कि अनपढ़ लोग इस प्रकार के पागलपन से अक्सर दूर रहते हैं ,लेकिन पागल किस्म के लोग उन्हें भी पागलपन का शिकार बनाकर युद्ध की आग में झोंक देते हैं। युद्ध से और किसी को कोई फायदा हो या न हो ,लेकिन अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता और व्यापारी हमेशा फ़ायदे में रहते हैं। ये लड़ाइयाँ हथियारों के सौदागरों को लाखों ,करोड़ो और अरबो रुपयों के मुनाफ़े का बाज़ार मुहैय्या करवाती हैं। दुनिया भर के हथियार-उद्योग इन्हीं निर्मम लड़ाइयों के दम पर फलते-फूलते रहते हैं। विगत तीन दशकों में हमारी दुनिया में कई युद्ध हुए हैं। वर्ष 1990 में खाड़ी युद्ध , वर्ष 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर , फिर 2003 में इराक पर अमेरिकी हमलों का खौफ़नाक मंज़र दुनिया देख चुकी है। सीरिया से भी युद्ध की ख़बरें गाहेबगाहे आती रहती हैं। कुछ साल पहले अज़रबैजान-आर्मेनिया की खूनी ज़ंग में भी मानव जीवन की भारी तबाही हो चुकी है । दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से युद्ध के विनाशकारी पागलपन की ख़बरें मिलती ही रहती हैं। ऐसी लड़ाइयाँ बंद होनी चाहिए। दुनिया के तमाम देशों को अपनी जनता के लिए बेहतर शिक्षा के साथ बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं पर , आवागमन के बेहतर संसाधनों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। अपनी ऊर्जा साहित्य ,कला और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन पर लगानी चाहिए। अगर ये दुनिया सचमुच पढ़े-लिखों की है तो उसे सभी देशों के बीच परस्पर शांति और मैत्री के लिए काम करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन भी इसी उद्देश्य से किया गया था। लेकिन लगता है कि वह इस बात को भूल चुका है। उसे याद दिलाना ज़रूरी है। आलेख -स्वराज्य करुण फोटो -इंटरनेट से साभार

Wednesday, October 4, 2023

(आलेख) मेरी समझ से ये हैं घुटनों में दर्द के कुछ असली कारण

(आलेख -स्वराज करुण ) दोस्तों , मैं कोई डॉक्टर या फिजियोथेरेपी का विशेषज्ञ तो नहीं,लेकिन इस युग में घुटनो के दर्द की आम हो चली समस्या को देखकर और सुनकर कह रहा हूँ । मैं स्वयं इस दर्द से गुज़र रहा हूँ। आप कहेंगे कि पर उपदेश ,कुशल बहुतेरे ,लेकिन जैसा कि मैंने महसूस किया है और शायद आप लोग भी मुझसे सहमत होंगे । घुटनों के दर्द की बढ़ती समस्या के कई कारण हो सकते हैं। मेरी समझ से इसके कुछ असली कारण ये हो सकते हैं । ज़्यादातर शहरी लोगों में ज़मीन पर पालथी मोड़कर बैठने और पीढ़े में भोजन करने की आदत छूट गयी है। पहले महिलाएँ रसोई घरों में ज़मीन पर बने मिट्टी के गोबर लिपे चूल्हे में लकड़ी से खाना बनाती थीं ,या कोयले की सिगड़ी में । लेकिन अब मिट्टी के चूल्हे लगभग विलुप्त हो चुके हैं तो उनमें उपयोग के लिए लकड़ियों का तो सवाल ही नहीं उठता। पहले हर मोहल्ले में लकड़ी टाल होते थे ,लेकिन वे भी अब कहाँ दिखाई देते हैं? अब तो लगभग हर किचन में गैस चूल्हा और प्लेटफार्म होता है । महिलाएँ खड़े होकर खाना बनाती हैं। डाइनिंग टेबल सस्ता हो या महँगा ,कई घरों में खाना डाइनिंग टेबल पर ही परोसा जाता है। बच्चे ,बड़े सभी उम्र के लोग उसमें डाइनिंग कुर्सियों पर बैठकर भोजन करते हैं। पालथी मोड़ने की आदत कहाँ रहेगी ? शादी -ब्याह के आयोजनों में पहले मेहमानों को पंगत में बैठाकर बड़े मान-मनुहार के साथ ,प्राकृतिक दोना पत्तलों में बड़े प्रेम से भोजन परोसा जाता था, मेहमान भी पालथी मोड़कर आराम से खाना खाते थे।लेकिन अब तो हर तरफ़ बफे सिस्टम का प्रचलन है । लोग खड़े-खड़े भोजन करते हैं। पालथी मोड़कर बैठने की आदत भी उनमें नहीं रह गयी है। छोटे-छोटे कामों के लिए पैदल चलने की आदत भी छूटती जा रही है। आजकल कहीं आना -जाना हो तो आजकल बच्चे और बड़े सभी लोग बाइक चलाकर आते - जाते हैं। साइकिल चलाने से पैरों की कसरत हो जाती थी ,लेकिन साइकिल की आदत छूट रही है। आपके शरीर को लाने ले जाने काम तो मशीन कर रही है। पैरों की कसरत भला कैसे हो पाएगी ? यह ज़रूर है कि कहीं बहुत दूर जाना हो तो भले ही बाइक का इस्तेमाल करें ,लेकिन आसपास बाज़ार-दुकान जाना हो,बच्चों को दो चार किलोमीटर की दूरी पर स्कूल भेजना हो तो साइकिल बेहतर है। हम लोग अपने बचपन के दिनों में पहली से पाँचवी तक फर्श पर टाट पट्टियों में बैठ कर पढ़ाई करते थे ,बेंच और डेस्क पर बैठने का सिलसिला छठवीं से शुरू होता था और कई जगहों पर तो उन कक्षाओं में भी टाट पट्टियों में बैठकर ही बच्चे बड़े आराम से पढ़ाई कर लेते थे। पालथी मोड़कर बैठने की आदत बन जाती थी । लेकिन अब तो ज़्यादातर स्कूलों में डेस्क और बेंच पर बैठकर ही पढ़ाई होती है। घुटनों का मूवमेंट नहीं होता। लेकिन एक बात ज़रूर अच्छी हुई है कि कई राज्यों में सरकारी योजनाओं के तहत हाई स्कूल और हायर सेकेंडरी कक्षाओं की बालिकाओं को निःशुल्क साइकल दी जा रही है ,जिनका उपयोग भी उनके द्वारा किया जा रहा है ,जो उनकी सेहत के लिए भी अच्छा है।लेकिन कई शहरी घरों में अभिभावक अपने बेटे-बेटियों की जिद के आगे झुककर उनके हाथों में एक्टिवा या स्कूटी जैसे बाइक थमा देते हैं, जिनमें ये बच्चे फर्राटे से आते जाते हैं और कई बार दुर्घटनाग्रस्त भी हो जाते हैं। साइकिल से दुर्घटनाओं की आशंका काफी कम होती है।यह पैरों के व्यायाम का भी एक अच्छा साधन है। - स्वराज करुण

Tuesday, October 3, 2023

(आलेख) डीजे की आफ़त से कब मिलेगी राहत ?

(आलेख -स्वराज्य करुण) पुरानी कहावत है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं । यह कहावत आज के समय में डीजे यानी डिस्क-जॉकी नामक साउंड बॉक्स पर भी लागू हो रही है। वह आपसे या हमसे कहीं दूर बज रहा हो तो काफी राहत महसूस होती है ,लेकिन भयानक दैत्य गर्जना वाले ये बड़े- बड़े गहरे काले रंग के डिब्बे जिस रास्ते से या जिस मोहल्ले से गुजरते हैं , जिन घरों के नज़दीक से गुजरते हैं , वहाँ के सीधे-सादे शांतिप्रिय नागरिक और उनके परिवार त्राहिमाम -त्राहिमाम करते हुए अपने कान बन्द करने को मज़बूर हो जाते हैं । उनके घरों के बर्तन तक झनझनाने लगते हैं,खिड़कियाँ काँपने लगती हैं। ऐसा लगता है ,मानो कोई भूचाल आ गया है! हालांकि सड़कों पर जुलूसों में यह धमाल कुछ देर तक ही मचता है , लेकिन अगर कोई जुलूस कई किलोमीटर लम्बा हो और किसी के घर के आसपास यह धमाल घंटों तक जोर -जोर से होता रहे तो? ऐसे में उन सड़कों के दोनों किनारों के दुकानदार और घरों में रहने वाले लोग सोचते हैं कि शोरगुल की यह आफ़त कब टले तो राहत मिले और हम चैन से बैठ सकें , अपने अपने काम कर सकें या आराम से सो सकें। लेकिन कई बार किसी आयोजन में देर रात तक डीजे बजता रहता है। उसके इर्दगिर्द के घरों के लोग उस व्यक्ति को कोसने लगते हैं ,जिसने उनका का सुख-चैन खत्म करने के लिए इस आफ़त का आविष्कार किया!
पारम्परिक लाउडस्पीकरों से बजने वाले गीत -संगीत कर्णभेदी नहीं ,बल्कि कर्णप्रिय हुआ करते थे , उन सामान्य लाउडस्पीकरों से (माइक पर ) वक़्ता कई सार्वजनिक सभाओं को भी आराम से संबोधित कर लेते थे। हालांकि इन लाउडस्पीकरों से प्रसारित ध्वनियों से भी शोर मचता था ,लेकिन इस वह डीजे की तरह उतना भयंकर नहीं होता था।लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि लाउडस्पीकरों को धता बताते हुए उनकी दुकानों पर डीजे नामक दानवी शोर मचाने वाले इन बक्सों ने कब्जा जमा लिया है। डीजे बक्सों से होने वाला यह कर्णभेदी ध्वनि प्रदूषण शहरों से दौड़ते हुए अब कस्बों और गाँवों तक भी पहुँच गया है। बारातों सहित तरह-तरह के सामाजिक -सांस्कृतिक-धार्मिक जलसों और जुलूसों में इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। लोग वाहनों में एक साथ कई -कई डीजे बॉक्स लगवाकर इतना शोर मचवाते हैं कि कान के पर्दे फट सकते हैं और हॄदय रोगियों तथा नन्हें बच्चों के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुँच सकता है। गाहेबगाहे ऐसी ख़बरें आती भी रहती हैं । यह भी सुनने में आता है कि ऐसे प्राणघातक साउंड बॉक्स में गगनभेदी और दिल दहला देने वाले संगीत की धुनों पर आड़े-टेढ़े नाचने वाले कुछ लोग नशे की हालत में धमाल मचाते रहते हैं । उनके आस-पास से गुजरने वाले राहगीर और कामकाजी लोग परेशान होते रहते हैं। ऐसा भी सुनने को मिलता है कि इन डीजे वालों के रास्ते में संयोगवश आने -जाने वाले सामान्य नागरिक अपनी गाड़ियों के लिए कुछ साइड मांगने पर उनसे बदसलूकी भी की जाती है। डीजे के साउंड बक्सों का कुछ घंटों का किराया ही कई -कई हजार रुपयों का होता है और कहीं-कहीं आयोजक-प्रायोजक लोग लाखों रुपए भी खर्च कर देते हैं। सिर्फ़ कुछ देर के आनंद के लिए यह एक तरह की निर्मम फ़िज़ूलखर्ची नहीं तो और क्या है?। देश में पहले स्कूल -कॉलेजों की परीक्षाओं के मौसम में कोलाहल नियंत्रण अधिनियम के तहत ध्वनिविस्तारक यंत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था ,ताकि विद्यार्थी शांतिपूर्ण माहौल में पढ़ाई करते हुए परीक्षा की तैयारी कर सकें । इस अधिनियम को सिर्फ़ परीक्षाओं के दिनों में ही नहीं ,बल्कि हमेशा लागू रहना चाहिए। मेरी अल्प जानकारी के अनुसार ध्वनि मापन का पैमाना डेसिबल है। शायद नियम ,अधिनियम भी बने हुए हैं कि एक निश्चित डेसिबल से ज़्यादा ध्वनि नहीं की जानी चाहिए ,लेकिन ....? विभिन्न प्रकार के जुलूसों की गाड़ियों में एक साथ बहुत सारे डीजे बॉक्स क्यों लगना चाहिए ?क्या एक या दो डीजे बॉक्स लगाने से काम नहीं चल सकता ? इससे ध्वनि प्रदूषण रुकेगा तो नहीं लेकिन शायद काफी हद तक कम हो जाएगा। इस बारे में सोचा जाना चाहिए। आलेख -स्वराज करुण (फोटो - इंटरनेट से साभार) <