Sunday, December 2, 2012
कितनी होनी चाहिए भौतिक विकास की गति ?
संस्कार , संस्कृति और सभ्यता चाहे नष्ट हो जाएँ, नैतिकता तबाह हो जाए , गाँव और किसान गायब हो जाएँ , लेकिन भौतिकता की चकाचौंध चाहने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ! उन्हें राष्ट्रों को विकास के नाम पर आर्थिक गुलामी में जकड़ने को आतुर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ.डी.आई. का राग ज्यादा लुभावना लगता है .
नदी
Thursday, October 11, 2012
शानदार व्यवसाय !
लोकतंत्र में राजनीति अब शानदार व्यवसाय !
कोई छुप कर खाय यहाँ तो कोई खुल कर खाय !!
कोई कहता खुद को इसका पहला , दूजा पाया !
तीजे और चौथे पायों के दिल को भी यह भाया !!
तीजे और चौथे पायों के दिल को भी यह भाया !!
माल मुफ्त का बेरहमी से सबने खूब कमाया !
नेताओं ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी आसान यहाँ जमाया !!
नेताओं ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी आसान यहाँ जमाया !!
सरकारी बंगले में जिसने अपना बोर्ड लगाया !
उसे वहाँ से कोई माई का लाल हटा न पाया !!
उसे वहाँ से कोई माई का लाल हटा न पाया !!
कह करुण कविराय यह तो लक्ष्मी जी की माया !
नेता बनते ही मिल जाए धन- दौलत की छाया !!
नेता बनते ही मिल जाए धन- दौलत की छाया !!
दूर गरीबी को करने की क्यों हो इतनी चिन्ता !
हर गरीब जब नेता बनकर पाए अमीर सी काया !!
-स्वराज्य करुण
हर गरीब जब नेता बनकर पाए अमीर सी काया !!
-स्वराज्य करुण
Sunday, September 30, 2012
रूपये तो पेड़ों पर ही लगते हैं सरदार जी !
चिल्हर संकट के कारण पैसा तो बाज़ार से कब का गायब हो चुका है . अब तो रूपए का जमाना है .इसलिए सरदार जी को कहना ही था तो कहते कि रूपए पेड़ पर नहीं लगते ,लेकिन वो ठहरे बेचारे भोले- भंडारी! पुरानी कहावत कह गए -पैसे पेड़ पर नहीं लगते !दरअसल वह बोलना चाह रहे थे कि रूपए पेड़ पर नहीं लगते .लेकिन मै तो कहूँगा -रूपए पेड़ पर ही उगते (लगते) है .अगर मुझ पर भरोसा न हो तो जंगल महकमे के अफसरों से पूछ लीजिए . गड्ढे खोदने का रूपया .फिर उनमें पेड़ लगाने का रूपया ,फिर पेड़ काटने और कटवाने का रूपया! यानी जंगल में लगे हर पेड़ पर फूलता और फलता है रूपया !जिस पेड़ की डालियों में जितने पत्ते होंगे ,उस पर उतने ही रूपए उगेंगे !.पत्तों के आकार के हिसाब से आप रूपए का मोल भी निकाल सकते हैं .जैसे सागौन और साल वृक्ष के चौड़े पत्तों के हिसाब से आप उन्हें एक-एक हजार का नोट मान सकते हैं .रूपये तो पेड़ों पर ही उगते (लगते ) हैं .तभी तो छोटा हो या बड़ा , देश के जंगल महकमे का लगभग हर मुलाजिम मालदार होता है .रूपयों के पेड़ देखना चाहते हैं तो जंगल नहीं ,जंगल महकमे को देखिये !कितनी तेजी से रूपयों की फसल कट रही है वहाँ ! यह तत्परता ज़रूरी भी है उनके लिए . कारण यह कि उनकी मेहरबानी से रूपयों के सारे पेड़ जितनी जल्दी-जल्दी कटते जा रहे हैं , उतनी जल्दी लग नहीं रहे हैं .एक दिन ऐसा आएगा ,जब पेड़ों के सारे पत्ते झर जाएंगे , रूपयों की लालच में लोग पेड़ों को भी उखाड कर ले जाएंगे और यह जंगल ही खत्म हो जाएगा .जब जंगल ही नहीं रहेगा ,तो जंगल महकमे की भी ज़रूरत नहीं रह जाएगी . यही वजह है कि वो जंगल के पेड़ों पर उगते रूपयों की फसल तेजी से नोच -खसोट कर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाते जा रहे हैं .आखिर भविष्य के लिए कुछ तो बचाना होगा . वैसे अकेले जंगल महकमें में ही क्यों ? रूपयों के पेड़ तो आज देश के हर महकमे में लगे हुए हैं . कोई उन्हें हिलाकर रूपये बटोर रहा है .तो कोई उनकी हर डाली को नोच-खसोट कर ! बाकी तो सब राजी-खुशी हैं जी ! -स्वराज्य करुण
Saturday, September 29, 2012
( कविता ) आठ हजार की थाली !
जनता के पैसों से खाते आठ हजार की थाली !
अखबारों में पढकर यह सब जनता देती गाली !!
बेशरम हँसते हैं लेकिन जाम से जाम टकराकर !
जनता के हर आंसू पर वो खूब बजाएं ताली !!
राजनीति व्यापार है उनका भरते रोज तिजोरी !
अखबारों में पढकर यह सब जनता देती गाली !!
बेशरम हँसते हैं लेकिन जाम से जाम टकराकर !
जनता के हर आंसू पर वो खूब बजाएं ताली !!
राजनीति व्यापार है उनका भरते रोज तिजोरी !
कुर्सी उनके लिए सुरक्षित ,साला हो या साली !!
आज़ादी और लोकतंत्र भी उनके चरण पखारें !
जिनके आगे माथ नवाए क़ानून वृक्ष की डाली !!
पढ़ लिख कर बेकार घूमती बेकारों की पलटन !
फिर भी कहते नहीं रहेगा कोई हाथ अब खाली !!
सदा-सदा के लिए सलामत उनके छत्र-सिंहासन !
भले चमन को खा जाए उसका ही कोई माली !!
प्लेटफार्म से सड़कों तक दूध को तरसे बचपन !
लेकिन उनके गालों में हर दिन खिलती लाली !!
राज इसका रह जाएगा राज बन कर हरदम !
राजनीति में आते ही कैसे दूर हुई कंगाली !!
हर चुनाव में साड़ी- कम्बल -दारू का बोलबाला !
असल नोट नेता की जेब में ,जनता को दे जाली !!
हुक्कामों के जश्न से जगमग पांच सितारा होटल !
ड्रिंक-डिनर -डिप्लोमेसी छलकाएं खूब प्याली !!
-स्वराज्य करुण
Wednesday, September 19, 2012
प्रभु ! कैसे करें आपका स्वागत ?
विद्या
और बुद्धि के देवता हे गणेश जी महाराज ! आपका आगमन ऐसे नाजुक समय में हो रहा है जब यह देश मानव शरीरधारी अपने भाग्य विधाताओं की बेजा हरकतों से मुसीबतों के चक्रव्यूह में घिर गया है ! कृपया उन्हें थोड़ी सदबुद्धि तो
दीजिए ,जो डीजल के दाम बढ़ाकर और रसोई गैस सिलेंडरों की कटौती करके आम जनता
को परेशान कर रहे हैं , देशी बाज़ारों को जो विदेशी व्यापारियों के हाथों
गिरवी रखने जा रहे है !
हे विघ्न विनाशक ! हम तो आज धर्म संकट में पड़ गए हैं .इस घोर संकट से हमें जल्द उबारिये प्रभु ! आप ही बताइये ! हम कैसे करें आपका स्वागत ,जब कदम -कदम पर एक से बढ़कर एक विघ्न हमारे सामने पहाड़ की तरह खड़े हो रहे हैं ,
देश में हर तरफ महंगाई का सैलाब नज़र आ रहा है और दाल-आटे का भाव आसमान छूने लगा
है . दूध और फलों के दाम सातवें आसमान पर हैं ! होटलों में नकली दूध और
नकली खोवे की मिठाईयाँ खुले आम बिक रही हैं . हम जानते है - आपको मोदक प्रिय
हैं ,लेकिन हम आपको नकली मोदकों का भोग लगाने का दुस्साहस भला कैसे कर
पाएंगे ? जहां तक फलों की बात करें ,वह भी तो कार्बाइड जैसे घातक रसायनों
में पका कर और नुकसानदायक रंगों में रंग कर बेचे जा रहे है . मिलावटखोरों का धंधा तेजी से चल रहा है और वह जनता की जिंदगी से खुल कर खिलवाड़ कर रहे है .कोई देखने ,रोकने और टोकने वाला नहीं है . डाक्टर आज भी अपने मरीजों
को दूध पीने और फल खाने की सलाह देते हैं ,लेकिन इतनी महंगाई और मिलावट के
इस दौर में यह कैसे संभव है ?
हे गणपति
बप्पा ! आज़ादी के बाद हमारे भारत में लाखों स्कूल और हजारों कॉलेज खुल गए ,लेकिन उनमे
पढ़-लिख कर निकलते युवा हमेशा की तरह बेरोजगारों की अनंत कतार में खड़े रहने को मजबूर हैं .
भ्रष्टाचार की काली कमाई से कुछ लोगों के साधारण मकान अब महल सरीखे सीना
तान कर खड़े नज़र आ रहे हैं . कल तक पुरानी सायकल पर घूमने वाले कुछ लोग
रातों-रात महंगी गाड़ियों के मालिक बन गए हैं. क्या यह सब उन्हें ईमानदारी
की कमाई से प्राप्त हुआ है ? हे गणपति बप्पा ! देश की इस दुर्दशा के लिए
ज़िम्मेदार लोगों को सदबुद्धि के साथ चेतावनी भी दीजिए ! फिर भी अगर वह नहीं
मानते तो क्या आप अपनी अदालत में मुकदमा चलाकर उन्हें दण्डित करेंगे ? तभी
तो हम आपका स्वागत कर पाएंगे ! -- स्वराज्य करुण
Monday, August 6, 2012
मानवता का दुश्मन परमाणु बम !
हिरोशिमा -नागासाकी में विनाशकारी परमाणु बादल
(६ अगस्त और ९ अगस्त १९४५ )
दोस्तों ! माचिस से चूल्हा जलाकर पेट की आग बुझाई जा सकती है और किसी के घर में आग भी लगाई जा सकती है. सुई से कपड़े सिले जा सकते हैं और किसी की आँखें भी फोड़ी जा सकती हैं . चीजों का इस्तेमाल व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है . अराजक. विध्वंसक और हिंसक मानसिकता का व्यक्ति हर उस वस्तु का दुरूपयोग कर सकता हैं,जिसका निर्माण समाज की सुख-शान्ति के लिए और इंसान की कठिन जिंदगी को आसान बनाने के लिए हुआ है .विज्ञान के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण आविष्कारों के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है. परमाणु विज्ञान इसका एक बड़ा उदाहरण है . इसका उपयोग बिजली बनाने से लेकर चिकित्सा विज्ञान में भी हो रहा है और विनाशकारी हथियार के रूप में एटम बम बनाने के लिए भी . एटमी हथियारों बेरहम और बेशरम प्रतिस्पर्धा हमारी इस खूबसूरत दुनिया का क्या हाल बना देगी ,इसे अगर समझना हो तो
आज छह अगस्त को कुछ पल के लिए जापान के हिरोशिमा शहर में सिर्फ ६७ साल पहले हुई तबाही को याद करें .आज का दिन विश्व-शान्ति के लिए पूरी दुनिया में हिरोशिमा दिवस के रूप में मनाया जाता है .
यह दिन हमे याद दिलाता है अमेरिका की उस काली करतूत की ,जिसने सम्पूर्ण मानवता को शर्मसार कर
दिया था . दुनिया के इतिहास में छह अगस्त १९४५ का दिन 'काला दिवस ' के रूप
में हमेशा के लिए दर्ज हो गया है . यही वह दिन है ,जब अमेरिका ने जापान के
खूबसूरत शहर हिरोशिमा पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिरा कर कम से कम सत्तर
हजार बेगुनाह लोगों को तत्काल मौत के घाट उतार दिया था .और इस परमाणु हमले
के बाद के दुष्प्रभावों से कम से कम डेढ़ लाख लोग तरह-तरह की शारीरिक
तकलीफों के कारण तड़फ-तड़फ कर दम तोड़ गए . मासूम बच्चों -बूढों और युवा
इंसानों के अलावा लाखों निरीह जानवर भी बेमौत मारे गए . सम्पूर्ण हिरोशिमा
चलती-फिरती लाशों के शहर में तब्दील हो गया था . मकान ज़मींदोज़ हो गए थे
.शहर तबाह हो गया था . इस भयानक तबाही से भी जब खून के प्यासे दानव अमेरिका
का दिल नहीं भरा तो उसने ठीक तीसरे दिन नौ अगस्त को एक और जापानी शहर नागासाकी पर भी
परमाणु हमला करके ऐसा ही कहर ढाया . वह तो मेहनतकश जापानियों का ज़ज्बा था
,जिसने इन दोनों तबाह शहरों को कुछ ही
वर्षों में देखते ही देखते सपनों के नए शहर के रूप में नए सिरे से खड़ा कर दिया और इंसानी जिंदगी एक बार फिर अपनी
रफ्तार से चलने लगी लेकिन अपने लाखों नागरिकों की एक ही झटके में हुई मौत
का ज़ख्म ये दोनों शहर क्या कभी भूल पाएंगे? क्या हमारी दुनिया इसे भूल
पाएगी ? वह दूसरे विश्व युद्ध का दौर था . ईश्वर हमारी दुनिया को दोबारा तबाही का ऐसा मंजर न दिखाए . तीसरा विश्व-युद्ध कभी मत हो ,क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के शब्दों में -चौथा विश्व-युद्ध कभी नहीं होगा ,क्योंकि तब यह दुनिया रहेगी ही नहीं .
जापानियों का ज़ज्बा : फिर हुआ आबाद सपनों का शहर
हिरोशिमा में गिराए गए परमाणु बम की ताकत बीस हजार टन बतायी जाती
है .उसमे रेडियो-एक्टिव पदार्थ यूरेनियम-२३५ का इस्तेमाल हुआ था . इस बम के
गिरते ही वहाँ का तापमान दस मिलियन डिग्री तक पहुँच गया था सूरज की चमक से
भी हजार गुना तेज रौशनी ने शहर को जला डाला था .आज तो अमेरिका ही नही
,बल्कि दुनिया के बहुत से देश परमाणु बम बना रहे हैं ,जिनकी तबाही की ताकत
उससे भी हजारों गुना ज्यादा है . इसके बावजूद हमारी दुनिया विस्फोटकों के मुहाने
पर बैठ कर एकदम बेफिक्र है . वह मानवता के इस दुश्मन से दोस्ती गाँठ रही है . खतरे को समझ कर भी नासमझ बन रही है . आइये छह अगस्त को हिरोशिमा दिवस पर हम हिरोशीमा
और नागासाकी के लाखों शहीदों को याद करें और उनकी आत्मा की शांति के लिए
प्रार्थना करते हुए ईश्वर से यह भी गुजारिश करें कि वह परमाणु बम बनाने
वालों को सदबुद्धि दें और उनके दिलों में मानवता की भावना जगाए. परमाणु-
ताकत का शांतिपूर्ण उपयोग हो .वह विनाश का हथियार नहीं. विकास का औजार बने
. -स्वराज्य करुण
Tuesday, July 31, 2012
कालजयी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द
आज महान साहित्यकार कथा-सम्राट और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की जयंती है ,जिन्होंने हिन्दी में 'गोदान' जैसा कालजयी उपन्यास लिखकर भारतीय किसान के दुःख-दर्द को दुनिया के सामने रखा और समाज को चिंतन के लिए मजबूर कर दिया . उन्होंने हिन्दी और उर्दू साहित्य को करीब एक दर्जन उपन्यास और लगभग ढाई सौ कहानियां दी .मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण होने की वजह से उनकी प्रत्येक रचना अपने- आप में कालजयी कृति बनकर उनकी तरह अमर हो गयी है. हिन्दी में 'कर्मभूमि' जैसे उपन्यास के साथ-साथ 'कफ़न' तथा 'पूस की रात ' जैसी कहानियां भी उन्हें आम जनता के साहित्यकार के रूप में एक अलग पहचान दिलाती हैं .बनारस के पास ग्राम लमही में ३१ जुलाई १८८० को उनका जन्म हुआ था . उनकी जीवन-यात्रा ८ अक्टूबर १९३६ को अचानक हमेशा के लिए थम गयी . आज उनकी जयंती पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि. -- स्वराज्य करुण
Friday, July 20, 2012
अभिनय और ऐय्याशी !
आप
सभी से पूछना चाहता हूँ- क्या अधिकाँश फ़िल्मी कलाकारों के लिए अभिनय और
ऐय्याशी एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ? अगर नहीं तो . फिर एक-एक
अभिनेता की जिंदगी में पत्नी के अलावा तीन-तीन ,चार-चार घोषित-अघोषित
रखैलें क्यों आती-जाती रहती हैं ? ये कलाकार फिल्मों में कहानी की मांग के अनुसार समाज को नैतिकता का पाठ पढाते नज़र आते हैं .
कई औरतों से खुले आम इश्क लडाने वाले ऐसे
कथित अभिनेता जब दुनिया को अलविदा कह कर विदा हो जाते हैं , अखबार ,रेडियो
और टेलीविजन चैनल दिन रात इनकी शान में कसीदे पढ़ने..
लग जाते हैं और इनकी कथित महानता से भरी जीवनी सुना-सुना कर इन्हें महान
कलाकार घोषित कर देते हैं और इन्हें समाज का और युवा पीढ़ी का 'रोल-मॉडल' साबित करने लगते हैं !अब
इन्हें ही लीजिए ! अखबारों में छपी इनकी महान जीवन गाथा के अनुसार सबसे
पहले इनका अंजू महेन्द्रू नामक महिला कलाकार से अफेयर हुआ ,फिर अपनी उम्र
से पन्द्रह साल छोटी डिम्पल नामक अभिनेत्री से प्यार के इज़हार के साथ शादी
हुई और कुछ साल बाद शादी टूट गयी , हालांकि डिम्पल ने तलाक नहीं लिया , फिर
कोई टीना मुनीम नामक एक अभिनेत्री इनकी जिंदगी में आयी , लेकिन टीना इनकी
गैर-ब्याहता के रूप में कुछ वर्षों तक साथ-साथ रही पर इन्होने टीना के कहने
के बावजूद उसे शादी नहीं की , क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि डिम्पल एक दिन
फिर उनकी जिंदगी में लौट आएगी , हालांकि तब तक तो टीना के साथ ही काम चलता
रहा . बहरहाल डिम्पल इनके पास वापस आ गयी और टीना 'मुनीम ' से एक बहुत बड़े
खरबपति की पत्नी बन गयी .
लगभग इसी तरह की ऐय्याशी भरी प्रेम कथाएँ कई
ऐय्याश कलाकारों की है . दुर्भाग्य की बात है कि इसके बावजूद मीडिया की
मेहरबानी से विज्ञापन-संस्कृति के इस बेशर्म दौर में प्रचार-प्रसार की
बाजारू कला औरतबाजी करने वाले इन कथित कलाकारों को हर हालत में महान साबित
करके ही दम लेती है, . (ऐसे दिवंगत महान कलाकार अगर मेरी बातों का बुरा
लगा हो कृपया क्षमा करें ) -स्वराज्य करुण
Tuesday, July 17, 2012
वरिष्ठ साहित्यकार देवीसिंह चौहान का निधन
रायपुर १७ जुलाई / वरिष्ठ कवि और साहित्यकार तथा छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य मण्डल रायपुर के पूर्व अध्यक्ष प्रो. देवीसिंह चौहान का रविवार १५ जुलाई की रात यहाँ चौबे कॉलोनी स्थित उनके घर में निधन हो गया .स्वर्गीय श्री चौहान ने विगत लगभग छह दशकों से छत्तीसगढ़ को अपनी कर्म भूमि बनाकर राजधानी रायपुर में निवास करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन अध्यापन और साहित्य सेवा में लगा दिया। वह वीर रस के ओजस्वी कवि होने के साथ-साथ एक अच्छे लेखक भी थे। बच्चों के साहित्य में भी उनकी विशेष दिलचस्पी थी। श्री चौहान की 30 किताबें प्रकाशित हुई, जिनमें कई काव्य संग्रह और महान विभूतियों तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवन गाथा पर आधारित पुस्तकें भी शामिल हैं .
उत्तर प्रदेश में आगरा के पास यमुना नदी के तटवर्ती ग्राम रूदमुली में दस मार्च 1923 को जन्मे साहित्यकार श्री देवीसिंह चौहान ने भरतपुर और आगरा में पांच वर्षो तक और रायपुर (छत्तीसगढ़) के एक शताब्दी से भी अधिक पुराने राजकुमार कॉलेज में लगातार 38 वर्षो तक अध्यापन कार्य किया। वह इस कॉलेज में उप-प्राचार्य भी रहे।उन्होंने राजकुमार कॉलेज की पत्रिका ‘मुकुट’ का भी सम्पादन किया। उनकी प्रकाशित प्रमुख पुस्तकों में वर्ष 1963 में प्रकाशित देशभक्तिपूर्ण तथा वीर रस से परिपूर्ण कविता संग्रह ‘रक्त का प्रमाण दो’ वर्ष 1963 में प्रकाशित भावपूर्ण काव्य संग्रह ‘लहर और चांद’, वर्ष 1981 में प्रकाशित राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण काव्य संकलन ‘क्रांति के शोले’, वर्ष 1985 में प्रकाशित खण्ड काव्य ‘झासी की रानी’, वर्ष 1988 में प्रकाशित ‘आजादी और नेहरू’, वर्ष 1998 में प्रकाशित ‘मुक्ति आंदोलन और क्रांतिकारी’, वर्ष 1998 में ही प्रकाशित गणेशंकर विद्यार्थी, चन्द्रशेखर आजाद, शहीद भगत सिंह और रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी पर आधारित किताबें उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के मौके पर छत्तीसगढ़ के कवियों के सहयोगी काव्य संकलन ‘सुमनांजलि’ का भी सम्पादन और प्रकाशन किया। उनकी लिखी ‘राष्ट्र नायक छत्रपति शिवाजी’ की जीवन गाथा वर्ष 2001 में, महाराणा प्रताप की जीवन गाथा वर्ष 2002 में, गुरूनानक देव की जीवन गाथा वर्ष 2003 में, गुरू गोविन्द सिंह जीवन गाथा वर्ष 2004 में और देश के अनेक प्रमुख शहीदों की जीवन गाथा ‘याद करो कुर्बानी’ वर्ष 2004 में प्रकाशित हुई। उन्होंने बच्चों के लिए शिशु गीत माला और बाल गीत गंगा जैसे काव्य संग्रहों की भी रचना की।
उनका अंतिम संस्कार कल यहां मारवाड़ी श्मशान घाट में किया गया, जहां छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य मण्डल के अध्यक्ष श्री अमरनाथ त्यागी सहित बड़ी संख्या में साहित्यकारों और प्रबुद्ध नागरिकों ने उपस्थित होकर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। -- स्वराज्य करुण
Sunday, July 15, 2012
राजनीति को कैरियर समझना लोकतंत्र के लिए खतरनाक !
आश्चर्य और चिन्ता का विषय है कि अब राजनीति को जन सेवा अथवा समाज सेवा के पवित्र माध्यम के रूप में नहीं,बल्कि किसी व्यावसायिक कैरियर के रूप में लिया जा रहा है ,मानो यह कोई सरकारी नौकरी है, जिसमें चाहे काम करें या न भी करें , तो भी लोगों को हमेशा अपनी बेहतर पोस्टिंग और अपने भावी प्रमोशन के लिए बेचैनी बनी रहती है . राजनीति को कैरियर की तरह लेने की व्यक्तिवादी मानसिकता एक दिन हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती है . यह घातक मनोवृत्ति देश में किसी दिन तानाशाही को भी जन्म दे सकती है . राजनीति में सक्रिय कोई व्यक्ति दिखावे के लिए भले ही कुछ भी कहता और करता रहे , लेकिन उसके दिल में तो कुछ और ही भाव छुपे हुए हैं . जब कोई व्यक्ति राजनीति को निजी जिंदगी के लिए तरक्की के पायदान के रूप में इस्तेमाल करेगा ,तो उसे देश और समाज की भलाई की चिन्ता कहाँ होगी ? दुर्भाग्य से अब देश में लोगों को राजनीति में 'कैरियर' बनाने का प्रशिक्षण देने की एक नई परिपाटी शुरू हो रही है .
वैसे तो देश और दुनिया के विश्वविद्यालयों में राजनीति शास्त्र की पढ़ाई कोई नई बात नहीं है. यह विगत कई दशकों से होती चली आ रही है,जिसके पाठ्यक्रमों में महान विचारकों के सिद्धांतों की जानकारी विस्तार से दी जाती है अधिकाँश विद्यार्थी इसमें यह सोच कर प्रवेश नहीं लेते कि उन्हें नेता बनना है या राजनीति में कैरियर बनना है . लेकिन अब बेंगलुरु का भारतीय प्रबंध संस्थान (आई.आई. एम.) सेंटर फॉर सोशियल रिसर्च के साथ मिलकर लोगों को नेता बनाने के लिए दस हफ्ते का एक पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहा है , जिसकी फीस चार लाख ७५ हजार रूपए तय की गयी है . इस पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को चुनाव लड़ने ,चुनावी प्रचार और जनमत संग्रह करने और प्रभावी सांसद बनने की भी शिक्षा मिलेगी ! वहाँ राजनीतिक प्रबंधन की ट्रेनिग मिलेगी ! लेकिन क्या उन्हें सच बोलना भी सिखाया जाएगा ?
क्या ज़माना आ गया है ? कहते हैं -राजनीति वास्तव में समाज सेवा का दूसरा नाम है . क्या समाज सेवा के लिए भी किसी प्रशिक्षण और प्रमाण पत्र की ज़रूरत होती है ? अगर हाँ ,तो मेरे ख्याल से गौतम बुद्ध ,महावीर स्वामी , संत कबीर . नानक , महात्मा गांधी , स्वामी विवेकानंद , भगत सिंहचन्द्र शेखर आज़ाद , मदर टेरेसा , बाबा आमटे, नेहरू, और नेता जी सुभाष जैसे लोगों को समाज-सेवक और नेता नहीं माना जा सकता , ,क्योंकि इन्होनें ऐसे किसी प्रबंध संस्थान से राजनीतिक और सामाजिक प्रबंधन का कोई [प्रशिक्षण नहीं लिया था ! उनके पास ऐसी किसी ट्रेनिग का प्रमाण पत्र भी नहीं था !फिर भी जनता ने उन्हें सर -आँखों पर बैठाया ! अगर आप में मानवीय संवेदना है , गरीबों और असहायों के लिए आपके दिल में सच्चा दर्द है और आप उनके लिए कुछ करना चाहते हैं , तो आप अपने अच्छे कार्यों के ज़रिये जनता का दिल जीत कर अच्छे नेता बन सकते हैं ,इसके लिए किसी मैनेजमेंट प्रशिक्षण की क्या ज़रूरत है ? --- स्वराज्य करुण
Friday, March 9, 2012
जाग मुसाफिर जाग !
उठ जाग मुसाफिर जाग ,
होलिका दहन के बाद हरियाणा में
भड़की आरक्षण की आग !
देश के लिए बन गया आरक्षण भस्मासुर
लेकिन भारत भाग्य विधाता
अलमस्त नशे में चूर !
आरक्षण ने फैलाया घनघोर जातिवाद ,
गायब होने लगा समाज से प्यार भरा संवाद !
क्यों ज़रूरी है बोलो आरक्षण की बैसाखी ,
प्रतियोगिता में भी क्यों हो
भेदभाव की झांकी ?
कहते हैं कि जाति-धर्म का
भेद नहीं अपने संविधान में ,
फिर क्यों आग लगाता है कोई अपने हिन्दुस्तान में ?
- - स्वराज्य करुण
Thursday, March 8, 2012
होलियाना हो -हल्ले में एक गुमनाम मौत !
कितनी स्वार्थी ,बेरहम और बेशरम है हमारी यह दुनिया . होली के हो-हल्ले में खोए हुए ज्यादातर लोगों को इस बात से भला क्या मतलब कि भारतीय संगीत जगत के गहरे-नीले आसमान का एक चमकीला सितारा कल होली की पूर्व संध्या पर हमेशा के लिए अस्त हो गया . रंगों के मस्ती भरे शोर-शराबे में एक प्रसिद्ध संगीत-शिल्पी की मौत की घटना गुमनामी के अँधेरे में खो गयी . टेलीविजन चैनलों में होली के हँसी -ठहाकों के बीच केवल एक पट्टी चलती रही - संगीतकार रविशंकर शर्मा का मुंबई में निधन,लेकिन उस महान संगीतकार की पचास-साठ वर्षों की संगीत साधना पर कोई कार्यक्रम प्रसारित नहीं किया गया,जैसा कि महान गज़ल गायक जगजीतसिंह और अभिनेता देवानन्द के निधन पर किया गया था .
महान संगीत शिल्पी : रवि
(०३ मार्च १९२६- ०७ मार्च २०१२)
टी.व्ही. चैनलों में संगीतकार रविशंकर शर्मा के निधन के शोक-समाचार की पट्टी के ऊपर फ़िल्मी जोकरों के फूहड़ होलियाना हँसी-मजाक छाए रहे . शोक समाचार की पट्टी देखकर मैंने फेसबुक पर यह दुखद खबर लिखी , दिवंगत महान संगीतज्ञ का संक्षिप्त जीवन परिचय भी लिखा ,लेकिन फेसबुक की दुनिया में मगन अधिकाँश लोग केवल होली की मस्ती पर आधारित टीका -टिप्पणियों में आपस में व्यस्त नज़र आए .उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बाबुल की दुआएं लेती जा , आज मेरे यार की शादी है , डोली चढ़ के दुल्हन ससुराल चली और दिल के अरमां आंसुओं में बह गए जैसे सदाबहार फ़िल्मी गीतों को अपने संगीत से सजाने और संवारने वाले संगीतकार 'रवि' अब नहीं रहे . मुंबई के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया .
उन्होंने हिन्दी और मलयालम की कई लोकप्रिय फिल्मों के लिए संगीत दिया. रवि के संगीत से सजी हिन्दी फिल्मों में 'अलबेली (१९५५) , चौदहवीं का चाँद (१९६०), घराना (१९६१) ,खानदान (१९६५) , दो बदन (१९६६), हमराज (१९६७), आँखें (१९६८) और निकाह (१९८२ ) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं .उन्होंने 'वक्त ' ,नील कमल ' और 'गुमराह' जैसी लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों में अपना यादगार संगीत दिया. हिन्दी फिल्म 'घराना' और 'खानदान ' के लिए उन्हें प्रतिष्ठित 'फिल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजा गया था. वह मलयालम फ़िल्म जगत में 'बाम्बे रवि' और 'रवि बाम्बे' के नाम से भी लोकप्रिय थे. उनका जन्म दिल्ली में तीन मार्च १९२६ को हुआ था . उनका पारिवारिक नाम रविशंकर शर्मा था. उनके निधन से भारतीय फिल्म संगीत के एक स्वर्णिम युग का अंत हो गया.
यह कैसी विडम्बना है कि एक संगीतकार की दिलकश धुनों से सजे गीतों को गुनगुनाने का लोभ हम नहीं सम्भाल पाते , लेकिन उनकी मौत का कोई नोटिस नहीं लेते ? बहरहाल , दिल को छू लेने वाले रवि के संगीत से सजे सदाबहार फ़िल्मी गीत विभिन्न महफ़िलों में , शादी-ब्याह के आयोजनों में और रेडियो और टेलीविजन पर जब कभी गूंजेंगे , रवि साहब की हमें बहुत याद आएगी. विनम्र श्रद्धांजलि.
Friday, February 24, 2012
कहाँ तुम चले गए ?
अपनी सायकल या मोटर सायकल पर सर्दी-जुकाम,बुखार की दवाइयों से भरे काले रंग का बैग लेकर घर-घर जाने वाले , घड़ी-दो घड़ी उन घरों के लोगों के साथ खटिया पर ,नहीं तो पटिये पर बैठ कर चाय सुड़कने , सुख-दुःख की बातें करने और बच्चों और बुजुर्गों से उनकी सेहत का हाल-चाल पूछने वाले , किसी की भी सेहत के प्रति जरा सी लापरवाही दिखने पर अभिभावक की तरह प्यार भरा गुस्सा दिखाने और नसीहत देने वाले , दो चार , पांच रूपए की अपनी बकाया फीस यूं ही छोड़ देने वाले, हम सबके अपने वो घरेलू डॉक्टर अब कहीं नज़र क्यों नहीं आते ? महाजनी सभ्यता की चमक- दमक में क्या उन्होंने अपना चोला बदल लिया है ? क्या अब वो गली-कूचे के हमारे घरों की ओर देखना भी अपनी शान के खिलाफ मानते हैं ? क्या आज-कल वो मेडिकल कॉलेजों से लाखों रुपयों की डिग्री लेकर और आलीशान इमारतों में अपने महंगे से महंगे नर्सिंग होम खोल कर लोगों की सेहत का व्यापार कर रहे हैं?
ज्यादा नहीं, शायद बीस -पच्चीस बरस पहले तक हर गाँव-कस्बे में हर एक घर तक घरेलू डॉक्टरों की अपनी पहचान ,प्रतिष्ठा और पहुँच थी . मोहन के पिताजी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर थे . आस-पास के कम से कम पचास गाँवों में लगभग प्रत्येक परिवार में उनका उठना -बैठना होता था . वो हर सुबह चार बजे अपनी सायकल से निकलते और दस बजे तक पांच-छह गाँवों का दौरा निपटा आते . वह बताते थे कि मुंह -अँधेरे कई बार जंगल के रास्तों में बाघों और भालुओं से भी उनका आमना-सामना हो जाता था . ग्रामीणों के बीच एक सहज-सरल डॉक्टर के रूप में वह काफी लोकप्रिय हो गए थे . उनके अनुभवी हाथों की दवाइयां मरीजों को काफी आराम दिलाती थीं . आज भले ही लंबी-चौड़ी डिग्रियों के मालिक बने डॉक्टर ऐसे सहज-सरल विलुप्तप्राय घरेलू डॉक्टरों को 'झोला छाप' कह कर उनका मजाक उड़ाते हों ,लेकिन लाखों-करोड़ों गरीब-मेहनतकशों के समाज में उनकी जो अहमियत थी ,उसे भला कौन नकार सकता है ?
समाज में प्रत्येक परिवार से हर घरेलू डॉक्टर का आत्मीय जुड़ाव हुआ करता था . हर घर की नब्ज पर उसकी प्यार भरी पकड़ रहती थी. उसे देखते ही घर के लोग सादगी भरी आत्मीयता से उसका स्वागत करते -- आइये डाक्टर साहब ! अरे पप्पू ! चाय लाना डाक्टर चाचा के लिए ! 'डाक्टर साहब कहने लगते - आज रहने दीजिए ! शर्मा जी के घर से चाय पी कर इधर ही चला आ रहा हूँ ! क्या हाल है ? तबीयत तो ठीक है न सबकी ? चुन्नू ने पेन्सिल और मुन्नी ने मिट्टी खाना बंद नहीं किया ? कितनी बार कहा है मैंने ! इन पर ध्यान तो दीजिए आप लोग ! वरना इनके पेट में कीड़े हो जाएंगे ! अच्छा चलो , मै देता हूँ ये दवाई ! दिन में दो बार बिल्कुल टाइम से खिला देना ! हाँ ,तो गुड्डू इस बार मेट्रिक की परीक्षा में बैठ रहा है ! आगे क्या करने का इरादा है ? श्यामू अभी-अभी टायफाइड से उठा है, कुछ दिनों तक परहेज से रहना बेटा और हाँ !गुड़िया के लिए जलगांव वालों का रिश्ता पक्का हुआ या नहीं ? अच्छा तो अब चलूँ ! गोपाल के घर भी जाना है !
अब कहाँ सुनने को मिलती है ऐसी अपनेपन की बातें ? अब तो हर कहीं डॉक्टरों की अपनी-अपनी दुकानें खुल गयी हैं. इलाज कराने वहाँ जाने से पहले अपनी बुकिंग करानी होती है., समय लेना होता है. पहले किसी के भी घर से किसी के बीमार होने का सन्देश मिलते ही घरेलू डाक्टर स्वयम दौड़कर वहाँ पहुँच जाते थे .आज तो हममें से अधिकाँश लोग किसी डॉक्टर को मरीज देखने घर पर बुलाने की हिम्मत भी नहीं कर पाएंगे . जाने कहाँ गए वो दिन जब घरेलू डॉक्टर की सबसे बड़ी खासियत यह होती थी कि वह डॉक्टर बाद में और मरीज के घर वालों के सुख-दुःख के साथी की भूमिका में पहले हुआ करता था . मरीज के परिवार से उसका भावनात्मक लगाव रहता था. आज के डॉक्टर इमोशनल नहीं ,विशुद्ध कमर्शियल हो गए हैं.धन्ना सेठों ने बड़ी-बड़ी कंपनियां बना कर पांच सितारा होटलों जैसे अस्पताल खोल लिए हैं . उनमें विशेषज्ञ डॉक्टरों की फ़ौज हमेशा तैनात मिलती है ,लेकिन किसके लिए ? उन्हीं के लिए न जो वहाँ हजारों-लाखों रूपयों की फीस दे सके ? कई डॉक्टरों के स्वयं के भी बड़े-बड़े अस्पताल हैं . उन्हें छोड़ कर वो भला किसी आम नागरिक के घरेलू डॉक्टर की भूमिका में क्यों आएँगे ? कुछ साल पहले तक भारतीय फिल्मों में भी घरेलू डॉक्टर नज़र आ जाते थे ,लेकिन अब तो हमारे सिनेमा और टी. व्ही. सीरियलों में नायक-नायिका के बीमार होने पर कहानी उन्हें फाइव-स्टार होटलनुमा अस्पताल पहुंचा देती है . कोई फेमिली डॉक्टर उनके घर नहीं आता .
पहले हर मर्ज़ का एक ही डॉक्टर होता था . चिकित्सा विज्ञान के नए-नए आविष्कारों के चलते आज विशेषज्ञता यानी 'स्पेशलाइजेशन ' का जमाना आ गया है . इतना ही नहीं ,बल्कि अब तो ' सुपर -स्पेशियलिटी ' अस्पतालों का का दौर है . नाक ,कान ,गला , दिल, दिमाग , आँख ,सबके डॉक्टर अलग-अलग ! यानी शरीर में जितने अंग, बाज़ार में उतने ही डॉक्टर ! समझ में नहीं आता -अगर दिल और नाक-कान की बीमारियाँ एक साथ पीछे लग जाएँ , तो मरीज सबसे पहले कहाँ ,किस डॉक्टर के पास जाए ? अगर इनमे से किसी के पास चला भी गया ,तो इ .सी. जी. और , सी.टी. स्कैन करवाने और तरह-तरह के टेस्ट करवाने में ही मरीज और उसके परिवार का दम निकलने लगता है ! चिकित्सा के क्षेत्र में नए आविष्कार ज़रूर हों ,लेकिन यह भी देखना ज़रूरी है कि आविष्कारों की भीड़ में मानवीय संवेदनाएं विलुप्त न हों जाएँ ! जैसे आज हमारे घरेलू डॉक्टर लगभग विलुप्त हो चुके हैं !
डाक्टर और मरीज के रिश्तों में पहले इंसानियत की सोंधी खुश्बू हुआ करती थी ! कहाँ खो गयी वो सामाजिक संवेदनाओं की महक और अपनेपन की चहक ?
--- स्वराज्य करुण
Sunday, February 19, 2012
रिश्ते सारे सिमट गए !
शहरी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी !
साँसों में है ज़हर-धुंआ ,आँखों में पानी !!
साँसों में है ज़हर-धुंआ ,आँखों में पानी !!
रिश्ते सारे सिमट गए 'अंकल-आंटी' में !
भूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
भूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
देखो -देखो चमक-दमक से भरी दुकानें !
मोल-भाव में बदल गयी प्यार की वाणी !!
मोल-भाव में बदल गयी प्यार की वाणी !!
फूलों की महक ,पंछी की चहक मिले कहाँ !
हो रही गायब हरियाली जानी-पहचानी !!
हो रही गायब हरियाली जानी-पहचानी !!
यादों के धुंधले परदे पर तस्वीर गाँव की !
देख-देख कर दिल बहलाए जिन्दगानी !!
(चित्र : google के सौजन्य से )
Wednesday, February 8, 2012
नक्कालों से सावधान !
सावधान ! होशियार !! अपनी मौलिक रचनाओं की पुस्तक छपवाना , अपनी कविताओं और कहानियों को ब्लॉग पर या फेस बुक पर डालना अब किसी भी रचनाकार के लिए खतरे से खाली नहीं है. कुछ लोग जिन्हें कुछ भी लिखना-पढ़ना नहीं आता , इन दिनों किसी भी कविता संग्रह से , कहानी संकलन से , ब्लॉग से या किसी के फेस बुक से मौलिक लेखकों और कवियों का मैटर जस का तस उठाकर पत्र- पत्रिकाओं में और सहयोगी आधार पर छपने वाले संग्रहों में स्वयं के नाम से छपवाने लगे हैं . कई अखबारों में तो लेखकों के नाम के बिना भी कई आलेख छपे हुए मिलते हैं ऐसे शौकिया और विज्ञापन आधारित अखबारों के कथित सम्पादक इन रचनाओं को किसी वेबसाईट या ब्लॉग से आसानी से डाऊनलोड कर उनका बेजा उपयोग कर रहे हैं .
साहित्यिक नक़लबाजी और चोरी की ऐसी घटनाएं अक्सर सामने नहीं आ पाती. इसके कुछ व्यावहारिक कारण होते हैं .एक तो यह कि किसी रचनाकार की कोई किताब एक बार छपने और पाठकों तक पहुँचने के बाद वह सार्वजनिक हो जाती है और एक हाथ से दूसरे ,तीसरे,चौथे तक पहुँचते हुए कहाँ-कहाँ कौन-कौन से हाथों में जाती है, कितने लोगों की अच्छी-बुरी नज़रों से गुज़रती है, इसका ध्यान रखना किसी भी रचनाकार के लिए संभव नहीं है . दूसरी बात यह कि अगर उसे मालूम हो भी जाए कि उसकी रचना की नक़ल उतार ली गयी है और वह धड़ल्ले से भी चल रही है, तो सामान्य आर्थिक हालात वाले अधिकाँश रचनाकार उसके लिए छोटी-मोटी आपत्ति दर्ज करने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं . जिंदगी की आपा-धापी में उनके पास किसी तरह की मुकदमेबाजी के लिए न तो इतना वक्त होता है और न ही बेहिसाब पैसा .सूचना प्रौद्योगिकी के इस ज़माने में इंटरनेट ,वेबसाईट , ब्लॉग और फेसबुक जैसे सामाजिक-सम्पर्क माध्यमों ने साहित्यिक नकल चोरी को और भी आसान बना दिया है. जन-संचार के इन नए संसाधनों ने स्थानीय रचनाकारों को ग्लोबल ज़रूर बना दिया है ,लेकिन उनकी बौद्धिक सम्पदा की रक्षा कर पाने में वह असमर्थ है. अगर इनमे आपकी कोई रचना आ भी गयी ,तो दुनिया के किस कोने में, कौन से देश में बैठा कौन व्यक्ति उसका क्या इस्तेमाल कर रहा है ,आपको तत्काल भला कैसे मालूम हो पाएगा ?
''सामूहिक जन हित चिन्तन हो,
मेहनतकश यह जन-जीवन हो,
किसी एक की नहीं ये धरती,
इस पर सबका श्रम सिंचन हो !''
इसी तरह दूसरी कथित क्षणिका भी मेरी एक कविता की ही पंक्तियाँ हैं--
'' इस देश की बगिया को हम संवारेंगे
ये हंसते फूल ,गाते भ्रमर भी हैं अपने ,
मेहनत से सींचेंगे सपनों के खेतों को,
जागरण के सारे प्रहर भी हैं अपने !''
उपरोक्त दोनों काव्यांश वर्ष २००२ में प्रकाशित बाल गीतों के मेरे संग्रह ' हिलमिल सब करते हैं झिलमिल ' की दो रचनाओं में से हैं.जिनकी शीतल नागपुरी ने नकल कर ली है.यहाँ तक तो चलो ठीक है कि शीतल नागपुरी ने मेरे जैसे किसी साधारण रचनाकार की कविताओं की पंक्तियों को को स्वयम की बता कर किसी सहयोगी कविता संग्रह में छपवा लिया है ,लेकिन आश्चर्य ये भी है कि उन्होंने प्रसिद्ध शायर दुष्यन्त कुमार की एक लोकप्रिय गज़ल की चार पंक्तियों को भी अपने नाम से छपवाने में कोई परहेज नहीं किया है .ये पंक्तियाँ हैं --
''कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए !''
हैरानी की बात है कि न्यू ऋतम्भरा साहित्य मंच द्वारा प्रकाशित यह अखिल भारतीय साहित्य संग्रह संत एवं क्रांतिकारी कवि कबीर को समर्पित है . गनीमत है कि शीतल नागपुरी जैसे किसी कथित कवि ने संत कबीर के दोहों को इसमें अपने नाम से नहीं छपवाया . वरना कबीर हमारे बीच होते तो क्या सोचते ? बहरहाल अपनी रचनाओं की चोरी हो जाने के डर से कोई भी रचनाकार साहित्य-सृजन बंद तो नहीं कर सकता,पर उसके संज्ञान में ऐसी कोई घटना आती है ,तो वह पत्र-पत्रिकाओं समेत ब्लॉग और फेस बुक आदि नए सामाजिक नेटवर्क के ज़रिये उसे उजागर तो कर ही सकता है. नक्कालों को रंगे हाथ हम भले ही पकड़ न पाएं ,लेकिन उन्हें बेनकाब तो किया ही जा सकता है.
--- स्वराज्य करुण Tuesday, February 7, 2012
सुख का गोरी नाम न लेना ...!
हमारे देश में आम तौर पर हर गाँव की सरहद पर किसी मौन तपस्वी की तरह बरगद का एक उम्र दराज़ पेड़ ज़रूर मिलता है.वह अपनी घनी छाया से राहगीरों को सुख-शान्ति का एहसास कराता है. गर्मियों की तपती दोपहरी में उसकी छाया गाँव के चरवाहों और मवेशियों को सुकून देती है. उसकी सघन छायादार डालियों में पंछी थकान मिटाते हैं और अपनी संगीतमयी स्वर लहरियों से माहौल को खुशनुमा बनाते हैं . गाँव की सरहद का वह बरगद उस बुजुर्ग अभिभावक की तरह होता है, जो परिवार के हर सदस्य पर अपना स्नेह न्यौछावर करता है और जिसकी नजदीकियां हर किसी को लुभाती हैं . वह कभी जटा-जूट धारी साधू-सन्यासी जैसा लगता है,तो कभी कुछ और . जो उसे जिस रूप में देखना चाहे ,देख सकता है,लेकिन उसके प्रत्येक रूप में परोपकार के भावों से भरी छाया ज़रूर होती है . मरहूम शायर जनाब सलीम अहमद 'ज़ख़्मी ' बालोदवी की शायरी को भी शायद इसी जटा बिखेरे बूढ़े बरगद ने अपनी घनी छाँव में संवेदनाओं के नए रंग दिए होंगे ,तभी तो उनकी हर गज़ल में इंसानी ज़ज्बात समंदर की लहरों की तरह छलकते नज़र आते हैं.