(आलेख : स्वराज्य करुण )
क्या कारण है कि जनता में टेलीविजन चैनलों को देखने की पहले जैसी दिलचस्पी अब कहीं नज़र नहीं आती ? पहले तो लोग इस छोटे ,रुपहले पर्दे पर हिलती -डुलती ,बोलती तस्वीरों को टकटकी लगाकर बड़े आश्चर्य से देखा करते थे अब ऐसे लोग विलुप्त प्रजाति में गिने जाते हैं । ठीक भी है। छोटे परदे पर बड़े -बड़ों की बड़बड़ाहट और बड़ी -बड़ी बकवास सुनने,देखने वाले ऐसे ऐसे फुर्सत अली अब इक्के-दुक्के ही रह गए हैं ! लोग टी.व्ही. के पर्दे को नहीं ,बल्कि इन फुर्सत अलियों को अब आश्चर्य से देखा करते हैं ! लगता है कि कुछ ही दशकों में लोगों के दिलों से टीव्ही चैनलों का दिमागी बुख़ार ,देखते ही देखते , तेजी से उतरने लगा है। लगभग उतर ही चुका है। आप स्वयं अपने घरों में या पास -पड़ोस में इसे महसूस कर सकते हैं। यह एक शुभ संकेत है। पहले क्रिकेट की रनिंग कमेंट्री देखने के लिए छोटे पर्दे के सामने जिस तरह क्रिकेट प्रेमियों का जमावड़ा लगता था , वह भी अब नज़र नहीं आता। अब तो कब ,कहाँ कोई राष्ट्रीय ,अंतरराष्ट्रीय मैच हो रहा है , यह जानने की रुचि भी (जिनके घरों में टीव्ही है) उनमें नहीं रह गयी है।
इसमें दो राय नहीं कि आज के युग में , एक स्वस्थ लोकतंत्र में लोक -अभिव्यक्ति ,मनोरंजन और सूचनाओं तथा विचारों के महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में जनता को अख़बारों के साथ -साथ रेडियो और टीव्ही चैनलों की भी जरूरत होती है।अख़बार और रेडियो तो फिर भी काफी कुछ ठीक हैं ,लेकिन मेरा निजी आंकलन है कि टेलीविजन चैनलों के प्रति जनता की दिलचस्पी लगातार घटती जा रही है। लोग टीव्ही देखना समय की बर्बादी मानने लगे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं।मेरे ख़्याल से पहला कारण तो यह है कि पहले की तुलना में अब प्राइवेट चैनलों की भरमार हो गयी है। इक्का -दुक्का से बढ़कर उनकी संख्या सैकड़ों -हजारों में पहुँच गयी है। किसे देखें और किसे न देखें ? दूसरा कारण है उनमें समाचारों और कार्यक्रमों के दौरान आने वाले अनगिनत अटपटे ,अतिशयोक्तिपूर्ण और अविश्वसनीय विज्ञापनों की भरमार ,जिनकी वजह से दर्शक ऊब जाते हैं और रिमोट बटनों से चैनल बदलने लगते हैं ,लेकिन ऐसे इश्तहारों से उन्हें तब भी राहत नहीं मिलती। सभी चैनलों में कार्यक्रमों के बीच ब्रेकिंग टाइम एक ही वक्त पर शुरू होता है और देर तक चलता है।
तीसरा कारण लगभग सभी चैनलों की ,खास तौर पर न्यूज चैनलों की ,अपनी -अपनी वैचारिक राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धता ,जो उनके डिबेट आदि के कार्यक्रमों में साफ़ झलकती है , जिनमें एंकरों की वाणी से ऐसा लगता है कि वे किसी खास रसूखदार व्यक्ति , दल अथवा संस्था के अघोषित प्रवक्ता के तौर पर या प्रचारक के रूप में बातें कह रहे हैं ,जबकि उनका काम मंच -संचालक के रूप में सिर्फ़ इतना होना चाहिए कि वे उस कार्यक्रम में वक्ताओं अथवा प्रतिभागियों को बारी -बारी से बुलाएं और उन्हें बोलने का मौका दें । पर उनमें यह निष्पक्षता कहीं नज़र नहीं आती । चौथा कारण मेरे ख़्याल से यह है कि जन सरोकारों से बहुत दूर अमीरों की ऐशोआराम को महिमामंडित करते बेहूदे धारावाहिकों और भोंडे कॉमेडी सीरियलों से जनता बोर हो चुकी है। कला -संस्कृति के साथ -साथ किसानों ,मज़दूरों ,छात्र -छात्राओं और बेरोजगारों के हितों से जुड़े कार्यक्रम 99 प्रतिशत चैनलों में नज़र नहीं आते। दूरदर्शन एक अपवाद हो सकता है।इसके अलावा पाँचवा कारण भी बहुत स्पष्ट है। अब अधिकांश जनता समझने लगी है कि ये प्राइवेट चैनल अरबों -- खरबों रुपयों की दौलत के मालिक बड़े -बड़े सेठ -साहूकारों द्वारा खरीदे जा चुके हैं। इनमें आने वाले कार्यक्रम भी उनके मालिकों की पसंद के होते हैं। एंकरों का रिमोट भी उन्हीं के हाथों में रहता है। स्वाभाविक है ,जो व्यक्ति पूंजी लगाएगा ,वह अपने व्यावसायिक हितों का ध्यान तो रखेगा ही।
छठवां कारण इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया का बढ़ता मायाजाल भी है। लोग अब टीव्ही के बजाय यूट्यूब चैनलों में दिलचस्पी लेने लगे हैं , हालांकि ख़बरों के मामले में निष्पक्षता उनमें भी नहीं है। फूहड़ कार्यक्रम उनमें भी ख़ूब आ रहे हैं। लेकिन इस बुख़ार से भी अगले कुछ दशकों में लोगों को मुक्ति मिल सकती है ,ऐसा मेरा मानना है। अगर आपको लगता है कि इन सबके अलावा और भी कई कारण हैं तो कृपया साझा कीजिए।
-- स्वराज करुण।