Friday, September 30, 2022

(आलेख) लगभग उतर चुका है दिमागी बुख़ार !

                                    (आलेख : स्वराज्य करुण   )

क्या कारण है कि जनता में  टेलीविजन चैनलों को देखने की पहले जैसी दिलचस्पी अब कहीं नज़र नहीं आती ? पहले तो  लोग  इस छोटे ,रुपहले पर्दे पर हिलती -डुलती ,बोलती तस्वीरों को टकटकी लगाकर बड़े आश्चर्य से  देखा करते थे अब ऐसे लोग विलुप्त प्रजाति में गिने जाते हैं  ।  ठीक भी है। छोटे परदे  पर बड़े -बड़ों की बड़बड़ाहट और  बड़ी -बड़ी बकवास सुनने,देखने  वाले ऐसे  ऐसे फुर्सत अली अब इक्के-दुक्के ही रह गए हैं ! लोग टी.व्ही. के पर्दे को नहीं ,बल्कि इन फुर्सत अलियों को अब आश्चर्य से देखा करते हैं ! लगता है कि  कुछ ही दशकों में लोगों के दिलों  से टीव्ही चैनलों का दिमागी बुख़ार ,देखते ही देखते , तेजी से उतरने लगा है। लगभग उतर ही चुका है। आप स्वयं अपने घरों में या पास -पड़ोस में इसे महसूस कर सकते हैं। यह एक शुभ संकेत है। पहले क्रिकेट की रनिंग कमेंट्री देखने के लिए छोटे पर्दे के सामने जिस तरह क्रिकेट प्रेमियों का जमावड़ा लगता था , वह भी अब नज़र नहीं आता। अब तो कब ,कहाँ कोई राष्ट्रीय ,अंतरराष्ट्रीय मैच हो रहा है , यह जानने की रुचि भी (जिनके घरों में टीव्ही है) उनमें   नहीं रह गयी है। 

     इसमें दो राय नहीं कि आज के युग में ,  एक स्वस्थ लोकतंत्र में  लोक -अभिव्यक्ति ,मनोरंजन और सूचनाओं तथा विचारों   के महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में जनता को अख़बारों के साथ -साथ रेडियो और टीव्ही चैनलों की भी जरूरत होती है।अख़बार और रेडियो तो फिर भी काफी कुछ ठीक हैं ,लेकिन मेरा निजी आंकलन है कि  टेलीविजन चैनलों के प्रति जनता की दिलचस्पी लगातार घटती जा रही है। लोग टीव्ही देखना समय की बर्बादी मानने लगे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं।मेरे ख़्याल से पहला कारण तो यह है कि पहले की तुलना में अब प्राइवेट चैनलों की भरमार हो गयी है। इक्का -दुक्का से बढ़कर उनकी संख्या सैकड़ों -हजारों में पहुँच गयी है। किसे देखें और किसे न देखें ?  दूसरा कारण है उनमें समाचारों और कार्यक्रमों के दौरान आने वाले अनगिनत अटपटे ,अतिशयोक्तिपूर्ण और अविश्वसनीय विज्ञापनों की भरमार ,जिनकी वजह से दर्शक ऊब जाते हैं और रिमोट बटनों से चैनल बदलने लगते हैं ,लेकिन ऐसे इश्तहारों से उन्हें तब भी राहत नहीं मिलती। सभी चैनलों में कार्यक्रमों के बीच ब्रेकिंग टाइम एक ही वक्त पर शुरू होता है और देर तक चलता है। 

    तीसरा कारण  लगभग सभी चैनलों की ,खास तौर पर न्यूज चैनलों की ,अपनी -अपनी वैचारिक राजनीतिक और व्यावसायिक   प्रतिबद्धता ,जो उनके डिबेट आदि के कार्यक्रमों में साफ़ झलकती है , जिनमें एंकरों की वाणी से ऐसा लगता है कि वे किसी खास रसूखदार व्यक्ति , दल अथवा संस्था के अघोषित प्रवक्ता के तौर पर या प्रचारक के रूप में बातें कह रहे हैं ,जबकि उनका काम मंच -संचालक के रूप में  सिर्फ़ इतना होना चाहिए कि वे उस कार्यक्रम में वक्ताओं अथवा प्रतिभागियों को बारी -बारी से बुलाएं और उन्हें बोलने का मौका दें । पर उनमें यह निष्पक्षता कहीं नज़र नहीं आती । चौथा कारण  मेरे ख़्याल से यह है कि जन सरोकारों से बहुत दूर अमीरों की ऐशोआराम को महिमामंडित करते बेहूदे धारावाहिकों और भोंडे कॉमेडी सीरियलों से जनता बोर हो चुकी है।  कला -संस्कृति के साथ -साथ किसानों ,मज़दूरों ,छात्र -छात्राओं और बेरोजगारों के हितों से जुड़े कार्यक्रम 99 प्रतिशत चैनलों में नज़र नहीं आते।  दूरदर्शन एक अपवाद हो सकता है।इसके अलावा पाँचवा कारण भी बहुत स्पष्ट है।  अब अधिकांश जनता समझने लगी है कि  ये प्राइवेट चैनल अरबों -- खरबों रुपयों की दौलत के मालिक  बड़े -बड़े सेठ -साहूकारों द्वारा खरीदे जा चुके हैं।  इनमें आने वाले कार्यक्रम भी उनके मालिकों की पसंद के होते हैं। एंकरों का रिमोट भी उन्हीं के हाथों में रहता है। स्वाभाविक है ,जो व्यक्ति  पूंजी लगाएगा ,वह अपने व्यावसायिक हितों का ध्यान तो रखेगा ही। 

 छठवां कारण इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया का बढ़ता  मायाजाल भी है। लोग अब टीव्ही के बजाय यूट्यूब चैनलों में दिलचस्पी लेने लगे हैं , हालांकि ख़बरों के मामले में  निष्पक्षता उनमें भी  नहीं है। फूहड़ कार्यक्रम उनमें भी ख़ूब आ रहे हैं। लेकिन  इस बुख़ार से भी  अगले कुछ दशकों में लोगों को मुक्ति मिल सकती है ,ऐसा मेरा मानना है। अगर आपको लगता है कि इन सबके अलावा और भी कई कारण  हैं तो कृपया साझा कीजिए।

-- स्वराज करुण।

Tuesday, September 27, 2022

(आलेख) दलबदलुओं को उनके निर्वाचित पदों से बर्ख़ास्त माना जाए : चुनाव खर्च की भी हो वसूली

(आलेख : स्वराज्य करुण )

दलबदल चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक , दोनों ही स्थितियों में ,संसद और विधान सभाओं समेत अन्य सभी  निर्वाचित संस्थाओं से दलबदलुओं की सदस्यता स्वयमेव समाप्त हो जानी चाहिए। इसके लिए किसी कानूनी औपचारिक की जरूरत न हो। किसी ने दल बदला यानी उसे उसके निर्वाचित पद से ऑटोमेटिक बर्ख़ास्त माना जाए। जिस निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचित व्यक्ति ने दलबदल किया हो  उस निर्वाचनक्षेत्र में चुनाव करवाने में हुए सरकारी खर्च  की वसूली भी उसी व्यक्ति से  की जाए। ऐसे प्रावधान होने  चाहिए। कुछ लोगों ने लोकतंत्र का मज़ाक बना रखा है ! ऐसे प्रावधानों से उनको सबक मिलेगा।  

 कोई निर्वाचित जनप्रतिनिधि अगर दल बदल रहा है तो  इसका  मतलब  है कि वह व्यक्ति जनता को धोखा दे रहा है , क्योंकि वह किसी दल विशेष का प्रत्याशी बनकर उसके चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ता है ,उस दल और चुनाव चिन्ह के लिए व्होट मांगता है ,मतदाता भी उस पर भरोसा करके उस चिन्ह पर व्होट देकर उसे विजयी बनाते हैं। ऐसे में उस निर्वाचित व्यक्ति के द्वारा अचानक दल बदल करना एक प्रकार से मतदाताओं को धोखा देना नहीं तो और क्या है ?  अगर किसी को दलबदल करना ही है तो वह पहले अपने निर्वाचित पद से इस्तीफ़ा दे और जिस दल में जाना चाहता है ,उसका सदस्य बने , फिर चुनाव लड़कर और जीतकर दिखाए। आम जनता के भी यही विचार हैं।

                      

ललितडॉटकॉम: "मेरे दिल की बात" का विमोचन के बाद चले गुजरात की ओ...

 ललित भाई की यह पोस्ट लगभग ग्यारह साल पुरानी यादों को ताज़ा कर रही है। 

ललितडॉटकॉम: "मेरे दिल की बात" का विमोचन के बाद चले गुजरात की ओ...: छत्तीसगढ के यशस्वी ब्लॉगर साहित्यकार स्वराज्य करुण का नाम परिचय का मोहताज नहीं है,लगभग-35-40 वर्षों से उनकी सतत साहित्य साधना जारी है। एक द...

Monday, September 26, 2022

(आलेख) हम नहीं कहते ,ज़माना कहता है ...

   (आलेख : स्वराज्य करुण )

दलबदल चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक , दोनों ही स्थितियों में ,संसद और विधान सभाओं समेत अन्य सभी  निर्वाचित संस्थाओं से दलबदलुओं की सदस्यता स्वयमेव समाप्त हो जानी चाहिए।कुछ लोगों ने लोकतंत्र का मज़ाक बना रखा है ! कोई निर्वाचित जनप्रतिनिधि अगर दल बदल रहा है तो  इसका  मतलब  है कि वह व्यक्ति जनता को धोखा दे रहा है , क्योंकि वह किसी दल विशेष का प्रत्याशी बनकर उसके चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ता है ,उस चुनाव चिन्ह के लिए व्होट मांगता है ,मतदाता भी उस पर भरोसा करके उस चिन्ह पर व्होट देकर उसे विजयी बनाते हैं। ऐसे में उस निर्वाचित व्यक्ति के द्वारा अचानक दल बदल करना एक प्रकार से मतदाताओं को धोखा देना नहीं तो और क्या है ?  अगर किसी को दलबदल करना ही है तो वह पहले अपने निर्वाचित पद से इस्तीफ़ा दे और जिस दल में जाना चाहता है ,उसका सदस्य बने , फिर चुनाव लड़कर और जीतकर दिखाए। आम जनता के भी यही विचार हैं। 

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Friday, September 23, 2022

(आलेख) आज़ादी के 75 वर्षों में रेल सेवाओं में पहली बार इतनी रुकावटें !

                                           (आलेख : स्वराज्य  करुण )

कोरोना काल में करीब पौने तीन साल पहले बाधित रेल सेवाओं की बहाली  अब तक ठीक से नहीं हो पायी है। भले ही कोरोना संकट काफी हद तक टल चुका है । लेकिन इसके बाद भी रेल यातायात में पहले जैसी सामान्य स्थिति नहीं लौट पायी है। ज़िम्मेदार लोग बताएँ - क्या अब भी इसके लिए  कोरोना ज़िम्मेदार है ? किसी एक रेल्वे जोन में ट्रेनों के रद्द होने का प्रतिकूल असर देश के अन्य इलाकों की रेल सेवाओं पर भी पड़ता है।  आवागमन का सस्ता साधन होने के कारण काफी संख्या में लोग ट्रेनों में यात्रा करते हैं। लेकिन  हर हफ़्ते अचानक  दर्जनों  यात्री ट्रेनों के कैंसिल होने से उन हजारों -,लाखों यात्रियों में हाहाकार मच रहा है ,जो अपने रोज के कामकाज के सिलसिले में पैसेंजर ट्रेनों से आना जाना करते हैं । इनमें वाणिज्यिक कारोबार , सरकारी और प्राइवेट नौकरी ,  तरह -तरह की मेहनत मज़दूरी आदि के लिए अपने क्षेत्र के   एक शहर से दूसरे शहर रोज अप-डाउन करने वाले भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। अन्य प्रयोजनों से रेल यात्रा करने वाले मुसाफ़िर भी परेशान हैं। अचानक किसी ट्रेन के स्थगित होने या निरस्त होने की ख़बर आती है तो  यात्रियों में बेचैनी के साथ भारी हताशा का आलम देखा जाता हैंम यात्री रेलगाड़ियों के रद्द होने पर स्टेशनों के कुलियों की भी कमाई मारी जा रही है। 

                                                                  


हमने अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव भी मना लिया ,लेकिन इसके 75 वर्षों में अपनी रेल सेवाओं में इतनी बड़ी -बड़ी रुकावटें पहले कभी नहीं देखी ।  अगर अंग्रेजों के ज़माने को शामिल करके देखें तो भारत में रेल सेवाओं का इतिहास लगभग 185 साल का हो चुका है। इन 185 वर्षों में भी देश के रेल यातायात में ऐसी रुकावटें नहीं आयी होंगी। इंटरनेट को खंगालें तो भारत में रेल सेवाओं की विकास यात्रा के बारे में  कई रोचक तथ्य मिलते हैं।  हमारे देश में पहली रेल एक मालगाड़ी थी , जो वर्ष 1837 में मद्रास (वर्तमान तमिलनाडु) में रेड हिल्स से चिंता द्रिपेट पुल तक चलाई गयी थी। इसका निर्माण  1836 में आर्थर कॉटन नामक अंग्रेज ने करवाया था। मकसद था -ग्रेनाइट पत्थरों का परिवहन।उन दिनों गोदावरी नदी पर एक बाँध बन रहा था ,जिसके लिए पत्थरों की सप्लाई इस रेलमार्ग से की जाती थी। 

     हमारे यहां  यात्री रेल सेवाओं की शुरुआत 16 अप्रैल वर्ष 1853 को हुई  ,जब मुम्बई के बोरीबंदर से ठाणे के बीच 34 किलोमीटर में  400 यात्रियों की क्षमता और तीन वाष्प इंजनों वाली पैसेंजर ट्रेन का परिचालन किया गया था । यानी यात्री ट्रेनों का इतिहास 169 साल का और मालगाड़ियों का इतिहास  वर्ष 1837 में मद्रास में चली मालगाड़ी को मिलाकर देखें तो 185 साल का हो चुका है। बाद के दशकों में रेल सेवाओं का लगातार विस्तार हुआ और 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी के बाद इन सेवाओं का दायरा और भी बढ़ता चला गया। स्वतंत्र भारत की सभी सरकारों और रेल्वे के हमारे लाखों  मेहनतकश कामगारों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। देश को चारों दिशाओं से एकता के सूत्र में बाँध कर रखने में भी हमारे रेल नेटवर्क की बड़ी भूमिका है।                                        


   आज भारत में  रेलमार्गों का नेटवर्क 67 हजार किलोमीटर  से भी ज्यादा विस्तृत हो चुका है,जिनमें हर दिन 8700 यात्री ट्रेनों और् 7हजार 349  मालगाड़ियों का परिचालन होता है।  रेल्वे स्टेशनों की संख्या 8, 338  हो चुकी है। हर दिन लगभग 2 करोड़ 30 लाख यात्रियों को आवागमन और उद्योगों तथा कारोबारियों को 33 लाख मीट्रिक टन माल परिवहन की सुविधाएँ देने की क्षमता भारतीय रेल मंत्रालय के पास है। करीब 15 लाख कर्मचारियों के साथ यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेल सेवा है। हो सकता है कि आंकड़ों में कुछ त्रुटियाँ हों ,लेकिन मोटामोटी यही तथ्य हैं।

      लेकिन मैं इंटरनेट खंगाल कर आपको  यह सब क्यों बता रहा हूँ ? मुझसे अधिक जानकारी तो आपके पास होगी !  मैं तो सिर्फ़ इसलिए याद दिला रहा हूँ  कि आज़ादी के पहले और बाद के 185 वर्षों को मिलाकर देखें तो लगेगा कि हमारी रेल सेवाओं में शायद ही कभी  इतनी बड़ी बड़ी रुकावटें आयी होंगी ,जितनी आज देखने को मिल रही है। आज़ादी के 75 वर्षों में भी ऐसा कभी नहीं हुआ ,जब आये दिन बिना किसी पूर्व सूचना के बिना कोई ठोस कारण बताए , बड़ी संख्या में रेलगाड़ियाँ रद्द हो रही हैं। क्या ज़िम्मेदार लोग देख  रहे हैं जनता की तकलीफ़?क्या नागरिकों का दर्द उन्हें महसूस हो रहा है ? अब तक  66 प्लस 38 ,यानी 104 ट्रेनें रद्द ?  भारी वर्षा ,  बाढ़ ,तूफ़ान ,भूकम्प  या रेल दुर्घटना की वजह से ट्रेनें कैंसिल हों तो बात समझ मे आती है , लेकिन यहाँ तो जनता की समझ में आने लायक  कोई स्पष्ट कारण भी नहीं बताया जा रहा है । सामान्य दिनों में अचानक घोषणा होती है कि ट्रेन कैंसिल। कई बार तो यात्रियों को  स्टेशन पहुँचने पर पता चलता है कि उनकी ट्रेन आज नहीं आएगी। क्या कम से कम एक सप्ताह पहले मीडिया के जरिए और यात्रियों के मोबाइल पर एसएमएस के जरिए इसकी सूचना नहीं दी जा सकती ?(आलेख - स्वराज्य करुण )

Thursday, September 22, 2022

(आलेख) आख़िर क्या हो सामान्य ज्ञान की कसौटी ?

                                                 (आलेख : स्वराज करुण)

सामान्य ज्ञान के मूल्यांकन का मापदंड आख़िर क्या होना चाहिए ? क्या कुछ देशों और राज्यों की राजधानियों के बारे में , कुछ तत्कालीन और कुछ वर्तमान  राजनेताओं , कुछ विशेष प्रकार के खेलों और  खिलाड़ियों , कुछ लेखकों ,कुछ कवियों  और कुछ विशेष किताबों के बारे में और खेती -किसानी के बारे में  जानकारी रखना और उनके बारे में पूछे गए सवालों के सटीक जवाब देना सामान्य ज्ञान है ? क्या  महंगाई और बेरोज़गारी के ताजातरीन  आंकड़ों के बारे में , अंतरिक्ष यात्राओं के बारे में ,  नदियों ,पहाड़ों , धर्मों , सम्प्रदायों और समुदायों की विशेषताओं के बारे में प्रश्नों के सही उत्तर देना सामान्य ज्ञान है ?

      अगर कोई इन्हें ही सामान्य ज्ञान की कसौटी मानता है तो भले ही आप उससे सहमत हों ,लेकिन मैं  नहीं हो सकता ! मेरे ख़्याल से अलग --अलग विषयों में हर व्यक्ति का सामान्य ज्ञान एक जैसा नहीं हो सकता ।  अगर आप किसान से किसी बहुचर्चित खेल और खिलाड़ी के बारे में या फिर किसी अंतरिक्ष यान और अंतरिक्ष यात्री के बारे में सवाल पूछेंगे तो ज़रूरी नहीं कि वो उसका सही जवाब दे , क्योंकि उसका कार्यक्षेत्र खेती -किसानी है ,खेल का मैदान या इसरो अथवा नासा की प्रयोगशाला नहीं । आपकी श्रीमतीजी रसोई कला में  में जितनी निपुण होंगी ,ज़रूरी नहीं कि उसमें आप भी उतने ही निपुण हों । इस दृष्टि से देखें तो रसोई कला में उनका सामान्य ज्ञान आपसे कहीं ज़्यादा है । अपने परिवेश में होने वाली दिन -प्रतिदिन की प्रमुख घटनाओं की ,अपने समाज और संस्कृति की कुछ न कुछ सामान्य जानकारी हर किसी को होनी चाहिए ,लेकिन अगर नहीं है तो सिर्फ़ इतने भर से उसका जीवन व्यर्थ नहीं हो जाता ।

      मोटर मैकेनिक , दर्जी , कारपेंटर ,लोहार , मोची , डॉक्टर , इंजीनियर , राजनेता , अभिनेता ,अभिनेत्री , फ़िल्म निर्माता ,फ़िल्म निर्देशक ,  गीतकार ,संगीतकार , साहित्यकार , अंतरिक्ष वैज्ञानिक , कृषि वैज्ञानिक  आदि   हर क्षेत्र के हर व्यक्ति का सामान्य ज्ञान एक जैसा नहीं हो सकता ।वो सब अपने -अपने कार्यों के और अपने -अपने  कार्यक्षेत्र के अच्छे जानकार और विशेषज्ञ हो सकते हैं ,अपने काम में माहिर हो सकते हैं , लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वो अपने से भिन्न किसी कार्य में पारंगत हों अथवा अपने से इतर किसी कार्यक्षेत्र के जानकार हों । किसी व्यक्ति की सिर्फ इस वज़ह से खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए कि उसे कम्प्यूटर चलाना नहीं आता । हो सकता है वह किसी दूसरे कार्य में दक्ष हो । जो काम आप कर सकते हैं ,उसे कोई दूसरा नहीं कर सकता और जो काम दूसरा कर सकता है ,उसे आप नहीं कर सकते । दोनों का सामान्य ज्ञान अलग-अलग होगा ।

    एक व्यक्ति बहुत अच्छा दर्जी हो सकता है और कलात्मक ढंग से हमारे कपड़े सिल सकता है , लेकिन वो डॉक्टरी का भी ज्ञान रखे ,उससे ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए । इसी तरह एक व्यक्ति कुशल डॉक्टर या कुशल इंजीनियर हो सकता है ,लेकिन उससे दर्जीगीरी के ज्ञान की उम्मीद करना उचित नहीं । दर्जी का काम कोई डॉक्टर या इंजीनियर नहीं कर सकता और डॉक्टर और इंजीनियर  का काम कोई दर्जी नहीं कर सकता ,लेकिन समाज में  दोनों को एक -दूसरे की ज़रूरत होती है । 

   आप कितने ही धनवान और रसूखदार क्यों न हों ,लेकिन किसी यात्रा में अगर कहीं सड़क पर आपकी गाड़ी में कोई तकनीकी ख़राबी आ जाए तो उसकी मरम्मत के लिए तत्काल उसकी निर्माता कम्पनी का सूटेड -बूटेड इंजीनियर नहीं आने वाला ,आपको आसपास के किसी  निरक्षर या अल्प साक्षर  'छोटू मिस्त्री ' की ही शरण में  जाना होगा और वही उसकी मरम्मत करेगा ।अब आप बताइए ! वहां पर किसका सामान्य ज्ञान सबसे अधिक और सबसे अच्छा है ? आपका या छोटू मिस्त्री का ? आप कितने ही बड़े  तुर्रमखां क्यों न हों ,अगर आपके जूते फट गए हों तो उन्हें सिलने के लिए आपको मोची के पास ही जाना पड़ेगा ।

 किसी  रसायनशास्त्री से या किसी भौतिक विज्ञानी से हम और आप उम्मीद करें कि वह रामायण ,महाभारत ,वेद -पुराण ,कुरान ,बाइबल जैसे धर्मग्रन्थों की  भी व्यापक जानकारी रखे ,तो क्या यह उसके साथ ज्यादती नहीं  होगी ? हाँ ,कुछ अपवाद ज़रूर हो सकते हैं ,लेकिन आम तौर पर  इस दुनिया में हर कोई हर किसी के कामकाज का ज्ञाता नहीं हो सकता ,लेकिन इस मानव समाज में सबको एक -दूसरे की ज़रूरत होती है ।इसलिए किसी के भी सामान्य ज्ञान का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए । सबका अपना -अपना सामान्य ज्ञान होता है  ।अपने -अपने कार्यों में सभी पारंगत होते हैं । ऐसे में यह प्रश्न विचारणीय है कि सामान्य ज्ञान की कसौटी आख़िर क्या होनी चाहिए ? 

      -स्वराज्य करुण 

Wednesday, September 21, 2022

(आलेख) ये कहानी है दीये की और तूफ़ान की

                        (आलेख - स्वराज्य करुण)

आधुनिकता की आँधी और मशीनीकरण के तूफान  में कई परम्परागत व्यवसाय तेजी से विलुप्त हो रहे हैं । दीये और तूफान की इस कहानी में दीया बुझता हुआ नजर आ  रहा है । जैसे कुम्हारों का माटी शिल्प , चर्मकारों का चर्म शिल्प ,  हाथकरघा बुनकरी और  दर्जियों की  सिलाई कला । सरकारों के तमाम अच्छे प्रयासों के बावजूद इन शिल्प कलाओं में  दक्ष  हुनरमंद हाथों की रचनाओं को बेहतर बाज़ार नहीं मिल पा रहा है ।   

जैसे - मिट्टी के कुल्हड़ों का स्कोप अब नहीं के बराबर रह गया है । उनके बदले प्लास्टिक के कप और गिलास खूब चल रहे हैं ,जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद  लोग इधर -उधर लापरवाही से फेंक देते हैं ,जो नालियों के जाम होने और प्रदूषण का कारण बनते हैं ।ऐसे में अगर ट्रेनों में कुल्हड़ का चलन बन्द हो जाए तो  रही -सही कसर भी नहीं रह जाएगी । मिट्टी के कुल्हड़ तो पर्यावरण हितैषी होते हैं ।   ट्रेनों में ,शादी -ब्याह में , दफ्तरों में , चाय ठेलों और होटलों में , जलसों और सभाओं में उनका चलन बढ़ाया जाए तो कुम्हारों को  साल भर काम मिलता रहेगा और प्लास्टिक प्रदूषण भी कम होने लगेगा । कुम्हारों के इस पारम्परिक शिल्प को  बचाने का मेरे विचार से एक ही उपाय है कि इन हुनरमंद हाथों से बने मिट्टी के कुल्हड़ों को बढ़ावा दिया जाए ।   इससे कुम्हारों की आमदनी बढ़ेगी और उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी।

कुछ साल पहले तक आप और हम अपने घर में  महीने भर  संकलित दैनिक अखबारों के अनुपयोगी  बंडल पड़ोस की किराना दुकान वाले के पास पांच -छह रुपए किलो के हिसाब से बेच देते थे ,जिनमें दुकानदार जीरा ,धनिया ,मेथी आदि चिल्हर वस्तुओं की पुड़िया बनाकर बेच लेते थे । अखबारों को पढ़ने के बाद वह कागज  इस तरह उपयोग में आ जाता था ।  किराना दुकानों में कागज के ठोंगे का चलन था । कम आमदनी वाले परिवारों की महिलाएं घरों में इनके ठोंगे बनाकर कुछ अतिरिक्त आमदनी हासिल कर लेती थीं। प्लास्टिक के कैरीबैग नहीं थे  ,जो आज धरती की परत को पर्यावरण की दृष्टि से गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं ।                                                 


     पहले गाँवों में सरई आदि  वृक्षों के पत्तों से   दोना पत्तल बनाए जाते थे। शादी ब्याह और अन्य सामाजिक आयोजनों में सामूहिक भोज में पंगत में बैठे मेहमानों को इन्हीं दोना पत्तलों में भोजन परोसा जाता था। लोग बड़े चाव से उनमें भोजन किया करते थे। देश के कई राज्यों में तो केले के पत्तों पर भी भोजन परोसने का रिवाज था। केले के पत्ते हों या वृक्षों के पत्तों से बने दोना पत्तल ,ये हमारे लिए प्राकृतिक थाली और कटोरी हैं ,जिनका प्रचलन धीरे -धीरे कम होता जा रहा है । ये कहना शायद गलत नहीं होगा कि ये विलुप्त होने की स्थिति में हैं। वरना पहले तो सरकारें भी ग्रामीणों को प्राकृतिक दोना पत्तल बनाने के लिए स्वरोजगार योजना के तहत आसान शर्तो पर बैंकों से लोन भी दिलवाती थीं। लेकिन आधुनिकता के तूफ़ान ने हमारी कई प्राचीन परम्पराओं को ध्वस्त कर दिया है। फलस्वरूप हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। दोना पत्तल तो अब भी बनते और बिकते हैं ,उनके लिए मशीनें आ गयी हैं , लेकिन उन्हें चमकदार ,टिकाऊ और आकर्षक बनाने के लिए उन पर प्लास्टिक या पॉलीथिन की हल्की परत चढ़ाकर उन्हें प्रति सैकड़ा के हिसाब से बेचा जाता है । इनमें अज़ीब सी बदबू भी आती है।  फिर भी शादियों के रिसेप्शन में लोग उनमें भोजन करते हैं और उसके बाद उन्हें फेंक दिया जाता है ।  ऐसे प्लास्टिक आवरण वाले  दोना पत्तल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं  और पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाते हैं। गाय ,बैल आदि जानवर भी इन्हें चबाकर बीमार हो जाते हैं। इन हानिकारक दोना पत्तलों की वजह से  परम्परागत दोना पत्तल बनाने वाले ग्रामीणों की अब कोई पूछ -परख नहीं होती ।

   चर्मकार अपने हाथों से  जो जूते बनाते हैं  ,उन्हें अगर वे अपनी गुमटीनुमा दुकानों में सौ -दो सौ रूपए में बेचते हैं तो शहरी दुकानदार  उसी तरह के जूते उन्हीं से बनवाकर और उन पर ब्रांडेड कम्पनी का लेबल लगाकर  ऊंची दुकानों में काँच के शो -केस में सजाकर 500 से 1500 और 2000 रुपए तक  या उससे भी ज्यादा कीमत का लेबल लगाकर बेच रहे हैं । अगर किसी सरकारी योजना में गरीबों को जूते वितरित किए जा रहे हों तो उनकी खरीदी इन परम्परागत चर्मशिल्पियों से या उनकी सहकारी समितियों से  की जा सकती है । इससे इन शिल्पियों  को साल भर रोजगार की गारन्टी रहेगी ।  अकेले सरकार नहीं बल्कि समाज को भी इस बारे में सोचने की जरूरत है । सरकारों ने समय -समय पर  हाथकरघा बुनकरों को बाज़ार दिलाने की सराहनीय पहल की है । जैसे - हर सरकारी दफ्तर के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वे अपने कार्यालय के  पर्दे , टेबिल क्लॉथ आदि  के लिए जरूरी कपड़े हाथकरघा बुनकरों की सहकारी समितियों से खरीदें ।   इस नियम का गंभीरता से पालन होना चाहिए । छत्तीसगढ़ सरकार ने स्कूली बच्चों के लिए  गणवेश सिलाई का काम  महिलाओं के स्वसहायता समूहों को दिया है । यह भी एक अच्छी पहल है । इससे  महिलाएं  दर्जी के काम में दक्ष होकर आत्म निर्भर बनेंगी । बच्चों के लिए स्कूली गणवेश की सरकारी खरीदी से इन समूहों   को  अच्छा बाज़ार और व्यवसाय मिलेगा । देश में छोटे -छोटे व्यवसायों में युवाओं के अल्पकालीन  प्रशिक्षण के लिए कौशल उन्नयन  की जो  योजनाएं चल रही हैं ,उनमें ऐसे परम्परागत व्यवसायों को अधिक से अधिक संख्या में जोड़ा जाना चाहिए । 

     नागरिकों को भी चाहिए वे अपने घरेलू उपयोग के लिए जरूरी सामानों की खरीदी परम्परागत शिल्पकारों से या उनकी सहकारी समितियों की दुकानों से करें ।  खादी ग्रामोद्योग की दुकानों में  या एम्पोरियमों में ऐसे सामान खूब मिलते हैं ,लेकिन नये ज़माने की चमक -दमक वाले विज्ञापनों का मायाजाल फैलाने की कला उन्हें  नहीं मालूम ,इस वजह से  उन्हें हमेशा  ग्राहकों का इंतज़ार रहता है । 

        आलेख -स्वराज्य करुण 

Saturday, September 17, 2022

(आलेख ) बरसात के मौसम में हिंगलाज के फूलों की वासंती रंगत

                                               (आलेख : स्वराज्य  करुण )

बरसात के मौसम में इन दिनों जहाँ -तहाँ हिंगलाज के पीले फूलों की रंगत देखी जा सकती  है। छत्तीसगढ़ सहित भारत के कई राज्यों में इसके  झाड़ीनुमा पौधे कहीं सड़कों के किनारे ,तो कहीं शहरों में  कचरे के ढेर पर अपने फूलों के साथ नज़र आते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नदी -नालों के किनारे भी इन्हें देखा जा सकता है।  इन्हें जानवर भी अपना आहार नहीं बनाते। तभी तो ये कहीं पर भी शान से खिलते और खिलखिलाते रहते हैं। 


                                                           


  दरअसल वर्षा ऋतु में छोटी -बड़ी कई प्रकार की वनस्पतियाँ  हमारे आस -पास फैली रहती हैं । हममें से ज्यादातर लोग उनके  महत्व और उपयोग से अनभिज्ञ रहते हैं। सिर्फ पारखी नज़रें ही उन्हें पहचान सकती हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से हिंगलाज का पौधा भी अत्यंत गुणकारी है और कई बीमारियों ,विशेष रूप से त्वचा रोगों के उपचार में सहायक है।लेकिन ऐसा लगता है  कि इसके औषधीय गुणों के बारे में अधिक प्रचार -प्रसार नहीं हुआ है । यही कारण है कि अधिकांश जनता इसके महत्व से अनजान है।  इसके फूलों और बीजों के संकलन ,विपणन और प्रसंस्करण में संबंधितों की कोई खास  दिलचस्पी नज़र नहीं आ रही है। देखा जाए तो इस पर व्यापक शोध कार्य भी हो सकता है।

     हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में हिंगलाज माता  (हिंगलाजिन  माता) के प्राचीन मंदिर के आस -पास ये पौधे बहुत मिलते हैं।।पाकिस्तान तो 71 साल पहले बना। इसके पहले यह अखंड भारत का ही अंग था। तब से या कहना चाहिए हजारों वर्षों से बलूचिस्तान में हिंगलाजिन माता का मन्दिर हिन्दू ,मुस्लिम ,दोनों ही समुदायों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। ऐसी मान्यता है कि यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में भी हिंगलाज माता के मंदिर के नज़दीक के आयुर्वेदिक उद्यान में  ये पौधे बड़ी संख्या में लगाए गए हैं। 

    आयुर्वेद के जानकारों के  अनुसार हिंगलाज की पत्तियों और फूलों से कई बीमारियों का इलाज हो सकता है। जैसे -दाद ,खाज ,खुजली ,एक्जिमा और एड़ियों के फटने की समस्या हो ,तो इसकी 50 ग्राम पत्तियों को पीसकर उसमें 10 ग्राम फिटकरी मिला लें और इस मिश्रण का पेस्ट बनाकर त्वचा पर लगाएं तो आराम मिलता है।इसकी पत्तियाँ अस्थमा के इलाज में भी फायदा पहुँचाती हैं।

     इंटरनेट पर हिंगलाज के पौधे और फूलों के बारे में कई तरह की सूचनाओं का खजाना है ,जिसे खंगाला जा सकता है।   हमारे देश में राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान है। बड़ी संख्या में आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और यूनानी  मेडिकल कॉलेज हैं। भारत सरकार सहित सभी राज्यो के अपने -अपने आयुष विभाग हैं ,जिनके द्वारा इन कॉलेजों का संचालन किया जा रहा है। इन संस्थाओं में हिंगलाज सहित अन्य सभी मौसमी वनस्पतियों का गहन सर्वेक्षण और अनुसंधान होना चाहिए ,ताकि उपयोगी तथ्य प्रकाश में आ सकें। 

   हिंगलाज पौधे के  औषधीय महत्व को देखते हुए इसका संरक्षण बहुत आवश्यक है। अन्यथा बढ़ती आबादी के साथ जैसे -जैसे ख़ाली ज़मीनों पर मकान ,दुकान और सरकारी तथा गैर सरकारी भवन  बनेंगे ,औषधीय महत्व की यह प्रजाति धीरे -धीरे विलुप्त होती जाएगी और एक दिन पूरी तरह से गायब हो जाएगी।

-- स्वराज्य करुण 

Friday, September 16, 2022

(आलेख) गाड़ियों की चकाचौंध रौशनी से भी हो रहे हैं सड़क हादसे

                                       (आलेख : स्वराज्य करुण   )

वैसे तो हमारे देश में सड़क हादसों के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि उनमें एक बड़ा कारण इस दौर की गाड़ियों में लगी  हेडलाइट्स की चकाचौंध कर देने वाली रौशनी को भी माना जा सकता है।  चाहे मोटरसाइकिल हो , कार हो , बस हो या ट्रक,  आजकल लगभग हर प्रकार की गाड़ियों में तेज प्रकाश वाले  हेडलाइट्स लगे होते हैं। 

 रात के समय आमने -सामने आ रही गाड़ियों के हेडलाइट्स की रौशनी इतनी चमकदार होती है कि कुछ पल के लिए ड्राइवर की आँखों के आगे भी अंधेरा छा जाता है। ऐसे में उसका संतुलन बिगड़ जाता है और दोनों वाहनों में आमने -सामने टक्कर हो जाती है। फलस्वरूप जानलेवा हादसे हो जाते हैं। नियमानुसार  हेडलाइट्स पर  एक  निश्चित आकार में काले रंग की पट्टियाँ लगाना अनिवार्य है । लेकिन इस पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है । 

      कुछ वर्ष पहले वाहनों में काले रंग की पट्टियों  वाले  हेडलाइट्स दिखते थे और समय -समय पर इसके लिए जागरूकता बढ़ाने का अभियान भी चलाया जाता  था ।  काली पट्टी विहीन गाड़ियों को रोककर उनके चालकों के सामने  हेडलाइट्स में पट्टियाँ  लगाई जाती थी ।  लेकिन अब तो बाइक और फोर व्हीलरों के नये -नये मॉडल आ गए हैं । पुरानी तो छोड़िए ,नयी गाड़ियों के हेडलाइट्स में भी ये पट्टियाँ नहीं होती । चाहे टू व्हीलर हो या फोर व्हीलर ,  लगभग शत -प्रतिशत गाड़ियों का यही हाल है । बड़ी -बड़ी ट्रकों और लग्ज़री बसों का तो कहना ही क्या ? 

   मेरे ख़्याल से अब ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए कि वाहनों के हेडलाइट्स में इनबिल्ट काली पट्टियाँ लगी हों । निर्माताओं के लिए यह अनिवार्य किया जाए । कोई भी ऑटोपार्ट्स की दुकान बगैर काली पट्टी वाले हेडलाइट्स न बेचे और अगर कोई रात्रि में काली पट्टी विहीन गाड़ी चलाता दिखे तो उस पर जुर्माना किया जाए ।  ऐसे वाहन चालक खुद तो जोख़िम उठाते ही हैं , दूसरों की ज़िन्दगी को भी  ख़तरे में डाल देते हैं ।

   - स्वराज्य करुण 

Thursday, September 15, 2022

(आलेख) काव्य क्षितिज पर उभरते एक नये सितारे का अचानक अवसान

                                            (आलेख - स्वराज्य करुण )

देश के अन्य राज्यों की तरह  छत्तीसगढ़ की साहित्यिक बिरादरी भी बहुत विशाल है। इस बिरादरी में एक से बढ़कर एक बेहतरीन कवि , कहानीकार ,उपन्यासकार , निबंध ,व्यंग्य और नाट्य लेखक शामिल हैं।  शिवानंद महान्ती छत्तीसगढ़ की साहित्यिक  बिरादरी में  नई पीढ़ी के उभरते हुए कवि थे। हिन्दी कविता की नई विधा के वह  सशक्त हस्ताक्षर थे। शिवानंद महान्ती की कविताओं में  मानवीय संवेदनाओं की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति के  कई रंग मिलते हैं।  इतना ही नहीं ,बल्कि उनकी कविताएँ देश की वर्तमान सामाजिक आर्थिक विसंगतियों से सीधे संघर्ष करती नज़र हैं।।         


                                                                     



                                                                 शिवानंद महान्ती

                                                                   (1970 - 2022)

बंगाल की खाड़ी से लगे ओड़िशा के समुद्र तटवर्ती गाँव सोलबंधा (जिला -गंजाम ) में 15 फरवरी 1970 को जन्मे शिवानंद महान्ती का  सम्पूर्ण जीवन छत्तीसगढ़ की माटी में ही व्यतीत हुआ। उनके पिता स्वर्गीय देवराज महान्ती आजीविका के लिए 70 के दशक में  सपरिवार  पिथौरा आ गए थे। प्राथमिक से लेकर हायर सेकेंडरी तक शिवानंद की पूरी पढ़ाई पिथौरा में हुई। बाद में उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से एम .ए. एल.एल.बी . तक शिक्षा प्राप्त की। विधि स्नातक होने के बावज़ूद वकालत की जगह उन्होंने फोटोग्राफी के व्यवसाय को अपनी आजीविका का जरिया बनाया।  साहित्यिक रूझान तो उनमें था ही। कविताएँ भी लिखने लगे। पिथौरा जैसे छोटे -से गाँवनुमा कस्बे में करीब 33 वर्ष पहले 1988 में गठित श्रृंखला साहित्य मंच से जुड़कर उनकी काव्य प्रतिभा और भी ज़्यादा पुष्पित और पल्लवित होने लगी। मंच के अब तक प्रकाशित चार सहयोगी कविता संग्रहों में आंचलिक कवियों के साथ उनकी भी कई रचनाएँ शामिल हैं। शिवानंद श्रृंखला साहित्य मंच के संस्थापक सदस्य तो थे ही , इस साहित्यिक संस्था के प्रमुख आधार स्तंभ भी थे। वह सामाजिक ,सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों के कुशल मंच संचालक और  एक बेहतरीन रंगकर्मी भी थे। 

दुर्भाग्य से पिथौरा में ऐन रक्षाबंधन के दिन 11 अगस्त 2022 को एक मोटरसाइकिल हादसे में वह गंभीर रूप से घायल हो गए थे । स्थानीय  अस्पतालों की भारी अव्यवस्था के बीच उन्हें बेहोशी की हालत में राजधानी रायपुर के एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया ,जिसके कर्णधारों की भयानक निर्ममता को झेलते हुए उनकी आत्मा 14 अगस्त 2022 को दुनिया छोड़ गई। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ के काव्य क्षितिज पर आकार ले रही संभावनाओं के   एक नये सितारे का भी  अचानक अवसान हो गया। 


                                                    

शिवानंद महान्ती का   कविता --संग्रह 'संशय के बादल ' श्रृंखला साहित्य मंच द्वारा वर्ष 2018 में प्रकाशित किया गया था। यह उनके जीवनकाल का  पहला और अंतिम कविता संग्रह था । काश ! वह हमारे बीच होते तो बहुत संभव था कि उनकी  और भी कई रचनाएँ किताबों के रूप में समाज के सामने आतीं। लेकिन अफ़सोस कि ऐसा हो नहीं पाया।  उनके इस इकलौते कविता -संग्रह में  44 कविताएँ शामिल  हैं ।  

  देश के वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक 'देशबन्धु ' के प्रधान सम्पादक और हिन्दी नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर ललित सुरजन ने 15 सितम्बर 2018 को पिथौरा में आयोजित समारोह में शिवानंद के इस कविता -संग्रह का विमोचन किया था। विडम्बना यह कि अब ललित सुरजन भी इस भौतिक संसार में नहीं हैं।  उन्होंने 'संशय के बादल' का विमोचन करते हुए कहा था -- "  साहित्यकार और पत्रकार हमारे समाज के उन शोषित ,पीड़ित और वंचित इंसानों की भावनाओं को वाणी देते हैं ,जो अपनी बात नहीं कह पाते और जिनमें खुद को अभिव्यक्त करने की कसक रह जाती है।शिवानंद की रचनाओं में ऐसे ही लोगों के  दुःख-दर्द को अभिव्यक्ति मिली है। " कविता संग्रह में 'अपनी बात ' के अंतर्गत शिवानंद ने लिखा है कि ये रचनाएँ वर्षों की मानसिक जद्दोजहद से लिखी गई हैं। उनका यह भी कहना है -- " तमाम रचनाएँ चिंतन और भावनाओं में डूबकर लिखी हुई हैं। बचपन से जवानी तक का सफ़र आर्थिक संघर्ष के साथ गुज़रा। इसलिए व्यवस्था और विसंगतियों के ख़िलाफ़ स्वाभाविक आक्रोश  रचनाओं में परिलक्षित होगा। जीवन का अधिकांश समय जिजीविषा की आपाधापी में गुज़रा ,इसलिए श्रृंगार की रचनाएँ मैंने लिखी ही नहीं। " संग्रह में प्रकाशित अपनी 'आश्वस्ति ' में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध भाषा - विज्ञानी और साहित्यकार डॉ. चित्तरंजन कर लिखते हैं -- "शिवानंद की कविताएँ  जागरण का संदेश देने का उपक्रम है। "  पुस्तक के प्रारंभ में श्रृंखला साहित्य मंच के अध्यक्ष प्रवीण प्रवाह ने 'प्रकाशक की पाती' में लिखा है -- "ये कविताएँ जीवन के विभिन्न रंगों से पाठकों को रू -ब -रू कराती हैं।

              शिवानंद  ने हालांकि कुछ गीत भी लिखे ,लेकिन क्षणिका विधा में उन्हें महारत हासिल थी। उनकी कविताओं में व्यंग्य भी है और करुणा भी । उनकी  रचनाएँ मानव जीवन की सच्चाइयों से जुड़ी हर बात   'गागर में सागर ' की तरह नपे-तुले और कम से कम शब्दों में  कह जाती हैं।   संग्रह की पहली कविता 'कलम की नोंक' में वह आज के कलमकारों को सचेत करते हुए कहते हैं --

 कलम की नोंक 

  पैनी रखना दोस्तों !

  सुना है ,   कुछ रसूखदारों ने 

  ज़माने भर की 

   खुशियों को 

   कैद करने की

   साजिश कर ली है।

धनतंत्र में तब्दील हो रहे जनतंत्र की वर्तमान दुर्दशा पर  तीखा राजनीतिक व्यंग्य 'निधन ' शीर्षक उनकी इस  क्षणिका में देखिए --

    राजनीति में जन 

    सर्वोपरि होता था ,

   शनैः शनैः इसमें धन का

    प्रवेश हुआ !

    फिर इसके मूल स्वरूप का 

    निधन हो गया।

महंगाई  और  बेरोजगारी की ज्वलंत समस्याओं के बीच मज़हबी उन्माद फैलाने वालों  के चक्रव्यूह में घिरी आम जनता के लिए तीज -त्यौहारों की चमक भी फीकी पड़ती जा रही है।   ऐसे नाज़ुक दौर में   लोकतंत्र में राजनीति का भी भयानक अवमूल्यन हो गया है । इन विषम परिस्थितियों को देखकर कवि 'इस बेनूर दीवाली में ' शीर्षक अपने गीत में यह कहने को मज़बूर हो जाता है कि --

             उपवन में सूनापन है ,दर्द बहुत है माली में 

            दीपक का संघर्ष व्यर्थ है इस बेनूर दीवाली में।

            रोजी -रोटी के चक्कर में घूम रही तरुणाई ,

            मज़हब के लफ़ड़े में पड़ गए देखो भाई -भाई ।

            राजनीति तब्दील हो गई एक भयंकर गाली में ,

            दीपक का संघर्ष व्यर्थ है इस बेनूर दीवाली में।


संग्रह की कुछ रचनाओं में कवि  अपनी व्यथा पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से भी कहते नज़र आते हैं।। हमारी ज्वलंत राष्ट्रीय समस्या ' कालेधन ' पर  उनका एक व्यंग्य गीत भी इनमें शामिल है ।   देश  में गहराते  साम्प्रदायिक विभाजन के ख़तरे को लेकर  उनकी  गहरी चिन्ता   इस गीत में प्रकट होती  है। कवि चिंतित है कि काले धन की वापसी का वादा करने वालों ने आज देश को अलग -अलग रंगों में बाँट दिया है ,जिसमें शांति का प्रतीक श्वेत रंग कहीं खो गया है, जिसे इस परिवेश में  ढूँढने की  कोशिश हो रही है। हमारा  यह गीत 'लंबोदर महाराज ' से प्रार्थना के रूप में है --

     कालेधन को वापस ला दो लंबोदर महाराज !

     मेरे  पन्द्रह लाख दिला दो लंबोदर महाराज !!

    केसरिया और हरे रंग में बाँट दिया है देश ,

    श्वेत रंग को ढूँढ रहा है अपना यह परिवेश !

    बने तिरंगा इन्हें मिला दो लंबोदर महाराज !

   मेरे  पन्द्रह लाख दिला दो लंबोदर महाराज !!

कवि  किसानों की हालत पर भी चिंतित है । उसकी यह चिन्ता 'कैसे जोत जलाऊँ ' शीर्षक उनके इस गीत में सामने आती है। वह महंगाई से भी चिंतित है।कवि इस गीत में अम्बे माँ से शिकायत के लहज़े में कहता है --

  बाज़ारों में सूनापन है ,कातर है किसान 

  पेट्रोल की कीमत नित दिन छूती आसमान ।

   महंगाई को वश में कैसे लाऊँ अम्बे माँ !

   तुम्हीं बताओ कैसे जोत जलाऊँ अम्बे माँ  ! !

 अपने इसी गीत में शिवानंद आज के दौर में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मंडराते खतरे को लेकर  अपनी चिन्ता प्रकट करते हैं और बेगैरत लोगों की 'सिंहासन -भक्ति ' की आलोचना करते हैं । वह  'चारण ' नहीं बनना चाहते ---

साम-दाम और दंड भेद से सिसक रही अभिव्यक्ति ,

बेगैरत खुलकर करते हैं सिंहासन की भक्ति ।

मैं सत्ता  का चारण बन न पाऊँ अम्बे माँ !

तुम्हीं बताओ ,कैसे जोत जलाऊँ अम्बे माँ !!*

देश और समाज पर मंडराते तरह -तरह के 'संशय के बादलों' ने कवि को बहुत गहराई तक व्यथित और विचलित किया है । इस व्यथा और विचलन की अभिव्यक्ति उनकी कविताओं में मिलती है।  कोई  कवि अगर अपने समय और समाज के यथार्थ का ,यथास्थिति का और जनता के दुःख-दर्द का चित्रण करता है ,तो उसके ऐसे चित्रण में हमारी वर्तमान दुनिया को बदलने और  एक बेहतर समाज बनाने का आव्हान भी छुपा होता है। शिवानंद महान्ती की कविताओं में अंतर्निहित इस आव्हान को हमें महसूस करने की जरूरत है। 

आलेख -- स्वराज्य  करुण 

       


Wednesday, September 14, 2022

(आलेख) आख़िर हमें कब मिलेगी मानसिक आज़ादी ?

                        (आलेख : स्वराज करुण )

 हिन्दी केवल साहित्य की भाषा नहीं है  ,बल्कि वह  भारत की अधिकांश जनसंख्या की दिनचर्या की भी भाषा है।  यह जरूर है कि कोई भी भाषा अपने साहित्य से ही समृद्ध होती है लेकिन आम जन जीवन में उसका अधिक से अधिक प्रयोग होने पर ही वह विकसित होकर समृद्ध बनती है।स्वतंत्र भारत के इतिहास में 14 सितम्बर 1949  वह यादगार दिन है जब हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था . इसके लिए  संविधान में धारा 343 से 351 तक राजभाषा के बारे में ज़रूरी प्रावधान किए  गए .विचारणीय सवाल यह है कि हिन्दी को 73  साल पहले  राजभाषा का दर्जा तो मिल गया ,लेकिन वह  आखिर कब देश की सर्वोच्च अदालत सहित  राज्यों के  उच्च न्यायालयों और केन्द्रीय मंत्रालयों के सरकारी काम-काज की भाषा बनेगी ? ऐसा लगता है कि अंग्रेजों की सरकारी गुलामी से  तो हम आज़ाद हो गए लेकिन उनकी मानसिक गुलामी से अब तक मुक्त नहीं हो पाए हैं । आख़िर हमें कब मिलेगी मानसिक आज़ादी ?

 राजभाषा अधिनियम के तहत 

सरकारी कामों में हिन्दी भी अनिवार्य लेकिन ? 

देश  पन्द्रह अगस्त 1947 को प्रशासनिक दृष्टि से आज़ाद हुआ  और  26 जनवरी 1950 को देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ । इसके  भाषाई प्रावधानों के तहत अनुच्छेद 343 से 351तक  के प्रावधान भी लागू हो गए .लेकिन  केन्द्र सरकार के अधिकांश  मंत्रालयों से राज्यों को जारी होने वाले अधिकांश पत्र -परिपत्र प्रतिवेदन आज भी केवल अंग्रेजी में होते हैं ,जिसे समझना गैर-अंग्रेजी वालों के लिए काफी मुश्किल होता है ,जबकि राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न साधारण आदेशों , अधिसूचनाओं और सरकारी प्रतिवेदनों ,नियमों आदि में अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी का भी प्रयोग अनिवार्य किया गया है.इसके बाद भी ऐसे सरकारी दस्तावेजों में हिन्दी का अता-पता नहीं रहता .केन्द्र  से  जिस राज्य को ऐसा कोई सरकारी पत्र या प्रतिवेदन भेजा जा रहा है , वह उस राज्य की स्थानीय भाषा में भी अनुवादित होकर जाना चाहिए । लेकिन होता ये है कि  नईदिल्ली से राज्यों को जो  पत्र -परिपत्र  अंग्रेजी में मिलते हैं ,उन्हें मंत्रालयों के  सम्बन्धित विभागों  के अधिकारी सिर्फ़ एक अग्रेषण पत्र  लगाकर और उसमें  'आवश्यक कार्रवाई हेतु ' और  "कृत कार्रवाई से अवगत करावें ' लिखकर  निचले कार्यालयों को भेज देते हैं । दरअसल हिन्दी भाषी राज्यों के मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी जानने -समझने वाले अफसरों और कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है । इसलिए उन्हें उन पत्रों में प्राप्त दिशा -निर्देशों के अनुरूप आगे की कार्रवाई में कठिनाई होती है ।ऐसे में उनके निराकरण में स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता ही है । केन्द्र की ओर से राज्यों के साथ सरकारी पत्र - व्यवहार अगर  राजभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं में हो तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है ।

 हिन्दी कब बनेगी न्याय की भाषा ? 

    सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के तमाम फैसले भी अंग्रेजी में लिखे जाते है ,जिन्हें अधिकाँश ऐसे आवेदक समझ ही नहीं पाते,जिनके बारे में फैसला होता है . ये अदालतें फैसला चाहे जो भी दें ,लेकिन राजभाषा हिन्दी में तो दें ,ताकि मुकदमे से जुड़े पक्षकार उसे आसानी से समझ सकें. अगर उन्हें अंग्रेजी में फैसला लिखना ज़रूरी लगता है तो उसके साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी दें . गैर हिन्दी भाषी राज्यों में वहाँ की स्थानीय भाषा में फैसलों का अनुवाद उपलब्ध कराया जाना चाहिए . इस मामले में अब तक की मेरी जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ,बिलासपुर ने अपनी वेबसाइट में अदालती सूचनाओं के साथ - साथ फैसलों का हिन्दी अनुवाद भी देना शुरू कर दिया है ,जो निश्चित रूप से सराहनीय और स्वागत योग्य है । 

भारत सरकार का  राजभाषा विभाग 

 यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने जून 1975  में राजभाषा से सम्बन्धित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए राजभाषा विभाग का गठन किया है ,जिसके माध्यम से हिन्दी को बढ़ावा देने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी कार्यरत है  लेकिन इस दिशा में और भी ज्यादा ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है । वैसे आधुनिक युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट पर देवनागरी लिपि का प्रयोग भी हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में काफी मददगार साबित हो रहा कुछ निराशा भी होती है 

 लेकिन यह देखकर निराशा होती है कि हिन्दी दिवस के बड़े -बड़े आयोजनों में हिन्दी की पैरवी करने वाले अधिकांश ऐसे लोग होते हैं जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना  अपनी शान के खिलाफ समझते हैं ।  दुकानों और बाजारों में लेन -देन के समय हिन्दी में बातचीत करने वाले कथित उच्च वर्गीय ग्राहकों को बड़े -बड़े होटलों में आयोजित सरकारी अथवा कार्पोरेटी बैठकों और सम्मेलनों में अंग्रेजी में बोलते -बतियाते देखा जा सकता है ।अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में 'हिन्दी दिवस ' मनाया नहीं जाता ,वहाँ 'हिन्दी -डे ' सेलिब्रेट ' किया जाता है । शहरों में  चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अधिकांश दुकानों ,होटलों  व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और निजी स्कूल -कॉलेजों के अंग्रेजी नाम वाले बोर्ड देखने को मिलते हैं । 

     स्कूलों में 'नमस्ते 'और 'प्रणाम'  की जगह 'गुड मॉर्निंग' क्यों ?

   उन्हें देखने पर लगता है कि हमारी हिन्दी दम तोड़ रही है । हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी आगन्तुकों के स्वागत में बच्चे ' नमस्ते ' नहीं बोलकर 'गुड मॉर्निंग सर' अथवा ' गुड मॉर्निंग मैडम ' कहकर अभिवादन करते हैं । उन्हें ऐसा ही  सिखाया जा रहा है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो अधिकांश भारतीय परिवारों में  माता -पिता 'मम्मी -डैडी ' कहलाने लगे हैं ।चाचा -चाची और मामा -मामी जैसे आत्मीय सम्बोधन 'अंकल -आँटी ' में तब्दील हो गए हैं । पाठ्य पुस्तकों से देवनागरी के अंक गायब होते जा रहे हैं । उनमें पृष्ठ संख्या भी अंग्रेजी अंकों में छपी होती है । कई  स्कूली बच्चे भारतीय अथवा हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों के नाम नहीं बोल पाते जबकि अंग्रेजी महीनों और दिनों के नाम धाराप्रवाह बोल देते हैं।   

                           क्या हिन्दी बोलना पिछड़ेपन की निशानी है ?

भारतीय बच्चे अगर फटाफट अंग्रेजी बोलें तो माता - पिता और अध्यापक गर्व से फूले नहीं समाते ! हिन्दी अच्छे से बोलना और लिखना श्रेष्ठि वर्ग में पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है ।  हिंदुस्तानी नागरिक अगर अंग्रेजी ठीक से न बोल पाए ,न लिख पाए तो हम हिंदुस्तानी लोग ही उसका मज़ाक उड़ाने लगते हैं ,जबकि कोई अंग्रेज अगर टूटी -फूटी हिन्दी बोले तो भी हम उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । विरोध अंग्रेजी भाषा का नहीं ,बल्कि हम  भारतीयों को शिंकजे में ले चुकी अंग्रेजी मानसिकता का है । हमें अंग्रेजियत की इस मानसिकता से उबरना होगा ।

    लेकिन जब आम जनता से हिन्दी में बात करने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को संसद में अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना जा सकता है तो निराशा होती गया । क्या कोई बता सकता है कि ऐसे भारतीयों  से भारत की राजभाषा के रूप में बेचारी हिन्दी आखिर उम्मीद करे भी तो क्या ?

         आलेख  -- स्वराज करुण

Friday, September 2, 2022

(आलेख) ज़रा सोचिये ! क्या कभी सुधर पाएगा देश का बेतरतीब शहरी यातायात ?

  (आलेख  - स्वराज्य करुण )

क्या भारतीय शहरों का बेतरतीब यातायात कभी सुधर पाएगा ? विकसित देशों की साफ़-सुथरी ,चौड़ी ,चमचमाती सड़कों और उनमें अनुशासित ढंग से आती -जाती गाड़ियों की तस्वीरें देखकर हमें ईर्ष्या होने लगती है कि ऐसा हमारी किस्मत में क्यों नहीं है ? लगता है कि आधुनिक युग की   मशीनी ज़िन्दगी ने भारत की सड़कों पर  मशीनों से चलने वाले दोपहिया और चार पहिया वाहनों की संख्या में ऐसा इज़ाफ़ा किया है कि इन गाड़ियों की संख्या  देश की जनसंख्या से भी ज़्यादा हो गई है। शहरों की अंदरूनी सड़कों पर वाहनों की भीड़, इंसानों की भीड़ और आवारा जानवरों  के बीच फँस जाने पर आड़े तिरछे होकर अपनी गाड़ी निकालने की कोशिश एक अलग तरह का तनाव और झल्लाहट पैदा करती है। तब लगता है कि देश में वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए कम से कम पाँच साल तक ऑटोमोबाइल सेक्टर को बंद रखना चाहिए। हालांकि मुझे भी मालूम है कि व्यावहारिक दृष्टि से यह असंभव है।  आसान शर्तो और बेहद किफ़ायती दरों पर बैंक लोन की योजनाएँ भी इन गाड़ियों की आबादी बढ़ाने में अपना भरपूर सहयोग दे रही हैं।         


     शासन -प्रशासन की तमाम कोशिशों के बावज़ूद आम जनता में ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करने की प्रवृत्ति ख़त्म होती नज़र नहीं आ रही है। जन -सहयोग के बिना कोई भी सार्वजनिक सुधार संभव नहीं है। अस्त व्यस्त यातायात के बीच कई बार जानलेवा हादसे भी हो जाते हैं। देश में हर साल सड़क दुर्घटनाओं में लाखों इंसान मौत का शिकार हो जाते हैं । उनके परिवारों पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है। लाखों लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। जब सड़कों पर वाहनों से चलने फिरने के लिए भी टैक्स लिया जाता है तो उन सड़कों को इंसानों के लिए सुरक्षित भी बनाया जाना चाहिए। यह भी सच है कि कई बार रफ ड्राइविंग , वाहनों की तेज रफ़्तार और नशे में वाहन चलाने  की वज़ह से भी गंभीर दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। ऐसे में दोषी वाहन चालकों को पकड़ कर उन पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। यातायात के नियम और कानून आम जनता की सुरक्षा के लिए हैं। सभी लोगों को इनका पालन करना चाहिए। 

   लेकिन सम्पन्न लोगों की आदतें भी अज़ीब हो गई हैं। घरों में पार्किंग की जगह नहीं है ,फिर भी बड़ी -बड़ी गाडियाँ ख़रीदकर वो  अपने वैभव और अहंकार प्रदर्शन के लिए उन्हें  मोहल्लों  की या कॉलोनियों की सार्वजनिक सड़कों पर खड़ी करते हैं। कर लो ,जो करना है ! फोर लेन ,सिक्स लेन की सड़कें तो काफी अच्छी बनी हैं और बन भी रही हैं ,लेकिन शहरों के बीच  उनके किनारों की सर्विस लेन पर छोटे दुकानदारों , मोटर मैकेनिकों और गैरेजों का अवैध कब्जा एकाध अपवाद छोड़कर  हर शहर में देखा जा रहा है। उनके लिए अलग से कोई व्यवस्था की जानी चाहिए । कई फोर लेन और सिक्स लेन  सड़कों के डिवाइडरों में रेलिंग नहीं है , इन डिवाइडरों में लगे पेड़ पौधों की पत्तियों को खाने आसपास के गाँवों के मवेशी वहाँ मंडराते रहते हैं और कई बार दुर्घटनाओं का कारण बन जाते हैं।  

    कई महानगरों में तो ट्रेन या विमान पकड़ने के लिए लोगों को तीन - चार घंटे पहले घर से निकलना पड़ता है ,ताकि रास्ते में लम्बे ट्रैफिक जाम में फँस न जाएं और ट्रेन या फ्लाइट न छूट जाए। किसी गंभीर मरीज़ को अस्पताल पहुँचाना है तो कई बार लम्बे ट्रैफिक जाम की वजह से एम्बूलेंस भी आगे नहीं बढ़ पाते और मरीजों की हालत चिंताजनक होने लगती है। देश के अधिकांश औद्योगिक क्षेत्रों में भी यातायात सिस्टम काफी अव्यस्थित नज़र आता है। ट्रैफिक जाम की वज़ह से   दफ्तरों के कर्मचारियों , छोटे कारोबारियों, स्कूल- कॉलेजों के अध्यापकों और विद्यार्थियों ,  यानी हर किसी को अपने कार्यस्थल तक पहुँचने में देर हो जाती है। कई सड़कों के किनारे साग-सब्जियों के बाज़ार लगते हैं । उनसे भी शाम के समय अत्यधिक भीड़ के कारण  यातायात प्रभावित होता है। ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अधिकांश दुकानदार अपनी दुकानों का सामान  सामने की सड़कों पर सजाकर रखते हैं। ज़ाहिर है कि यातायात बेतरतीब होगा ही। भारतीय शहरों की सड़कों पर अस्त -व्यस्त यातायात हम सबके लिए एक गंभीर राष्ट्रीय समस्या बन गई है। हो सकता है कि कुछ अन्य देशों के ट्रैफिक की हालत भी हमारे जैसी हो ,लेकिन चूंकि हम अपने देश के निवासी हैं ,इसलिए हम तो अपने यहाँ की बात करेंगे। -- आलेख - स्वराज करुण

(फोटो : इंटरनेट से साभार )