(आलेख - स्वराज्य करुण)
आधुनिकता की आँधी और मशीनीकरण के तूफान में कई परम्परागत व्यवसाय तेजी से विलुप्त हो रहे हैं । दीये और तूफान की इस कहानी में दीया बुझता हुआ नजर आ रहा है । जैसे कुम्हारों का माटी शिल्प , चर्मकारों का चर्म शिल्प , हाथकरघा बुनकरी और दर्जियों की सिलाई कला । सरकारों के तमाम अच्छे प्रयासों के बावजूद इन शिल्प कलाओं में दक्ष हुनरमंद हाथों की रचनाओं को बेहतर बाज़ार नहीं मिल पा रहा है ।
जैसे - मिट्टी के कुल्हड़ों का स्कोप अब नहीं के बराबर रह गया है । उनके बदले प्लास्टिक के कप और गिलास खूब चल रहे हैं ,जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद लोग इधर -उधर लापरवाही से फेंक देते हैं ,जो नालियों के जाम होने और प्रदूषण का कारण बनते हैं ।ऐसे में अगर ट्रेनों में कुल्हड़ का चलन बन्द हो जाए तो रही -सही कसर भी नहीं रह जाएगी । मिट्टी के कुल्हड़ तो पर्यावरण हितैषी होते हैं । ट्रेनों में ,शादी -ब्याह में , दफ्तरों में , चाय ठेलों और होटलों में , जलसों और सभाओं में उनका चलन बढ़ाया जाए तो कुम्हारों को साल भर काम मिलता रहेगा और प्लास्टिक प्रदूषण भी कम होने लगेगा । कुम्हारों के इस पारम्परिक शिल्प को बचाने का मेरे विचार से एक ही उपाय है कि इन हुनरमंद हाथों से बने मिट्टी के कुल्हड़ों को बढ़ावा दिया जाए । इससे कुम्हारों की आमदनी बढ़ेगी और उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी।
कुछ साल पहले तक आप और हम अपने घर में महीने भर संकलित दैनिक अखबारों के अनुपयोगी बंडल पड़ोस की किराना दुकान वाले के पास पांच -छह रुपए किलो के हिसाब से बेच देते थे ,जिनमें दुकानदार जीरा ,धनिया ,मेथी आदि चिल्हर वस्तुओं की पुड़िया बनाकर बेच लेते थे । अखबारों को पढ़ने के बाद वह कागज इस तरह उपयोग में आ जाता था । किराना दुकानों में कागज के ठोंगे का चलन था । कम आमदनी वाले परिवारों की महिलाएं घरों में इनके ठोंगे बनाकर कुछ अतिरिक्त आमदनी हासिल कर लेती थीं। प्लास्टिक के कैरीबैग नहीं थे ,जो आज धरती की परत को पर्यावरण की दृष्टि से गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं ।
पहले गाँवों में सरई आदि वृक्षों के पत्तों से दोना पत्तल बनाए जाते थे। शादी ब्याह और अन्य सामाजिक आयोजनों में सामूहिक भोज में पंगत में बैठे मेहमानों को इन्हीं दोना पत्तलों में भोजन परोसा जाता था। लोग बड़े चाव से उनमें भोजन किया करते थे। देश के कई राज्यों में तो केले के पत्तों पर भी भोजन परोसने का रिवाज था। केले के पत्ते हों या वृक्षों के पत्तों से बने दोना पत्तल ,ये हमारे लिए प्राकृतिक थाली और कटोरी हैं ,जिनका प्रचलन धीरे -धीरे कम होता जा रहा है । ये कहना शायद गलत नहीं होगा कि ये विलुप्त होने की स्थिति में हैं। वरना पहले तो सरकारें भी ग्रामीणों को प्राकृतिक दोना पत्तल बनाने के लिए स्वरोजगार योजना के तहत आसान शर्तो पर बैंकों से लोन भी दिलवाती थीं। लेकिन आधुनिकता के तूफ़ान ने हमारी कई प्राचीन परम्पराओं को ध्वस्त कर दिया है। फलस्वरूप हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। दोना पत्तल तो अब भी बनते और बिकते हैं ,उनके लिए मशीनें आ गयी हैं , लेकिन उन्हें चमकदार ,टिकाऊ और आकर्षक बनाने के लिए उन पर प्लास्टिक या पॉलीथिन की हल्की परत चढ़ाकर उन्हें प्रति सैकड़ा के हिसाब से बेचा जाता है । इनमें अज़ीब सी बदबू भी आती है। फिर भी शादियों के रिसेप्शन में लोग उनमें भोजन करते हैं और उसके बाद उन्हें फेंक दिया जाता है । ऐसे प्लास्टिक आवरण वाले दोना पत्तल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं और पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाते हैं। गाय ,बैल आदि जानवर भी इन्हें चबाकर बीमार हो जाते हैं। इन हानिकारक दोना पत्तलों की वजह से परम्परागत दोना पत्तल बनाने वाले ग्रामीणों की अब कोई पूछ -परख नहीं होती ।
चर्मकार अपने हाथों से जो जूते बनाते हैं ,उन्हें अगर वे अपनी गुमटीनुमा दुकानों में सौ -दो सौ रूपए में बेचते हैं तो शहरी दुकानदार उसी तरह के जूते उन्हीं से बनवाकर और उन पर ब्रांडेड कम्पनी का लेबल लगाकर ऊंची दुकानों में काँच के शो -केस में सजाकर 500 से 1500 और 2000 रुपए तक या उससे भी ज्यादा कीमत का लेबल लगाकर बेच रहे हैं । अगर किसी सरकारी योजना में गरीबों को जूते वितरित किए जा रहे हों तो उनकी खरीदी इन परम्परागत चर्मशिल्पियों से या उनकी सहकारी समितियों से की जा सकती है । इससे इन शिल्पियों को साल भर रोजगार की गारन्टी रहेगी । अकेले सरकार नहीं बल्कि समाज को भी इस बारे में सोचने की जरूरत है । सरकारों ने समय -समय पर हाथकरघा बुनकरों को बाज़ार दिलाने की सराहनीय पहल की है । जैसे - हर सरकारी दफ्तर के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वे अपने कार्यालय के पर्दे , टेबिल क्लॉथ आदि के लिए जरूरी कपड़े हाथकरघा बुनकरों की सहकारी समितियों से खरीदें । इस नियम का गंभीरता से पालन होना चाहिए । छत्तीसगढ़ सरकार ने स्कूली बच्चों के लिए गणवेश सिलाई का काम महिलाओं के स्वसहायता समूहों को दिया है । यह भी एक अच्छी पहल है । इससे महिलाएं दर्जी के काम में दक्ष होकर आत्म निर्भर बनेंगी । बच्चों के लिए स्कूली गणवेश की सरकारी खरीदी से इन समूहों को अच्छा बाज़ार और व्यवसाय मिलेगा । देश में छोटे -छोटे व्यवसायों में युवाओं के अल्पकालीन प्रशिक्षण के लिए कौशल उन्नयन की जो योजनाएं चल रही हैं ,उनमें ऐसे परम्परागत व्यवसायों को अधिक से अधिक संख्या में जोड़ा जाना चाहिए ।
नागरिकों को भी चाहिए वे अपने घरेलू उपयोग के लिए जरूरी सामानों की खरीदी परम्परागत शिल्पकारों से या उनकी सहकारी समितियों की दुकानों से करें । खादी ग्रामोद्योग की दुकानों में या एम्पोरियमों में ऐसे सामान खूब मिलते हैं ,लेकिन नये ज़माने की चमक -दमक वाले विज्ञापनों का मायाजाल फैलाने की कला उन्हें नहीं मालूम ,इस वजह से उन्हें हमेशा ग्राहकों का इंतज़ार रहता है ।
आलेख -स्वराज्य करुण
No comments:
Post a Comment