(आलेख - स्वराज्य करुण )
देश के अन्य राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ की साहित्यिक बिरादरी भी बहुत विशाल है। इस बिरादरी में एक से बढ़कर एक बेहतरीन कवि , कहानीकार ,उपन्यासकार , निबंध ,व्यंग्य और नाट्य लेखक शामिल हैं। शिवानंद महान्ती छत्तीसगढ़ की साहित्यिक बिरादरी में नई पीढ़ी के उभरते हुए कवि थे। हिन्दी कविता की नई विधा के वह सशक्त हस्ताक्षर थे। शिवानंद महान्ती की कविताओं में मानवीय संवेदनाओं की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति के कई रंग मिलते हैं। इतना ही नहीं ,बल्कि उनकी कविताएँ देश की वर्तमान सामाजिक आर्थिक विसंगतियों से सीधे संघर्ष करती नज़र हैं।।
शिवानंद महान्ती
(1970 - 2022)
बंगाल की खाड़ी से लगे ओड़िशा के समुद्र तटवर्ती गाँव सोलबंधा (जिला -गंजाम ) में 15 फरवरी 1970 को जन्मे शिवानंद महान्ती का सम्पूर्ण जीवन छत्तीसगढ़ की माटी में ही व्यतीत हुआ। उनके पिता स्वर्गीय देवराज महान्ती आजीविका के लिए 70 के दशक में सपरिवार पिथौरा आ गए थे। प्राथमिक से लेकर हायर सेकेंडरी तक शिवानंद की पूरी पढ़ाई पिथौरा में हुई। बाद में उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से एम .ए. एल.एल.बी . तक शिक्षा प्राप्त की। विधि स्नातक होने के बावज़ूद वकालत की जगह उन्होंने फोटोग्राफी के व्यवसाय को अपनी आजीविका का जरिया बनाया। साहित्यिक रूझान तो उनमें था ही। कविताएँ भी लिखने लगे। पिथौरा जैसे छोटे -से गाँवनुमा कस्बे में करीब 33 वर्ष पहले 1988 में गठित श्रृंखला साहित्य मंच से जुड़कर उनकी काव्य प्रतिभा और भी ज़्यादा पुष्पित और पल्लवित होने लगी। मंच के अब तक प्रकाशित चार सहयोगी कविता संग्रहों में आंचलिक कवियों के साथ उनकी भी कई रचनाएँ शामिल हैं। शिवानंद श्रृंखला साहित्य मंच के संस्थापक सदस्य तो थे ही , इस साहित्यिक संस्था के प्रमुख आधार स्तंभ भी थे। वह सामाजिक ,सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों के कुशल मंच संचालक और एक बेहतरीन रंगकर्मी भी थे।
दुर्भाग्य से पिथौरा में ऐन रक्षाबंधन के दिन 11 अगस्त 2022 को एक मोटरसाइकिल हादसे में वह गंभीर रूप से घायल हो गए थे । स्थानीय अस्पतालों की भारी अव्यवस्था के बीच उन्हें बेहोशी की हालत में राजधानी रायपुर के एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया ,जिसके कर्णधारों की भयानक निर्ममता को झेलते हुए उनकी आत्मा 14 अगस्त 2022 को दुनिया छोड़ गई। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ के काव्य क्षितिज पर आकार ले रही संभावनाओं के एक नये सितारे का भी अचानक अवसान हो गया।
शिवानंद महान्ती का कविता --संग्रह 'संशय के बादल ' श्रृंखला साहित्य मंच द्वारा वर्ष 2018 में प्रकाशित किया गया था। यह उनके जीवनकाल का पहला और अंतिम कविता संग्रह था । काश ! वह हमारे बीच होते तो बहुत संभव था कि उनकी और भी कई रचनाएँ किताबों के रूप में समाज के सामने आतीं। लेकिन अफ़सोस कि ऐसा हो नहीं पाया। उनके इस इकलौते कविता -संग्रह में 44 कविताएँ शामिल हैं ।
देश के वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक 'देशबन्धु ' के प्रधान सम्पादक और हिन्दी नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर ललित सुरजन ने 15 सितम्बर 2018 को पिथौरा में आयोजित समारोह में शिवानंद के इस कविता -संग्रह का विमोचन किया था। विडम्बना यह कि अब ललित सुरजन भी इस भौतिक संसार में नहीं हैं। उन्होंने 'संशय के बादल' का विमोचन करते हुए कहा था -- " साहित्यकार और पत्रकार हमारे समाज के उन शोषित ,पीड़ित और वंचित इंसानों की भावनाओं को वाणी देते हैं ,जो अपनी बात नहीं कह पाते और जिनमें खुद को अभिव्यक्त करने की कसक रह जाती है।शिवानंद की रचनाओं में ऐसे ही लोगों के दुःख-दर्द को अभिव्यक्ति मिली है। " कविता संग्रह में 'अपनी बात ' के अंतर्गत शिवानंद ने लिखा है कि ये रचनाएँ वर्षों की मानसिक जद्दोजहद से लिखी गई हैं। उनका यह भी कहना है -- " तमाम रचनाएँ चिंतन और भावनाओं में डूबकर लिखी हुई हैं। बचपन से जवानी तक का सफ़र आर्थिक संघर्ष के साथ गुज़रा। इसलिए व्यवस्था और विसंगतियों के ख़िलाफ़ स्वाभाविक आक्रोश रचनाओं में परिलक्षित होगा। जीवन का अधिकांश समय जिजीविषा की आपाधापी में गुज़रा ,इसलिए श्रृंगार की रचनाएँ मैंने लिखी ही नहीं। " संग्रह में प्रकाशित अपनी 'आश्वस्ति ' में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध भाषा - विज्ञानी और साहित्यकार डॉ. चित्तरंजन कर लिखते हैं -- "शिवानंद की कविताएँ जागरण का संदेश देने का उपक्रम है। " पुस्तक के प्रारंभ में श्रृंखला साहित्य मंच के अध्यक्ष प्रवीण प्रवाह ने 'प्रकाशक की पाती' में लिखा है -- "ये कविताएँ जीवन के विभिन्न रंगों से पाठकों को रू -ब -रू कराती हैं।
शिवानंद ने हालांकि कुछ गीत भी लिखे ,लेकिन क्षणिका विधा में उन्हें महारत हासिल थी। उनकी कविताओं में व्यंग्य भी है और करुणा भी । उनकी रचनाएँ मानव जीवन की सच्चाइयों से जुड़ी हर बात 'गागर में सागर ' की तरह नपे-तुले और कम से कम शब्दों में कह जाती हैं। संग्रह की पहली कविता 'कलम की नोंक' में वह आज के कलमकारों को सचेत करते हुए कहते हैं --
कलम की नोंक
पैनी रखना दोस्तों !
सुना है , कुछ रसूखदारों ने
ज़माने भर की
खुशियों को
कैद करने की
साजिश कर ली है।
धनतंत्र में तब्दील हो रहे जनतंत्र की वर्तमान दुर्दशा पर तीखा राजनीतिक व्यंग्य 'निधन ' शीर्षक उनकी इस क्षणिका में देखिए --
राजनीति में जन
सर्वोपरि होता था ,
शनैः शनैः इसमें धन का
प्रवेश हुआ !
फिर इसके मूल स्वरूप का
निधन हो गया।
महंगाई और बेरोजगारी की ज्वलंत समस्याओं के बीच मज़हबी उन्माद फैलाने वालों के चक्रव्यूह में घिरी आम जनता के लिए तीज -त्यौहारों की चमक भी फीकी पड़ती जा रही है। ऐसे नाज़ुक दौर में लोकतंत्र में राजनीति का भी भयानक अवमूल्यन हो गया है । इन विषम परिस्थितियों को देखकर कवि 'इस बेनूर दीवाली में ' शीर्षक अपने गीत में यह कहने को मज़बूर हो जाता है कि --
उपवन में सूनापन है ,दर्द बहुत है माली में
दीपक का संघर्ष व्यर्थ है इस बेनूर दीवाली में।
रोजी -रोटी के चक्कर में घूम रही तरुणाई ,
मज़हब के लफ़ड़े में पड़ गए देखो भाई -भाई ।
राजनीति तब्दील हो गई एक भयंकर गाली में ,
दीपक का संघर्ष व्यर्थ है इस बेनूर दीवाली में।
संग्रह की कुछ रचनाओं में कवि अपनी व्यथा पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से भी कहते नज़र आते हैं।। हमारी ज्वलंत राष्ट्रीय समस्या ' कालेधन ' पर उनका एक व्यंग्य गीत भी इनमें शामिल है । देश में गहराते साम्प्रदायिक विभाजन के ख़तरे को लेकर उनकी गहरी चिन्ता इस गीत में प्रकट होती है। कवि चिंतित है कि काले धन की वापसी का वादा करने वालों ने आज देश को अलग -अलग रंगों में बाँट दिया है ,जिसमें शांति का प्रतीक श्वेत रंग कहीं खो गया है, जिसे इस परिवेश में ढूँढने की कोशिश हो रही है। हमारा यह गीत 'लंबोदर महाराज ' से प्रार्थना के रूप में है --
कालेधन को वापस ला दो लंबोदर महाराज !
मेरे पन्द्रह लाख दिला दो लंबोदर महाराज !!
केसरिया और हरे रंग में बाँट दिया है देश ,
श्वेत रंग को ढूँढ रहा है अपना यह परिवेश !
बने तिरंगा इन्हें मिला दो लंबोदर महाराज !
मेरे पन्द्रह लाख दिला दो लंबोदर महाराज !!
कवि किसानों की हालत पर भी चिंतित है । उसकी यह चिन्ता 'कैसे जोत जलाऊँ ' शीर्षक उनके इस गीत में सामने आती है। वह महंगाई से भी चिंतित है।कवि इस गीत में अम्बे माँ से शिकायत के लहज़े में कहता है --
बाज़ारों में सूनापन है ,कातर है किसान
पेट्रोल की कीमत नित दिन छूती आसमान ।
महंगाई को वश में कैसे लाऊँ अम्बे माँ !
तुम्हीं बताओ कैसे जोत जलाऊँ अम्बे माँ ! !
अपने इसी गीत में शिवानंद आज के दौर में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मंडराते खतरे को लेकर अपनी चिन्ता प्रकट करते हैं और बेगैरत लोगों की 'सिंहासन -भक्ति ' की आलोचना करते हैं । वह 'चारण ' नहीं बनना चाहते ---
साम-दाम और दंड भेद से सिसक रही अभिव्यक्ति ,
बेगैरत खुलकर करते हैं सिंहासन की भक्ति ।
मैं सत्ता का चारण बन न पाऊँ अम्बे माँ !
तुम्हीं बताओ ,कैसे जोत जलाऊँ अम्बे माँ !!*
देश और समाज पर मंडराते तरह -तरह के 'संशय के बादलों' ने कवि को बहुत गहराई तक व्यथित और विचलित किया है । इस व्यथा और विचलन की अभिव्यक्ति उनकी कविताओं में मिलती है। कोई कवि अगर अपने समय और समाज के यथार्थ का ,यथास्थिति का और जनता के दुःख-दर्द का चित्रण करता है ,तो उसके ऐसे चित्रण में हमारी वर्तमान दुनिया को बदलने और एक बेहतर समाज बनाने का आव्हान भी छुपा होता है। शिवानंद महान्ती की कविताओं में अंतर्निहित इस आव्हान को हमें महसूस करने की जरूरत है।
आलेख -- स्वराज्य करुण
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