(आलेख : स्वराज करुण )
हिन्दी केवल साहित्य की भाषा नहीं है ,बल्कि वह भारत की अधिकांश जनसंख्या की दिनचर्या की भी भाषा है। यह जरूर है कि कोई भी भाषा अपने साहित्य से ही समृद्ध होती है लेकिन आम जन जीवन में उसका अधिक से अधिक प्रयोग होने पर ही वह विकसित होकर समृद्ध बनती है।स्वतंत्र भारत के इतिहास में 14 सितम्बर 1949 वह यादगार दिन है जब हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था . इसके लिए संविधान में धारा 343 से 351 तक राजभाषा के बारे में ज़रूरी प्रावधान किए गए .विचारणीय सवाल यह है कि हिन्दी को 73 साल पहले राजभाषा का दर्जा तो मिल गया ,लेकिन वह आखिर कब देश की सर्वोच्च अदालत सहित राज्यों के उच्च न्यायालयों और केन्द्रीय मंत्रालयों के सरकारी काम-काज की भाषा बनेगी ? ऐसा लगता है कि अंग्रेजों की सरकारी गुलामी से तो हम आज़ाद हो गए लेकिन उनकी मानसिक गुलामी से अब तक मुक्त नहीं हो पाए हैं । आख़िर हमें कब मिलेगी मानसिक आज़ादी ?
राजभाषा अधिनियम के तहत
सरकारी कामों में हिन्दी भी अनिवार्य लेकिन ?
देश पन्द्रह अगस्त 1947 को प्रशासनिक दृष्टि से आज़ाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ । इसके भाषाई प्रावधानों के तहत अनुच्छेद 343 से 351तक के प्रावधान भी लागू हो गए .लेकिन केन्द्र सरकार के अधिकांश मंत्रालयों से राज्यों को जारी होने वाले अधिकांश पत्र -परिपत्र प्रतिवेदन आज भी केवल अंग्रेजी में होते हैं ,जिसे समझना गैर-अंग्रेजी वालों के लिए काफी मुश्किल होता है ,जबकि राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न साधारण आदेशों , अधिसूचनाओं और सरकारी प्रतिवेदनों ,नियमों आदि में अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी का भी प्रयोग अनिवार्य किया गया है.इसके बाद भी ऐसे सरकारी दस्तावेजों में हिन्दी का अता-पता नहीं रहता .केन्द्र से जिस राज्य को ऐसा कोई सरकारी पत्र या प्रतिवेदन भेजा जा रहा है , वह उस राज्य की स्थानीय भाषा में भी अनुवादित होकर जाना चाहिए । लेकिन होता ये है कि नईदिल्ली से राज्यों को जो पत्र -परिपत्र अंग्रेजी में मिलते हैं ,उन्हें मंत्रालयों के सम्बन्धित विभागों के अधिकारी सिर्फ़ एक अग्रेषण पत्र लगाकर और उसमें 'आवश्यक कार्रवाई हेतु ' और "कृत कार्रवाई से अवगत करावें ' लिखकर निचले कार्यालयों को भेज देते हैं । दरअसल हिन्दी भाषी राज्यों के मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी जानने -समझने वाले अफसरों और कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है । इसलिए उन्हें उन पत्रों में प्राप्त दिशा -निर्देशों के अनुरूप आगे की कार्रवाई में कठिनाई होती है ।ऐसे में उनके निराकरण में स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता ही है । केन्द्र की ओर से राज्यों के साथ सरकारी पत्र - व्यवहार अगर राजभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं में हो तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है ।
हिन्दी कब बनेगी न्याय की भाषा ?
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के तमाम फैसले भी अंग्रेजी में लिखे जाते है ,जिन्हें अधिकाँश ऐसे आवेदक समझ ही नहीं पाते,जिनके बारे में फैसला होता है . ये अदालतें फैसला चाहे जो भी दें ,लेकिन राजभाषा हिन्दी में तो दें ,ताकि मुकदमे से जुड़े पक्षकार उसे आसानी से समझ सकें. अगर उन्हें अंग्रेजी में फैसला लिखना ज़रूरी लगता है तो उसके साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी दें . गैर हिन्दी भाषी राज्यों में वहाँ की स्थानीय भाषा में फैसलों का अनुवाद उपलब्ध कराया जाना चाहिए . इस मामले में अब तक की मेरी जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ,बिलासपुर ने अपनी वेबसाइट में अदालती सूचनाओं के साथ - साथ फैसलों का हिन्दी अनुवाद भी देना शुरू कर दिया है ,जो निश्चित रूप से सराहनीय और स्वागत योग्य है ।
भारत सरकार का राजभाषा विभाग
यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने जून 1975 में राजभाषा से सम्बन्धित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए राजभाषा विभाग का गठन किया है ,जिसके माध्यम से हिन्दी को बढ़ावा देने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी कार्यरत है लेकिन इस दिशा में और भी ज्यादा ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है । वैसे आधुनिक युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट पर देवनागरी लिपि का प्रयोग भी हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में काफी मददगार साबित हो रहा कुछ निराशा भी होती है
लेकिन यह देखकर निराशा होती है कि हिन्दी दिवस के बड़े -बड़े आयोजनों में हिन्दी की पैरवी करने वाले अधिकांश ऐसे लोग होते हैं जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं । दुकानों और बाजारों में लेन -देन के समय हिन्दी में बातचीत करने वाले कथित उच्च वर्गीय ग्राहकों को बड़े -बड़े होटलों में आयोजित सरकारी अथवा कार्पोरेटी बैठकों और सम्मेलनों में अंग्रेजी में बोलते -बतियाते देखा जा सकता है ।अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में 'हिन्दी दिवस ' मनाया नहीं जाता ,वहाँ 'हिन्दी -डे ' सेलिब्रेट ' किया जाता है । शहरों में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अधिकांश दुकानों ,होटलों व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और निजी स्कूल -कॉलेजों के अंग्रेजी नाम वाले बोर्ड देखने को मिलते हैं ।
स्कूलों में 'नमस्ते 'और 'प्रणाम' की जगह 'गुड मॉर्निंग' क्यों ?
उन्हें देखने पर लगता है कि हमारी हिन्दी दम तोड़ रही है । हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी आगन्तुकों के स्वागत में बच्चे ' नमस्ते ' नहीं बोलकर 'गुड मॉर्निंग सर' अथवा ' गुड मॉर्निंग मैडम ' कहकर अभिवादन करते हैं । उन्हें ऐसा ही सिखाया जा रहा है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो अधिकांश भारतीय परिवारों में माता -पिता 'मम्मी -डैडी ' कहलाने लगे हैं ।चाचा -चाची और मामा -मामी जैसे आत्मीय सम्बोधन 'अंकल -आँटी ' में तब्दील हो गए हैं । पाठ्य पुस्तकों से देवनागरी के अंक गायब होते जा रहे हैं । उनमें पृष्ठ संख्या भी अंग्रेजी अंकों में छपी होती है । कई स्कूली बच्चे भारतीय अथवा हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों के नाम नहीं बोल पाते जबकि अंग्रेजी महीनों और दिनों के नाम धाराप्रवाह बोल देते हैं।
क्या हिन्दी बोलना पिछड़ेपन की निशानी है ?
भारतीय बच्चे अगर फटाफट अंग्रेजी बोलें तो माता - पिता और अध्यापक गर्व से फूले नहीं समाते ! हिन्दी अच्छे से बोलना और लिखना श्रेष्ठि वर्ग में पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है । हिंदुस्तानी नागरिक अगर अंग्रेजी ठीक से न बोल पाए ,न लिख पाए तो हम हिंदुस्तानी लोग ही उसका मज़ाक उड़ाने लगते हैं ,जबकि कोई अंग्रेज अगर टूटी -फूटी हिन्दी बोले तो भी हम उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । विरोध अंग्रेजी भाषा का नहीं ,बल्कि हम भारतीयों को शिंकजे में ले चुकी अंग्रेजी मानसिकता का है । हमें अंग्रेजियत की इस मानसिकता से उबरना होगा ।
लेकिन जब आम जनता से हिन्दी में बात करने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को संसद में अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना जा सकता है तो निराशा होती गया । क्या कोई बता सकता है कि ऐसे भारतीयों से भारत की राजभाषा के रूप में बेचारी हिन्दी आखिर उम्मीद करे भी तो क्या ?
आलेख -- स्वराज करुण
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