सर्वे भवन्तुः सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामयः ! सभी सुखी रहें, सभी स्वस्थ रहें ! हमारे महान भारतीय ऋषि-मुनियों ने हमेशा वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के साथ सबके लिए सुखी जीवन और उत्तम स्वास्थ्य की कामना की है. आज एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस के मौके पर भी हमें अपने पूर्वजों द्वारा सम्पूर्ण मानवता को दिए गए इस आशीर्वाद पर गम्भीरता से चिन्तन करने की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से अंगरेजी मानसिकता वालों की बुरी संगत में पड़कर हमारे जीवन में एक विसंगति चुपचाप यह भी आ गयी है कि आज के दिन जो भी आयोजन होंगें, उनमें इस खतरनाक बीमारी के बारे में केवल एलोपैथिक डाक्टरों और एलोपैथिक दवा कंपनियों के नज़रिए से ही चर्चा होगी .सवाल यह है कि इस बीमारी को लेकर आयुर्वेदिक ,होमियोपैथिक ,यूनानी,योग और प्राकृतिक चिकित्सा अथवा इसी तरह की दूसरी वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के दृष्टिकोण से इलाज के आसान रास्तों के बारे में विचार क्यों नहीं किया जाता ?
दरअसल यह सारा खेल उन बहुराष्ट्रीय एलोपैथिक दवा कंपनियों के सुनियोजित प्रचार / दुष्प्रचार अभियान का एक हिस्सा है, जो दुनिया के हर देश में एड्स के नाम पर हौव्वा खड़ा करके अरबों-खरबों डालर का कारोबार कर रही हैं .हर कीमत पर केवल ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा हासिल करना उनका लक्ष्य है .शायद इसीलिये भारत में भी जब कभी एड्स की बीमारी पर कोई चर्चा -परिचर्चा होती है, कोई तथाकथित जन-जागरण रैली निकलती है , तो उसमें आयुर्वेद और होमियोपैथी जैसी प्रभावी और कम खर्चीली चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञों को नहीं बुलाया जाता .क्योंकि अगर उन्होंने वहाँ बता दिया कि यह लाइलाज बीमारी नहीं है तो इन बहुराष्ट्रीय दवा कारोबारियों के मुनाफे का खेल बिगड़ जाएगा .आखिर हम कब तक सिर्फ एलोपैथी का दामन थामे रहेंगे ? मलेरिया,उल्टी-दस्त ,बुखार ,मधुमेह , कैंसर आदि में हम कब तक अपने गाढ़े पसीने की कमाई सिर्फ एलोपैथिक दवाओं के निर्माताओं पर कुर्बान करते रहेंगे ? एलोपैथी वाले साफ़ तौर पर कह देते हैं कि एड्स का कोई इलाज नहीं है ,जबकि उनके द्वारा इस बारे में आयुर्वेद ,होमियोपैथी या दूसरी चिकित्सा प्रणाली के विशेषज्ञों से परामर्श ही नहीं किया जाता .मुझे याद आ रहा है कुछ वर्ष पहले हिन्दी की एक प्रमुख पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट ,जिसमें फोटो सहित बताया गया था कि चेन्नई [तमिलनाडु]की एक महिला और उसकी नन्हीं बेटी को एड्स हो गया था ,मेडिकल कॉलेज से भी इसकी पुष्टि हो गयी थी , लेकिन एक पारम्परिक चिकित्सक ने आयुर्वेदिक दवा से उनका इलाज किया और उसके बाद उसी मेडिकल कॉलेज ने दोबारा उन दोनों के खून की जांच की और बताया कि अब उनमें एड्स के कोई लक्षण नहीं हैं और दोनों स्वस्थ हो गए गए हैं,लेकिन बाद में उस पारम्परिक चिकित्सक को किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी गयी और बात आयी-गयी हो गयी . अगर एलोपैथिक डाक्टर सोचते हैं कि उनकी थैरेपी में एड्स लाइलाज है ,तो सरकार को मानवता के हित में इसके इलाज के लिए वैद्यों और हकीमों को , आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक डाक्टरों को आगे लाना चाहिए .
देश में काफी संख्या में इन वैकल्पिक प्रणालियों के मेडिकल कॉलेज चल रहे हैं ,जिन्हें सरकारी मान्यता भी मिली हुई है . एम्.बी.बी.एस. की तरह इनमें भी विश्वविद्यालयों से ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्रियां दी जाती हैं .बी.ए .एम . एस. / बी.एच. एम्. एस. आदि डिग्री धारक भी डाक्टर कहलाते हैं , इनका भी सरकारी पंजीयन होता है . इसके बावजूद लम्बे समय की अपनी गुलाम मानसिकता के कारण हम इन वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों को दोयम दर्जे का मानकर चलते हैं ,जबकि इनमें भी इलाज , अध्ययन और अनुसंधान की काफी गुंजाइश है ,लेकिन आज की कड़वी हकीकत यह है कि बेशरम और बेरहम बाजारवाद के आगे केवल चमकने वाली चीज ही चल सकती है ,पर यह भी सच है कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती ! -- स्वराज्य करुण