क्या आज की पढ़ी-लिखी जनता इतनी नासमझ है कि उसे क्या पढ़ना है और क्या नहीं पढ़ना है, यह किसी अदालत में तय होगा ? दुनिया भर में साक्षरता और शिक्षा तेजी से बढ़ती जा रही है. टेलीफोन , रेडियो, सिनेमा और टेलीविजन जैसे आधुनिक सूचना माध्यमों के विस्तार के बाद अब कम्प्यूटर उपकरणों के साथ मोबाइल फोन और इंटरनेट जैसे अत्याधुनिक संचार माध्यम भी आम जनता के लिए सर्व-सुलभ है . तब वक्त के इस नए दौर में क्या किसी किताब पर प्रतिबंध लगा देने से भर से उस किताब में व्यक्त विचार आम जनता तक नहीं पहुँच पाएंगे ?
विचार भले ही किसी इंसान के मस्तिष्क में जन्म लेते हों , लेकिन समाज में उनका फैलाव हवा की निराकार तरंगों जैसा होता है. हवा को हम नहीं देख पाते केवल उसे अनुभव कर सकते हैं ,ठीक उसी तरह मानव मस्तिष्क से उपजे किसी भी विचार को शब्दों में पढ़कर या सुनकर सिर्फ महसूस किया जा सकता है . यह अलग बात है कि उसे कोई किस रूप में ग्रहण करता है . लेकिन प्रतिबंध लगा देने से कहीं कोई वैचारिक प्रवाह न कभी रुक पाया है और न कभी रुक पाएगा . सैकड़ों-हजारों साल पहले जब ऐसे आधुनिक संचार उपकरण नहीं थे , उस जमाने में भी कई ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना हुई और वे तत्कालीन समाज में विभिन्न माध्यमों से जन-जन तक पहुँची.भारत में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का 'रामचरित मानस ' और संत कबीर के दोहे इसकी जीती-जागती मिसाल हैं, जो भारत की हिन्दी पट्टी में आज भी जन-जन की जुबान पर हैं .
आज दुनिया के सभी देशों में साक्षरता और शिक्षा का काफी प्रसार हो चुका है . पढे-लिखे लोगों की संख्या भी पहले के मुकाबले काफी ज्यादा है .हर पढ़े-लिखे इंसान में अच्छे -बुरे को पहचानने की क्षमता होती है. उसे क्या पढ़ना और क्या नहीं , इसका फैसला भी वह अपने विवेक से कर सकता है. हम भारतीयों के महान सांस्कृतिक ग्रन्थ 'भगवत गीता ' के अनुवाद पर आधारित एक पुस्तक पर रूस में प्रतिबंध लगाने की मांग पर अदालती विवाद वास्तव में आश्चर्यजनक और.दुर्भाग्यजनक है. इस्कॉन के संस्थापक ए. सी. भक्तिवेदांत द्वारा लिखित 'भगवत गीता यथा रूप' के रूसी अनुवाद पर प्रतिबंध के लिए वहाँ साइबेरिया के तोमस्क शहर की अदालत में विगत जून माह से यह मामला चल रहा है .खबर आयी है कि अदालत ने फैसला फिलहाल २८ दिसम्बर तक स्थगित रखा है., लेकिन इस मामले से यह सवाल भी उठने लगा है कि अगर पुस्तक पर पाबंदी लग भी जाए तो क्या उसका महत्व कम हो जाएगा ? ए. सी भक्तिवेदान्त और उनके इस्कॉन के लाखों अनुयायी भारत में भी हैं जो इस पुस्तक को अगर चाहें तो इंटरनेट पर भी जारी कर सकते हैं ,फिर हजारों किलोमीटर दूर देश की कोई अदालत उस पर पाबंदी लगाती रहे ,क्या फर्क पड़ता है ? बताया जाता है कि रूस में तो 'गीता' का पहला अनुवाद लगभग ९५ साल पहले वर्ष १९१६ में आ गया था ,जिसका अनुवाद अन्ना कर्म्न्स्काया ने किया था .जवाहर लाल नेहरु पुरस्कार से सम्मानित लेखक सिम्सोबर्ग ने भी वर्ष १९७८ में 'गीता' का अनुवाद किया था. अब इतने लम्बे अंतराल के बाद ए. सी. भक्तिवेदांत की पुस्तक के बहाने क्या ' भगवत गीता' की मूल पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया जाएगा ,या उसके अनुवाद को, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है . अखबारों में कहीं यह छप रहा है कि रूस में 'गीता' पर पाबंदी लगाने की मांग हो रही है ,तो कहीं बताया जा रहा कि ए. सी भक्तिवेदांत के अनुवाद पर पाबंदी के लिए अदालत में याचिका लगी है . बहरहाल विवाद अभी थमा नहीं है ,लेकिन इससे 'श्रीमद भगवत गीता' की रचना -भूमि ' यानी हमारे भारत में जनता का उद्वेलित होना बहुत स्वाभाविक है. भारतीय संसद में भी इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी है .विदेश मंत्री एस. एम्. कृष्णा ने रूस में चल रहे इस विवाद को घटिया हरकत बताया है ,वहीं भारत स्थित रूस के राजदूत एलेक्जेंडर एम्.कदाकिन ने भी इस पर अपने देश की सरकार की ओर से अफ़सोस जताते हुए कहा है कि यह घटना साइबेरिया के उस विश्वविद्यालय में हुई .जो अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए पहचाना जाता है. रूसी राजदूत ने तो यह भी कहा है कि एक पवित्र ग्रन्थ को लेकर अदालत में मुकदमा चलाना उचित नहीं है. उनका यह भी कहना है कि 'श्रीमद भगवत गीता ' भारत सहित पूरी दुनिया के लिए ज्ञान का स्रोत है .उसे लेकर विवाद खड़ा करना ठीक नहीं है . यह अच्छी बात है कि इस मामले में रूसी सरकार का नज़रिया भी भारत के पक्ष में है .
सच तो यह है कि दुनिया के सभी धर्म ग्रन्थ इंसान को इंसानियत की राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं . हमें सभी धर्मों और सभी धार्मिक ग्रंथों का आदर करना चाहिए .आज भगवत गीता पर रूस में कानूनी विवाद शुरू हुआ है, कल अगर रामायण, महाभारत , बाइबल .कुरआन या अन्य किसी प्राचीन धार्मिक-सांस्कृतिक पुस्तक पर पाबंदी की मांग होने लगे और कोई सिरफिरा दुनिया की किसी अदालत में याचिका दायर कर दे , तब क्या होगा ? सोचकर दहशत होती है . - स्वराज्य करुण
behtreen post...
ReplyDeleteसही, सटीक और सार्थक आलेख ..
ReplyDeleteआपने लिखा है ''मानव मस्तिस्क में उपजे विचार को पढ़कर या सुनकर महसूस किया जा सकता है ,यह अलग बात है उसे कोई किस रूप में ग्रहण करता है ''/ मेरी आशंका यह है कि ' श्री ऐ.सी.भक्तिवेदांत ने ' ने गीता के स्वरुप को किस तरह समझा और और उसका अनुवाद किस रूप में किया है यह किताब को पढ़कर ही जाना जा सकता है / मै मानता हूँ कि कोई सरफिरा इस तरह सस्ती लोकप्रियता या मानसिक विकलांगता के चलते ऐसा कदम उठा सकता है किन्तु अदालत ने इसे संज्ञान में लिया है इसलिए किताब कि विषय वस्तु का परीक्षण आवश्यक है / अगरधार्मिक विद्वेष वश निर्णय लेना होता तो ९५ साल पहले गीता के अनुवाद में यह निर्णय हो जाता / बहरहाल धार्मिक भावनाओ को भड़काने या तिरस्कृत करने का फैसला किसी अदालत को नहीं करनी चाहिए /
ReplyDeleteभारत को कडा प्रतिरोध दर्ज कराना चाहिये....
ReplyDeleteपर पता नहीं रीढ़ विहीन रहनुमाओं द्वारा यह कब किया जायेगा?
सादर.
bilkul sahi kaha hai aapne..badlo ke hone par yadi suraj naa dikhe iska matlab ye nahi kee suraj ka astitva nahi rah gaya..hamare liye ye khusi kee baat hai ki rusion ne hamari geeta padhi hai..manan kiya ..durbhagya hai in murkhon ka jinhe itne mahan adarssh kee itni acchi baat samajh nahi aa ;...sach aaj nah to kas
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