Saturday, April 23, 2011

डकैती और डंके की चोट पर लठैती !

     लगता है  सफेदपोश डकैतों ने अपने-अपने बचाव के लिए अपने-अपने देशों में ऐसा पक्का इंतजाम  करवा लिया है कि उनकी डकैती और लठैती आराम से चलती रहे ! इनमे से एक देश है मेरा भारत महान और दूसरा  है टैक्स-चोर डाकुओं का स्वर्ग स्विटजरलैंड ! जर्मनी भी इसमें भागीदार है. मेरे महान भारत के महान चोर और डाकू अपने ही देश की जनता के खजाने को अदृश्य हाथों से बेरहमी और बेशर्मी से लूटते हैं और उसे स्विस और जर्मन बैंकों के अपने गुप्त खातों में जमा करने के बाद निश्चिन्त होकर दोबारा लूटपाट में लग जाते हैं. बताया जाता है कि चार वर्ष पहले भारत में स्विस बैंक -यूं. बी.एस.  की शाखा खुलने के बाद यहाँ के आर्थिक अपराधियों के नापाक मंसूबों को मानों खुले आकाश में उड़ने के लिए पंख मिल गए हैं. इसके अलावा भी ये देशद्रोही कई अन्य  विदेशी बैंकों में देश की दौलत लूटकर जमा कर रहे हैं, लेकिन पिछले कई वर्षों से स्विस बैंकों की चर्चा ज्यादा होती आ रही है.
        अखबारों में ऐसा छपा है कि  भारत में प्रचलित सूचना का अधिकार क़ानून के तहत एक आवेदक ने केन्द्र सरकार से स्विस बैंकों में जमा भारत के टैक्स चोरों  का ब्यौरा  माँगा ,तो उसे बताने से यह कह कर इनकार कर दिया गया कि भारत और स्विट्ज़रलैंड के बीच दोहरा कराधान बचाव समझौता यानी डबल टैक्सेशन एवाइडेंस एग्रीमेंट (डी .टी .ए.ए .)प्रचलन में है. भारत सरकार समय-समय पर स्विस परिसंघ में भारतीयों के बैंक-खातों का ब्यौरा मांगने का प्रयास करती है , लेकिन स्विस परिसंघ का टैक्स-प्रशासन इस बारे में सूचना देने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर करता है. आवेदक ने भारत के वित्त मंत्रालय से उन लोगों और कंपनियों के नाम पूछे थे , जिन्होंने स्विस-बैंकों में काला धन जमा किया है . मंत्रालय ने साफ़ तौर पर कह दिया कि इस बारे में उसके पास कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है. मंत्रालय ने यह भी कहा कि उसे कुछ सूचनाएं ज़रूर मिली हैं ,पर इन्हें सार्वजनिक करने से जांच-प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होगी ! उसने यह भी कहा कि इन बैंकों में कितना काला धन जमा है, इसके भी कोई प्रामाणिक आंकड़े सरकार के पास नहीं है ! मंत्रालय ने कहा कि स्विस बैंकों के अपने वैध खाते और विशेष नियम हैं . यह तो हुई कल शाम की खबर . अब याद करें सिर्फ करीब ढाई माह पहले इस वर्ष सात फरवरी के अखबारों में छपे एक समाचार को, जिसके अनुसार स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी ने उनके यहाँ जमा काले धन का पता लगाने के लिए भारत को पूर्ण सहयोग का भरोसा दिलाया है ,लेकिन दोनों देश चाहते हैं कि  उनके गोपनीयता क़ानून का भारत सरकार कड़ाई से पालन करे , जिसके तहत जमाकर्ताओं के नामों को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता !समाचारों के मुताबिक़ जर्मन सरकार के अफसरों ने पिछले साल लिंकटेनस्टाइन स्थित एल.जी.टी. बैंक के गोपनीय खातेधारकों के नाम भारत सरकार को बताए थे. ,लेकिन इस तरह की जानकारी को सार्वजनिक करने की मनाही है, इस जानकारी का इस्तेमाल केवल सम्बन्धित अफसरों के शासकीय कार्य के लिए हो सकता है. कुछ इसी तरह की बात स्विस अफसरों ने भी कही .स्विस वित्त मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना था कि जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड में संशोधित टैक्स संधि लागू होने के बाद ऐसी सूचनाएं भारत को दी जा सकेंगी ,लेकिन ये सूचनाएं भी केवल कार्यालयों और अदालतों के उपयोग के लिए होंगी . इसका मतलब साफ़ है कि  कोई संशोधित टैक्स-संधि लागू करने का विचार तो है ,पर इसके लागू होने के बाद भी टैक्स-चोरों के नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकेंगे !  पाक्षिक 'इंडिया टुडे ' के २ फरवरी २०११ के अंक में प्रकाशित विवरण के अनुसार आज़ादी के बाद से अब तक कोई पांच सौ अरब डालर अर्थात बाईस लाख पचास हजार करोड़ रूपए भारत से बाहर ले जाए गए हैं . भारत में काले धन की भूमिगत अर्थ व्यवस्था ६४० अरब डालर की होने का अनुमान है.केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के अध्यक्ष के हवाले से इस खबर में यह भी कहा गया है कि बाईस देशों के साथ सूचना आदान-प्रदान समझौते की बात चल रही है ,तीन देशों के साथ इस दिशा में बात काफी आगे पहुँच गयी है और सबकी आँखों का केन्द्र बने स्विट्ज़रलैंड के साथ यह प्रक्रिया में है. यानी विदेशों में जमा काला धन वापस लाने के लिए भारत ने एक भी कर सूचना विनिमय समझौता नहीं किया है. ! अगर ऐसा कोई समझौता नहीं है तो फिर कल शाम यह खबर क्यों आयी कि भारत सरकार स्विट्जरलैंड के साथ दोहरा कराधान बचाव समझौता लागू होने के कारण स्विस-बैंक के भारतीय खातेधारकों की जानकारी नहीं दे सकती ? ख़बरें काफी गोल-मोल आ रही हैं . केन्द्र के स्तर पर जनता को कुछ भी साफ़-साफ़ नहीं बताया जा रहा है.
    ऐसे में अगर मीडिया में आ रही ख़बरों के आधार पर यह मान लिया जाए कि  भारत ,जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड की  सरकारों ने सारी कवायद  बड़े-बड़े  टैक्स-चोरों अर्थात सफेदपोश डकैतों  को बचाने के लिए की  है, तो शायद गलत नहीं होगा ! ये टैक्स चोर  बड़ी चतुराई से भारत की भोलीभाली जनता की जेबों पर लगभग हर दिन किसी न किसी रूप में डाका डाल रहे हैं ,कभी मंहगाई के रूप में ,तो कभी अस्सी हजार करोड रूपए के कॉमन-वेल्थ खेल घोटाले   और एक लाख ७६ हजार करोड रूपए के टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के रूप में  ! चाहे हसन अली नामक कथित घोड़ा व्यापारी के पचास  हजार करोड की इनकम टैक्स-चोरी  का मामला ही क्यों न हो !आखिर लगातार हो रहे घोटालों और डकैतियों के ज़रिये  जनता के ही खून-पसीने के टैक्स  की राशि उड़ा कर   क्या चोरी छिपे स्विस-बैंकों  और अन्य विदेशी बैंकों में जमा नही किया जा रहा  हैं  ?.   अगर ऐसा नही है तो पारदर्शिता का गाना गाने वाली हमारी बेहद ईमानदार भारत सरकार को इन टैक्स चोरों का नाम-पता बताने में इतना पसीना क्यों आ रहा है ? क्या उस लिस्ट में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्रों के नाम हैं ? चाहे किसी का  भी नाम क्यों न हो, अगर उसने देश को लूटा है , तो क्या देशवासियों को उस लुटेरे के बारे में जानने का अधिकार नही है ? क्या नाम बताने से इसलिए मना किया जा रहा है कि उस अज्ञात काली सूची में बताने वालों के भी नाम शामिल हैं ? यह कैसा क़ानून है , जिसके हाथ अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अपराधियों पर कार्रवाई करने के नाम पर बंध जाते हैं ?यह कैसा समझौता है कि हम अपने देश के मुजरिमों के बारे में दूसरे देश की सरकार या वहाँ की बैंकों से कोई जानकारी हासिल नहीं कर सकते ?
      बताया गया है कि स्विस-बैंकों सहित विदेशी बैंकों में टैक्स-चोर भारतीयों का लगभग दस खरब डालर जमा हैं ! एक डालर  करीब पचास रूपए का होता है. ऐसे में देखा जाए तो भारत की भोली जनता के साथ छल-कपट और गद्दारी करने वालों ने देश का करीब पांच सौ खरब रुपया विदेशी बैंकों में छुपा रखा है. अगर यह काला धन वापस आ जाए और  १२१ करोड तक पहुँच  चुकी भारतीय जनसंख्या में प्रत्येक व्यक्ति को एक अरब रूपए ही दे दिए जाएँ ,तो हर हर भारतीय अरबपति तो हो ही जाएगा !सरकार यह काला धन वापस लाकर जनता में बाँटे या न बाँटे ,  अगर वह इतनी  विशाल धन-राशि का इस्तेमाल जनता के लिए  शिक्षा ,स्वास्थय , बिजली , पानी  सड़क ,सिंचाई और आवास जैसी विभिन्न विकास परियोजनाओं में करे ,तो देश का काया -कल्प हो जाए , अगले कई वर्षों तक भारत  के नागरिकों को किसी प्रकार का टैक्स न देना पड़े और देश में गरीबी और बेरोजगारी का नाम-ओ-निशान भी न रहे  !  लेकिन  ऐसे मामलों में सारे कायदे-क़ानून  अगर डकैतों के बचाव में सीना तान कर खड़े हों , तो इसे ''चोरी और सीनाजोरी ' के साथ-साथ 'डकैती और डंके की चोट पर लठैती ' के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ?
                                                                                                                    -  स्वराज्य करुण                                

2 comments:

  1. जरुर दाल में काला है, चोर चोर मौसेरे भाई।

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  2. आँखें खोल देने वाला आलेख। इस धन राशी के अतिरिक्त जो धार्मिक और समाज सेवी संस्थाओं के पास उद्दोगपतिओं से अनुदान की राशी है उसे भी लोगों मे बाँट देना चाहिये । नही तो यही देश मे अफरातफरी मचाने और और अपने हित साधने मे काम आती है इस अनुदान की लेने और देने की सीमा तय होनी चाहिये । ये भी राशी लोगों की भलाई के काम आ सकती है। आखिर हजारों करोद ये संस्थायें क्यों दबाये बैठी हैं? धन्यवाद।

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