सुबह के धुंधलके में
कडाके की ठंड में .
सायकल पर सरपट भागता
कॉलोनियों के हर मकान तक
पहुंचा रहा है एक लड़का
दुनिया-जहान के दुःख-सुख की
छोटी-बड़ी हर खबर,
अपने दुखों से बेखबर ,
पहुंचा रहा है लोगों के द्वार-द्वार
तरह-तरह के विचार ,
बाँट रहा है वह आज का ताजा अखबार /
मिल जाएंगे कुछ रूपए
माँ -बाप को सहारा देने ,
बहन के इलाज और भाई के स्कूल
की फीस के लिए ,
शायद हो जाएगा इंतजाम अपनी
भी परीक्षा-फीस के लिए /
जाड़े की सुबह के धुंधलके में
लिहाफ की गरमाहट में दुबका
एक लड़का
मम्मी-पापा का लाडला बेटा
सोया है अभी मीठी नींद में ,
खोया है सपनों की रंगीन दुनिया में /
मैं सोचता हूँ -
दोनों में क्यों इतना फर्क है ,
सबके अपने-अपने तर्क हैं /
स्वराज्य करुण
बहुत खूबसूरत और संवेदन शील रचना .
ReplyDeleteसोया सो खोया, जागा सो पाया.
ReplyDeleteपैरों में खड़े और पड़े रहने की कोशिश आगे काम आयेगी शायद !
ReplyDeleteदुनिया-जहान के दुःख-सुख की छोटी-बड़ी हर खबर, अपने दुखों से बेखबर , पहुंचा रहा है लोगों के द्वार-द्वार
ReplyDelete.
pasand aaya aap ka yeh andaaz
सबसे पहले आपसे क्षमा चाहूंगी इतनी देरी से आने के लिए ......व्यस्तता बनी हुई थी इसीलिए नियमित न हो पाई .
ReplyDeleteआर्थिक विषमताओं के परिणामतः जो परिस्थिथितियाँ जन्म लेती है इसके एक बेहद ही भावनात्मक पहलू का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है आपने इस रचना में ...!!!
परिस्थितियां या प्रारब्ध...
ReplyDeleteसच इस फर्क के कई तर्क हैं!
संवेदनशील रचना!