Tuesday, October 3, 2023
(आलेख) डीजे की आफ़त से कब मिलेगी राहत ?
(आलेख -स्वराज्य करुण)
पुरानी कहावत है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं । यह कहावत आज के समय में
डीजे यानी डिस्क-जॉकी नामक साउंड बॉक्स पर भी लागू हो रही है। वह आपसे या हमसे कहीं दूर बज रहा हो तो काफी राहत महसूस होती है ,लेकिन
भयानक दैत्य गर्जना वाले ये बड़े- बड़े गहरे काले रंग के डिब्बे जिस रास्ते से या जिस मोहल्ले से गुजरते हैं , जिन घरों के नज़दीक से गुजरते हैं , वहाँ के सीधे-सादे शांतिप्रिय नागरिक और उनके परिवार त्राहिमाम -त्राहिमाम करते हुए अपने कान बन्द करने को मज़बूर हो जाते हैं । उनके घरों के बर्तन तक झनझनाने लगते हैं,खिड़कियाँ काँपने लगती हैं। ऐसा लगता है ,मानो कोई भूचाल आ गया है!
हालांकि सड़कों पर जुलूसों में यह धमाल कुछ देर तक ही मचता है , लेकिन अगर कोई जुलूस कई किलोमीटर लम्बा हो और किसी के घर के आसपास यह धमाल घंटों तक जोर -जोर से होता रहे तो? ऐसे में उन सड़कों के दोनों किनारों के दुकानदार और घरों में रहने वाले लोग सोचते हैं कि शोरगुल की यह आफ़त कब टले तो राहत मिले और हम चैन से बैठ सकें , अपने अपने काम कर सकें या आराम से सो सकें। लेकिन कई बार किसी आयोजन में देर रात तक डीजे बजता रहता है। उसके इर्दगिर्द के घरों के लोग उस व्यक्ति को कोसने लगते हैं ,जिसने उनका का सुख-चैन खत्म करने के लिए इस आफ़त का आविष्कार किया!
पारम्परिक लाउडस्पीकरों से बजने वाले गीत -संगीत कर्णभेदी नहीं ,बल्कि कर्णप्रिय हुआ करते थे , उन सामान्य लाउडस्पीकरों से (माइक पर ) वक़्ता कई सार्वजनिक सभाओं को भी आराम से संबोधित कर लेते थे। हालांकि इन लाउडस्पीकरों से प्रसारित ध्वनियों से भी शोर मचता था ,लेकिन इस वह डीजे की तरह उतना भयंकर नहीं होता था।लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि लाउडस्पीकरों को धता बताते हुए उनकी दुकानों पर डीजे नामक दानवी शोर मचाने वाले इन बक्सों ने कब्जा जमा लिया है।
डीजे बक्सों से होने वाला यह कर्णभेदी ध्वनि प्रदूषण शहरों से दौड़ते हुए अब कस्बों और गाँवों तक भी पहुँच गया है। बारातों सहित तरह-तरह के सामाजिक -सांस्कृतिक-धार्मिक जलसों और जुलूसों में इनका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। लोग वाहनों में एक साथ कई -कई डीजे बॉक्स लगवाकर इतना शोर मचवाते हैं कि कान के पर्दे फट सकते हैं और हॄदय रोगियों तथा नन्हें बच्चों के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुँच सकता है। गाहेबगाहे ऐसी ख़बरें आती भी रहती हैं ।
यह भी सुनने में आता है कि ऐसे प्राणघातक साउंड बॉक्स में गगनभेदी और दिल दहला देने वाले संगीत की धुनों पर आड़े-टेढ़े नाचने वाले कुछ लोग नशे की हालत में धमाल मचाते रहते हैं । उनके आस-पास से गुजरने वाले राहगीर और कामकाजी लोग परेशान होते रहते हैं। ऐसा भी सुनने को मिलता है कि इन डीजे वालों के रास्ते में संयोगवश आने -जाने वाले सामान्य नागरिक अपनी गाड़ियों के लिए कुछ साइड मांगने पर उनसे बदसलूकी भी की जाती है। डीजे के साउंड बक्सों का कुछ घंटों का किराया ही कई -कई हजार रुपयों का होता है और कहीं-कहीं आयोजक-प्रायोजक लोग लाखों रुपए भी खर्च कर देते हैं। सिर्फ़ कुछ देर के आनंद के लिए यह एक तरह की निर्मम फ़िज़ूलखर्ची नहीं तो और क्या है?।
देश में पहले स्कूल -कॉलेजों की परीक्षाओं के मौसम में कोलाहल नियंत्रण अधिनियम के तहत ध्वनिविस्तारक यंत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था ,ताकि विद्यार्थी शांतिपूर्ण माहौल में पढ़ाई करते हुए परीक्षा की तैयारी कर सकें । इस अधिनियम को सिर्फ़ परीक्षाओं के दिनों में ही नहीं ,बल्कि हमेशा लागू रहना चाहिए। मेरी अल्प जानकारी के अनुसार ध्वनि मापन का पैमाना डेसिबल है। शायद नियम ,अधिनियम भी बने हुए हैं कि एक निश्चित डेसिबल से ज़्यादा ध्वनि नहीं की जानी चाहिए ,लेकिन ....?
विभिन्न प्रकार के जुलूसों की गाड़ियों में एक साथ बहुत सारे डीजे बॉक्स क्यों लगना चाहिए ?क्या एक या दो डीजे बॉक्स लगाने से काम नहीं चल सकता ? इससे ध्वनि प्रदूषण रुकेगा तो नहीं लेकिन शायद काफी हद तक कम हो जाएगा। इस बारे में सोचा जाना चाहिए।
आलेख -स्वराज करुण
(फोटो - इंटरनेट से साभार)
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