(आलेख : स्वराज करुण)
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धरती पर जीवन भी तब तक है जब तक हरे -भरे वन हैं। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में तीव्र शहरीकरण और बेतहाशा और बेतरतीब औद्योगिक विकास की वजह से जंगल कट रहे हैं और हमारी नैसर्गिक दुनिया उजड़ रही है। उसके बदले जो दुनिया बन रही है ,वह प्राकृतिक नहीं ,बनावटी है। फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग की समस्या हमारे सामने है। हर साल 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है । इस मौके पर वनों की रक्षा और उनके विस्तार में आ रही समस्याओं और चुनौतियों के बारे में गंभीरता से विचार करना बहुत जरूरी है। वनों का हरा -भरा नैसर्गिक सौन्दर्य सबको आकर्षित करता है , लेकिन सवाल यह है कि उनकी सुरक्षा की चिन्ता कितने लोग करते हैं ? इन दिनों वसंत के इस फागुनी मौसम में सड़कों के किनारे के जंगलों में किंशुक यानी पलाश (टेसू )के खिलते लाल सुर्ख़ फूल हर आने जाने वाले के मन को लुभा रहे हैं।
लेकिन ऐसे लुभावने दृश्य अब कहीं -कहीं पर ही बाकी रह गए हैं। सड़कों के चौड़ीकरण और नई सड़कों के निर्माण के लिए उनके दोनों किनारों के प्राकृतिक पेड़ों की कटाई करनी पड़ती है। इस वजह से बड़ी संख्या में पलाश जैसे कई उपयोगी वृक्ष कट जाते हैं। उनके स्थान पर उन्हीं सड़कों के किनारे नये पेड़ लगाने के लिए सुरक्षित तरीके से सघन पौध रोपण किया जाना चाहिए। वरना पलाश जैसे कई ख़ूबसूरत वृक्षों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएंगी। यह दृश्य छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले के अंतर्गत महासमुन्द -बागबाहरा मार्ग का है।
वर्तमान में कहीं बेमौसम बारिश तो कभी मानसून की बेरुख़ी सम्पूर्ण विश्व को परेशान कर रही है ।कहीं बड़ी -बड़ी फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकलते धुएँ से हवा दूषित हो रही है तो उनके जहरीले पानी से नदियाँ गंभीर रूप से बीमार हो रही हैं। कहीं परमाणु परीक्षणों से होने वाले विषैले विकिरणों से और कहीं दुनिया के कुछ देशों में चल रही भयंकर लड़ाइयों में बमों और मिसाइलों के पागलपन भरे इस्तेमाल से भी धरती का वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है। इन सब प्रदूषणों का दुष्प्रभाव दुनिया के हरे -भरे वनों पर भी पड़ रहा है। इंसानी आबादी बढ़ रही है। इसके फलस्वरूप मानवीय जरूरतों के लिए वनों पर भी इस आबादी का दबाव बढ़ रहा है।
वनों की अंधाधुंध कटाई से वन्य प्राणियों का जीवन भी संकट में पड़ता जा रहा है। उनके लिए चारे और पानी का संकट बढ़ रहा है। इसे हम अपने देश में भी महसूस कर सकते हैं। प्राकृतिक वनों के असंतुलित दोहन से वन्य जीवों का वहाँ रहना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। इस वजह से वो भोजन और पानी की तलाश में गाँवों और शहरों तक पहुँच रहे हैं। देश के कई इलाकों में हाथियों ,भालुओं और बंदरों का मानव -बस्तियों में आकर फसलों और कच्चे मकानों को नुकसान पहुँचाना चिन्ताजनक है। कई बार जंगली हाथियों के झुण्ड ग्रामीणों की जान के दुश्मन बन जाते हैं। अगर इन इलाकों में सघन वन होते तो शायद इन जंगली जानवरों को मनुष्यों की बसाहटों में ख़तरनाक ढंग से दस्तक नहीं देनी पड़ती। मानव आबादी वाले इलाकों में लोग अब बंदरों का उत्पात झेलने के भी अभ्यस्त हो चुके हैं।
स्वच्छ हवा , स्वच्छ पानी और बहुमूल्य वनौषधियों सहित वनों के हम पर ढेरों एहसान हैं। इसलिए वनों को उजाड़ कर हमें एहसानफरामोश नहीं बनना चाहिए । वनौषधियों की बात चली तो हमें सोचना चाहिए कि कोरोना सहित कई बीमारियों से बचाव के लिए भी वनों में दवाइयों की संभावनाओं को खँगाला जा सकता है । आयुर्वेद ,होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में जिन दवाइयों का इस्तेमाल होता है , उनका मुख्य स्रोत कई तरह के पेड़ -पौधे ही होते हैं।वनों का संरक्षण और विस्तार होगा तो इन पद्धतियों के तहत चिकित्सा अनुसंधान और दवाइयों के उत्पादन के लिए भी एक अच्छा वातावरण बनेगा । वन क्षेत्रों के आस -पास के गाँवों में रहने वाले लोग शहरी इलाकों के लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ रहते हैं। यह भी चिकित्सा वैज्ञानिकों के लिए रिसर्च का विषय हो सकता है।
आपने ध्यान दिया होगा कि देश के कई राज्यों में हर साल गर्मी के मौसम में वनों में आग लग जाती है। कई बार तो यह आग पहाड़ियों में भी धधकने लगती है।कभी वनों के रास्ते गुजरते मुसाफिरों द्वारा बीड़ी ,सिगरेट के अधजले टुकड़े लापरवाही से फेंक देने के कारण और कभी महुआ बीनने वाले ग्रामीणों द्वारा भालू आदि वन्य जीवों को दूर रखने के लिए सूखे पत्तों को बेतरतीबी से जलाने के कारण वनों में आग फैल जाती है। कभी जंगलों की अवैध कटाई करने वाले लकड़ी तस्कर जानबूझकर वनों में आग सुलगा देते हैं। कभी सड़क निर्माण सहित कई अन्य विकास परियोजनाओं के लिए और उद्योगों के लिए आधिकारिक रूप से वनों की कटाई की जाती है। जितने वन काटे जाते हैं ,उनकी भरपाई के लिए राष्ट्रीय स्तर पर क्षति पूर्ति पौध रोपण की भी योजना है ,लेकिन काटे गए चालीस -पचास साल और सौ -सौ साल पुराने पेड़ों की तुलना में भरपाई के लिए जो पौधे लगाए जाते हैं ,उनके वृक्ष बनने में भी कई साल लग जाते हैं। इसके अलावा इन पौधों की अगर बेहतर देखभाल नहीं हुई तो ये असमय ही मौत का शिकार हो जाते हैं।।
हालांकि भारत सरकार सहित सभी राज्य सरकारें वनों की रक्षा और उनके विकास के लिए सजग और सक्रिय रहती हैं। वन संरक्षण के कई अच्छे प्रोजेक्ट भी चल रहे हैं । लेकिन जब तक सबकी भागीदारी नहीं होगी , किसी भी योजना अथवा परियोजना को कोई भी सरकार अकेले नहीं चला सकती । उसमें जनता का सहयोग भी जरूरी होता है।।
अक्सर देखा जाता है कि वन विभाग हर साल बारिश के मौसम में वन महोत्सवों का आयोजन करके आम जनता और स्कूल -कॉलेजों के विद्यार्थियों की भागीदारी से करोड़ों पौधे लगवाता है ,लेकिन नियमित देखरेख नहीं होने के कारण ये पौधे कुम्हलाकर धरती में समा जाते हैं या फिर लावारिस गाय -बैलों और बकरे -बकरियों का भोजन बन जाते हैं।
भारत सरकार की संयुक्त वन प्रबंधन योजना भी एक अच्छी योजना है। इसके तहत देश के सभी प्रांतों में राज्य सरकारों ने ग्रामीणों की भागीदारी से वन प्रबंध समितियों का गठन किया है। इनमें लाखों -करोड़ों ग्रामीण जन सदस्य के रूप में शामिल हैं। इन समितियों पर भी वनों की देखभाल की ज़िम्मेदारी है। सरकार भी इनकी मदद करती है। जहाँ ये समितियाँ जागरूक हैं,वहाँ वनों का प्रबंधन बेहतर ढंग से हो रहा है ।कई इलाकों की वन समितियों में वनौषधियों का भी उत्पादन हो रहा है
विगत कुछ वर्षों में अमेरिका ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना और ब्राजील के प्राकृतिक वनों में आग से हज़ारों वर्ग किलोमीटर के दायरे में वनों को भयानक नुकसान हो चुका है । पता नहीं किसकी लापरवाही से यह नुकसान हुआ ? बहरहाल , उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया के सभी देश इस बारे में गंभीरता से विचार करेंगे ,सबके प्रयासों से धरती पर वनों का विनाश रुकेगा और हमारे वनों , वन्य प्राणियों और हम मनुष्यों का जीवन फिर से हरा -भरा होगा ।
--- स्वराज करुण
(पत्रकार एवं ब्लॉगर )
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-03-2022) को चर्चा मंच "कवि कुछ ऐसा करिये गान" (चर्चा-अंक 4378) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'