(आलेख : स्वराज करुण)
आज मैं बहुत दुःख के साथ आप लोगों को एक मरते हुए तालाब की कहानी बताने जा रहा हूँ ,जो सामाजिक उपेक्षा और प्रदूषण की वजह से अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।आप कह सकते हैं कि जब देश की राजधानी दिल्ली में भारत की सांस्कृतिक नदी यमुना भयानक प्रदूषण का शिकार हो चुकी है , तब ऐसे में वहाँ से हजारों किलोमीटर दूर किसी तालाब की फ़िक्र कौन करे ?आख़िर गंगा मैया भी तो प्रदूषण का दर्द झेल रही है ।
लेकिन अगर हमें अपना जीवन बचाना है तो अपने देश की नदियों के साथ -साथ तालाबों का जीवन बचाने के बारे में भी सोचना तो पड़ेगा । गाँवों और शहरों में तालाबों को कभी जन -जीवन का जरूरी हिस्सा माना जाता था। लेकिन अब कई जगहों में उनके अस्तित्व पर ही संकट मंडराने लगा है। कारण यह है कि आधुनिक जीवन शैली का तो विस्तार हो रहा है ,लेकिन जन -चेतना विलुप्त हो रही है। सामाजिक ज़िम्मेदारी की भावना ख़त्म होती जा रही है।
विशेष रूप से कस्बों और शहरों की अपनी बसाहटों का हर दिन का कचरा और गंदा पानी डाल -डाल कर मनुष्य अपने तालाबों का अस्तित्व मिटाता जा रहा है। छत्तीसगढ़ का तहसील मुख्यालय पिथौरा कभी एक छोटा गाँव हुआ करता था , बढ़ती आबादी के।कारण अब यह नगर पंचायत है। हो सकता है कि कल यह नगर पालिका बन जाए। साफ पानी की जरूरत तो उस समय भी सबको होगी।
यहाँ कभी लाखागढ़ का तालाब ग्रामीणों की निस्तारी का प्रमुख जरिया था । लाखागढ़ अब एक अलग ग्राम पंचायत है।वर्षों पहले इस तालाब के किनारे खूब रौनक रहती थी। लाखागढ़ और पिथौरा बस्ती के लोग इसकी पचरी पर आते ,इत्मीनान से बैठते ,एक दूसरे का हालचाल पूछते ,बतियाते और इसके स्वच्छ जल में डुबकियाँ लगाकर नहाने के बाद अपनी दिनचर्या शुरू करते।
इसके किनारे कभी मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता था ,जो अब फोर लेन बन जाने के बाद यहाँ से शिफ़्ट होकर कस्बे के बाहर चला गया है। जब राष्ट्रीय राजमार्ग इधर होता था ,तब अन्तर्राज्यीय माल परिवहन में लगी बड़ी -बड़ी ट्रकों के ड्राइवर और खलासी भी इस सरोवर के किनारे कुछ देर बैठकर ,नहाकर अपनी थकान मिटाते और अगले पड़ाव के लिए चल पड़ते थे। इसके उत्तर और दक्षिण ,दोनों किनारों पर खूब चहल -पहल रहती थी।चिन्ता की बात है कि अब तो इसका अस्तित्व भी विभाजित हो गया है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि ग्राम पंचायत लाखागढ़ के किसी पूर्व सरपंच ने कुछ साल पहले तालाब को दो टुकड़ों में बँटवा दिया। एक हिस्सा लाखागढ़ की तरफ और दूसरा पिथौरा की तरफ। तालाब विभाजन का कोई ठोस कारण कोई नहीं जानता अब यह अपने सुनहरे दिनों को याद करते हुए अपनी बदहाली और बदकिस्मती पर आँसू बहा रहा है। प्रदूषण की संक्रामक बीमारी ने इसे अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। इसके प्राण बचाने के लिए सही उपचार की जरूरत है।
सामूहिक श्रमदान इसका एक अच्छा इलाज हो सकता है । सब मिलकर इसकी सफाई कर सकते हैं। इसके किनारों पर अनुपयोगी प्लास्टिक ,पॉलिथीन और घरों का कूड़ा कचरा डालना बन्द हो , सार्वजनिक नालियों का गंदा पानी इसमें डालना बन्द किया जाए और इसके किनारों पर उगे झाड़ -झंखाड़ और इसके पानी में फैली जलकुंभियों को जड़ सहित हटाया जाए ,तब कहीं इसके सुनहरे दिन वापस आ सकते हैं।
लेकिन आर्थिक सभ्यता के इस दौर में जब श्रमदान की परम्परा ही समाज से विलुप्त होती जा रही है । तब किसी तालाब के अस्तित्व को विलुप्त होने से भला कौन रोक सकता है ? फिर भी कुछ जाग्रत लोग पहल करें तो बात बन सकती है। - स्वराज करुण
(दोनों तस्वीरें : मेरे मोबाइल की आँखों से )
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१८-११-२०२१) को
' भगवान थे !'(चर्चा अंक-४२५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अनीता जी । बहुत -बहुत धन्यवाद ।
ReplyDeleteअनीता जी । बहुत -बहुत धन्यवाद ।
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