Sunday, August 27, 2017

(व्यंग्य रचना) वाह रे मैं ...!

           लोग अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी महत्वपूर्ण ओहदे को प्राप्त करते हैं , पदोन्नत हो जाते हैं , कोई नई कुर्सी मिल जाती है , किसी ने अपने लेटरपैड के पन्ने पर किसी को किसी संस्था का  पदाधिकारी बना दिया , बिल्ली के भाग्य से कोई ईनाम किसी की झोली में टपक पड़ा , तो ऐसे स्वयंभू महान लोग अपने  फोटो के साथ अख़बारों में अपनी तारीफ़ खुद छपवाते हैं । अपना महिमा मंडन खुद करते हैं !
            पहले तो वे अपनी कथित सफलता का बखान करते हुए अखबारों को निःशुल्क प्रकाशन के लिए प्रेस विज्ञप्ति भिजवाते हैं और अगर प्रेस विज्ञप्ति नहीं छपी  या  अखबारों ने उसे सम्पादित करके छोटा -सा समाचार दे दिया तो  उनकी भूख शांत नहीं होती ! फिर वे तरह -तरह के विज्ञापन माध्यमों का सहारा लेते हैं ! अगर नेता किस्म के हुए तो विज्ञापनों के लिए वे किसी धनपशु को पटा कर उसे विज्ञापन का प्रायोजक लेते हैं !
            समाज के हर क्षेत्र के लोग इस व्याधि से संक्रमित होते जा रहे हैं । सोशल मीडिया ने तो उन्हें मुफ़्त में खुद के प्रचार का एक सर्व सुलभ मंच दे दिया है । आत्म प्रचार की बीमारी का वायरस उनकी तोपचन्दी को दूर - दूर तक वायरल कर देता है । इतने में भी प्रचार की भूख नहीं मिटती तो अपने जन्म दिन पर ,या अपनी किसी व्यक्तिगत कामयाबी  पर स्थानीय अख़बारों में अपने यार - दोस्तों की छोटी - छोटी और अपनी एक बड़ी - सी आदमकद फोटो के साथ बड़े - बड़े इश्तहार छपवाकर या फ्लेक्स और होर्डिंग्स लगवाकर अपनी तारीफ़ का ढिंढोरा पीटते हैं । पैसे खर्च कर अपनी पीठ खुद थपथपाते हैं ! अखबारों में अपने प्रचारात्मक विज्ञापन और उसमें अपनी हँसती -मुस्कुराती तस्वीर देख-देख कर खुद आल्हादित होते रहते हैं ! वे अच्छी तरह जानते हैं कि नेता बनने की प्रारंभिक प्रक्रिया यहीं से शुरू होती है !
          अब तो स्थानीय टेलीविजन चैनलों में भी इस प्रकार के आत्म प्रचारात्मक विज्ञापन प्रदर्शित होने लगे हैं , जिन्हें डिस्प्ले बिलबोर्ड कहा जाता है । होना यह चाहिए कि प्रचार प्रियता और छपास के रोगी  ऐसे लोग अपनी तारीफ़ खुद न छपवाएं , कोई दूसरा व्यक्ति स्वप्रेरणा से उनकी तारीफ़ लिखे और छपवाए , तब तो कोई बात है । अपनी ही पीठ खुद थपथपाकर खुद को शाबाशी देना कहाँ तक उचित है ? आईने के सामने खड़े हो जाना और कहना - वाह रे मैं ...!   - स्वराज करुण

Saturday, August 26, 2017

भगवान् भी भौचक रह गया होगा !

      उस आदमी ने खुद को भगवान का संदेशवाहक यानी मैसेंजर ऑफ गौड़  घोषित कर रखा था .इस नाम से साल-दो साल पहले उसकी एक फिल्म भी आई थी , जिसके माध्यम से स्वयं को भगवान का मैसेंजर बताने के लिए उसने फिल्म के प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रूपए खर्च किए थे , लेकिन आज जब उसके अंधभक्तों की अराजक और असामाजिक फ़ौज की बेशर्म गुंडागर्दी से उसकी जो हिंसक छवि उजागर हुई , उसे देखकर शायद भगवान भी अगर कहीं होगा तो  भौचक रह गया होगा !  क्या उसे भगवान ने यह संदेश देकर भेजा था कि उसके चेले-चपाटे मिलकर भारतीय संविधान और कानून का खुलकर मजाक उडाएं और अपने गुरु के पक्ष में फैसला देने के लिए न्यायपालिका पर  हिंसक दबाव डालें ? एक तरफ तो आज पूरे देश में सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरुआत हुई ,वहीँ दूसरी ओर एक मुखौटेबाज के अपराध पर पर्दा डालने के लिए उसके समर्थकों ने हिंसा का ऐसा खूनी खेल शुरू कर दिया ,जिसके चलते गणेश उत्सव का उत्साह फीका पड़ गया .

          बात चल रही है 'डेरा झूठा सौदा ' के उस खूंखार खलनायक के बारे में ,जिसने अब तक राम और रहीम का मुखौटा पहन रखा था ,लेकिन आज उसका  यह मुखौटा भी उतर गया उस पर १५ साल पहले उसके ही आश्रम की दो साध्वियों ने बलात्कार का आरोप लगाया था और तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी को गुमनाम चिट्ठी भेजकर अपनी वेदना बताई थी . प्रधानमन्त्री ने तत्काल उस पत्र का संज्ञान लिया और जांच के आदेश दिए . सी. बी. आई जांच हुई .मामला उसकी विशेष अदालत में गया ,हरियाणा के पंचकुला में सी.बी.आई की विशेष अदालत ने आज यह फैसला दिया कि यह कथित बाबा बलात्कार का दोषी पाया गया है और सजा २८ अगस्त को सुनाई जाएगी . तब भी उसे अपने को निर्दोष साबित करने के लिए ऊपरी अदालत में अपील करने का अधिकार रहेगा ,लेकिन  आज शुक्रवार को उसके दोषी साबित होने के  फैसले को सुनते ही इस ढोंगी बाबा के हजारों समर्थकों ने पंचकुला और सिरसा में हिंसा का तांडव शुरू कर दिया . इस बाबा पर एक संगीन आरोप यह भी है कि उसने अपने आश्रम की पोल खोलने वाले एक पत्रकार की हत्या करवा दी . आश्रम मैनेजर की हत्या का आरोप भी इस ढोंगी पर लगाया गया है .हालांकि आज का  फैसला बलात्कार के आरोप पर आया है .


              गौरतलब है कि इसके ठीक दो  दिन पहले बाबा के इन भक्तों में से बहुतों ने  न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने खुले आम यह कहा था कि हमारे बाबा पर कोई कार्रवाई हुई तो हम खून की नदियाँ बहा देंगे . आज उन लोगों ने इसे सच साबित कर दिखाया . उन लोगों ने . हरियाणा , पंजाब , दिल्ली ,उत्तरप्रदेश और झारखंड में खुल्लमखुल्ला खूनी उपद्रव मचाया . हरियाणा के सिरसा में इस डेरा झूठा सौदा का मुख्यालय है . वहां भी जमकर उपद्रव हुआ . पंचकुला भी हरियाणा में है .वहां तो जैसे ही बाबा को दोषी करार दिए जाने की खबर आई . पहले से जमकर बैठे उसके हजारों अनुयायी  सरकारी दफ्तरों ,सरकारी और निजी गाड़ियों को आग लगाने लगे .मीडिया कर्मियों पर प्राणघातक हमले किए गए . रेलगाड़ियों में आगजनी की गयी .वे पेट्रोल बमों से भी हमले कर रहे थे .खबर तो यह ही आई कि  ये अंधभक्त हाथों में पेट्रोल बम लेकर पंचकुला की उस अदालत की तरफ बढ़ रहे थे , जहां आज फैसला सुनाया गया था .देश के शांतिप्रिय नागरिक  एक बड़ा ही गंभीर सवाल उठा रहे हैं .वे कहने लगे हैं- - यह कैसी विडम्बना है कि आज से सिर्फ पांच साल पहले जब दिल्ली में निर्भया काण्ड हुआ था ,तो बलात्कारियों को दण्डित करने की मांग को लेकर दिल्ली की सडकों पर जन-सैलाब उमड़  पड़ा था,वह शांतिपूर्ण जन सैलाब था लेकिन सिर्फ पांच साल के भीतर वक्त ने ऐसा पल्टा खाया कि आज वैसा ही जन-सैलाब एक बलात्कारी के बचाव के लिए  खड़ा दिखाई दे रहा है ,पर यह एक  हिसंक और अराजक भीड़ है !. आश्चर्य इस बात का है कि आज सवेरे तक  न्यूज चैनलों को बाबा के यही अंधभक्त यह बयान दे रहे थे कि हम लोग हरियाणा और पंजाब के विभिन्न इलाकों से यहाँ सिर्फ बाबा के दर्शन करने आए हैं .हम शांति बनाए रखेंगे .ऐसे में उनके हाथों में पेट्रोल बम कहाँ से आ गया ,  तलवार कहाँ से आ गयी ? इस स्वयं भू बाबा को अदालत ने अपराह्न दोषी करार दिया और देखते ही देखते शाम तक उसके चेलों की हिसंक गतिविधियाँ हरियाणा ,पंजाब ,दिल्ली , सहित पांच राज्यों में फ़ैल गई .क्या इससे यह साबित नहीं होता कि यह सब पूर्व नियोजित साजिश के  तहत और इस ढोंगी संत के इशारे पर हुआ ?
    इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यानी शुक्रवार देर रात  ग्यारह बजे तक टीवी खबरों के अनुसार चंद घंटों की इस हिंसा में लगभग तीस नागरिक  मारे जा चुके हैं और ढाई सौ से ज्यादा घायल हुए हैं. सम्पूर्ण घटनाचक्र को देखें तो पुलिस और सुरक्षा बलों ने काफी संयम और धैर्य का परिचय दिया और काफी समय तक वे उपद्रवी भीड़ पर गोली चलाने से बचते रहे ,लेकिन उपद्रव अगर चरम पर पहुँच जाए तो सरकारी सम्पत्ति और जनता के जान-माल की रक्षा के लिए  उन्हें अपना कर्त्तव्य निभाना पड़ता है .  हिंसा पर उतारू भीड़ ने पुलिस कर्मियों पर कश्मीरी अलगाववादियों की तर्ज पर पत्थरबाजी की .  फिर भी पुलिस ने धीरज का परिचय दिया .लेकिन एक बात परेशान करने वाली है कि जब  धारा १४४ लगी हुई थी और डेरा समर्थकों की भीड़ हरियाणा और पंजाब के विभिन्न इलाकों से पंचकुला आ रही थी तो उसे बीच रास्ते में ही रोका क्यों नहीं गया ? इस बीच पंजाब-हरियाणा है कोर्ट ने आदेश दिया है कि कथित बाबा के समर्थकों द्वारा की गई हिंसा में जितनी भी सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा है ,उसकी भरपाई इस बाबा की सम्पत्ति में से की जाए !हाई कोर्ट का यह आदेश स्वागत योग्य है . लेकिन देखना यह है कि पंचकुला की विशेष अदालत में जब २८ अगस्त को सजा सुनाई जाएगी ,तब इस बाबा के भक्तों का क्या रुख रहेगा ?  एक सवाल यह भी उठ रहा है कि यह ढोंगी बाबा कहीं 'भिंडरावाले' का कोई नया संस्करण तो नहीं ?
                                                                      -स्वराज करुण
              

Friday, August 25, 2017

सार्वजनिक गणेशोत्सव और तिलक जी

      सार्वजनिक गणेश उत्सवों के कितने आयोजकों को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की याद आती है ? क्या उन्हें मालूम है कि आधुनिक भारत में यह सांस्कृतिक परम्परा महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तिलक जी की देन है ? उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में देशवासियो को अधिक से अधिक संख्या में जोड़ने के लिए पुणे (महाराष्ट्र ) में सन् 1893 - 94 में इसकी शुरुआत की थी ।
                                                                                         (चित्र सौजन्य Google )
         गणेश उत्सवों में एकत्रित होने वाले भक्तों के बीच राष्ट्रीय एकता के साथ देशभक्ति का संचार करना, भारतीयों के दिलों से अंग्रेजी हुकूमत के काले कानूनों का खौफ दूर करना  उनका मुख्य उद्देश्य था । आज उनकी इस महान परम्परा के लगभग सवा सौ साल पूरे हो रहे हैं ।पहले यह परम्परा लोगों के घरों तक सीमित रहा करती थी .तिलक जी ने महाराष्ट्र में इसे सामाजिक और सार्वजनिक विस्तार देकर आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ा . इतना ही नहीं ,बल्कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के अपने अभिन्न सहयोगियों- विपिन चन्द्र पाल और अरविंदो घोष को बंगाल में सार्वजनिक दुर्गोत्सव शुरू करने की प्रेरणा दी . इस प्रकार सामूहिक गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा को राष्ट्रीय स्वरुप मिला .पश्चिमी भारत में गणेशोत्सव और पूर्वी भारत में दुर्गोत्सव  देखते ही देखते सम्पूर्ण भारत के लोक महोत्सव बन गए . इन आयोजनों के माध्यम से भारतीयों को भावनात्मक रूप से एक-दूसरे के नजदीक आने और आज़ादी के आन्दोलन के लिए संगठित होने का मौक़ा मिला .
                                                                                (चित्र सौजन्य -Google)
                देश में भाद्र शुक्ल चतुर्थी से सार्वजनिक गणेश उत्सवों का श्री गणेश हो गया  है . स्थानीय परम्पराओं के अनुसार कहीं तीन दिन ,कहीं पांच दिन और कहीं दस दिन  तक गणेश पूजन की धूम रहती है . इस पावन अवसर पर तिलक जी की याद आना स्वाभाविक है . उन्होंने राष्ट्र-प्रेम की जिस पवित्र भावना से इस महान परम्परा का शुभारंभ किया था , आशा है कि यह आगे भी जारी रहेगी . सार्वजनिक गणेश उत्सवों के आयोजकों से हमारा यह आग्रह रहेगा कि वे इस ऐतिहासिक परम्परा के संस्थापक तिलक जी को भी जरूर याद रखें और कुछ ऐसा करें कि गणेश पंडालों में आने वाले भक्तों की वर्तमान पीढ़ी को उनके बारे में भी जानकारी मिल सके ।
    प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं - हमने अपने बचपन में देखा है कि हमारे स्कूल में भी सार्वजनिक गणेश उत्सव मनाया जाता था । तरह - तरह की झाँकियाँ सजाई जाती थीं । गणेशजी की छत्रछाया में और अध्यापकों के मार्गदर्शन में बच्चों के लिए कई रचनात्मक प्रतियोगिताएँ भी हुआ करती थी ,जैसे - तात्कालिक भाषण , वाद -विवाद , कविता पाठ, चित्रकला आदि । कई बार नाटक भी खेले जाते थे । कबड्डी ,खो - खो जैसे कुछ पारम्परिक खेलों का भी आयोजन हो जाता था । स्थानीय नागरिकों के सहयोग से पुरस्कार भी दिए जाते थे । यह कोई तीस - पैंतीस या अधिक से अधिक चालीस - बयालिस साल पुरानी बात होगी । ।
         तब समाज में आज की तरह संकीर्ण मानसिकता हावी नहीं थी । सभी धर्मों और समाजों के बच्चे और नागरिक इन आयोजनों में उत्साह के साथ शामिल होते थे । समाज की मानसिकता बदले तो आज भी ऐसा हो  सकता है । बहरहाल सभी मित्रों को गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई और स्नेहिल शुभेच्छाएँ                                                                                                       -  स्वराज करुण

Thursday, August 24, 2017

मौत के सौदागरों को कारोबार की आज़ादी ?

जहर है ,जानलेवा है ,फिर भी उन्हें खुलेआम बेचा जा रहा है ! प्राइवेट टेलीविजन चैनलों में धड़ल्ले से उनके विज्ञापन भी दिखाए जा रहे हैं । राजश्री पान मसाला ,विमल पान पराग और मैकडोनॉल्ड सोडा यानी शराब के विज्ञापन बड़ी बेशर्मी से प्रसारित किए जा रहे हैं !
           ऐसे तमाम जहरीले प्रोडक्ट्स पैकेटों में या बोतलों  में एकदम छोटे अक्षरों में कथित वैधानिक चेतावनी प्रिंट कर दी जाती है कि इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है । ऐसा लिखकर इनके मुनाफाखोर उत्पादनकर्ता कानूनी पचड़े से बच जाते हैं ,लेकिन सवाल ये है कि जब इन पर यह चेतावनी प्रिंट की गई है कि ये वस्तुएं सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकती हैं तो इनका उत्पादन क्यों हो रहा है और इन्हें बाज़ार में बेचा ही क्यों जा रहा है और प्राइवेट टेलिविजनों में इनके विज्ञापन दिखाकर लोगों को इन्हें खरीदने के लिए क्यों ललचाया जा रहा है ? मौत का सामान बेचकर ऐसे लोग क्या आम जनता से गद्दारी नहीं कर रहे हैं ?
      जनता की जिन्दगी से मानसिक खिलवाड़ करने वाले ऐसे भ्रामक और घातक विज्ञापनों पर तत्काल रोक लगाने की जरूरत है । जब सिगरेट के विज्ञापन प्रतिबंधित हैं तो इन्हें छूट क्यों मिलनी चाहिए ? वैसे यह भी हद दर्जे की मूर्खता या फिर रूपयों का प्रलोभन नहीं तो और क्या है कि पैकेट पर कैंसरग्रस्त मनुष्य का फोटो छापकर सिगरेट बेचा जा रहा है ! अगर लोगों को बता रहे हो कि सिगरेट पीने से कैंसर हो सकता है तो फिर इसे बना क्यों रहे हो और बेच क्यों रहे हो ? क्या मौत के इन सौदागरों को कारोबार की और विज्ञापनों की आज़ादी मिलनी चाहिए ?    -- स्वराज करुण   

                                                                            

Wednesday, August 23, 2017

पापड़ से बनी पहचान !

         नकारात्मक ख़बरों के अत्यधिक शोर से बोर होकर मैंने बीती रात नेशनल जिओग्राफिक चैनल पर भारतीय महिलाओं की संगठन शक्ति और उसकी शानदार कामयाबी की कहानी देखी .चैनल ने एक रोचक डाक्यूमेंट्री के रूप में इसे प्रस्तुत किया है . इसमें स्वावलम्बन के लिए साधारण महिलाओं का असाधारण जज्बा उनकी ही जुबानी सुनने और देखने लायक है और हम जैसे लोगों के लिए उनके सम्मान में कुछ लिखने लायक भी . वैसे तो उनकी उद्यमशीलता के बारे में कई लोगों ने समय-समय पर काफी कुछ लिखा भी है . इंटरनेट पर भी उनकी गौरवगाथाएं मौजूद है ,लेकिन आज नेशनल जिओग्राफिक चैनल ने मुझे भी उनके सम्मान में कुछ कहने और लिखने को मजबूर कर दिया .यह प्रेरक कहानी श्री महिला गृह उद्योग की है,जिसका लिज्जत पापड़ आज देश-विदेश में इतना लोकप्रिय हो गया है कि पापड कहते ही लिज्जत का नाम अपने आप जुबान पर आ जाता है . 
         यह कोई प्राइवेट कम्पनी या निजी उद्योग नहीं है ,बल्कि  सहकारिता के आधार पर चल रहा भारतीय महिलाओं का गृह उद्योग है . मेरा उद्देश्य इस पापड़ का विज्ञापन करना नहीं और  न ही  इस संस्था के किसी पदाधिकारी से मेरा कोई परिचय है और न ही मैं इस प्रोडक्ट का  डिस्ट्रिब्यूटर हूँ  , इस  आलेख को लिखने और प्रस्तुत करने का मेरा मकसद  सिर्फ  सहकारिता के महत्व को रेखांकित करना और  उन महिलाओं के हौसले को सलाम करना है जिन्होंने करीब ५८ साल पहले १५ मार्च १९५९ को सिर्फ ८० रूपए की पूँजी लगाकर इस घरेलू उद्योग की शुरुआत की थी और आज उनका सालाना कारोबार ५०० करोड़ रूपए तक पहुँच गया है . कारोबार शुरू करने के लिए उन्होंने ये अस्सी रूपए भी एक सहृदय सामाजिक कार्यकर्ता ,भारत समाज सेवक संघ के अध्यक्ष श्री छगनलाल पारेख से उधारी में लिए थे . वर्ष १९६६ में सहकारी समिति के रूप में उनकी संस्था को सोसायटी अधिनियम के तहत पंजीयन मिला . जिस पापड़ उद्योग की शुरुआत मुम्बई में सिर्फ सात महिलाओं ने की थी , आज देश भर में उनकी ६२ शाखाएं हैं ,जिनमे सदस्य के रूप में शामिल ४२ हजार से ज्यादा महिलाएं न सिर्फ इस उद्योग में रोजगार प्राप्त कर रही हैं ,बल्कि अपने देशवासियों के और विदेशों के लिए भी प्रतिदिन करोड़ों की संख्या में स्वादिष्ट पापड बना रही है.सुदूर दक्षिण अफ्रीका तक लिज्जत पापड का निर्यात होने लगा है .अपनी शाखाओं में लिज्जत के ब्रांड नेम से पापड बनाने वाली महिलाएं गुणवत्ता नियन्त्रण का पूरी गंभीरता से ध्यान रखती हैं . उन्हें कच्चा माल संस्था की ओर से दिया जाता है और वे अपनी सुविधा से घर पर ही  संस्था के निर्धारित मानकों के अनुसार पापड़  बनाकर शाखा में जमा करती हैं  पापड़ किसी भी शाखा में बने, उसका . स्वाद एक जैसा मिलेगा .

       हमारे देश में  ' पापड़ बेलने ' का मुहावरा पता नहीं कब से चला आ रहा  है । इंसान को दुनिया में जिन्दा रहने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं ,लेकिन अगर सामूहिक रूप से कोई काम शुरू किया जाए तो जिंदगी का सफ़र आसान हो सकता है । श्री महिला गृह उद्योग की सफलता की इस कहानी से यह सन्देश मिलता है । सरकार से कोई आर्थिक सहायता लिए बिना उन्होंने जिस यात्रा की शुरुआत की थी , वह तरक्की के रास्ते पर कई पड़ावों से गुजरते हुए आज भी जारी है । इन महिलाओं ने अपने पापड़ उद्योग से  न सिर्फ अपनी ,बल्कि अपने देश की भी पहचान बनाई है . 
     इस गृह उद्योग से जुडी ये महिलाएं अपनी संस्था के कारोबार में बराबर की हिस्सेदार हैं .उन्हें कारोबार के मुनाफे का बोनस भी मिलता है . बच्चों को कॉलेज पढाना हो , डॉक्टर ,इंजीनियर बनाना हो तो संस्था अपनी जरूरतमन्द सदस्यों को आर्थिक सहायता भी देती है ..लिज्जत पापड के लिए प्रसिद्ध श्री महिला गृह उद्योग आज भारत में महिला सशक्तिकरण और सहकारिता आन्दोलन की सफलता की मिसाल बन चुका है . तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने केन्द्रीय कृषि और ग्रामोद्योग मंत्रालय द्वारा नई दिल्ली में १४ मार्च २००३ को आयोजित समारोह में महिलाओं के इस पापड उद्योग को सर्वश्रेष्ठ ग्रामोद्योग की श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था. संस्था की ओर से श्रीमती ज्योति जे.नाईक ने यह पुरस्कार ग्रहण किया था . श्री महिला गृह उद्योग जैसे छोटे-छोटे प्रयास अगर देश के हर गाँव, हर शहर में हो तो महिलाओं के आर्थिक स्वावलम्बन का सपना बहुत जल्द साकार हो सकता है .वैसे विगत  कुछ वर्षों से देश के सभी राज्यों में लाखों की संख्या में महिला स्व-सहायता समूहों  का गठन किया गया है ,जिन्हें विभिन्न प्रकार के छोटे-छोटे कारोबार और घरेलू उद्योग के लिए सरकारी अनुदान के साथ  काफी सस्ते ब्याज पर ऋण भी दिया जाता है . महिलाओं को आत्म निर्भर आत्म निर्भर बनाने की यह पहल निश्चित रूप से सराहनीय है ,लेकिन  उनके गृह उद्योगों में बनी वस्तुओं को बाज़ार दिलाना एक बड़ी चुनौती है ,फिर भी 'लिज्जत' की स्वर्णिम सफलता  की कहानी उनके लिए प्रेरणा बन सकती है . महिलाओं की सहकारी संस्था द्वारा संचालित अमूल डेयरी की शानदार कामयाबी  भी इन महिला स्व-सहायता समूहों के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है .

                                                                                                  -स्वराज करुण            

                                                                                         

Monday, August 21, 2017

अब क्यों नहीं बजते ये फ़िल्मी गाने ?

कुछ दशक पहले के फ़िल्मी गीतों में मनोरंजन के साथ कोई न कोई सामाजिक सन्देश भी हुआ करता था । उन गीतों के जरिए देश और समाज की बुराइयों पर और बुरे लोगों पर तीखे प्रहार भी किए जाते थे । जैसे -
*दो जासूस करे महसूस
कि दुनिया बड़ी खराब है ,
कौन है सच्चा ,कौन है झूठा ,
हर चेहरे पे नकाब है ।
----------------
*क्या मिलिए ऐसे लोगों से ,
जिनकी फितरत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए ,
असली सूरत छिपी रहे।
जिनके नाम से दुखी है जनता
हर बस्ती , हर गाँव में ,
दया - धरम की बात करें वो
बैठ के भरी सभाओं में ।
दान की चर्चा घर -घर पहुंचे,
लूट की दौलत छुपी रहे ,
नकली चेहरा सामने आए ,
असली सूरत छुपी रहे !
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* इस दुनिया में सब चोर - चोर ,
कोई छोटा चोर ,कोई बड़ा चोर !
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* बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई !
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* हे रामचन्द्र कह गए सिया से ,
ऐसा कलयुग आएगा ,
हंस चुगेगा दाना दुनका ,
कौआ मोती खाएगा !
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* देख तेरे संसार की हालत
क्या हो गई भगवान ,
कितना बदल गया इंसान !
कहीं पे झगड़ा ,कहीं पे दंगा,
नाच रहा नर होकर नंगा !
इन्हीं की काली करतूतों से
हुआ ये मुल्क मसान
कितना बदल गया इंसान !
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*समाज को बदल डालो ,
ज़ुल्म और लूट के
रिवाज़ को बदल डालो !
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* ये पब्लिक है ,
ये सब जानती है !
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पहले तो ऐसे गाने सामाजिक -सांस्कृतिक आयोजनों और सार्वजनिक समारोहों में खूब बजा करते थे , रेडियो से भी प्रसारित होते थे लेकिन आजकल ये एकदम से गायब हो गए हैं, या नहीं तो तो गायब कर दिए गए हैं ! शायद इसलिए कि आज के अधिकांश इंसानों को ऐसा लगता है कि ये फ़िल्मी गाने उनकी पोल खोल रहे हैं । इस वजह से उन्हें अपराध बोध के साथ शर्मिंदगी महसूस होती है । उन्हें इन गीतों में अपना चेहरा और चरित्र नज़र आता है । कारण चाहे जो भी हो , इन सन्देश परक गीतों की ताकत आज भी कम नहीं हुई है । ये फ़िल्मी गाने निस्संदेह पावरफुल हैं और आज के इंसान की व्यक्तिगत और सामाजिक चेतना को झकझोरने और उसे आइना दिखाने की हिम्मत और हैसियत रखते हैं । इन फ़िल्मी गीतों के  रचनाकारों को हमारा सलाम ।
लेकिन मौजूदा वक्त की फिल्मों में ऐसे गाने कहाँ ? वर्तमान फ़िल्मी गीतकारों से कोई उम्मीद करना व्यर्थ है ,क्योंकि उन्हें ग्लैमर के साथ पैसा अधिक लुभावना लगता है , जबकि उस दौर के अधिकतर फ़िल्मी गीतकार चूंकि साहित्यिक परिवेश से आते थे ,इसलिए उन्हें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का भी एहसास था । आज वो बात कहाँ ? - स्वराज करुण

Thursday, August 17, 2017

खण्डित आज़ादी का जश्न और एक ज्वलंत प्रश्न ?

     दिल पर हाथ रखकर बताना - क्या कभी ऐसी इच्छा नहीं हुई कि भारत ,पाकिस्तान और बांगला देश मिलकर एक बार फिर अखण्ड भारत बन जाएं ?
आज के दौर में चाहे 14 अगस्त को पाकिस्तान और 15 अगस्त को भारत अपनी आज़ादी का जश्न मनाए ,क्या वह हमारे उस अखण्ड भारत की आज़ादी का जश्न होता है ,जो आज से 70 साल पहले था ? वह तो जिन्ना नामक किसी सिरफ़िरे जिन्न की औलाद की जिद्द और कुटिल अंग्रेजों की क्रूर कूटनीति का ही नतीजा था ,जिसके चलते भारत माता के पूर्वी और पश्चिमी आँचल में विभाजन की काल्पनिक रेखाएं खींच दी गई और भारत खण्डित हो गया ।
देश में  आज़ादी के लिए तीव्र होते संघर्षों ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया था । तब ब्रिटिश हुक्मरानों ने जिन्ना को ढाल बनाकर विभाजन की पटकथा तैयार कर ली और लाखों बेगुनाहों के प्राणों की बलि लेकर पाकिस्तान नामक नाजायज राष्ट्र पैदा हो गया ,जिसका एक हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान और दूसरा हिस्सा पश्चिमी पाकिस्तान कहलाया ।
यह एक बेडौल विभाजन था । एक ही देश के दोनों हिस्सों के बीच हजारों किलोमीटर का फासला समुद्री या हवाई मार्ग से तय करना पड़ता था । बहरहाल पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर स्वतन्त्र बंगला देश बन गया और उधर पश्चिमी पाकिस्तान अब सिर्फ पाकिस्तान कहलाता है । उस वक्त के किसी अंग्रेज हुक्मरान का इरादा था कि वह पाकिस्तान और भारत दोनों की आज़ादी के जश्न में शामिल हो ,इसलिए उसने सिर्फ अपनी सुविधा के लिए 14 अगस्त को पाकिस्तान और 15 अगस्त को भारत की आज़ादी का दिन तय कर दिया । हमारे तत्कालीन नेताओं ने अंग्रेजों के इस प्रस्ताव को सिर झुकाकर स्वीकार भी कर लिया ।
उनकी इसी मूर्खता का खामियाज़ा 70 साल बाद भी हम भुगत रहे हैं । आतंकवाद, सम्प्रदायवाद और अलगाववाद के दंश झेलना हमारी नियति, बन गई है ।समय आ गया है कि इस बीमारी का इलाज किया जाए । भारत ,पाकिस्तान और बांग्लादेश का एकीकरण ही इसका सर्वश्रेष्ठ और चिरस्थायी इलाज होगा ! आखिर 70 साल पहले कहाँ था कोई पाकिस्तान और कहाँ था कोई बांग्लादेश ? खण्डित आज़ादी के इस जश्न के बीच एक ज्वलन्त प्रश्न है यह !    -- स्वराज करुण

Monday, August 7, 2017

फीकी पड़ गई सावन की मनभावन रंगत !

     पूर्णमासी पर रक्षा बंधन का त्यौहार मनाकर सावन आज बिदा हो जाएगा . कई राज्यों में वह खूब बरसा ,गुजरात ,असम जैसे राज्यों में बाढ़ की भयावह आपदा से लोगों को जूझना  पड़ा,  लेकिन इस बार देश के कुछ इलाकों  में सावन  की  बेरूखी ने किसानों को चिंतित कर दिया  .
मौसम वैज्ञानिकों ने इस वर्ष भारत  में मानसून की शत-प्रतिशत बारिश का पूर्वानुमान घोषित किया था . अभी मानसून के लगभग दो महीने बाकी हैं .कई राज्यों में वह सटीक साबित हो सकता है ,लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के कुछ इलाकों में  बारिश के असंतुलन की वजह से खेती का काम पिछड़ने लगा है  .  आषाढ़ लगभग सूखा बीत गया .सावन में भी  खण्ड वर्षा के हालात देखे गए . शहरों में  मोहल्ला स्तर पर हल्की-फुल्की बारिश होती रही और ग्रामीण क्षेत्रों में भी नजारा कुछ ठीक नहीं रहा . बारिश के सुहाने  गीत रचने वाले कवि पशोपेश में हैं कि क्या लिखा जाए ?


                                                     ( फोटो -Google से साभार )
पहले तो सावन की झड़ी कई दिनों तक लगी रहती थी. रिमझिम बारिश का नजारा बड़ा सुहाना लगता था. कवि उसकी शान में कसीदे लिखा करते थे ,  पर अब   उसकी   मनभावन रंगत दिनों -दिन फीकी पड़ने लगी है . अब सावन के महीने में पवन का मीठा शोर  भी सुनाई नहीं पड़ता . यह किसानों के लिए ही नहीं ,बल्कि हर इंसान के लिए चिन्ता की बात है . देश और दुनिया में मौसम का मिजाज़ दिनों-दिन बदलता जा रहा है . मानसून के  चार महीनों में  कहीं  बहुत ज्यादा और कहीं काफी कम बारिश हो रही है  और कहीं अचानक बेमौसम बादल  बरसने लगते हैं . इसके कारणों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है . पर्यावरण विशेषज्ञ पिछले कई वर्षों से जंगलों की बेतहाशा कटाई , औद्योगिक धुंआ  प्रदूषण को लेकर अपनी चिन्ता प्रकट करते आ रहे हैं . विभिन्न देशों में आधुनिक हथियारों की होड़ के चलते धरती और समुद्र में  विनाशकारी परमाणु बमों का  परीक्षण भी जलवायु में असंतुलन का  एक प्रमुख कारण है .  पर्यावरणविदों ने कई वर्ष पहले ही  ग्लोबल वार्मिग  की चेतावनी जारी कर दी है .  उन्होंने ओजोन परत में सूराख होने और बरसात के बादलों की सघनता कम होते जाने की भी जानकारी दी है .
         उजड़ते पहाड़ों  और  हरियाली  की घटती रंगत को भी हम लोग देख रहे हैं .  इसके बावजूद हम अगर बेखबर रहना चाहते हैं तो कोई क्या कर सकता है ?  बस,हमें सिर्फ इतना ध्यान रखना होगा कि भावी पीढी को हमारे  बेखबर रहने के घातक नतीजे भुगतने होंगे और वह हमें माफ़ नहीं करेगी .कल से भादो का महीना शुरू होने वाला है . उम्मीद करनी चाहिए कि कम-से- कम  भादों में तो मानसून मेहरबान रहेगा .
                                                                                                     -स्वराज करुण

Sunday, August 6, 2017

लोकप्रियता के सौदागर और उनके दीवाने ग्राहक ...!

        सोशल मीडिया के इस जमाने में  लोकप्रियता मिलती नहीं बल्कि खरीदी जाती है ! इस फोटो पर दीवार में चस्पा विज्ञापन को ध्यान से देखिए ! फेसबुक पर सिर्फ 300 रूपए में 1500 लाइक ,ट्विटर पर 200 रूपए में 1000 फॉलोवर्स और गूगल प्लस पर भी 200 रूपए में 1000 फॉलोवर्स ....! जनाब ने अपना मोबाईल नम्बर भी दे रखा है !
                                                       (फोटो - Google से साभार )
    वैसे बाज़ार में प्रचलित भावों के हिसाब से यह धंधा और सौदा बुरा नहीं है । कई लोग कर भी रहे हैं. ! तभी तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि कुछ लोगों की "चाय की प्याली" या "भोजन की थाली" के फोटो पर भी ' लाइक्स ' की बरसात होने लगती है ! कुछ लोग कुछ भी ऊल - जलूल लिख मारते हैं तो उन पर भी लाइक्स की बौछार शुरू हो जाती है ! हम जैसे लोग तो इस मामले में 'गरीबी रेखा' श्रेणी में आते हैं . हमारी भला क्या औकात ? इधर औकात वालों के बीच लोकप्रियता बेचने और खरीदने का यह बिजनेस इन दिनों खूब फल-फूल रहा है ! एजेंसियां खुल गई हैं ,जिनका करोड़ों का खेल खुल्लमखुल्ला चल रहा है . बिकाऊ लोकप्रियता के दीवाने ग्राहकों में कई नेता और अभिनेता भी शामिल हैं. 

    कई बड़े -बड़े स्वनामधन्य रसूखदार , महापुरुषों और महान स्त्रियों ने अपने फेसबुक और ट्विटर एकाउंट्स पर लाइक्स और फौलोवर्स बढाने के लिए कम्प्यूटर और इंटरनेट के जानकार बेरोजगारों को काम पर लगा रखा है ! ऐसे  महानुभावों को दिन-रात कई प्रकार के काम रहते हैं , उन्हें यह देखने की कहाँ इतनी फुर्सत कि सोशल मीडिया में उनके बारे में कौन क्या लिख रहा है और उन्हें उसका क्या जवाब देना है .ये काम तो उनके सहायक अधिकारी और कर्मचारी करते रहते हैं .    चलो ,  इस बहाने कुछ बेरोजगारों को रोजगार तो मिल रहा है !फिर भी सवाल ये है कि खरीदी गई लोकप्रियता आखिर कब तक काम आएगी और कब तक कायम रहेगी ? किसी दिन जब अपनी टी.आर. पी. बढ़ाने की इन तिकड़मों का भेद खुल जाएगा ,तब खरीददारों  का क्या होगा ?
                                                                                                                   --स्वराज करुण