गाँव
की गलियों में चिकारा की मधुर ध्वनि अब नहीं गूंजती । उसकी गुंजन लगभग
विलुप्त हो चुकी है । यह परम्परागत वाद्य यन्त्र छत्तीसगढ़ के घुमन्तू देवार
समुदाय के लोकगीतों का संगवारी हुआ करता था , लेकिन देवारों की नई पीढ़ी
करीब -करीब उसे छोड़ चुकी है । महासमुंद जिले में पिथौरा कस्बे से लगे हुए देवार डेरा झुग्गी
बस्ती के निवासी कोंदा देवार बताते हैं कि पहले उनके पिता और दादा चिकारा
बजाते थे और उसकी धुन पर लोकगीत गाया करते थे
,लेकिन आज कोंदा की झुग्गी में न तो चिकारा है और न ही उन्हें देवार
समुदाय का कोई लोकगीत याद है । वे तो बस दिन भर इधर -उधर घूमकर टिन -टप्पर ,
सड़कों के किनारे बिखरे कचरे में से प्लास्टिक ,पॉलीथिन , लोगों के घरों से
टूटे फूटे अनुपयोगी सामान इकट्ठा करके अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी खींच रहे हैं ।
कुछ देवार लोग सुअर पालन का भी काम करते हैं । सुअर भी उनकी झुग्गियों के
आस - पास रहते हैं । देवार डेरा में कोंदा जी से एक अच्छी खबर मिली कि अब
इस समुदाय के लोग भी अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे हैं । उनकी नई पीढ़ी के
पहनावे में भी बदलाव नज़र आ रहा है । वैसे दीवारों के बारे में बताया जाता है कि प्राचीन छत्तीसगढ़ जब दक्षिण कोसल कहलाता था और उसकी राजधानी रतनपुर हुआ करती थी , तब वहां के कलचुरी राजवंश के राजा अपना आदेश-निर्देश इन्हीं देवारों के माध्यम से अपनी प्रजा तक पहुंचाना चाहते थे . . राजा के फरमान को ये लोग गीतों में ढाल कर जन-जन तक पहुंचाने का काम करते थे ! वह रेडियो ,टेलीविजन , अखबार ,इंटरनेट जैसे आधुनिक संचार साधनों का जमाना तो था नहीं ,इसलिए देवारों के लोकगीत ही जन संचार का एक प्रमुख जरिया हुआ करते थे ! साहित्यकार स्वर्गीय पुरुषोत्तम अनासक्त कहा करते थे- देवार दरअसल देवों के यार हैं आधुनिक युग में इनकी प्रतिभा को छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कला-पारखी और लोक संगीत के संरक्षक स्वर्गीय दाऊ रामचन्द्र देशमुख ने पहचाना . उन्होंने अपनी सांस्कृतिक संस्था 'चंदैनी गोंदा' में लोक गायिका के तौर पर देवार समुदाय की पद्मा और बसंती देवार अपने रंगमंच पर एक नई पहचान दिलाई . आकाशवाणी के रायपुर केंद्र तक उन्हें पहुंचाया .उनकी आवाज में लक्ष्मण मस्तूरिया के छत्तीसगढ़ी गीत रेडियो से खूब प्रसारित हुए .यह शायद चालीस वर्ष पुरानी बात है लेकिन आज के दौर में अधिकाँश देवार लोग किसी भी बड़े गाँव या कस्बे की सरहद पर अस्थायी झोपड़ियों में ही कठिन जीवन संघर्षों के बीच बरसों-बरस किसी तरह दिन गुजार रहे हैं . सरकारों की एक से बढ़कर एक बेहतरीन योजनाओं के बावजूद देवारों की यह बसाहट किसी शरणार्थी शिविर जैसी नज़र आती है ..राज्य और केंद्र सरकार इन दिनों लोगों को हुनरमंद बनाने के लिए कौशल प्रशिक्षण पर काफी जोर दे रही हैं . छोटे-छोटे व्यवसायों में कौशल विकास के लिए लोगों को मुफ्त ट्रेनिंग देने का प्रावधान है . देवारों को भी कौशल विकास योजनाओं से जोड़ा जा सकता है . सिर्फ पहल करने की जरूरत है .!
.( आलेख और फोटो - स्वराज करुण )
.( आलेख और फोटो - स्वराज करुण )
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-07-2017) को "एक देश एक टैक्स" (चर्चा अंक-2662) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'