सब कुछ है तेरे सामने साफ़ आज-कल ,
कौन किसे दे रहा इन्साफ आज-कल !
उजड़ी थी ये बस्ती यहाँ जिसके ज़ुल्म से,
उसके सौ गुनाह भी हैं माफ आज- कल !
सुबूत कैसे आएं नज़र कातिलों के शहर में ,
ओढ़ कर जो मस्त सो रहे लिहाफ आज-कल !
खरबों में बनी इमारत है इन्साफ का मंदिर ,
होता है जहां रूपयों का ही जाप आज-कल !
पुण्य की गठरी भी उधर कोने में पड़ी है ,
बेख़ौफ़ घूम रहा है मस्त पाप आज-कल !
रग-रग में उनके देखिये लूट की दौलत
डरने लगे हैं उनसे कई सांप आज-कल !
गरीबों के दिल की हाय सुन हँसता है दरिंदा
बेअसर है अमीरों पर अभिशाप आज-कल !
--स्वराज्य करुण
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (10-10-2013) "दोस्ती" (चर्चा मंचःअंक-1394) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय शास्त्री जी !बहुत-बहुत धन्यवाद .विजयादशमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं .
Deleteबढ़िया ग़ज़ल...
ReplyDeleteबेहद अर्थपूर्ण!!
अनु
अनु जी ! बहुत-बहुत आभार .दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं .
Deleteपुण्य की गठरी भी उधर कोने में पड़ी है ,
ReplyDeleteबेख़ौफ़ घूम रहा है मस्त पाप आज-कल !
दिल के पन्ने खोलती ग़ज़ल
रमाकांत जी ! आभार .विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
Deleteबे असर है अमीरों पर अभिशाप आजकल
ReplyDeleteअमीर और दरिंदों की ही चल रही आजकल।
आशाजी ! धन्यवाद ! दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं.
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