Monday, June 5, 2023
(आज विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष) लगातार टूटते -झुकते पहाड़ !-लेखक : स्वराज्य करुण
हरे -भरे पहाड़ लगातार टूट रहे हैं। उनके झरनों पर और उनकी कन्दराओं में रहने वाले वन्य जीवों पर संकट गहराने लगा है। आज पर्यावरण दिवस पर हमें इन टूटते ,झुकते पहाड़ों की भी चिन्ता करनी ही चाहिए । लेकिन आधुनिकता की सुनामी में वो तो टूटेंगे ही ,क्योंकि सीमेन्ट -कांक्रीट का मकान बनवाना अब शायद लोगों की मज़बूरी हो गयी है ।
खपरैल वाली छतों से हर बरसात में पानी टपकने का डर बना रहता है । हर साल मानसून आने से पहले खपरा पलटवाने का झंझट ! हालांकि पहले भी लोग खपरैलों से ढँके मकानों में ही रहते थे। लेकिन आज के दौर में वनों के निरंतर कटते जाने से वन्य प्राणी भोजन -पानी की तलाश में मनुष्यों की बस्तियों में मंडराने लगे हैं।ग्रामीण इलाकों में खपरैल की छतों पर बन्दरों का उपद्रव बढ़ने लगा है।जो अपनी उछल-कूद से खपरैलों को तोड़ -फोड़ देते है ,फिर कच्ची ईंटों और मिट्टी के मकानों पर जंगली हाथी यदाकदा धावा बोल देते हैं । इसके अलावा साँप -बिच्छुओं और अन्य ज़हरीले कीड़े -मकोड़ों के डर तथा आधुनिक जीवन - शैली की चाहत की वज़ह से भी लोगों में मिट्टी की मोटी दीवारों वाले मकानों से अरुचि होने लगी है ,जबकि ऐसे मकान गर्मियों में सुकून भरी ठंडक और ठंड के मौसम में गुनगुनी गर्मी का एहसास देते हैं। कई कारणों से मिट्टी के मकानों के प्रति लोगों दिलचस्पी कम हो रही है । इसके साइड इफेक्ट भी साफ़ दिखने लगे हैं ।
गर्मियों में सीमेंट -कांक्रीट के मकान किसी तन्दूर की तरह भभकते हैं और अचानक बिजली चली जाने से पँखे ,कूलर और एसी बन्द हो जाने के बाद कुछ समय के लिए उमस भरी यातना झेलनी पड़ती है । कांक्रीट बनाने के लिए चलने वाले क्रशर यूनिटों के आस -पास स्वाभाविक रूप से वायु प्रदूषण होता ही है ,जिसका दुष्प्रभाव मानव और पशु - पक्षियों के स्वास्थ्य और पेड़ - पौधों पर भी पड़ना स्वाभाविक है
फिर भी ऐसे मकानों के प्रति अमीर -गरीब , सबमें आकर्षण बढ़ रहा है ।शहरों में खपरैलों की बिक्री अब नज़र नहीं आती । फलस्वरूप कुम्हारों की आमदनी कम हो रही है ,हालांकि वो मिट्टी के घड़े और गमले आदि बनाकर और बेचकर अपना और अपने परिवार का किसी तरह गुजारा कर रहे हैं । लोग अब खपरैल वाली नहीं ,बल्कि सीमेंटेड यानी लेंटर्ड छतों के मकान चाहते हैं । बहुत मज़बूरी में ही कोई खपरैल का मकान बनवाता है ,या उसमें रहता है ।
सोचने के लिए मज़बूर करने वाला सवाल ये है कि हमारे पूर्वजों ने तो खपरैल और मिट्टी के बने मकानों में पीढ़ियाँ गुज़ार दी , फिर हम क्यों अपने लिए सीमेन्ट -कांक्रीट का जंगल खड़ा करना चाहते हैं ,जो पर्यावरण के लिए भी घातक साबित हो रहे हैं ? पहाड़ टूटेंगे तो हरियाली और बारिश भी कम होगी ही । हमें कोई न कोई नया विकल्प सोचना होगा ।
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