- स्वराज्य करुण
बच गए जो
हैवानों की बुरी नज़रों से
हैवानों की बुरी नज़रों से
झूम उठे वो रहे-सहे जंगल ,
गूँज उठे वो बचे-खुचे पहाड़ !
आशाओं के घने बादलों के साथ
सवालों की बौछार लिए
इस बार भी आ गया आषाढ़ !
होते अगर आज
कलि-युग में कालीदास ,
उनका 'मेघदूत' पूछता ज़रूर उनसे-
महाकवि ! अब मै क्या देखूं -
किसान को अपनी धरती पर
विवशता की कहानी लिखते देखूं ?
भू-माफिया के हाथों उसके खेतों को
यूं ही बिकते देखूं ?
बारिश में उजड़ते परिदों को देखूं ,
या उन पर बरसते दरिंदों को देखूं ?
अस्पताल के द्वार पर
लावारिस मुर्दों को देखूं ,
या मुर्दों में तब्दील होते
लाचार-गरीब जिन्दों को देखूं ?
अपनी आँखों के आगे
रहस्य भरी ये पहेली देखूं
रिश्वतबाज -आदमखोरों की
कैसे बनी हवेली देखूं ?
काले धन के काले बादल
जहां बरसते हर मौसम में ,
वहाँ क्या कुदरत के
आषाढ़-सावन को देखूं ,
आषाढ़-सावन को देखूं ,
या सोने की सल्तनत के रावण को देखूं ?
घिर जाते अगर महाकवि
मेघदूत के सवालों से ,
सचमुच बेज़वाब हो जाते ,
उम्मीदों में आए सपने ,
सबके सब फिर ख्वाब हो जाते !
- स्वराज्य करुण
आ गया आषाढ़ !
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति ... ऐसे प्रश्न जिनका जवाब भी नहीं मिलेगा
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रविष्टी कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी है!
ReplyDeletesach me kya chitra prastut kiya hai
ReplyDeleteaabhaar abhinandan
सवालों की बौछार लिए
ReplyDeleteइस बार भी आ गया आषाढ़ !
ye to hona hi hai.sundar prastuti.
स्पष्ट मुखर लेखन का शुक्रिया , सुंदर अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है /
ReplyDeleteएक सवाल पूछना तो रह ग्या कि क्या करोडों का धन कमाने वाले आज के संतों को देखूँ। सवाल जायज हैं लेकिन अनुत्तरित ही रह जाते हैं। अच्छी रचना के लिये बधाई।
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