रोजी -रोटी और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमारे जीवन का चाहे कितना ही शहरीकरण क्यों न हो जाए , शरीर भले ही महानगरों में रच -बस जाए , लेकिन भारतीय होने के नाते हमारा दिल किन्ही फ़ुरसत के लम्हों में आज भी गांवों की ओर जाने को मचलने लगता है . यकीन नहीं आ रहा हो , तो एक पल के लिए ठहर कर अपने दिल से पूछिए.आम तौर पर किसी से मित्रवत पहली मुलाकात में यह ज़रूर पूछा जाता है -'आप कहाँ के रहने वाले हैं , आपका गाँव कहाँ है ?' अगला भी वर्षों से शहरी -जीवन में ढल जाने के बावजूद सहज भाव से बताता है- हम लोग फलां -फलां जिले के फलां गाँव के हैं, दादाजी या पिताजी कई बरस पहले व्यापार या नौकरी के लिए गाँव छोड़ कर यहाँ आए और यहीं के होकर रह गए, या फिर वह कहता है-'फलां जिले में हमारे पूर्वजों का गाँव है .
सुदूर मॉरिशस और फिजी जैसे द्वीप-देशों के राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री रह चुके लोग भी पिछले कुछ वर्षों में अपने पूर्वजों के गाँव की खोज में भारत आ चुके हैं . कहने का मतलब यह कि खेती -किसानी पर आधारित हमारी भारतीय संस्कृति में गाँव हम लोगों के दिल-ओ -दिमाग से , चेतन-अवचेतन मन से कभी अलग नहीं हो सकता . वहां के हरे- भरे पेड़ , पहाड़ , नदी -नाले, ताल-तल्लैये , आम-अमरुद, तीज-त्यौहार, लोक-गीत, लोक-संगीत , सब कुछ तो हमें कहीं न कहीं अपनी तरफ खींचते रहते हैं. भारतीय कितना भी शहरी क्यों न बन जाए, उसके भीतर एक खालिस देहाती ज़रूर बैठा होगा. वह अपने भीतर ज़रा झाँक कर तो देखे, अपने इस देहाती से अपनापन तो जोड़े ! अपने मन के भीतर बसे गाँव में कुछ देर टहल कर तो देखे , उसे वहां मिलेंगी ढेरों -ढेर दिलचस्प लोक-कथाएँ , जिन्हें वह आज छोटे परदे की चका -चौंध से भरी मायावी दुनिया से घिरे शहर की मतलब-परस्त कॉलोनियों में बस कर या नहीं तो फंस कर जाने कब का भूल चुका है . लोक-कथाएँ ,जो हमें दादी-नानी सुनाया करती थीं , वे अब हमारी विरासत में नहीं हैं, आधुनिक जीवन की हिरासत में जाकर विलुप्त हो रहीं हैं . ऐसे कठिन और कठोर समय में भारतीय समाज से गुम होती जा रही मूल्यवान लोक-कथाओं को सहेजने और संजोने का एक सार्थक प्रयास किया गया है -छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के ग्राम मगरलोड में , जहां स्थानीय कवियों और लेखकों की संस्था संगम साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति ने अपनी वार्षिक पत्रिका 'प्रयास' के पिछले वर्ष २००९ के अंक को छत्तीसगढ़ी लोक-कथाओं के संग्रह के रूप में प्रकाशित किया है . समिति का यह प्रयास वास्तव में समाज और जीवन से दिनोदिन गायब हो रही हमारी ग्रामीण परम्पराओं को भी सहेजने और संभालने का एक खूबसूरत प्रयास है ,कारण यह कि लोक-कथाओं में ही हमारी परम्पराओं का खज़ाना है और उन्हीं परम्पराओं में छुपी हैं हमारे जीवन की जड़ें . यह देखना भी काफी दिलचस्प होगा कि समिति ने लोक -कथाओं के संरक्षण और उनकी जड़ों की खोज के लिए राज्य स्तरीय छत्तीसगढ़ी लोक-कथा लेखन प्रतियोगिता का भी आयोजन किया था .
यह प्रतियोगिता दो श्रेणियों में हुई . पहली श्रेणी जन-सामान्य के लिए और दूसरी श्रेणी विद्यार्थी वर्ग के लिए. समिति के इस रचनात्मक प्रयास से जहां नए-पुराने अनेक लेखकों को अपने गाँव की धूल-मिट्टी में दबी-छुपी लोक-कथाओं की तलाश करने की प्रेरणा मिली वहीं समिति ने इस बहाने उनकी लेखन-प्रतिभा को भी प्रोत्साहित किया. जन-सामान्य के लिए आयोजित प्रतियोगिता में गरियाबंद की श्रीमती जय भारती चंद्राकर की कहानी 'तुलसी चौरा अउ फूलबती ' का चयन प्रथम पुरस्कार के लिए किया गया.लेखिका गरियाबंद में सरकारी कन्या हायर सेकेंडरी स्कूल में व्याख्याता है .विद्यार्थी वर्ग में मगरलोड के शासकीय कन्या हायर सेकेंडरी स्कूल की दसवीं की छात्र कुमारी कुसुमलता साहू की कहानी 'छेरी चरवाहा' (बकरी चरवाहा ) को प्रथम पुरस्कार घोषित किया गया . संकलन में प्रतियोगिता की चयनित लोक-कथाओं को मिला कर कुल अठाईस पारम्परिक कहानियाँ शामिल हैं. इनमे वरिष्ठ साहित्यकार छत्तीसगढ़ी राज भाषा आयोग के अध्यक्ष, बिलासपुर निवासी पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी की कहानी' पतिबरता के पानी' (पतिव्रता का पानी ) और मगरलोड निवासी आचार्य डॉ .दशरथ लाल निषाद की कहानी 'परेतिन सन बिहाव ' (प्रेतनी के साथ शादी ) भी उल्लेखनीय हैं .संग्रह की सभी लोक-कथाओं में छत्तीसगढ़ के सहज-सरल ग्रामीण जन-जीवन की सजीव छवि साकार हो उठी है , वहीं इनमे अपनी माटी की मीठी महक भी महसूस की जा सकती है .इनमे रोचकता भी है और सहज भाव से दी गयी नीति ,न्याय और नैतिकता की शिक्षा भी . संपादक श्री पुनूराम साहू 'राज' ने संग्रह के सम्पादकीय में यह बिल्कुल ठीक लिखा है कि दादी-नानी और बुजुर्गों द्वारा कही जाने वाली लोक-कथाएँ और कहानियाँ अब आधुनिक प्रचार-प्रसार तंत्र के मशीनीकरण में लुप्त होने लगी हैं . छत्तीसगढ़ी कथा-कहानियों की परम्परा को सुरक्षित बनाए रखने के उद्देश्य से तथा छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास-विस्तार के प्रयास को लेकर समिति ने वार्षिक पत्रिका के इस अंक को छत्तीसगढ़ी लोक-कथाओं पर केन्द्रित किया है. श्री साहू के ये विचार सचमुच अभिनन्दन और स्वागत योग्य हैं .
अब जबकि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की सरकार ने जन-भावनाओं के अनुरूप हमारी माटी और हमारी आम -बोलचाल की भाषा छत्तीसगढ़ी को राज भाषा का दर्जा दे दिया है, लोक -जीवन के महासागर से शब्दों के बिखरे मोतियों को चुनकर लोक-कथाओं की माला बनाने का ऐसा प्रयास छत्तीसगढ़ में हर कहीं चलते रहना चाहिए. इससे हमारी मूल्यवान राज - भाषा और भी ज्यादा धनवान बनेगी. हमारी राज भाषा की जड़ें भी तो आखिर इन्हीं लोक-कथाओं में ही मिलेंगी ., लोक-कथाएँ तो हमारे दिलों की धड़कन हैं , जो हमसे बार-बार कहती हैं - ' हम चाहें शहरों में रहते हों या गांवों में, या सात -समंदर पार किसी दूर देश में , फिर भी हमारा दिल है हिन्दुस्तानी , हर हाल में हम हैं हिन्दुस्तानी '. क्या लोक-कथाओं को भूलते जा रहे हम लोग अपने दिल के किसी कोने से रह-रह कर आ रही इस आवाज़ को सुन रहें हैं ?
स्वराज्य करुण
मूलतः मन अपनी कर्म स्थली से जन्म स्थली की ओर ले जाता है फिर चाहे वो गांव हो शहर या कस्बा ! ये गावों का देश है इसलिए ज्यादातर ऐसा लगता है कि गांव की ओर !
ReplyDeleteलोकगाथाओं के संरक्षण के लिए मगरलोड के बंधुओ को शुभकामनायें !
लोक गाथाएं पीढी दर पीढी चली आती हैं।
ReplyDeleteअली भाई ने सही कहा, मन तो कर्म स्थली से जन्म स्थली की ओर दौड़ता है।
आभार एवं शुभ्कामनाएं
bahut achcha laga .dhanyavad
ReplyDeleteprashanshaniya prayaas lok kathaon k sanrakshan ka
ReplyDeleteमनोबल बढ़ाने वाली टिप्पणियों के लिए आप सबको
ReplyDeleteबहुत -बहुत धन्यवाद