छोटे परदे की चकाचौंध से चकित कुछ लोगों के लिए यह एक चौंकाने वाली खबर हो सकती है कि दर्शकों को श्रोताओं में बदलने के लिए रेडियो फिर आ धमका है . दूरदर्शन के सादगीपूर्ण ,लेकिन संवेदनशील कार्यक्रमों से परे अधिकांश टेलीविजन चैनलों के चमकदार परदों पर नज़र आने वाले धन -पशुओं के महलनुमा घरों के अंतहीन पारिवारिक झगड़ों पर आधारित सास-बहु के सीरियल अब खोटे सिक्के की तरह चलन से बाहर होने लगे हैं. यह अलग बात है कि कुछ 'फुरसतिहा' किस्म की ननद -भाभियाँ आज भी उन्हें देखने का समय निकाल लेती हैं. तरह -तरह के हादसों और हंगामों की दिल दहला देने वाली खबरों की पट्टियों के ऊपर बेहूदे चुटकुलों पर राक्षसों की तरह ठहाके मारते हैवानियत से रंगे इंसानी चेहरे अब दर्शकों को बिल्कुल ही नहीं सुहाते.जहाँ फ़िल्मी हीरो-हीरोइनों और क्रिकेट खिलाड़ियों के शादी -ब्याह के चमकीले विज्ञापनों को ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम से परोसा जा रहा हो, जहाँ देश के मेहनतकश किसानों , मज़दूरों और छात्र-छात्राओं के कार्यक्रमों के लिए ज़रा -सी भी जगह न हो , किसी फैशन -शो में बिल्ली -चाल ,माफ़ कीजिए, कैट वाक करती किसी मॉडल की देह से कपड़े का गिर जाना जिनके लिए सबसे बड़ी खबर हो और घंटों उसी एक खबर का लगातार प्रदर्शन होता रहे ,तो ऐसे छोटे परदे को अब परदे के पीछे ही रहने दिया जाए. इसी में सब की भलाई है . दोस्तों ! यह मेरे अकेले की नहीं , बहुतों के'दिल की बात' है . आप अपने दिल से कहें कि वह ज़रा अपने आस -पास देखे और सोच कर बताए कि ज्यादा नहीं सिर्फ पांच साल पहले के मुकाबले आज कितने लोग छोटे परदे को टकटकी लगाए देखते हैं ? अब वह दौर चला गया जब भारत और दूसरे देशों के बीच होने वाले क्रिकेट मैच का आँखों देखा हाल देखने के लिए छोटे परदे के सामने घंटों दर्शकों की भीड़ लगी रहती थी . क्रिकेट मैच तो अब भी होते हैं ,लेकिन दो देशों के बीच नहीं बल्कि किन्हीं दो कम्पनियों के बीच , और हमारे खिलाड़ी अपने वतन के लिए नहीं बल्कि अरबों-खरबों रूपयों के स्वामी शराब ठेकेदारों और फ़िल्मी कलाकारों के किराए के घोड़ों की तरह अपने -अपने मालिकों के लिए खेला करते हैं. ऐसे किराए के क्रिकेट मैचों का आँखों देखा हाल भला कौन दर्शक देखना चाहेगा ? इसलिए छोटे परदे को उसके अपने हाल पर छोड़ देने वालों की तादाद बढ़ रही है .देखने वाले अब सुनने वालों में बदल रहे हैं .
घर वापसी का स्वागत
रेडियो फिर हमारी ज़िंदगी में सफ़र का साथी बनकर आ रहा है . वैसे वह कहीं ज्यादा दूर तक गया भी नहीं था, सिर्फ आधुनिकता के शोरगुल भरे शहरीकरण के मेले में कुछ समय के लिए कहीं गुम हो गया था और हम जैसे कुछ शहरी लोग टेलीविजन की नकली रंगीनियों में खो कर उसे भूल गए थे . लेकिन दुनिया बहुत बड़ी है , जहाँ रेडियो सुनने वालों का भी अपना एक बहुत बड़ा समाज है . खेतों की मेड़ पर किसी पेड़ की छाँव में रेडियो आज भी अपने मधुर गीत-संगीत से किसानों और श्रमिकों की थकान दूर करता है , पान की दुकान और चाय के ठेले पर आने -जाने वालों को दुनिया -जहान का हाल-चाल सुनाता है . यह और बात है कि कुँए के भीतर रहने वालो के एक सिमटे हुए समाज को रेडियो -श्रोताओं का इतना बड़ा समाज नज़र नहीं आ सकता. बहरहाल रेडियो सुनने वालों के इस विशाल समाज ने जब भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बीस अगस्त को 'श्रोता दिवस' के रूप में एक दिन के अपने राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया तो एक बार फिर सब तरफ यह सन्देश चला गया कि दिल की बात सुनने और महसूस करने वालों के लिए रेडियो से अच्छा साथी आज की भाग-दौड़ से भरी दुनिया में शायद और कोई नहीं हो सकता. सम्मेलन में बताया गया कि भारत में पहला रेडियो प्रसारण बीस अगस्त १९२१ को मुंबई में अंग्रेज़ी अखबार टाईम्स ऑफ इंडिया द्वारा डाक-तार विभाग के सहयोग से किया गया था , जब मुंबई के एक संगीत कार्यक्रम को तत्कालीन गवर्नर सर जार्ज लाईड के आग्रह पर वहां से करीब पौने दो सौ किलोमीटर दूर पुणे में प्रसारित करने की व्यवस्था की गयी .
मनोहर महाजन रचित 'यादें रेडियो सिलोन की' पुस्तक का विमोचन
देश के प्रथम रेडियो प्रसारण के इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाने के लिए रेडियो और राजनीति के दीवाने श्री अशोक बजाज की अगुवाई में छत्तीसगढ़ रेडियो श्रोता संघ और ओल्ड लिस्नर्स ग्रुप ऑफ इंडिया ने लगातार दूसरे साल यहाँ श्रोता दिवस का एक शानदार आयोजन किया ,जिसकी तैयारी में वे अपनी श्रोता -बिरादरी के साथ पिछले कई महीनों से भिड़े हुए थे . उन्होंने इसमें छत्तीसगढ़ ,मध्यप्रदेश ,झारखंड ,उड़ीसा ,बिहार , आसाम , पश्चिम बंगाल , गुजरात, और राजस्थान सहित देश के कई राज्यों के श्रोताओं को दावतनामा भेज कर रायपुर बुलाया और सहज -सरल छत्तीसगढ़िया परम्परा के अनुरूप बिना किसी ताम-झाम के श्रोता बिरादरी ने मिल -बैठ कर रेडियो के पुराने दिनों से लेकर आज तक जारी सफ़र की यादों और अनुभवों को 'शेयर' करते हुए देश और दुनिया में इस 'बेतार के बेताज बादशाह ' की सल्तनत को लोगों के दिलों में हमेशा कायम रखने की कसमें खायी .
मनोहर महाजन : आवाज़ की दुनिया के अनदिखे सितारे
सम्मेलन के मंच पर उस वक़्त चार चाँद लग गए ,जब किसी जमाने में रेडियो सिलोन के हिन्दी प्रसारणों में अपनी जानदार सम्मोहक आवाज़ से करोड़ो लोगों के दिलों पर राज कर चुके , आवाज़ की दुनिया के अनदिखे सितारे श्री मनोहर महाजन , सुश्री विजय लक्ष्मी डिसेरम और श्री रिपुसूदन कुमार इलाहाबादी जैसे लोकप्रिय उदघोषकों ने एक पूरा दिन श्रोताओं के साथ बिताया. आकाशवाणी के रायपुर, अम्बिकापुर और ग्वालियर केन्द्रों के उदघोषक भी वहां आए हुए थे. आम तौर पर रेडियो श्रोताओं और उदघोषकों के बीच सिर्फ चिठ्ठी -पत्री और आज के समय में 'फोन-इन' वाला रिश्ता होता है , जिसमें एक -दूजे का चेहरा देखने का सवाल ही नहीं उठता , लेकिन रेडियो की दुनिया में उदघोषकों और श्रोताओं के बीच एकदम घरेलू माहौल में आमने-सामने परस्पर संवाद का वास्तव में यह एक अनोखा कार्यक्रम था , जहाँ उम्र के साठ जमा सात वसंत पार कर चुके सदाबहार आवाज़ के धनी श्री मनोहर महाजन की पुस्तक 'यादें रेडियो सिलोन की ' एक धरोहर के रूप में सबके सामने आयी. साढ़े तीन सौ पन्नों की इस किताब का विमोचन करते हुए छत्तीसगढ़ के पर्यटन और संस्कृति मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने साफ़ शब्दों में कहा कि विज्ञापनों की भरमार वाले टेलीविजन कार्यक्रमों से बोर होकर लोग अब तत्काल चैनल बदलने लगते हैं . हालात कुछ ऐसे बन रहे हैं कि आने वाले समय में टेलीविजन को रेडियो पीछे छोड़ देगा. उन्होंने श्री मनोहर महाजन की इस पुस्तक के प्रकाशन पर खुशी ज़ाहिर करते हुए रेडियो के सुनहरे दिनों को याद किया और श्रोताओं को यह भी याद दिलाया कि रेडियो सिलोन , विविध भारती और ऑल इंडिया रेडियो में फ़िल्मी गानों की फरमाइश भेजने वाले श्रोताओं ने कैसे भारत के झुमरी तलैय्या और भाटापारा जैसे छोटे कस्बों और शहरों को दुनिया भर में मशहूर कर दिया था . संस्कृति मंत्री का यह भी कहना था कि भारत में आज भी पचहत्तर फीसदी आबादी तक रेडियो की आसान पहुँच है ,जिसे चलते -फिरते भी आसानी से सुना जा सकता है जबकि यह सुविधा टेलीविजन में नहीं है . रेडियो ज्ञान-विज्ञान ,सूचना और शिक्षा का एक सस्ता लेकिन सबसे ताकतवर माध्यम है . श्री अग्रवाल नेओल्ड लिस्नर्स ग्रुप रामगढ़ (झारखंड )की तिमाही पत्रिका 'लिस्नर्स बुलेटिन ' का भी विमोचन किया . कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए श्री अशोक बजाज ने कहा कि आज टेलीविजन के ज्यादातर कार्यक्रमों में बढ़ती फूहड़ता के कारण घर -परिवार के लोग उन्हें देखना बंद कर रहे हैं जबकि रेडियो की महत्ता और उपयोगिता आज भी कायम है . रेडियो एक ऐसी चीज है जो हमें राज्य ,देश ,जाति ,धर्म और भाषा की सीमाओं को लांघ कर आपस में जोड़ती है . रेडियो सेट को सम्हालना आसान है , अब तो पेन और मोबाइल फोन पर भी रेडियो सुना जा सकता है . सम्मेलन के विशेष अतिथि श्री मनोहर महाजन ने कहा कि मैंने अपने रेडियो कार्यक्रमों में हमेशा राष्ट्रभाषा हिन्दी की प्रतिष्ठा को कायम रखने का प्रयास किया. उनका यह भी कहना था कि उदघोषक और श्रोता दोनों एक -दूसरे के पूरक हैं.श्री मनोहर महाजन ने पैंतीस साल पहले की अपनी प्रथम छत्तीसगढ़ यात्रा के रोचक प्रसंगों को भी याद किया . रेडियो सिलोन की पूर्व उदघोषिका सुश्री विजयलक्ष्मी डिसेरम ने पुरानी यादें ताज़ा करते हुए कहा कि श्रीलंका के इस रेडियो स्टेशन में अपने कार्यकाल में मैंने खुद को उदघोषक से पहले एक श्रोता माना . श्री मनोहर महाजन और मैंने अपना प्रसारण करिअर तक़रीबन एक साथ पूरा किया . वे करीब सात साल की प्रसारण सेवा के बाद १९७४ में मुंबई चले गए और मै वायस ऑफ अमेरिका की हिन्दी सेवा में पहुँच गयी . रेडियो सिलोन को याद करते हुए सुश्री विजयलक्ष्मी डिसेरम ने कहा कि वह हमारे लिए गुजरा वक़्त या गुज़री यादें नहीं बल्कि हमारे खून और हमारी सांसों में बसी ऑक्सीजन है ,जो हमें ज़िंदा रखे हुए है .रेडियो श्रोताओं के इस अनूठे सम्मेलन में बड़ोदा (गुजरात) से इक्यासी साल के श्री मधुकर व्यास भी आए थे ,जो पिछले पचपन साल से रेडियो के नियमित श्रोता हैं . मंच पर उन्होंने भी अपनी भावनाएं प्रकट की .सम्मेलन की एक ख़ास बात यह भी रही कि इसमें रेडियो सिलोन के हिन्दी प्रसारण की बेहद सीमित हो चुकी समय -सीमा को बढ़वाने के लिए सबने मिलकर पहल करने का इरादा ज़ाहिर किया. इसके अलावा छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध लोक -गायिका (भरथरी कलाकार) श्रीमती सुरूजबाई खांडे को आयोजकों ने 'कला -साधना ' सम्मान और श्री मनोहर महाजन तथा वहां आए सभी जाने -माने उदघोषकों को 'रेडियो -रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया. कुछ गरीब परिवारों के प्रतिभावान बच्चों को भी सम्मानित किया गया . पुराने ज़माने के रेडियो सेट और छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के अनेक दुर्लभ संगीत-उपकरणों की प्रदर्शनी भी सम्मेलन में लोगों का ध्यान खींच रही थी .
भरथरी गायिका सुरूजबाई खांडे का सम्मान
किस्सा यह कि इस अखिल भारतीय सम्मेलन में आने पर ही यह मालूम हुआ कि रेडियो -श्रोताओं और उदघोषकों का सामाजिक -सांस्कृतिक नेटवर्क कितना विशाल है.,जहां कोई राग-द्वेष नहीं ,सिर्फ अनुराग ही अनुराग है और जहां आधुनिक दुनिया के सबसे पुराने इस प्रसारण माध्यम ने उन्हें कितनी मजबूती से आपस में जोड़ रखा है . छत्तीसगढ़ रेडियो श्रोता संघ वाले तो समय-समय पर अपना बुलेटिन निकालते ही हैं , यहाँ रायपुर जिले के एक छोटे से गाँव पहन्दा (पोस्ट -बलौदाबाजार ) में 'अहिंसा रेडियो श्रोता संघ ' पिछले दस वर्षों से श्रोताओं की संगठन शक्ति को बढ़ाने में लगा हुआ है .इसकी अपनी वार्षिक पत्रिका है 'डी एक्स -अंजलि' , जिसका जून २००९ का अंक आकाशवाणी रायपुर पर केन्द्रित विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ है . . श्री अशोक बजाज इस रेडियो श्रोता संघ के भी संरक्षक हैं . लगभग एक साल पहले तक वे रायपुर जिला पंचायत के अध्यक्ष थे ,तब भी गाँवों के विकास के लिए नशामुक्ति और शिक्षा के प्रसार सहित पंचायत राज के कामों में भारी व्यस्तता के बीच रेडियो श्रोता संघों को भी अपना समय और सहयोग देते रहते थे . यह सिलसिला आज भी जारी है. भारत के प्रथम रेडियो प्रसारण की बीस अगस्त १९२१ की ऐतिहासिक तारीख को यादगार बनाने के लिए 'श्रोता-दिवस ' आयोजित करने की परम्परा पिछले साल से छत्तीसगढ़ में शुरू करने में उनकी सक्रिय भूमिका है ,जिसकी सभी तारीफ करते हैं. अशोक जी खुद भी रेडियो के पुराने शौकीन और सजग श्रोता हैं . टेलीविजन की चकाचौंध भरी मायावी दुनिया को चुनौती देकर रेडियो की धमाकेदार वापसी के पीछे उनके जैसे छत्तीसगढ़ समेत देश भर के रेडियो श्रोताओं और श्रोता संघों के योगदान को भला कौन नकार सकता है ? - -- स्वराज्य करुण
वाह बहुत बढिया रिपोर्टिंग है।
ReplyDeleteरेड़ियो के श्रोताओं का दूरदर्शन ने बलात अपहरण कर लिया था।
अब वे पुन: आजाद हो रहे हैं,और रेड़ियो की तरफ़ उन्मुख।
फ़िर से रेड़ियो का जमाना आ रहा है। स्वागत है।
आह इतना प्रेम! दरिया फ़ूट पड़ा प्रेम का………
कृपया वर्ड वेरिफ़िकेशन हटाएं
ReplyDeleteयह प्रक्रिया अपनाएं
पहले डेशबोर्ड पर
फ़िर सेटिंग
फ़िर टिप्पणियाँ पर
और फ़िर उसमें वर्ड वेरिफ़िकेशन आपश्न को नहीं कर दें।
और सेव कर दें।
sanchar madhyamon, chahe wo drishya ho ya shravya, apni apni upyogita hai. samachar madhyam ek bahut bada astra hai jiska samuchit upyog sirf samajhdar aur mature vyakti hi kar sakta hai. galtiyan yadi hain, to samachar madhyam ki nahi, unko chalane walon ki hai.fir sabki apni apni pasand hai. kisi ko shastriya sangeet achchha lagta hai, to kisi kisi ko bore bhi karta hai. mujhe lagta hai ki radio k sath sath tv channelon ka tathakathit manoranjan ka tadka bhi jaruri hai aur usko bhi hamen utna hi enjoy karna chahiye jitna hum radio ko karte hain. sadar-BALMUKUND
ReplyDeleteश्री स्वराज जी
ReplyDeleteआपका ब्लाग देखा बहुत अच्छा लगा .
" एक चौकाने वाली खबर " अच्छी लगी .
आपने रेडियो और उसकी महत्ता पर बहुत ही सुंदर एवम् प्रशंसनीय लेख लिखा है , मै आपका शुक्रिया अदा करता हूँ .
वास्तव मे रेडियो की महत्ता को बरकरार रखना आज के समय मे बहुत ही मुश्किल कार्य है .इस कार्यक्रम को देखे बिना शायद आप भी इतना अच्छा लेख नही लिख पाते .शायद विश्वास भी ना करते .देश भर के रेडियो श्रोताओ का जुनून देखते ही बनता था .मै स्वयं भावविभोर हो गया था .रेडियो एक ऐसी चीज है जो हमें राज्य, देश और भाषा की सीमाओं को लांघ कर आपस में जोड़ती है। रेडियो और टेलीविज़न में मूल अंतर यह है कि" रेडियो पूरा परिवार एक साथ बैठ कर सुन सकता है लेकिन टेलीविज़न को हम पूरे परिवार के साथ बैठ कर नही देख सकते ". यह वाक्य एक दिन घोष वाक्य बनेगा.इस कार्यक्रम की सफलता का सेहरा आपने मेरे सिर बाँधा इसके लिए मै आपका आभारी हूँ . वास्तविकता यह है कि इस सम्मेलन की तैयारी के लिए मेरे असंख्य श्रोता मित्र कई दिनों से लगे थे. उनकी मेहनत का नतीजा आपके सामने है .
प्रिय स्वराज्य करुण जी
ReplyDeleteआपकी फोटो से कुछ खास हाथ नहीं लगा और प्रोफाइल अधूरा सा है अब केवल यह पक्का कर दें कि कभी आप जगदलपुर में तैनात थे और 'हिन्दी उर्दू के सेतुबंध गनी आमीपुरी' के आयोजन में आपकी कोई भूमिका थी :)
श्रावणी पर्व की शुभकामनाएं एवं हार्दिक बधाई
ReplyDeleteलांस नायक वेदराम!---(कहानी)
बहुत अच्छी रिपोर्ट ...धन्यवाद !
ReplyDeleteमेरे भैया .....रानीविशाल
रक्षाबंधन की ढेरों शुभकामनाए !!
बड़े काम का बाजा
ReplyDeleteरेडियो बड़े काम का बाजा है इसे कुछ लोग बुद्धू बाजा बनाने में लगे हैं ख़ास करके एफ एम् वाले मगर एक दिन देख लीजिएगा वे धकिया दिए जाएंगे क्योंकि श्रोता अब परिपक्व हो गए है ....और जैसे अखबार को धंधा करते नहीं देख सकते उसी तरह रेडियो को भी उन बंदरों और बंदरियाओं के हाथ में ज्यादा दिनों तक नहीं झेल पाएंगे जिनका मकसद चुगली जैसे कार्यक्रम के जरिये श्रोताओं को लगातार बरगलाना है ,एक पूरी पीढी को सिर्फ गंदे गाने सुना कर दिग्भ्रमित करना है| उनका टार्गेट शहर है गांव नहीं| मैं आज भी विविध भारती सुनता हूँ और पिटारा, सखी-सहेली, मनचाहे गीत जैसे कार्यक्रम चाव से सुनता हूँ| कमल शर्मा, रेनू बंसल जैसे प्रस्तोता एफ एम् में कहाँ मिलेंगे जो रेडियो को जीते हैं| शुक्र सरकार का भी है जिसके नॉर्म्स इतने तगड़े हैं कि रेडियो का मतलब आज भी आकाशवाणी ही है और शायद रहेगा|
रमेश शर्मा
शर्मारमेश.ब्लॉगस्पाट . कॉम