मानसून की मेहरबानी से बादल खूब बरस रहे हैं .कहीं -कहीं तो उनकी मेहरबानी इतनी ज्यादा है कि वह मनमानी जैसी लगती है .बरसाती नदियों के साथ बरसाती नाले भी उफन कर ,तटबंधों को तोड़ कर गाँव -देहात में बस्तियों को उजाड़ कर ,बर्बादी का असहनीय नज़ारा पेश कर रहे हैं ,तो शहरों में थोड़ी -सी भी बारिश क्या गरीब ,क्या अमीर,हर किसी की बस्ती में कश्ती चलाने की नौबत ला रही है .झुग्गी बस्तियों के लोग सबसे ज्यादा परेशान हैं .
ऐसा नज़ारा देश में हर मानसून में देखने को मिलता है .बर्बादी की तस्वीरें अख़बारों में छपती हैं , रेडियो पर आती हैं , छोटे परदे पर दिखती हैं .अखबार लिखते हैं- मानसून का कहर , डूबे गाँव और शहर . लोग देखते हैं ,देश के भाग्य विधाता भी देखते हैं ,उनमे से कुछ महाप्रभु तो आकाश मार्ग से भ्रमण करते हुए ऐसे नजारों को हजारों बार देख लेते हैं.उनके हाथों राहतों की बारिश होती है ,लोग अपने गिरे हुए घरों को एक बार फिर से खड़े करने की जुगत में लग जाते हैं .मानसून लौट जाता है .अगले साल फिर वही नज़ारा लेकर आने के लिए . मानसून की मेहरबानी तो क्या इंसान ,क्या जानवर ,क्या पेड़,क्या पौधे ,सबके लिए ज़रूरी है.वह मेहरबान भी होता है , वह बादलों के जरिये अमृत की तरह अनमोल पानी बरसा कर खेतों में नई ताजगी भर देता है.उसकी मेहरबानी से मेहनतकश किसान की ज़िन्दगी में उम्मीदों के रंग -बिरंगे फूल खिलते हैं ,धरती सोना उगलती है ,और सबकी भूख मिटाती है.फिर ऐसे मूल्यवान ,मेहरबान इस मानसून के ज्यादा बरसने पर क्यों होती है इतनी हाय तौबा ? दरअसल इसके लिए हम खुद ही ज़िम्मेदार हैं .हमने मानसून की मेहरबानियों को संभाल कर रखने के तौर-तरीकों को भुला दिया है ,चाहे जान-बूझ कर ,या फिर अनजाने में ,लेकिन गलती तो हम इंसानों ने कर ही डाली है.हमने नदियो को बड़े -बड़े बांधों में बाँध कर उनका रास्ता रोका है ,
हमारी संस्कृति में तो हर नदी एक पवित्र गंगा है ,लेकिन हमने गंगा जैसी हर नदी में शहरों की गन्दी नालियों को जोड़कर ,कारखानों के गंदे पानी को डालकर नदियों को नालियों में तब्दील करने में कोई शर्म महसूस नहीं की.नदियों के किनारों पर लगे हरे -भरे पेड़ों को बेरहमी से काट डाला .और तो और जब भी हमें कुर्सी की ताक़त मिली, हमने माता की तरह पवित्र अपनी बारहमासी नदियों को बेच डाला .तटबंधों को हमने तोडा ,सिर्फ पैसों से नाता जोड़ा .शहरों में पुराने तालाबों को पाट कर कालोनियां खडी कर दी , निकासी की नालियों पर सीमेंट के चबूतरे बना दिए .धरती माता के आँचल पर सडकों के नाम पर सीमेंट ,कांक्रीट और डामर की चादर बिछा दी,प्लास्टिक के कचरे से माता के आँचल को पाट दिया ,सड़कों के सीमेंटीकरण और डामरीकरण के दौरान कुछ मूर्ख किस्म के इंजीनियर पेड़ों की जड़ों को भी सीमेंट और डामर से पाट कर धीरे -धीरे उनकी हत्या करने लगे .जब कभी शहरी जीवन की सुख -सुविधा बढाने के लिए हमें सीमेंट -कांक्रीट के जंगल खड़े करने की इच्छा हुई , जब कभी हमें खनिजों के कुदरती खजाने से अपना खजाना भरने की चाहत हुई , तो हमने हरे -भरे सुंदर पहाड़ों को नोच -खसोट कर बर्बाद कर दिया .मूर्ति -विसर्जन के नाम पर ज़हरीले रंगों वाले रसायनों से तालाबों के पानी को ज़हरीला बना दिया .शहरों के गंदे पानी की निकासी के लिए कोई रास्ता नहीं सूझा तो नालियों का रास्ता तालाबों की ओर मोड़ दिया . साम -दाम ,दंड -भेद से तालाबों की ज़मीन हथिया कर उस पर अवैध बस्तियां खडी कर दी .
आधुनिकता और विकास के नाम पर ऐसे बेतुके तौर -तरीकों से हमने खुद को अपनी ज़मीन और अपनी जड़ों से काट कर मानसून के अनमोल पानी को भूमि के भीतर जाने से रोक दिया ऐसे में ज़रा सोचें कि धरती माता की प्यास कैसे बुझेगी ? जब हमारी धरती माता प्यासी रहेगी तो हम जैसे करोड़ों -अरबों धरती पुत्रों का क्या हाल होगा? थोडा पानी अगर उसके पास है भी तो हम मशीनों के जरिये पूरी बेदर्दी से जमीन के भीतर का सारा का सारा पानी निचोड़ लेना चाहते हैं .,हमें इन सब बातों से शायद कोई लेना -देना नहीं कि इसका अंजाम आखिर क्या होगा ? . अपने सुख की खातिर हमने नदियों का मुख मोड़ दिया .ऐसे में वह पानी आखिर जायेगा किधर ?वह अनमोल पानी तो हमें जीवन देने के लिए मानसून के साथ आता है ,लेकिन हम उसके ही जीवन से खिलवाड़ करने लगते है . इसका नतीजा तो हमें भोगना पड़ेगा.इसमें मानसून की भला क्या गलती ?मानसून तो हम पर हमेशा मेहरबान होता है ,हम ही ऐसे नासमझ हैं ,जो अपनी मनमानी से बाज़ नहीं आते.क्या इसे समझ कर हम खुद को संभालना चाहेंगे ?अगर समझना और संभलना चाहें तो हमें अपने ही देश के एक छोटे -से नए राज्य छत्तीसगढ़ की ओर देखना चाहिए ,जहाँ सूबे के मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह के एक आव्हान पर अपनी नदियों और अपने तालाबों को बचाने के लिए जनता एक होकर आगे आती है और जहाँ मुख्यमंत्री खुद हज़ारों मेहनतकश किसानों ,मजदूरों और आम नागरिकों के साथ इस पुनीत कार्य में कंधे से कन्धा और क़दम से क़दम मिलाकर जुट जाते हैं और .कहीं अस्सी साल पुराने खून्ताघात के सिंचाई बाँध में तो कहीं शिवनाथ नदी में जमी हुई गाद (रेत और मिट्टी )निकालने के लिए श्रमदान करते हैं.इस बार गर्मियों में डॉ. रमनसिंह ने खुद बिलासपुर जिले के खून्ताघात जलाशय के गहरीकरण और राजनांदगांव के पास शिवनाथ नदी के चौडीकरण के लिए जनता के साथ अपना पसीना बहाकर देश और प्रदेश में पानी बचाने का सन्देश फैलाया .जल है तो कल है और गाँव का पानी गाँव मेंऔर खेत का पानी खेत में रखने के आव्हान के साथ उन्होंने भू -जल संरक्षण का अभियान चलाया .वे इतने में ही नहीं रुके ,जहाँ गर्मियों की तेज़ धूप का स्वागत उन्होंने पानी बचाने के अभियान के साथ किया ,वहीँ मानसून की अगवानी हरियर छत्तीसगढ़ महाभियान के साथ . राज्य को हरा-भरा बनाने के लिए जनता के सहयोग से इस महाभियान में स्कूल -कालेज .गाँव -शहर सब जगह हजारों -लाखों की तादाद में पौधे लगाये जा रहे हैं .
नदी -तालाब और पेड़ -पौधे हमारी मूल्यवान धरोहर हैं.मानसून की मेहरबानी से ही कुदरत की यह कृपा हमारे साथ होती है ,बशर्ते हम इसे महसूस करें कि दुनिया में हमारे रहने के लिए हमारे साथ,हमारे पास इनका रहना भी बहुत ज़रूरी है ,यह तभी होगा जब हम इन पर अपनी मनमानी बंद करें .उम्मीद की जानी चाहिए कि मानवता को बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की धरती से निकला यह सन्देश मानसून के बादलों के साथ हरियाली बनकर पूरी दुनिया में छा जायेगा .
स्वराज्य करुण
ताबड़-तोड़ विकास की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी, लेकिन हालात पटरी पर लाने का संकल्प और उद्यम भी अपना असर जरूर दिखाएगा.
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ReplyDeletevikaas kabhi ekpakshiya nahi hota, bahupakshiya hota hai, atah vikas me sabhi pakshon ka dhyaan rakhna aawashyak hai. sansaadhanon k upyog k sath sath unka sanrakshan bhi jaruri hai.nahi to laalach k kaaran sone k ande dene wali murgi hi kahin halaal na ho jaaye, iska dhyan rakhna jaruri hai.
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