Wednesday, December 10, 2025

(पुस्तक -चर्चा ) अमर शहीद वीर नारायण सिंह पर पहला उपन्यास /आलेख -स्वराज्य करुण

पुस्तक -चर्चा 

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 अमर शहीद वीर नारायण सिंह पर पहला उपन्यास ;सोनाखान 1857 

               (आलेख -स्वराज्य करुण )

वीर नारायण सिंह देश की आज़ादी के लिए संघर्ष की राह पर चलकर 168 साल पहले शहीद हो गए. उनके महान संघर्ष की याद दिलाने के लिए पहला उपन्यास लिखने वाले आशीष सिंह भी अब इस भौतिक संसार में नहीं हैं.  लगभग तीन महीने पहले 7सितम्बर 2025 को उनका निधन हो गया. आज 10 दिसम्बर को छत्तीसगढ़ के अमर शहीद वीर नारायण सिंह की पुण्य स्मृति का दिन है. आज के दिन उनकी संघर्ष -गाथा को याद करते हुए   आशीष सिंह की याद आना भी स्वाभाविक है, जिन्होंने अमर शहीद के जीवन और देश की आज़ादी के लिए उनके संघर्ष पर पहला उपन्यास लिखकर एक महत्वपूर्ण कार्य कर दिखाया.यह उपन्यास हरि ठाकुर स्मारक संस्थान, रायपुर द्वारा वर्ष 2022 में प्रकाशित किया गया था.महान योद्धा वीर नारायण सिंह और उपन्यास लेखक आशीष सिंह, दोनों को आज करबद्ध नमन.आशीष भाई के उपन्यास पर केंद्रित मेरा आलेख यहाँ प्रस्तुत है, जो 10 जुलाई 2023 को मेरे ही कुछ संशोधनों के साथ सांध्य दैनिक 'चैनल इंडिया ' में प्रकाशित हुआ था.

स्वतंत्रता हर देश का मौलिक और मानवीय अधिकार है। विशेष रूप से विगत दो शताब्दियों में दुनिया के विभिन्न देशों में स्वतंत्रता के लिए जनता के अनेक संग्राम हुए हैं। भारत भी इन संग्रामों से अछूता नहीं रहा है। इनमें से कई संग्राम ज्ञात और कई अल्पज्ञात रहे और कुछ संघर्ष गुमनामी के अंधेरे में दबकर रह गए। इन संग्रामों में अनेक वीर योद्धाओं और क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। उनमें छत्तीसगढ़ की  सोनाखान जमींदारी के वीर नारायण सिंह का नाम भी अमिट अक्षरों में दर्ज है ,जो वर्ष 1857 में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुकूमत के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष के नायक बनकर उभरे थे। ऐसे नायकों की गौरव गाथा पर आधारित उपन्यास  लेखन साहित्यकारों के लिए वाकई बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। आज़ादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद क्रांतिवीर नारायण सिंह के संघर्षों पर आधारित '1857 ;सोनाखान' शीर्षक 144 पृष्ठों की यह पुस्तक उनके समय के छत्तीसगढ़ की सामाजिक -आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी सजीव वर्णन करता है। प्रजा हितैषी नारायण सिंह को अपनी अकाल पीड़ित जनता के लिए एक जमाखोर व्यापारी के गोदाम से अनाज निकलवाने और पीड़ितों में वितरित करने के आरोप में कम्पनी सरकार की ओर से राजद्रोह के  मुकदमे का नाटक रचकर 10 दिसम्बर 1857 को रायपुर स्थित सैन्य छावनी में फाँसी पर लटका दिया गया था। 

           

                                        

 

भीषण अकाल के दौर में उपजा विद्रोह 

  दरअसल अंग्रेजों के खिलाफ सोनाखान के नारायण सिंह का  विद्रोह वर्ष 1856 में छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के दौर में उस वक्त हुआ ,जब प्रजा -वत्सल नारायण सिंह ने मदद के लिए रायपुर स्थित डिप्टी कमिश्नर इलियट को ख़बर भेजी ,लेकिन वहाँ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली। तब  नारायण सिंह ने खरौद के एक जमाखोर व्यापारी माखन को उसके  गोदामों में भरे अनाज को सोनाखान जमींदारी की  अकाल पीड़ित जनता के लिए बाँटने को कहा। नारायण सिंह यह अनाज  मुफ़्त में नहीं बल्कि बाढ़ी में यानी मूल धन से डेढ़ गुना ज्यादा कीमत पर उधार में लेने को तैयार थे । वे चाहते थे कि नई फसल के आने पर सोनाखान जमींदारी की ओर से उन्हें उधार लिया गया अनाज बाढ़ी के रूप में लौटा दिया जाएगा।इसके लिए उन्होंने कुछ अन्य व्यापारियों को भी चिट्ठी भिजवाई थी।उनमें से कुछ ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया लेकिन खरौद का जमाखोर व्यापारी  माखन इनकार करता रहा। तब नारायण सिंह ने अपने सैनिकों के साथ उसके गोदामों से अनाज निकलवाकर भूख से बेहाल जनता में वितरित करवा दिया । उन्होंने उसे भरोसा भी दिया कि और बाकायदा इसकी लिखित सूचना सम्पूर्ण हिसाब के साथ रायपुर स्थित कम्पनी सरकार के डिप्टी कमिश्नर को भी भेजी। इस बीच माखन ने रोते -कलपते रायपुर पहुँचकर इलियट से नारायण सिंह की शिकायत कर दी। इलियट ने इसे डकैती मान लिया और नारायण सिंह के विरुद्ध कार्रवाई की योजना बनाने लगा। अतंतःएक सैन्य संघर्ष के बाद  नारायण सिंह ने  अंग्रेज अधिकारियों के सामने स्वयं को प्रस्तुत कर दिया था। 

         इस पर  तो फ़िल्म भी बन सकती है  

पुस्तक की विषय -वस्तु ,पृष्ठभूमि , पात्रों के परस्पर संवाद और घटनाओं की  वर्णन शैली को देखते हुए इसे उपन्यास कहना मेरे विचार से  उचित होगा। इस पर तो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित भाषा में एक अच्छी देशभक्तिपूर्ण फ़िल्म बन सकती है । इसका नाट्य रूपान्तर करके मंचन भी हो सकता है। इस पुस्तक के  लेखक हैं राजधानी रायपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार आशीष सिंह। मेरी जानकारी के अनुसार पत्रकार होने के नाते आशीष के  लेखन में घटनाओं का  धाराप्रवाह वर्णन मिलता है। विश्लेषण और  वर्णन की उनकी  क्षमता गज़ब की होती है। उन्होंने अब तक न तो कहानियाँ लिखीं और न ही कविताएँ और उपन्यास तो कभी नहीं लिखा । इसके बावज़ूद  उनके भीतर दबा -छिपा एक देशभक्त और भावुक उपन्यासकार  इस कृति के माध्यम से हमारे सामने आया है। 

               शहादत पर पहला उपन्यास 

   जहाँ तक मुझे जानकारी है ,वीर नारायण सिंह के संघर्ष और उनकी  शहादत पर ऐसा कोई उपन्यास अब तक नहीं लिखा गया था। मेरा मानना है कि इस लिहाज से यह उनकी जीवन-गाथा पर आधारित पहला उपन्यास है। यह आशीष सिंह की एक बड़ी उपलब्धि है। आशीष को साहित्यिक प्रतिभा आशीष के रूप में विरासत में मिली है।  उनके पिता हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , गोवा मुक्ति आंदोलन के कर्मठ सिपाही , छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण  आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच के संयोजक तथा हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के सुप्रसिद्ध कवि थे।  उन्होंने 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' शीर्षक से एक विशाल ग्रंथ भी लिखा , जिसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास और यहाँ की महान विभूतियों के जीवन पर आधारित उनके कई आलेख शामिल हैं।  हरि ठाकुर के पिता जी  यानी आशीष सिंह के दादा जी ठाकुर प्यारेलाल सिंह अपने समय के एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,श्रमिक नेता और सहकारिता आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। उन्होंने वर्ष 1950 के दशक में रायपुर से अर्ध साप्ताहिक 'राष्ट्र-बन्धु' का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया था। ठाकुर प्यारेलाल सिंह 'त्यागमूर्ति' के नाम से भी लोकप्रिय हुए। वे तत्कालीन मध्यप्रान्त की नागपुर विधान सभा में विधायक और नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके थे। उन्हें तीन बार रायपुर नगरपालिका अध्यक्ष भी निर्वाचित किया गया था। 

              आशीष सिंह का लेखकीय परिचय 

    इस प्रकार आशीष सिंह विरासत में मिली लेखकीय परम्परा को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के जरिए लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।उनकी अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। चौबीस जनवरी 1963 को जन्में आशीष सिंह  लगभग तीन दशकों से राजधानी रायपुर में पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं।   उनका लेखन मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की उन महान विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित रहा है ,जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था।  आशीष ने उन पर आधारित कई बड़े-बड़े ग्रंथों का सम्पादन भी किया है ,जिनमें स्वर्गीय हरि ठाकुर के शोधपरक आलेखों और निबंधों का संकलन 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' और स्वर्गीय पण्डित रामदयाल तिवारी का विशाल ग्रंथ 'गांधी-मीमांसा' भी शामिल है। इसके अलावा तीन खंडों में प्रकाशित ठाकुर प्यारेलाल सिंह समग्र 'भी शामिल  है। आशीष सिंह ने सम्पादन के अलावा कुछ पुस्तकें अलग से भी लिखी हैं । उनकी प्रकाशित पुस्तकों में महात्मा गांधी की छत्तीसगढ़ यात्रा पर आधारित ' बापू और छत्तीसगढ़' , वरिष्ठ पत्रकार सनत चतुर्वेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित 'अर्ध विराम ', छत्तीसगढ़ में वर्ष 1952 से 2014 तक हुए विधान सभा चुनावों का का लेखा-जोखा 'जनादेश' और  छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों का हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और अंग्रेजी में प्रकाशित जीवन-परिचय और उनका छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतर  'हमर सुराजी ' आदि भी उल्लेखनीय है। 

     हिन्दी -छत्तीसगढ़ी मिश्रित प्रवाह पूर्ण भाषा 

  अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह के संघर्षों को ऐतिहासिक तथ्यों और तारीखों का साथ औपन्यासिक कथा वस्तु की शक्ल देकर आशीष सिंह ने सचमुच एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस पुस्तक में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित उनकी भाषा -शैली वाकई बहुत प्रवाहपूर्ण है । भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम और आज़ादी के योद्धाओं के बलिदानों की कहानियों में जिन्हें सचमुच दिलचस्पी है ,ऐसे देशभक्त पाठकों को इस पुस्तक में वर्णित घटनाएँ अंत तक सम्मोहित करके रखती हैं। हर घटना उत्सुकता जगाती है कि आगे क्या हुआ होगा ? किसी भी ऐतिहासिक उपन्यास में घटनाएँ भले ही वास्तविक हों ,लेकिन उन्हें सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिए काल्पनिकता का भी सहारा लेना पड़ता है। इसे देखते हुए कई प्रसंगों में आशीष सिंह ने कल्पनाओं के कैनवास पर शब्दों के रंगों से  इस उपन्यास को सुसज्जित किया है। उन्होंने अपनी यह पुस्तक भारत की आज़ादी के अमृत महोत्सव को और अपने पिता स्वर्गीय हरि ठाकुर को समर्पित की है। यह पुस्तक हरि ठाकुर स्मारक संस्थान ,रायपुर द्वारा प्रकाशित की गयी है।

     लेखक ने  अपनी  इस औपन्यासिक कृति में वीर नारायण सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में व्याप्त मानवीय संवेदनशीलता को बख़ूबी उभारा है। वे न सिर्फ़ अपनी प्रजा के हर सुख -दुःख का ख़्याल रखते हैं ,बल्कि अपने पशुओं को भी भरपूर स्नेह देते हुए अपने कर्मचारियों के साथ  स्वयं उनकी देखभाल भी करते हैं।  अक्ति यानी अक्षय तृतीया के दिन किसानों के साथ खेतों में बीज बोने के अनुष्ठान में भी शामिल होते हैं। उस दिन वे ग्रामीण परिवारों में होने वाले वैवाहिक समारोहों में भी हिस्सा लेते हैं।वीर नारायण सिंह के  परिवार के सोनाखान की जनता के साथ आत्मीय जुड़ाव को इस औपन्यासिक कृति में बड़ी रोचकता से उभारा गया है। लोक कल्याणकारी ज़मींदार का रहन -सहन आम किसानों जैसा है। उनकी मिट्टी की हवेली का वर्णन भी प्रभावित करता है। 

    उपन्यास में नाटक के तत्वों का प्रयोग 

  पुस्तक की भूमिका छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार और सेवानिवृत्त आई.ए. एस. अधिकारी डॉ. सुशील त्रिवेदी ने लिखी है। उनका कहना है -"आशीष सिंह ने अपनी इस औपन्यासिक कृति में नाटक के तत्वों का प्रयोग कर राष्ट्रीय चेतना को उत्प्रेरित किया  है। उन्होंने अपनी कथा -वस्तु में 1856 और 1857 में सोनाखान और रायपुर से लेकर सम्बलपुर तक चल रही विद्रोह की घटनाओं को एक श्रृंखला में पिरोया है।अलग -अलग घटनाओं के बीच के सम्पर्क शून्य को उन्होंने अपनी साहित्यिक कल्पनाशीलता से भरा है।इस शून्य को भरते हुए आशीष सिंह छत्तीसगढ़ी जीवनशैली को पूरी यथार्थता में उभारते हैं।"

पुस्तक में नवीन रचनाधर्मिता 

   वहीं पुस्तक के आमुख में राज्य के जाने-माने इतिहासकार और श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई के कुलपति प्रोफेसर लक्ष्मीशंकर निगम लिखते हैं --" आशीष की इस पुस्तक में एक नवीन रचनाधर्मिता देखने को मिलती है।यह रचना मूलतः नाटक शैली में , छत्तीसगढ़ी में है ,तथापि बीच -बीच में अन्य भाषा-भाषी पात्रों के उपस्थित होने पर  हिन्दी का भी प्रयोग आवश्यकता अनुसार किया गया है।इस रचना के माध्यम से लेखक ने छत्तीसगढ़ के इतिहास ,संस्कृति और लोक व्यवहार का एक विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है और ऐसा करने के लिए ऐतिहासिक पात्रों का समावेश करने के साथ ही अन्य काल्पनिक पात्रों को भी गढ़ा है ,लेकिन ये काल्पनिक पात्र इतिहास से प्रतिद्वंद्विता नहीं करते , बल्कि उसके पूरक रूप में हैं।" पुस्तक में वीर नारायण सिंह की धर्मपत्नी ,उनके सुपुत्र गोविन्द सिंह और कई देशभक्त ग्रामीणों की बातचीत को भी बड़ी भावुकता से प्रस्तुत किया गया है। नारायण सिंह के आत्मीय सहयोगी के रूप में सम्बलपुर रियासत के वीर सुरेंद्र साय और उनके कुछ साथियों के कठिन संघर्षों का  भी इसमें उल्लेख है।

नारायण सिंह में देशभक्ति और मानवीय संवेदनशीलता

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 नारायण सिंह को रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट के सामने मुकदमे के लिए पेश करने पर उसके सवालों का जवाब देते हुए वे कहते हैं -

 "मैंने आग्रहपूर्वक माखन से अनाज की मांग की थी।अन्य व्यापारियों ने तो मुझे यथा शक्ति मदद की ,मगर माखन ने अनाज न होने का बहाना बनाया।मैंने जाँच की तो ज्ञात हुआ कि उसके गोदामों में अनाज भरा है।अकाल की इस विपत्ति में वह जमाखोरी कर ऊँचे भाव में अनाज बेच रहा है।भूख से बिलबिला रहे  लोगों  के बर्तन ,आभूषण ,पशु और खेत गिरवी रख रहा है।क्या यह अन्याय नहीं है?क्या यह अपराध नहीं है ? मुकदमा तो उस पर चलना चाहिए।सारी स्थिति का ब्यौरा हमने तुम्हें भेजा था , पर तुमने अकाल की विभीषिका से जनता को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।यह तो कम्पनी का दायित्व था ।दोषी तो तुम भी हो।" नारायण सिंह इलियट के एक प्रश्न के उत्तर में माखन के गोदाम से अनाज लूटने के आरोप को ख़ारिज करते हुए कहते हैं -"माखन के गोदाम से ज़रूरत के मुताबिक ही अनाज लिया गया है।वह भी बाढ़ी में। मैंने उससे करारनामा में हस्ताक्षर करवाया है।कि अगली फसल आने के बाद लिए गए अनाज का डेढ़ गुना लौटा दिया जाएगा। करारनामा की नकल तुम्हें भी भेजी गई है।" इलियट पूछता है -क्या किसी की मर्जी के बिना ऐसा किया जा सकता है? इस पर नारायण सिंह कहते हैं -- जब हजारों जन भूख से तड़प रहे हों ,तो किसी जमाखोर व्यापारी की मर्जी का कोई मतलब नहीं । मैंने अपनी प्रजा की प्राण -रक्षा के लिए अनाज लिया है।न्याय तो तब होगा ,जब तुम माखन के गोदाम का सारा अनाज जब्त करो और भूखों मर रही जनता में बाँट दो। " लेकिन मुकदमे और न्याय का नाटक कर रहे कम्पनी सरकार के अंग्रेज अफ़सर पर वीर नारायण सिंह की इन दलीलों का कोई असर नहीं हुआ ।उन्हें जेल में बंद रखा गया । 

इसके बावजूद अपने देशभक्त जेल कर्मचारियों की मदद से  नारायण सिंह 28 अगस्त 1857 को वार्ड की दीवार पर बनाए गए एक बड़े छेद से निकलकर सोनाखान पहुँच गए। लेकिन दो दिसम्बर 1857 को अंग्रेज कैप्टन स्मिथ और नेपियर की फौज के साथ हुए युद्ध में नारायण सिंह ने विवश होकर स्वयं को अंग्रेजों के सामने प्रस्तुत कर दिया। 

   कैप्टन स्मिथ की  फौज ने 

   सोनाखान को राख में तब्दील कर दिया था 

  इस बीच एक दिसम्बर की रात कैप्टन स्मिथ ने अपनी फौज से सोनाखान की निर्जन बस्ती में आग लगवा दी और गाँव को राख में तब्दील कर दिया।उसने देवरी के जमींदार महाराज साय से कहा -लो ,महाराज साय अपना इनाम। ये रहा सोनाखान।अब तुम हो सोनाखान के जमींदार। " गिरफ़्तार हुए नारायण सिंह पर अंग्रेज हुकूमत की ओर से रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट की अदालत में फिर एक बार मुकदमे का नाटक हुआ।स्मिथ  उनसे कहता है -" व्यापारी के गोदाम से अनाज लूटने के आरोप में तुम्हे गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया जा रहा था।ट्रायल के दौरान तुम जेल से फरार हो गए और 500 लोगों की सेना तैयार कर ली।जब तुम्हें गिरफ्तार करने पलटन पहुँची ,तो तुमने उस पर आक्रमण कर दिया।कम्पनी सरकार ने तुम्हारी इन हरकतों को राजद्रोह करार दिया है। "इलियट उनसे पूछता है -तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है? 

   विदेशियों की इस अदालत को मैं मान्य नहीं करता 

 इस पर वीर नारायण सिंह का जवाब था - "पहली बात तो यह कि तुम विदेशियों की इस अदालत को मैं मान्य नहीं करता।"स्मिथ फिर बोला-यह कोर्ट की तौहीन है।तुम्हें अदालत का सम्मान करना होगा।" नारायण सिंह ने उसे जवाब दिया -"तुम फिरंगी हमारे देश में व्यापार करने आए थे न?लूट-खसोट और फूट डालकर राज्यों और जमींदारियों पर अवैध कब्जा जमा रहे हो ।तुम किस आधार पर मुझे देशद्रोही करार देते हो? क्या यह देश तुम्हारा है ? रहा सवाल सम्मान का ,तो वह हम तुम्हें अवश्य देते ,यदि तुम्हारा आचरण अतिथि जैसा होता। ये देश तुम्हारा नहीं ,हमारा है।हम तुम्हें राजा नहीं मानते तो राजद्रोह का प्रश्न ही उपस्थित नह होता।" अंततः उनकी  देशभक्तिपूर्ण सभी दलीलों को अमान्य करते हुए   इलियट की अदालत ने नारायण सिंह को फाँसी की सजा सुना दी।

      अंतिम इच्छा ;फिरंगी मेरा देश छोड़कर चले जाएँ 

 इलियट ने 10 दिसम्बर 1857 को सुबह फाँसी देने के पहले वीर नारायण सिंह से पूछा -माफी के अलावा तुम्हारी कोई इच्छा है,तो कह सकते हो।इस पर नारायण सिंह बोले -मेरे सिर पर पड़ा यह चोंगा उतार दिया जाए,ताकि मैं अपनी धरती और अपनी मातृभूमि के अंतिम दर्शन कर सकूं।इलियट ने फिर पूछा -और कोई इच्छा ? नारायण सिंह ने कहा -मेरी अंतिम इच्छा है कि फिरंगी मेरा देश छोड़कर चले जाएँ । आखिर अंग्रेजों ने नारायण सिंह को फाँसी पर लटका दिया।वीर नारायण सिंह अपनी प्रजा और अपने देश के लिए शहीद हो गए।

        छिपा हुआ साम्राज्यवादी एजेंडा लेकर 

            आयी थी ईस्ट इंडिया कम्पनी 

     हमारे देश को गुलाम बनाना भले ही अंग्रेजों का  दूरगामी और छिपा हुआ साम्राज्यवादी  एजेंडा रहा होगा , लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वे  सबसे पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी बनाकर इस महादेश में व्यापार करने आए थे। उन्होंने  अपनी कपट नीति और कूटनीति से भारत में कारोबार का ऐसा मायाजाल फैलाया कि उस ज़माने की छोटी -बड़ी अधिकांश  रियासतों के राजे -महाराजे उसमें उलझ कर अंग्रेजों की इस 'कम्पनी सरकार' के सामने नतमस्तक होते चले गए। तत्कालीन युग का विशाल अखण्ड भारत अंग्रेजों का गुलाम बन गया। भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए देश के विभिन्न इलाकों में वर्षों तक रह-रहकर कई स्थानीय और व्यापक विद्रोह भी हुए ।झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के वर्ष 1857 की महान संघर्ष गाथा इतिहास में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में दर्ज है। इस विद्रोह के बाद इंग्लैंड की हुकूमत ने भारत का शासन और प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से अपने हाथों में ले लिया। 

          परलकोट के गैंद सिंह की शहादत 

   वैसे नारायण सिंह की शहादत के 32 साल   पहले छत्तीसगढ़ अंचल में भी अंग्रेजों की 'कम्पनी सरकार 'के ख़िलाफ़ संघर्ष का वीरतापूर्ण इतिहास मिलता है ,जिसमें परलकोट यानी वर्तमान बस्तर राजस्व संभाग के कांकेर जिले में पखांजूर का इलाका भी इसका साक्षी रहा है ,जहाँ वर्ष 1825 में परलकोट के जमींदार गैंद सिंह को अंग्रेजों ने उनके महल के सामने 20 जनवरी को फाँसी पर लटका दिया था। सोनाखान के नारायण सिंह की शहादत 10 दिसम्बर 1857 को हुई।

     आज़ादी मिलने के दस साल बाद 

    शहीद घोषित हुए वीर नारायण सिंह 

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असंख्य वीरों के  महान संघर्षों से देश को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली और उसके लगभग 10 साल बाद 1957 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी वर्ष के दौरान तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सोनाखान के  नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पहला शहीद घोषित किया । यानी पूरे सौ साल बाद उन्हें यह सम्मान मिला  वरिष्ठ साहित्यकार और इतिहासकार हरि ठाकुर ने नारायण सिंह के बलिदान पर एक आलेख भी लिखा था ,जिसके छपने के बाद तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने इसका संज्ञान लिया और  बलौदाबाजार के तत्कालीन तहसीलदार से जाँच प्रतिवेदन मंगवाया । नारायण सिंह को शहीद और स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा हरि ठाकुर के इसी आलेख के आधार पर दिया गया। 

      हरि ठाकुर ने दिया 'वीर 'विशेषण 

      हरि ठाकुर के सुपुत्र और उपन्यास के लेखक आशीष सिंह ने पुस्तक की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए प्रारंभिक पन्नों में इस प्रसंग का उल्लेख किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि नारायण सिंह को 'वीर' विशेषण मेरे पिता (हरि ठाकुर) के द्वारा दिया गया था ,जो अब नारायण सिंह के साथ अटूट रूप से जुड़ गया है।

    रायपुर की सैन्य छावनी में हुए 17 शहीद 

 दिसम्बर 1857 में  वीर नारायण सिंह की शहादत के बाद जनवरी 1858 में रायपुर की सैन्य छावनी में अंग्रेज अफसरों के ख़िलाफ़ मैग्जीन लश्कर हनुमान सिंह के नेतृत्व में एक सैन्य विद्रोह भड़क उठा था,जिसमें हनुमान सिंह ने तीसरे नियमित रेजिमेंट के सार्जेंट मेजर सिंडवेल की उसके बंगले में घुसकर तलवार से हत्या कर दी थी। हनुमान सिंह अंग्रेजो के शस्त्रागार को कब्जे में लेना चाहते थे ,लेकिन उनका और उनके साथियों का यह विद्रोह विफल हो गया। इस घटना के बाद हनुमान सिंह अज्ञातवास में चले गए और उनका कोई पता नहीं चला ।लेकिन उनके 17 साथियों को पकड़ लिया गया ,जिन्हें 22 जनवरी 1858 को फाँसी पर लटका दिया गया। यह उपन्यास वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौर में छत्तीसगढ़ में घटित ऐसी कई भूली -बिसरी  घटनाओं की  याद दिलाता है ।

-स्वराज्य करुण 

Sunday, December 7, 2025

(स्मृति शेष ) तपस्वी साहित्यकार और पत्रकार पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी / आलेख -स्वराज्य करुण

 तपस्वी साहित्यकार और पत्रकार पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी 

  ( आलेख : स्वराज्य करुण )

पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित पण्डित श्याम लाल चतुर्वेदी  ने  लगभग 92 साल की अपनी जीवन -यात्रा में 77साल साहित्य को और 70 साल पत्रकारिता को समर्पित कर दिए । चतुर्वेदी जी ने साहित्य और पत्रकारिता को एक तपस्वी की तरह जिया ।चतुर्वेदी जी छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के प्रथम अध्यक्ष भी रहे ।छत्तीसगढ़ी और हिंदी ,दोनों ही भाषाओं में उन्होंने ख़ूब लिखा। 

वे  एक ऐसे साहित्यकार और पत्रकार थे, जिनके व्यक्तित्व में  छत्तीसगढ़ के सहज -सरल किसान की छवि झलकती थी ,वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन किसानों और मज़दूरों की भावनाओं से जुड़ी अपनी कविताओं और ग्राम्य जीवन से जुड़ी अपनी कहानियों में हमेशा हमारे साथ हैं । छत्तीसगढ़ी एक मीठी भाषा है,जिसकी मधुरता उनकी वाणी में हमेशा महसूस की जा सकती थी । छत्तीसगढ़ का बिलासपुर उनका गृहनगर था, जहाँ नगर निगम ने एक प्रमुख रास्ते का नामकरण उनके नाम पर किया है, जो साहित्यकार और पत्रकार के रूप में पण्डित जी की लोकप्रियता का प्रतीक है । 

   हमें अपने उन पूर्वज साहित्यकारों और पत्रकारों को उनके जन्म दिवस या उनकी पुण्यतिथि पर याद करके उनके प्रति नतमस्तक होना  चाहिए , जिनका हृदय  आजीवन  देश ,दुनिया और मानव समाज की भलाई के लिए धड़कता रहा, जिन्होंने कलम को औजार बनाकर समाज को अपनी रचनाओं के अनमोल रत्नों से समृद्ध किया ,जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता को तपस्वियों की तरह जिया।   चतुर्वेदी जी की सातवीं पुण्यतिथि पर 7 दिसम्बर 2025 को उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी जीवन यात्रा के अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग याद आ रहे हैं। सहजता ,सरलता और सौम्यता  , कृषक पृष्ठभूमि के साहित्यकार पण्डित चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व की  सबसे बड़ी पहचान थी ।  

छत्तीसगढ़ ही नहीं ,बल्कि तत्कालीन अविभाजित मध्यप्रदेश के साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच भी वे काफी लोकप्रिय थे।छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का अध्यक्ष मनोनीत किया था ।  वे  इस आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे । एक  समर्पित साहित्य साधक और छत्तीसगढ़ी भाषा के कवि के रूप में पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी को  राज्य के सभी क्षेत्रों में भरपूर लोकप्रियता मिली । 


                                    

भारत सरकार द्वारा उन्हें 2 अप्रैल 2018 को नई दिल्ली में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया गया था।  राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में तत्कालीन  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें देश के इस प्रतिष्ठित अलंकरण से नवाज़ा था ।  पण्डित चतुर्वेदी जी  को साहित्य के क्षेत्र में उनके सुदीर्घ और महत्वपूर्ण योगदान के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2004 में पण्डित सुन्दरलाल शर्मा राज्य अलंकरण से सम्मानित किया था। राज्योत्सव 2004 के अवसर पर मुख्य अतिथि पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के हाथों  यह सम्मान पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी  और स्वर्गीय लाला जगदलपुरी को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया था।      

कोटमी से शुरु हुआ ज़िन्दगी का सफ़र

 पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी का जन्म फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन ,2 फरवरी 1926 को छत्तीसगढ़ के ग्राम कोटमी (वर्तमान जिला -जांजगीर ) में हुआ था। उनका देहावसान 7 दिसम्बर 2018 को अपने  गृहनगर बिलासपुर में हुआ। 

 पाँचवीं से एम. ए. तक  प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में उत्तीर्ण हुए 

  वह 8 वर्ष की उम्र में चौथी कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए ,लेकिन कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों में आगे की पढ़ाई रुक गयी ।इसके बावज़ूद उन्होंने पाँचवीं कक्षा से लेकर एम.ए. तक की प्रत्येक परीक्षा में  स्वाध्यायी छात्र के रूप में उत्तीर्ण  होकर एक नया कीर्तिमान बनाया। वर्ष 1941 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में अकलतरा के मिडिल स्कूल से सर्वाधिक अंकों के साथ  पाँचवीं उत्तीर्ण हुए। प्राइवेट छात्र के रूप में ही वर्ष 1956 में बनारस से मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की ।इस परीक्षा में उन्होंने  संगीत विषय में प्रावीण्यता  हासिल की। पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से वर्ष 1968 में बी.ए. और वर्ष 1976 में हिन्दी साहित्य में  एम. ए. पास हुए । स्नातक और स्नातकोत्तर की दोनों डिग्रियाँ भी चतुर्वेदी जी ने स्वाध्यायी छात्र के रूप में हासिल की ।  बी.ए. की परीक्षा देते समय वह लगभग 42 वर्ष के थे ,जबकि  एम.ए.की परीक्षा के समय उनकी उम्र 50 वर्ष के आस-पास थी ।   

    एम. ए. की परीक्षा में 

     अपनी ही कविताओं पर आए   

    सवालों का लिखा जवाब

         चतुर्वेदी जी  एम.ए.की परीक्षा का अपना एक दिलचस्प अनुभव कभी -कभार कोई प्रसंग आने पर मुझे  अक्सर सुनाया करते थे । हुआ यह कि  इस परीक्षा के लिए स्वैच्छिक विषय के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी के पाठ्यक्रम में स्वयं चतुर्वेदी जी की कुछ कविताएँ भी शामिल थीं और परीक्षा  के प्रश्नपत्र में उनकी इन रचनाओं से जुड़े कुछ सवाल भी किए गए थे। परीक्षार्थी के रूप में  अपनी कविताओं के बारे में पूछे गए प्रश्नों का उत्तर लिखना उनके लिए एक रोचक अनुभव रहा। देश के किसी भी साहित्यकार के जीवन में ऐसा संयोग बहुत कम देखने में आता है। 

  *वर्ष 1941 से शुरु हुआ था साहित्य सृजन*

   चतुर्वेदी जी का साहित्य सृजन वर्ष 1941 से शुरू हुआ था। वर्ष 1949 में पहली बार आकाशवाणी के नागपुर केंद्र से उनकी छत्तीसगढ़ी कविताओं का प्रसारण हुआ।वर्ष 1963 में जब रायपुर में आकाशवाणी केन्द्र की स्थापना हुई , उनकी रचनाएँ वहाँ से भी नियमित अंतराल पर प्रसारित होने लगी । रायपुर के अलावा भोपाल और बिलासपुर के आकाशवाणी केन्द्रों  से और दूरदर्शन के रायपुर और भोपाल केन्द्रों से  भी समय -समय पर उनके काव्य पाठ  का प्रसारण हुआ। दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र ने  उनके छत्तीसगढ़ी  कहानी -पाठ का प्रसारण किया । 

           प्रकाशित पुस्तकें 

 पण्डित श्याम लाल चतुर्वेदी जी की प्रकाशित पुस्तकों में छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह 'भोलवा भोलाराम बनिस ' और कविता संग्रह 'पर्रा भर लाई ' शामिल है । कविता -संग्रह 'पर्रा भर लाई 'में उनकी वर्ष 1949 से 1965 के बीच लिखी गयी छत्तीसगढ़ी कविताएँ शामिल हैं। इसमें उन्होंने 'बेटी के विदा ','आइस जब बादर करिया', 'धरती रानी हरियागे' सहित अपनी 20 लोकप्रियता रचनाओं को शामिल किया है। भारतेन्दु साहित्य समिति ,बिलासपुर ने अपनी स्वर्ण जयंती के अवसर पर वर्ष 1985 में इस कविता -संग्रह का पहला संस्करण प्रकाशित किया था। समिति ने वर्ष 2000 में तीसरा संस्करण भी प्रकाशित किया।  

  पत्रकारिता में 70 वर्षों का योगदान

  पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनका लगभग 70 वर्षों का सुदीर्घ योगदान रहा। अपने संस्मरणों को साझा करते हुए वह अक्सर बताया करते थे - वर्ष 1955 तक महज़ पांचवीं पास थे ,लेकिन पत्रकार के रूप में भी पहचाने जाते थे । वर्ष 1948 से ही वह पत्रकारिता में सक्रिय हो गए थे । सबसे पहले 'कर्मवीर ' और  साप्ताहिक 'महाकोशल' के संवाददाता रहे।  बाद के वर्षों में उन्होंने अपने गृहनगर बिलासपुर में नागपुर के दैनिक नवभारत ,लोकमत और युगधर्म , कलकत्ता के दैनिक नवभारत टाइम्स ,दिल्ली के दैनिक जनसत्ता और इन्दौर के दैनिक नईदुनिया  के   पत्रकार के रूप में भी लम्बे समय तक अपनी सेवाएँ दी। ग्रामीण पत्रकारिता में उनकी विशेष दिलचस्पी थी ।उन्होंने  वर्ष 1952 से लगातार कई वर्षों तक राष्ट्रीय समाचार एजेंसी ' हिन्दुस्थान समाचार ' के बिलासपुर जिला प्रतिनिधि  के रूप में भी पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना योगदान दिया  । 

ग्राम पंचायत के सरपंच भी रहे                         

    पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी वर्ष 1967 से 1972 तक अपनी ग्राम पंचायत कोटमी सुनार के निर्विरोध निर्वाचित सरपंच भी रहे । उन्होंने सरपंच के रूप में गाँव में मद्य निषेध ,स्वच्छता ,साक्षरता और शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ करने का प्रयास किया । उनके नेतृत्व में ग्राम पंचायत कोटमी सुनार को   तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने महात्मा गांधी जन्म शताब्दी वर्ष 1969 में बिलासपुर जिले की सर्वश्रेष्ठ ग्राम पंचायत का पुरस्कार से सम्मानित किया था । चतुर्वेदी जी छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के उपाध्यक्ष भी रहे। वे अपने गृहनगर बिलासपुर की भारतेन्दु साहित्य समिति सहित अनेक साहित्यिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए थे

  मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि  उनके जैसे साहित्य मनीषी के साथ  मेरा भी लगभग तीन  दशकों का लम्बा सम्पर्क रहा । इस आलेख में उनके साथ बिलासपुर में उनके घर 22 नवम्बर 2015 की अपनी मुलाकात की एक तस्वीर भी मैं साझा कर रहा हूँ । सरकारी नौकरी के दौरान जहाँ कहीं भी मेरी पदस्थापना रही , वहाँ लगभग हर साल किसी न  किसी कार्यक्रम में  एक -दो बार उनका आगमन होता ही रहता था। रायगढ़ में महाराजा चक्रधर सिंह की स्मृति में होने वाले नृत्य और संगीत के अखिल भारतीय आयोजन चक्रधर समारोह में भी वह हर साल आते ही थे । सरकारी गेस्ट हाउस को छोड़कर उन्हें मेरे घर पर ही रुकना अच्छा लगता था । वे कहते थे - "मुझे तुम्हारे यहाँ घर जैसी आत्मीयता मिलती है। किसी सरकारी रेस्ट हाउस में ऐसा अपनत्व कहाँ?"मेरी खुशकिस्मती थी कि मुझे अपने घर में   उनके आतिथ्य सत्कार का अवसर मिलता था ।   मेरे दोनों बच्चों के वह प्रिय 'दादाजी' हुआ करते थे । ठण्ड के मौसम में उनके आगमन पर मेरी पत्नी सुप्रिया उनके नहाने के लिए मिट्टी के चूल्हे को फूँकनी से सुलगाकर पानी गरम करके देती थी  वह उन्हें अपनी बेटी जैसा स्नेह और आशीर्वाद  दिया करते थे । मेरा पुत्र विक्की तीन - चार साल का था । वह तखत पर लेटे अपने दादाजी के पैर दबाया करता था ।

     चतुर्वेदी जी अब हमारे बीच नहीं हैं ,लेकिन जब कभी और जहाँ कहीं भी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी साहित्य और आंचलिक  पत्रकारिता पर कोई औपचारिक या अनौपचारिक चर्चा होती है या कोई आयोजन होता है ,वहाँ मौज़ूद  हर व्यक्ति की यादों में  वह  अनायास चले आते हैं।

   आलेख  - स्वराज्य करुण 

Saturday, December 6, 2025

(पुस्तक -चर्चा) सुरता के संसार :यादों की दुनिया में छत्तीसगढ़ी रत्नों का अनमोल खज़ाना/ आलेख -स्वराज्य करुण

 सुरता के संसार :यादों की दुनिया में छत्तीसगढ़ी रत्नों का अनमोल खज़ाना

(आलेख - स्वराज्य करुण ) 

साहित्य की दुनिया में संस्मरण लेखन एक रोचक विधा है ,जिसमें लेखक अपनी यादों की दुनिया में घूमते हुए, अपने अनुभवों के माध्यम से माध्यम से पाठकों को ज्ञान और विचारों का अनमोल खज़ाना सौंपने की कोशिश करते हैं।हर इंसान की  जीवन यात्रा में उतार -चढ़ाव के साथ कई तरह के पड़ाव आते -जाते हैं ,जिनमें अच्छे लोगों से मुलाकात और अच्छी संस्थाओं से जुड़े कई यादगार प्रसंग भी होते हैं। संस्मरण लेखन एक ऐसी विधा है ,जिसमें लेखक अपनी स्मृतियों के साथ अपने विचार भी पाठकों से साझा करते हुए आगे बढ़ता है। यात्रा वृत्तांत भी यादों का एक दिलचस्प दस्तावेज होता है। छत्तीसगढ़ी साहित्य में संस्मरण लेखन की विधा को आगे बढ़ाने वाले गिने-चुने रचनाकारों में सुशील भोले भी शामिल हैं । 


भोले जी छत्तीसगढ़ी कविता ,कहानी और निबंध विधाओं के भी जाने -माने रचनाकार हैं। वे छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए समर्पित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने हिन्दी में भी खूब लिखा है। अस्वस्थ होने के बावज़ूद उनका लेखन निरन्तर जारी है। अपने लिखे हुए को वे इन दिनों  सोशल मीडिया में साझा कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में उनके संस्मरणो का संकलन  'सुरता के संसार' (यानी यादों का संसार)  हाल ही में प्रकाशित हुआ है।इसमें उनके 39 संस्मरणात्मक आलेख शामिल हैं। उनकी यादों की इस गठरी में साहित्य ,कला और संस्कृति से जुड़े छत्तीसगढ़ महतारी के  एक से बढ़कर एक रत्नों के व्यक्तित्व और कृतित्व का अनमोल खज़ाना है। उस दिन सुशील भोले के 'सुरता के संसार को पढ़ने लगा तो बस ,उनकी प्रवाहपूर्ण छत्तीसगढ़ी  भाषा के सागर में तैरता  ही चला गया।पुस्तक में  पहला आलेख छत्तीसगढ़ में स्वर्णिम विहान का स्वप्न देखने और दिखाने वाले कवि और लेखक डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा को समर्पित है। इस आलेख का शीर्षक है --'छत्तीसगढ़ म सोनहा बिहान के सपना देखइया डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा '। उल्लेखनीय है कि डॉ. वर्मा एक बड़े भाषा विज्ञानी भी थे। वे छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक मंच 'सोनहा विहान ' के भी कुशल उदघोषक हुआ करते थे।उन्हें वर्ष 1973 में 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास' विषय पर अपने शोध प्रबंध के लिए पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से पी-एच.डी. की उपाधि मिली थी । इसके पहले उन्होंने 'प्रयोगवादी काव्य और साहित्य चिन्तन'विषय पर वर्ष 1966 में सागर विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट किया था। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीत 'अरपा पैरी के धार -महानदी हे अपार' को छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य गीत का दर्जा दिया है। यह छत्तीसगढ़ महतारी की वंदना का गीत है।सुशील भोले ने अपनी किताब 'सुरता के संसार' में डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के साहित्यिक ,सांस्कृतिक और पारिवारिक जीवन के प्रेरक प्रसंगों को अपने आलेख में सहेजा है। 

  संग्रह में उनका दूसरा आलेख  प्रथम छत्तीसगढ़ी व्याकरण के रचयिता और धमतरी के अध्यापक काव्योपाध्याय हीरालाल चन्द्रनाहू के बारे में है। वे 'पण्डित हीरालाल काव्योपाध्याय' के नाम से भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने वर्ष 1885 में छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण लिखा था ,जिसे सर जार्ज ग्रियर्सन ने छत्तीसगढ़ी और अंग्रेजी के साथ वर्ष 1890 में प्रकाशित किया था सुशील भोले ने पण्डित हीरालाल काव्योपाध्याय पर केन्द्रित अपना आलेख मानक रेखाचित्र के रूप में प्रस्तुत किया है। 

    भोले की कृति 'सुरता के संसार ' में छत्तीसगढ़ के महान आध्यात्मिक चिन्तक स्वामी आत्मानंद पर केन्द्रित आलेख में जानकारी दी है कि स्वामीजी छत्तीसगढ़ी लेखन को अध्यात्म से जोड़ने पर विशेष बल दिया करते थे। स्वामी जी ने  भारत के महान समाज सुधारक स्वामी विवेकानंद और उनके आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का आजीवन अथक प्रयास किया। रायपुर में उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन -विवेकानंद आश्रम और बस्तर अंचल के जिला मुख्यालय नारायणपुर में स्वामी विवेकानंद जी के नाम से संचालित शैक्षणिक संस्थाएं और कई सेवा प्रकल्पों से स्वामी आत्मानंद जी की भी यादेंजुड़ी हुई हैं जो  सदैव जुड़ी रहेंगी। पुस्तक में चौथा संस्मरण छत्तीसगढ़ में शब्दभेदी बाण चलाने वाले कोदूराम वर्मा के बारे में है। वहीं भोले के कुछअन्य संस्मरणों के शीर्षक देखिए  - पंडवानी के पुरोधा नारायण प्रसाद वर्मा ,छत्तीसगढ़ी साँचा म पगे साहित्यकार टिकेन्द्र नाथ टिकरिहा, सुराजी वीर अनंत राम बर्छिहा । इन शीर्षकों से ही स्पष्ट हो जाता है कि संस्मरण किन महान विभूतियों पर केन्द्रित है।

     सुशील भोले ने वर्ष 1987 में छत्तीसगढ़ी भाषा में मासिक साहित्यिक पत्रिका 'मयारू माटी'का भी सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया था।इसके विमोचन समारोह के संस्मरण को उन्होंने 'प्रकाशन मयारू माटी के ' शीर्षक आलेख में साझा किया है। विमोचन 9 दिसम्बर 1987 को रायपुर के कुर्मी छात्रावास में हुआ था। हालांकि कुछ कठिनाइयों के कारण उन्हें 13 अंकों के बाद इसका प्रकाशन स्थगित करना पड़ा ,लेकिन छत्तीसगढ़ी साहित्य ,कला और संस्कृति के प्रचार प्रसार और विकास में 'मयारू माटी ' का योगदान आज भी याद किया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन में यहाँ की विभूतियों के योगदान को सुशील भोले ने अपने आलेख 'राज आंदोलन म आहुति 'शीर्षक आलेख में याद किया है। अपने गृहग्राम से जुड़ी यादों को उन्होंने 'मोर गाँव नगरगाँव'के नाम से बड़ी भावुकता के साथ प्रस्तुत किया है।।   

         सुशील भोले पहले सुशील वर्मा के नाम से जाने जाते थे। उनकी जीवन यात्रा में एक ऐसा भी पड़ाव आया,जब वे आध्यात्म की दिशा में मुड़ गए और भगवान शिव के भक्त बनकर उन्होंने 21 वर्षो तक साधना की। इसके बाद वे साहित्य के क्षेत्र में 'सुशील भोले 'के नाम से सक्रिय हुए। अपने इस संस्मरण को उन्होंने 'अध्यात्म के रद्दा'(आध्यात्म का रास्ता)शीर्षक आलेख में शामिल किया है।

      छत्तीसगढ़ तालाबों का प्रदेश रहा है।भोले ने अपनी यादों की गठरी में इसे 'छै आगर छै कोरी तरिया'शीर्षक से लिखा है। उनके कुछ आलेख छत्तीसगढ़ी नाचा और कला संस्कृति के पुरातन स्वरूप की भी याद दिलाते हैं।जैसे - रतिहा के वो अलकर नाचा,इसमें वह अपने बचपन और किशोरावस्था के दिनों में अपने पैतृक गाँव 'नगर गाँव'में हुए 'किसबिन नाच' को याद करते हैं। उन्होंने सिमगा के पास हरिनभट्टा गाँव मे एक बार हुए कवि सम्मेलन का दिलचस्प वर्णन 'सुरता वो कवि नाचा'के शीर्षक आलेख में किया है । शादी ब्याह के मौसम में जब देश के अन्य ग्राम्यांचलों की तरह छत्तीसगढ़ के गाँवों में भी बारातें बैल गाड़ियों से आती -जाती थीं ,उन बारातों से जुड़ी मधुर स्मृतियों को सुशील भोले ने 'बइला गाड़ी के बरात'में संजोया है। छात्र जीवन में फिल्में देखने की चाहत हर किसी को होती है। लेखक सुशील भोले को भी होती थी।उनका आलेख 'छात्र जीवन के  मेटनी शो'  में उनकी यह दिलचस्पी प्रकट होती है। अपने एक आलेख में वह किन्नर के कठिन  जीवन  पर प्रकाश डालते हुए उनकी प्रतिभाओं को समाज में सम्मान दिलाने की मांग करते हैं। 

     उन्होंने अपने आलेखों में छत्तीसगढ़ी साहित्यकार डॉ. बलदेव ,डॉ. दशरथ लाल निषाद 'विद्रोही',सन्त कवि पवन दीवान,डॉ. परदेशी राम वर्मा,डॉ. सीताराम साहू ,संगीत शिल्पी खुमान साव ,छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्न दृष्टा डॉ. खूबचन्द बघेल , छत्तीसगढ़ी लोक नृत्य नाचा के पुरोधा मदन निषाद और गेड़ी नृत्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने का सपना देखने वाले सुभाष बेलचंदन की रचनात्मक प्रतिभा को भी रेखांकित किया है। सुशील ने अपनी प्राथमिक शाला की पढ़ाई और नदी -पहाड़ , घाम -छाँव ,रेस -टीप ,पिट्ठूल, बाँटी ,भौंरा ,डंडा -पचरंगा , गिल्ली डंडा ,केंऊ -मेऊँ जैसे बचपन के परम्परागत खेलों से जुड़ी मधुर यादों को भी लिपिबद्ध करते हुए सुरूचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

    उनका एक आलेख 'ममा गाँव के सुरता'को पढ़कर हर पाठक को अपने मामा के गाँव की याद अनायास आने लगेगी।  सुशील ने 'जिनगी के संगवारी' शीर्षक आलेख अपनी जीवन संगिनी बसंती देवी को समर्पित किया है।वहीं अपने एक अन्य आलेख में वह साहित्यकारों के साथ गिरौदपुरी धाम की एक यात्रा को भी याद करते हैं ,जो  अठारहवीं सदी के छत्तीसगढ़ के महान समाज सुधारक तपस्वी और सतनाम पंथ के प्रवर्तक गुरु घासीदास जी की जन्म स्थली और कर्मभूमि है।

     पुस्तक के सभी आलेख सहज ,सरल और प्रवाहपूर्ण छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखे गए हैं । सुशील भोले की छत्तीसगढ़ी भाषा शैली में सरलता के साथ -साथ तरलता और लेखकीय तल्लीनता भी है। वैसे भी वे एक सिद्धहस्त लेखक ,सवेदनशील कवि और कहानीकार हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ी के साथ -साथ हिन्दी लेखन में भी महारत हासिल है।साहित्य के साथ -साथ पत्रकारिता में भी सक्रिय रहे हैं।  उनकी नवीनतम कृति 'सुरता के संसार ' हमें छत्तीसगढ़ की  सामाजिक ,साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया के रंग -बिरंगे संसार में ले चलती है। लेखन और प्रकाशन के लिए सुशील भोले को हार्दिक बधाई और उनके उत्तम स्वास्थ्य के लिए अनेकानेक आत्मीय शुभकामनाएँ।

      - स्वराज करुण

Friday, December 5, 2025

(पुस्तक -चर्चा ) दिल की गहराइयों से निकली आवाज़ -सीढ़ियों का समीकरण /आलेख -स्वराज्य करुण

 दिल की गहराइयों से निकली आवाज़ ; सीढ़ियों का समीकरण 

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(आलेख  -स्वराज्य करुण )


वरिष्ठ पत्रकार और लेखक डॉ.महेश परिमल  के 42 ललित निबंधों का संकलन 'सीढ़ियों का समीकरण' हमारे समय और समाज का एक महत्वपूर्ण  दस्तावेज है। ये निबंध हम सबके आस -पास के जन-जीवन को बहुत नज़दीक  से देखकर और परख कर लिखे गए हैं। संग्रह के निबंधों में हमारे  समाज और मानव जीवन की छोटी -बड़ी हर घटना  का चित्रण  लेखक ने बड़ी संज़ीदगी  से किया है ,जो उनके गहन अनुभवों के साथ उनकी लेखकीय विश्लेषण क्षमता को भी प्रकट करता है। महेश कई दशकों से मध्यप्रदेश के भोपाल में रहते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ प्रदेश से भी उनका दशकों पुराना आत्मीय जुड़ाव आज भी बना हुआ है ।

   उनके इस संग्रह के  हर निबंध का  शीर्षक जितना  सम्मोहक है ,उसकी  अंतर्वस्तु उतनी ही भावनात्मक । निबंधों में व्यक्त भावनाएँ लेखक के दिल की गहराइयों से निकली आवाज़ है।  प्रांजलता लिए हुए  प्रवाहपूर्ण छोटे -छोटे वाक्य  उनके निबंधों को और भी ख़ूबसूरत बनाते हैं।  समाज को देखने का हर लेखक का अपना नज़रिया होता है। लेखक अगर पत्रकार  है तो उसका यह नज़रिया और भी व्यापक हो जाता है। संयोगवश महेश परिमल  के निबंधों में उनकी इन दोनों भूमिकाओं की छाप मिलती है। इक्कीसवीं सदी की इस  दुनिया में भारतीय समाज में हो रहे अच्छे -बुरे कई बदलावों की झलक भी इनमें से कई निबंधों में मिलती है। महेश  के निबंध हमें  तेजी से बदलते समाज में मानवीय संवेदनाओं को संजोकर रखने का भी संदेश देते हैं । 


                                              



संग्रह के निबंध  हमारे समाज का दर्पण भी हैं और मार्ग प्रदर्शक भी। यह आधुनिकता की  चकाचौंध में  समाज की सुप्त हो  रही चेतना को  जगाने और उसे सही राह दिखाने वाला निबंध संग्रह है। 

   देश में तेजी से हो रहे शहरीकरण की त्रासदी 'हम धूप बेचते हैं' शीर्षक निबंध में महसूस की जा सकती है।  शहरों और विशेष रूप से महानगरों की बहुमंजिली अपार्टमेंट संस्कृति मेंआप अगर कोई ऐसा फ्लैट खरीदना चाहें तो उसके लिए आपको लाखों रुपए अलग से देने होंगे।  महेश लिखते हैं --" क्या आपने कभी सुना है कि किसी ने धूप को 5 से 10 लाख रुपए में बेचा ?भले ही न सुना हो ,पर इस ज़माने में ऐसे भी लोग हैं जो न केवल धूप ,बल्कि उजास और हवा भी बेचते हैं। आप खुशी से खरीदते भी हैं । प्रकृति ने हरियाली , धूप ,हवा और उजास सभी के लिए भरपूर मात्रा में दी है । इसे बेचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।पर शहर में बनने वाली ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच कांक्रीट के जंगल में हमारे सपनों का घर दिलाने के लिए बिल्डर्स यही कर रहे हैं।"

संग्रह में एक निबंध है --' सीढ़ियों का समीकरण ' जो दार्शनिक अंदाज़ में   मनुष्य को जीवन में   आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। लेखक के शब्दों में --"पहाड़ के नीचे खड़े होकर हम सीढ़ियों को दूर तक जाता देखते हैं ।पर जब हम उन सीढ़ियों पर कदम रखकर आगे बढ़ते हैं ,,तब सीढ़ियाँ नीचे होती जाती हैं और हम ऊपर। सीढ़ियों के इस समीकरण को समझा आपने ?सफलता जब तक हमसे दूर होती है ,तब तक वह हमें काफी कठिन लगती है। वैसे सफलता को कठिन होना भी चाहिए,क्योंकि परिश्रम से प्राप्त सफलता अपनी कहानी स्वयं कहती है।" संग्रह में कुछ इसी तरह की भावनाओं से परिपूर्ण एक निबंध है -'गति और ठहराव ',लेकिन इसमें समाज की प्रचलित धारणाओं के विपरीत गति के साथ -साथ ठहराव को भी जरूरी बताया गया है।महेश लिखते हैं -- "लोग कहते हैं कि गति ही जीवन है।इसका आशय यही हुआ कि यदि जीवन में गति नहीं है आपका जीवन संतुलित नहीं है। आप यदि ठहर गए,तो जीवन भी ठहर जाता है।ठहरने या थम जाने को ठहरे हुए पानी की संज्ञा देते हुए कहा गया है कि ठहरा हुआ पानी गंदा होता है,जबकि बहता हुआ पानी हमेशा निर्मल होता है ।पर क्या गति हमेशा ही होनी चाहिए ? क्या ठहराव में जीवन नहीं होता ?जीवन में कई पल ऐसे भी आते हैं ,जब हम कहते हैं कि काश ...समय कुछ ठहर जाता। यानी उस वक्त भी गति होती है। लेखक ने एक  छत्तीसगढ़ी शब्द 'अगोरना ' का उदाहरण दिया है ,जिसका अर्थ है प्रतीक्षा करना। महेश इस निबंध में लिखते हैं--रास्ते पर कुछ दूरी से दो लोग जा रहे होते हैं ,तो पीछे वाला उसे 'अगोरने ' के लिए कहता है। यानी तुम कुछ ठहर जाओ तो मैं भी तुम्हारे साथ हो लूंगा। इस तरह से कुछ पल का यह ठहराव व्यक्ति को एक साथी दिला देता है।"

'लौटना जरूरी है 'निबंध में भी लेखक ने हमारे समाज की मान्यता धारणाओं के प्रतिकूल अपने विचार दिये हैं ,जो पाठकों को सोचने के लिए मज़बूर करते हैं। महेश कहते हैं --कहा जाता है कि सदैव आगे बढ़ते रहने का नाम ही जीवन है। देखा जाए तो,यह पूरा सच नहीं है।जीवन में लौटना भी उतना ही आवश्यक है ,जितना आगे बढ़ना।" अपने इस विचार पर बल देने के  लिए  वह पक्षियों की उड़ान और फिर अपने घरौंदे (घोंसले )में उनके लौटकर आने का उदाहरण देते हैं।वह महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के आगे बढ़ने और (चक्रव्यूह)से नहीं लौट पाने के प्रसंग का भी जिक्र करते हैं और लिखते हैं --"आधे ज्ञान ने उसकी जान ले ली। लौटने में एक सुकून है।जिसे लौटना आता है ,वही ज़िंदगी को अच्छी तरह से जी सकता है।"

  मनुष्य केवल पारिवारिक नहीं ,बल्कि सामाजिक प्राणी भी है। वह समाज में रहता है। एक -दूसरे से जान -पहचान और संबंधों का नेटवर्क ही समाज है। लेखक ने 'संबंधों के पिरामिड' शीर्षक अपने निबंध में इन संबंधों की सुरुचिपूर्ण व्याख्या की है।

     पहाड़ ,नदी और जंगल किसी भी देश और वहाँ लोगों के दिलों की धड़कन होते हैं। इनसे बनने वाला पर्यावरण हमारे जीवन को गतिशील बनाता है ,लेकिन आधुनिक विकास के इस दौर में हमारी इन बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदाओं का जिस बेरहमी से दोहन हो रहा है , लेखक ने  'पहाड़ के आँसू' शीर्षक निबंध में उसका मर्मस्पर्शी चित्रण किया है।  हालांकि लेखक ने बहुत स्पष्ट जिक्र तो नहीं किया है ,लेकिन पूरा पढ़ने पर यह साफ हो जाता है कि उनका हृदय  उत्तराखंड में हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से फरवरी 2021 में चमोली में हुई भारी तबाही और इसके पहले 2013 में केदारनाथ में हुए हादसे से काफी आहत हुआ है। उनके शब्दों में 'पहाड़ के आंसुओं' को आप भी महसूस कीजिए --

"इस बार पहाड़ फिर जी भरकर रोया है।पहाड़ को रोना क्यों पड़ा ? यह समझने को कोई तैयार नहीं है।बस, लोग पहाड़ द्वारा की गई तबाही के आंकड़ों में ही उलझे हैं। संसद में प्रधानमंत्री के आँसू सभी को दिखे ,पर पहाड़ के आँसू किसी की नज़र में नहीं आए।बरसों से रो रहे हैं पहाड़।पर कोई हाथ उनकी आँखों तक नहीं पहुँचा। पहाड़ के सिर पर प्यार भरा हाथ फेरने वाले लोग अब गुम होने लगे हैं।आख़िर रोने की भी एक सीमा होती है।इस बार यह दुःख नाराजगी के रूप में बाहर आया है। पहाड़ों को अब गुस्सा आने लगा है।"

 उजड़ते ,बिगड़ते पर्यावरण की गहरी चिन्ता आप  'पेड़ों का अनसुना क्रंदन ' में भी महसूस कर सकते हैं।लेखक ने इसमें कोरोना काल की  बारिश के दौरान जड़ों से उखड़ गए 70 वर्ष और 100 वर्ष पुराने पेड़ों से अपनी संवेदनाओं को जोड़ते हुए लिखा है --"अब पेड़ उखड़ रहे हैं तो लोग उजड़ेंगे ही।आज हमारे सामने जो भी पेड़ हैं ,वे हमारे पूर्वजों की ही निशानी हैं।उसे हम पूर्वजों का पराक्रम भी कह सकते हैं ।हमारा पराक्रम यह है कि हमने बेतहाशा पेड़ों की कटाई तो की है ,पर उस स्थान पर नये पौधे रोपने की ज़हमत नहीं उठाई।... शहरों में कई पेड़ ऐसे हैं ,जो अब हाँफ रहे हैं।प्राणवायु देने वाले को अब प्राणवायु की आवश्यकता है।वे भीतर से टूट रहे हैं,छीज रहे हैं ,उनका तन -मन झुलस रहा है।वे जीना चाहते हैं ,पर उनके सीने पर कांक्रीट का जंगल उग आया है।उनके पाँवों से पसीना और चेहरे से ख़ून निकलने लगा है।वे पेड़ कुछ कहना चाहते हैं इस मानव जाति से ,कौन है जो सुनेगा उनकी गुहार ?कहीं ये गुहार चीत्कार न बन जाए ,इसलिए हमें ही चेतना होगा। हमें ही सुननी होगी उन अनसुनी चीख़ों को ,जो हमारे आस -पास गूंज रही हैं।"

     हमारे जीवन में सूचना क्रांति के उपकरणों की घुसपैठ कितनी दूर तक हो चुकी है ,इसे हम महेश के निबंध 'जीवन में अदृश्य ताकतों की दखल 'को पढ़कर महसूस कर सकते हैं । लेखक के अनुसार ये अदृश्य ताकतें हैं -इंटरनेट और मोबाइल ।

संग्रह के कुछ निबंध आधुनिक जीवन शैली में दिनों- दिन आत्म केन्द्रित हो रहे समाज की विसंगतियों को भी रेखांकित करते हैं । इनमें से एक है  'अकेलेपन को भुनाने की कोशिश', जिसमें लेखक के अनुसार -- "किसी चिंतक ने कहा है कि किसी के अकेलेपन का मज़ाक मत उड़ाओ। आपके पास जो भीड़ खड़ी है ,वह किसी स्वार्थ की वजह से खड़ी है। आजकल इस अकेलेपन को भी लोगों ने व्यापार बना लिया है।आपको अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए धन -राशि खर्च करनी होगी।इसके लिए कई वेबसाइट्स हैं,जो यह काम करती हैं। कई नामों से यह डेटिंग साइट हमारे सामने आती है।वास्तव में अकेलापन एक ऐसी भावना है ,जिसमें लोग बहुत तीव्रता से खालीपन और एकांत अनुभव करते हैं।"

 वर्तमान  समाज मे  वृद्धजनों की दयनीय हालत को  'वृद्धाश्रमों में कैद युवाओं का पराक्रम'शीर्षक निबंध से समझा जा सकता है।लेखक इन बुजुर्गों की पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं --कई शहर बदनसीब भी होते हैं।बदनसीब इस मायने में कि जिस शहर में जितने वृद्धाश्रम होंगे ,वह शहर उतना ही अधिक बदनसीब होगा। वास्तव में शहर में वृद्धाश्रम का होना ही किसी कलंक से कम नहीं।...आज हमारे देश के युवाओं का पराक्रम इन्हीं वृद्धाश्रमों में कैद है ,जहाँ की दीवारों पर कलियुगी संतानों की गाथाएँ अंकित हैं।"

  कोरोना के निष्ठुर समय में वर्ष 2020 में  औरंगाबाद के पास थकान मिटाने के लिए रेल्वेट्रैक पर सोये श्रमिकों की एक मालगाड़ी से हुई मौत ने लेखक को भी झकझोर कर रख दिया था। अपनी भावनाओं को उन्होंने 'पटरी से बेपटरी होती ज़िंदगी' में वाणी दी है। समाज में कई तरह के दुःख हैं , हादसे हैं , समस्याएँ हैं ,लेकिन  ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक है। कई सकारात्मक पहलू भी हैं।  महेश की लेखनी ने उन्हें भी स्पर्श किया है। उनका एक निबंध है - ठिठुरती सुबह में सिकुड़ते लोग '।  ठंड के मौसम में सुबह की सैर के दौरान हमारे आस -पास होती जीवन की हर छोटी -से -छोटी उन हलचलों  पर भी लेखक की नज़र गई है ,जिन्हें हम अक्सर सामान्य मानकर नज़रंदाज़ कर जाते हैं। लेखक की वर्णन शैली देखिए -- " बहुत सुहानी होती है ,सुबह की सैर। कभी देखी है आपने सुबह होने से पहले प्रकृति की तैयारी ?कहते हैं प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखती है। जो अपनी सेहत के प्रति सजग रहते हैं ,उनकी सुबह बहुत ही फलदायी होती है। अलसभोर आप निकलें तो पाएंगे -कुछ बुजुर्गों की चहल -कदमी , मंद गति से दौड़ते युवा ,बतियाती महिलाएँ ,इक्का -दुक्का वाहनों का गुज़रना ,रेल्वे या बस स्टैंड जाते लोग ,दूध वाली वैन ,कोई भजन मंडली , दूर मस्ज़िद से उठती अज़ान की आवाज़ ,सड़क पर पसरे लावारिस पशु ,कभी कोई कुत्ता या फिर कोई अन्य उपेक्षित पशु।सच में ,ठंड की सुबह या अलसभोर में हमारे सामने कुछ ऐसा होता है ,जिसे हमने पहले कभी महसूस ही नहीं किया होता है।उसे महसूस करना हो तो सुबह से अच्छा कोई समय हो ही नहीं सकता।"सभी कहते हैं कि बच्चे ही देश और समाज का भविष्य होते हैं ,लेकिन उनके मनोविज्ञान को हममें से अधिकांश लोग नहीं समझ पाते।  लेखक ने  -'मासूमों की सुनो' , अनुभवों से गुजरता बचपन ' और 'अकुलाता बचपन 'शीर्षक अपने निबंधों में बच्चों के प्रति परिवार और समाज की ज़िम्मेदारियों को समझाने की कोशिश की है।देश और दुनिया में दो साल पहले  कोरोना भले ही एक भयानक त्रासदी लेकर आया था ,लेकिन इन्हीं त्रासदियों के बीच मनुष्य के पारिवारिक  संबंधों को नया जीवन भी मिला। रिश्तों की दूरियाँ कम हुईं।

    महेश परिमल ने अपने निबंध 'मीठे होते रिश्ते ' में लिखा है कि हम अपनी उन जड़ों की ओर लौटने लगे हैं ,जिन्हें हम छोड़ चुके थे। इसी कड़ी में जीवन के सकारात्मक पक्ष पर केन्द्रित उनका  एक निबंध है --'कम हुआ पीढ़ियों का अंतर '।कोरोना काल में देश के  शहरों से बेरोजगार होकर लाखों श्रमिक  अपने गाँवों की ओर लौट गए थे। हालात सामान्य हुए तो वे फिर अपने कर्म क्षेत्र की ओर चल पड़े।  इस परिदृश्य को महेश परिमल ने अपने निबंध 'घरौंदों से आशियाने की ओर 'में मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ उभारा है। 

    संग्रह के सभी निबंध पठनीय हैं और  उनमें अंतर्निहित संदेश हर किसी के लिए विचारणीय । 

     आलेख -स्वराज्य करुण 


Thursday, December 4, 2025

(पुस्तक -चर्चा )विमर्श के केन्द्र में छत्तीसगढ़ी साहित्य की 18पुस्तकें / आलेख -स्वराज्य करुण

(पुस्तक -चर्चा )

विमर्श के केन्द्र में छत्तीसगढ़ी साहित्य की 18 पुस्तकें 

आलेख -स्वराज्य करुण 

छत्तीसगढ़ी भाषा में साहित्यिक रचनाओं का लेखन और प्रकाशन पहले भी होता रहा है, लेकिन वर्ष 2000 में राज्य निर्माण के बाद इसमें काफी तेजी आयी है.वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद इस भाषा के साहित्यकारों में भी रचनात्मक उत्साह का संचार हुआ है.नये, पुराने रचनाकार साहित्य की विभिन्न विधाओं में लगातार सृजन कर रहे हैं.नये दौर में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं सहित आकाशवाणी और दूरदर्शन तथा प्रचार -प्रसार के अन्य आधुनिक माध्यमों की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है,जिनमें छत्तीसगढ़ी रचनाकारों को अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए मंच मिलने लगा है. सूचना क्रांति के इस युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट आधारित फेसबुक, वाट्सएप और यूट्यूब आदि सोशल मीडिया के मंचों का भी अनेक छत्तीसगढ़ी साहित्यकार अच्छा उपयोग कर रहे हैं.कहानी,उपन्यास, कविता,खण्ड काव्य, निबंध और लघुकथा जैसी साहित्यिक विधाओं में छत्तीसगढ़ी रचनाओं का लेखन और प्रकाशन जारी है, लेकिन नाट्य विधा में पुस्तकों का प्रकाशन या तो नहीं हो रहा है, या ये भी हो सकता है कि मेरी जानकारी में नहीं है.छत्तीसगढ़ी भाषा में साहित्यिक समीक्षाएँ भी बहुत कम लिखी गयी हैं. 

                                              


बहरहाल,विगत 12वर्षो में छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाशित विभिन्न विधाओं की पुस्तकों की छत्तीसगढ़ी भाषा में समीक्षा करने का एक सराहनीय कार्य पोखनलाल जायसवाल ने किया है. वे बलौदा बाज़ार -भाटापारा जिले के ग्राम पठारीडीह (तहसील -पलारी )के निवासी हैं. उनकी समीक्षात्मक पुस्तक 'विमर्श के कसौटी म समकालीन छत्तीसगढ़ी साहित्य ' शीर्षक से इस वर्ष 2024में प्रकाशित हुआ है. यह छत्तीसगढ़ी साहित्य की पाँच अलग -अलग विधाओं में साहित्यकारों द्वारा रचित 18 पुस्तकों पर केंद्रित  जायसवाल जी के समीक्षात्मक आलेखों का संकलन है.हिन्दी में इस पुस्तक की भूमिका लिखी है राज्य के बिलासपुर निवासी व्याकरणविद, कहानीकार और समीक्षक डॉ.  विनोद कुमार वर्मा ने. पुस्तक पर और पोखनलाल की साहित्यिक रचना प्रक्रिया पर दुर्ग निवासी साहित्यकार अरुण कुमार निगम का छत्तीसगढ़ी आलेख भी इसमें शामिल है, वहीं पोखन लाल ने 'अपन गोठ 'शीर्षक से छत्तीसगढ़ी में अपनी बात रखी है. 

   जिन रचनाकारों की पुस्तकों पर समीक्षात्मक आलेख इस संग्रह में शामिल हैं उनमें से वसंती वर्मा की पुस्तक 'मोर अँगना के फूल 'का प्रकाशन वर्ष 2012 में हुआ था. यह उनकी कविताओं का संकलन है. छत्तीसगढ़ी साहित्य के विमर्श की इस पुस्तक में जायसवाल जी का पहला आलेख मनीराम साहू के खंड काव्य 'हीरा सोनाखान के 'शीर्षक से है, जो वर्ष 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ से नायक बनकर उभरे शहीद वीर नारायण सिंह पर केंद्रित है, जो तत्कालीन अविभाजित रायपुर जिले के अंतर्गत सोनाखान के प्रजा वत्सल जमींदार थे. मनीराम की यह पुस्तक वर्ष 2018 में प्रकाशित हुई थी. स्वतंत्रता संग्राम में ही वर्ष 1857 में छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में एक बड़ा सैन्य विद्रोह हुआ था, जिसके नायक थे वीर हनुमान सिंह. उन पर केंद्रित प्रबंध काव्य भी मनीराम साहू ने लिखा है, जिसका प्रकाशन वर्ष 2023 में हुआ है. इस पुस्तक पर भी पोखन लाल जायसवाल ने विमर्श आलेख अपनी पुस्तक में शामिल किया है. 

अपने इस विमर्श -संकलन में उन्होंने जिन अन्य रचनाकारों की कृतियों की विस्तार से चर्चा की है, उनमें रामनाथ साहू का कहानी संग्रह 'गति मुक्ति ' (प्रकाशन वर्ष 2016), शोभा मोहन श्रीवास्तव का कविता संग्रह 'तैं तो पूरा कस उतर जाबे '(प्रकाशन वर्ष 2021) भी शामिल है. वर्ष 2022 में प्रकाशित चन्द्रहास साहू के कहानी संग्रह 'तुतारी ', वर्ष  2023 में प्रकाशित वीरेंद्र सरल के लोक कथा संग्रह 'ठग अउ जग ', वर्ष 2022 में प्रकाशित दुर्गा प्रसाद पारकर के उपन्यास 'बहू हाथ के पानी ', वर्ष 2020 में प्रकाशित डॉ. पीसी लाल यादव के कविता -संग्रह 'बेरा -बेरा के बात 'वर्ष 2022 में प्रकाशित कन्हैया साहू के छंदबद्ध काव्य 'जयकारी जनउला ', वर्ष 2023 में प्रकाशित मनीराम साहू के गीत -संग्रह 'गजा मूँग के गीत ' वर्ष 2022 में प्रकाशित चोवा राम वर्मा के कहानी संग्रह 'बहुरिया ', वर्ष 2020 में प्रकाशित सुशील भोले के कहानी संग्रह 'ढेकी ' और वर्ष 2019में प्रकाशित बलदाऊ राम साहू के निबंध संग्रह 'मोटरा संग मया नंदागे 'की भी चर्चा की गयी है.

      इसी कड़ी में पोखन लाल जायसवाल ने अपने विमर्श में वर्ष 2022 में प्रकाशित राजकुमार चौधरी के ग़ज़ल संग्रह 'पाँखी काटे जाही ', वर्ष 2022 में प्रकाशित कन्हैया साहू 'अमित 'के बालगीतों के संग्रह 'फुरफुंदी ', वर्ष 2023 में प्रकाशित स्वामी आत्मानंद पर केंद्रित चोवा राम वर्मा के चम्पू काव्य 'हमर स्वामी आत्मानंद ', वर्ष 2016 में प्रकाशित जीतेन्द्र वर्मा 'खैरझिटिया 'के कविता संग्रह 'मोर गाँव गँवागे 'को भी शामिल किया है. 

          वैसे देखा जाए तो इन वर्षो में  और भी कई साहित्यकारों की छत्तीसगढ़ी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, लेकिन पोखन लाल जायसवाल ने अपने पास जितनी पुस्तकें उपलब्ध हैं, उन्हें पढ़कर काफी मनोयोग और मेहनत से उन पर आलेख तैयार किए हैं. वैभव प्रकाशन रायपुर द्वारा वर्ष 2024 में प्रकाशित 'विमर्श के कसौटी म समकालीन छत्तीसगढ़ी साहित्य 'के लेखक पोखन लाल जायसवाल को इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई.

(आलेख -स्वराज्य करुण )

Wednesday, December 3, 2025

(आलेख ) वे आज भी मौज़ूद हैं अपनी रचनाओं में /लेखक -स्वराज्य करुण


वे आज भी मौज़ूद हैं अपनी रचनाओं में 

(आलेख -स्वराज्य करुण )

छत्तीसगढ़ के सामाजिक ,सांस्कृतिक  साहित्यिक और राजनीतिक  इतिहास पर लोग आज  जो कुछ भी लिख रहे हैं ,उसकी बुनियाद संदर्भ सामग्री के विशाल ख़ज़ाने के रूप में , हमारे पूर्वज कई  विद्वान पहले ही तैयार कर गए हैं।   हरि ठाकुर भी उन्हीं  विद्वानों में से थे ।    आज 3 दिसम्बर को उनकी पुण्यतिथि है। उन्हें विनम्र नमन । इस भौतिक संसार से उन्हें गए हुए, 24 साल हो चुके हैं , लेकिन लगता है कि वे आज भी हमारे बीच मौज़ूद हैं । ख़ामोश रह कर देख रहे हैं कि उनके इस देश में, उनके इस प्रदेश में उनके जाने के बाद क्या -क्या हो रहा है! वैसे भी कवि, लेखक और कलाकार इस भौतिक जगत से जाने के बाद भी अपनी रचनाओं में हमेशा जीवित रहते हैं ।स्वर्गीय हरि ठाकुर भी अपनी रचनाओं में हमारे बीच आज भी मौज़ूद हैं। उनकी कविताओं में, उनके लेखों में उनके दिल की धड़कनों को आज भी हम महसूस कर सकते हैं । उनकी साहित्यिक परम्परा को उनके सुपुत्र आशीष सिंह अपने लेखों और अपनी किताबों के माध्यम से लगातार आगे बढ़ा रहे थे, लेकिन दुर्भाग्यवश दो महीने पहले 7सितम्बर 2025 को उनका भी निधन हो गया । 


                                               

            



व्यक्ति एक, लेकिन भूमिकाएँ अनेक 

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   व्यक्ति एक ,लेकिन भूमिकाएँ अनेक - स्वर्गीय हरि ठाकुर के संदर्भ में यह बात बिल्कुल सटीक  बैठती है । सोच रहा हूँ -आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें किस रूप में याद करें ?हरि ठाकुर क्या -क्या नहीं थे  ?छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के विद्वान साहित्यकार तो वे थे ही, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, वकील,पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए बने सर्वदलीय मंच के संयोजक के रूप में भी उनकी यादगार भूमिकाएँ थीं. एक व्यक्ति अपने जीवन में तमाम तरह के संघर्षों के बीच  कितनी -कितनी भूमिकाओं में देश और समाज की सेवा कर सकता है ,यह देखना हो तो हरि ठाकुर की ज़िन्दगी के सफ़र को देखें ।

         

कविताओं में माटी -महतारी की 

मुक्ति के लिए बेचैन अभिव्यक्ति

   हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं के वह   एक ऐसे कवि थे  ,जिनकी कविताओं में और जिनके गीतों में  अन्याय और शोषण की जंजीरों से माटी -महतारी  की मुक्ति की बेचैन अभिव्यक्ति मिलती है । वह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , इतिहासकार , पत्रकार , लेखक, वकील ,  सामाजिक कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के अग्रणी नेता भी थे । छत्तीसगढ़ के इतिहास और यहाँ की कला -संस्कृति , बोली और भाषा का उन्होंने गहन अध्ययन करते हुए कई गंभीर आलेख भी लिखे ।  छत्तीसगढ़ में  वर्ष 1857 के  अमर शहीद वीर नारायण सिंह सहित यहाँ की अनेक  महान विभूतियों की प्रेरणादायी जीवन गाथा उनकी लेखनी से जनता के सामने आयी ।  उनका जन्म 16 अगस्त 1927 को रायपुर में हुआ था ।निधन 3 दिसम्बर 2001 को नई दिल्ली में हुआ।उनके पिता स्वर्गीय प्यारेलाल सिंह ठाकुर   त्यागमूर्ति के नाम से लोकप्रिय एक महान श्रमिक नेता ,आज़ादी के आंदोलन के महान योद्धा , सहकारिता आंदोलन के कर्मठ नेता , पत्रकार , विधायक और रायपुर नगरपालिका के तीन बार निर्वाचित अध्यक्ष रह चुके थे ।  

        पिता से मिली देश के लिए 

         कुछ कर गुजरने की प्रेरणा 

           स्वर्गीय हरि नारायण सिंह ठाकुर (हरि ठाकुर ) को देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अपने क्रांतिकारी पिता जी से विरासत में मिली थी।   अपने इस आलेख के साथ मैं स्वर्गीय डॉ. राजेन्द्र सोनी द्वारा सम्पादित साहित्यिक पत्रिका 'पहचान -यात्रा ' के   जून 2002 के 'हरि ठाकुर विशेषांक 'में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर साहित्यकारों और पत्रकारों के आलेख शामिल हैं ।  इसी विशेषांक में छत्तीसगढ़ी भाषा मे  हरि ठाकुर द्वारा रचित दो नाटक भी प्रकाशित किए गए हैं ।इनमें से एक नाटक का  शीर्षक है ' पर बुधिया ' ।दूसरा नाटक स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में छत्तीसगढ़ में हुए  'तमोरा सत्याग्रह'  पर आधारित है । 

         उनके देहावसान  के अगले  दिन 4 दिसम्बर 2001 को राजधानी रायपुर के मारवाड़ी श्मशान घाट में सैकड़ों लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अंतिम बिदाई दी । तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी सहित विधान सभा के कई सदस्य भी  उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए ।


        विधानसभा में श्रद्धांजलि -शोक प्रस्ताव 

  हरि ठाकुर  विधायक या सांसद नहीं थे ,लेकिन देश और प्रदेश के लिए उनके अतुलनीय  साहित्यिक और सामाजिक योगदान को देखते हुए उस दिन छत्तीसगढ़ विधानसभा ने अपने शीतकालीन सत्र की बैठक में  उन्हें विशेष रूप से श्रद्धांजलि अर्पित की और शोक प्रस्ताव पारित किया। उनके निधन का  विशेष रूप से उल्लेख करते हुए  सदन में पक्ष और विपक्ष के सभी सदस्यों ने उन्हें श्रद्धाजंलि दी  तब के विधानसभा अध्यक्ष स्वर्गीय  राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल ने हरि ठाकुर के निधन का उल्लेख करते हुए उनका जीवन परिचय प्रस्तुत किया । तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष  नन्द कुमार साय समेत अनेक सदस्यों ने स्वर्गीय श्री हरि ठाकुर की  संघर्षपूर्ण और गौरवपूर्ण जीवन यात्रा पर प्रकाश डाला । उन सभी के वक्तव्य भी 'पहचान यात्रा' के  इस विशेषांक में संकलित हैं। 

      एक युग का पटाक्षेप 

  अजीत जोगी ने सदन में अपने शोक उदगार कुछ इन शब्दों में व्यक्त किए थे -  "माननीय अध्यक्ष महोदय , आज प्रातः 10 बजे जब कंचन की काया को चंदन की चिता पर लिटाकर अग्नि दी गयी ,तो उस चिता के सामने खड़ा मैं स्वर्गीय हरि ठाकुर को प्रणाम करते हुए यह याद कर रहा था  कि उनके रूप में मानो एक युग का अंत हो गया  , पटाक्षेप हो गया ।एक ऐसे छत्तीसगढ़ के सपूत को हमने खोया ,जो एक साथ न जाने क्या -क्या था ? कवि था ,साहित्यकार था ,इतिहासकार था और छत्तीसगढ़ के संदर्भ में ,छत्तीसगढ़ के  इतिहास के संदर्भ में ,छत्तीसगढ़ के गौरवशाली रत्नों के संदर्भ में एक चलते फिरते ग्रन्थ थे । लिविंग इनसाइक्लोपीडिया थे ,यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी ।...श्री हरि ठाकुर ने छत्तीसगढ़ की अस्मिता से हम  छत्तीसगढ़ियों को अवगत कराया । मेरा अनेक संदर्भो में उनके साथ सम्पर्क रहा ,सानिध्य रहा ।  मुझे याद आ रहा है एक दिन मैंने दुःखी होकर उनसे पूछा था -" छत्तीसगढ़ के इतने आंदोलन चलते हैं ।आप सबमें शामिल हो जाते हैं । आप वास्तव में हैं किसके साथ ? उन्होंने जवाब दिया - " मैं तो छत्तीसगढ़ राज्य बनाने वाले के साथ हूँ। कोई भी आंदोलन चलाएगा ...हरि ठाकुर उसके साथ रहेगा,तब तक साथ रहेगा ,जब तक छत्तीसगढ़ राज्य नहीं बन जाता ।"

छत्तीसगढ़ी भाषा का प्राचीन नाम 

कोसली या महाकोसली?

        साहित्यिक पत्रिका 'पहचान यात्रा ' के इस विशेषांक में  छत्तीसगढ़ी भाषा के क्रमिक विकाश पर भी स्वर्गीय श्री  हरि ठाकुर का एक आलेख शामिल है ,जिसका शीर्षक है  'छत्तीसगढ़ी का प्राचीन नाम कोसली या महाकोसली ?' इस विषय पर उनका विद्वतापूर्ण विश्लेषण उनके इस आलेख में मिलता है।

        विशाल संदर्भ ग्रंथ 

      'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा' के   रचनाकार 

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उनके निधन के बाद रायपुर में गठित हरि ठाकुर स्मारक संस्थान ने   छत्तीसगढ़ के इतिहास और राज्य की संस्कृति तथा महान विभूतियों से जुड़े उनके विभिन्न आलेखों का एक वृहद संकलन 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' शीर्षक से प्रकाशित किया । यह विशाल संदर्भ ग्रंथ  उनके जन्म दिन 16 अगस्त 2003 को प्रकाशित हुआ । ग्रंथ  का सम्पादन डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर, डॉ. देवीप्रसाद वर्मा 'बच्चू जाजगीरी ' और स्वर्गीय हरि ठाकुर के सुपुत्र आशीष सिंह ने किया है ।

         असहयोग आंदोलन में भी योगदान 

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     हरि ठाकुर अपने विद्यार्थी जीवन में सन 1942 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गांधीजी के आव्हान पर असहयोग आन्दोलन में भी शामिल हुए । तब उनकी उम्र महज 15 वर्ष थी।। इस आंदोलन में उनके दोनों भाई जेल में थे । उन दिनों हरि ठाकुर रायपुर के गवर्नमेंट स्कूल के छात्र थे । स्कूल में झण्डा फहराने के कारण पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था,हालांकि शाम को छोड़ दिए गए ,लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी सक्रियता बनी रही  वह छत्तीसगढ़ कॉलेज रायपुर में पढ़ाई के दौरान वर्ष 1950 में छात्रसंघ के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए थे ।इसी कॉलेज से उन्होंने कला और विधि स्नातक की उपाधियाँ प्राप्त की । वर्ष 1956 से 1966 तक उन्होंने रायपुर में वकालत की ।

  गोवा मुक्ति आंदोलन में भी हुए शामिल 

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       देश की आज़ादी के बाद वर्ष 1955 में उन्होंने पुर्तगाली शासन के विरुद्ध गोवा मुक्ति आन्दोलन में भी  हिस्सा लिया .इसके पहले वह  विनोबाजी के सर्वोदय और भूदान आन्दोलन से जुड़े और 1954  में  उन्होंने नागपुर से  प्रकाशित भूदान आन्दोलन की पत्रिका '  साम्य  योग ' का सम्पादन किया । वर्ष 1960  में वह छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के  अध्यक्ष चुने गए । इसके पहले वर्ष 1956 में वह डॉ. खूबचन्द बघेल द्वारा राजनांदगांव में आयोजित छत्तीसगढ़ी महासभा की  बैठक में शामिल हुए ,जहाँ उन्हें इस संगठन का संयुक्त सचिव बनाया गया ।

           साप्ताहिक 'राष्ट्रबन्धु ' का दायित्व 

    रायपुर में उन्होंने वर्ष 1966 में अपने  पिताजी के अर्ध साप्ताहिक समाचार पत्र 'राष्ट्रबन्धु' के पुनः प्रकाशन और सम्पादन का दायित्व संभाला ।नब्बे के दशक में वह  छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आन्दोलन के लिए सर्वदलीय मंच के  संयोजक बनाए गए ।एक नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य बना ,लेकिन अफ़सोस कि वह अपने सपनों के छत्तीसगढ़ को एक राज्य के रूप में विकसित होते ज्यादा समय तक नहीं देख पाए और राज्य बनने के सिर्फ लगभग तेरह  महीने  में 3 दिसम्बर  2001 को उनका देहावसान हो गया। 

        पुरानी -नयी दोनों पीढ़ियों में रहे लोकप्रिय

        स्वर्गीय हरि ठाकुर  छत्तीसगढ़ की पुरानी और नयी ,दोनों ही पीढ़ियों के बीच सामान रूप से लोकप्रिय साहित्यकार थे वर्ष 1995 में उनकी प्रेरणा से रायपुर में नये-पुराने लेखकों और कवियों ने मिलकर साहित्यिक संस्था 'सृजन सम्मान ' का गठन किया . उन्हें इस संस्था का अध्यक्ष बनाया गया था ।

     छत्तीसगढ़ी फ़िल्म 'घर -द्वार ' के गीतकार 

 वर्ष 1970 -72  में बनी दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म 'घर-द्वार ' में लिखे उनके गीतों को  अपार लोकप्रियता मिली .इनमें से  मोहम्मद रफ़ी की दिलकश आवाज़ में  एक गीत ' गोंदा फुलगे मोरे राजा ' तो आज भी कई लोगों की जुबान पर है ।

           कई कविता संग्रह और शोध ग्रंथ 

         हरि ठाकुर के  हिन्दी  कविता संग्रहों में 'लोहे का नगर ' और '  नये विश्वास के बादल ' छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रहों में 'सुरता के चन्दन '   हिन्दी शोध-ग्रन्थों  में 'छत्तीसगढ़  राज्य का प्रारंभिक  इतिहास' ,  'उत्तर कोसल बनाम दक्षिण कोसल' विशेष रूप  से उल्लेखनीय हैं ।उन्होंने   अपनी  कविताओं  में हमेशा आम जनता के दुःख-दर्द  को अभिव्यक्ति दी । उन्होंने गीत विधा के साथ -साथ अतुकांत कविताएँ भी लिखीं । अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने  देश की  सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों पर तीखे प्रहार  किए . बानगी  देखिये -


नदी वही है ,नाव वही है 

लेकिन वह मल्लाह नहीं है ।

धन बटोरने की चिन्ता में ,

जनहित की परवाह नहीं है ।।


  राज्य निर्माण आंदोलन : सर्वदलीय मंच के संयोजक 

 छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए  वर्ष 1992 में गठित सर्वदलीय मंच के लिए उन्हें सर्व -सम्मति से संयोजक बनाया गया। इस  भूमिका में वह राजनीति में तो रहे ,लेकिन ' राजनेता ' नहीं बने । दरअसल कवि हॄदय हरि ठाकुर की  तासीर  'राजनेता' बनने की थी भी  नहीं । वह तो एक संवेदनशील साहित्यकार और  निष्काम कर्मयोगी थे ।   छत्तीसगढ़ राज्य बने ,यह उनका सपना था । सिवाय इसके उनकी कोई निजी महत्वाकांक्षा नहीं थी । अध्ययन -मनन,लेखन  और साहित्य सृजन  उनकी  दिनचर्या  का अनिवार्य हिस्सा था ।

                उनके साहित्य पर पीएच-डी.

       स्वर्गीय हरि ठाकुर के  साहित्य पर शोध कार्य  भी  हुआ है ।  मेरी भांजी श्रीमती अनामिका पाल को 'हरि ठाकुर के साहित्य में राष्ट्रीय चेतना ' विषय पर वर्ष 2011 में  पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा पीएचडी की उपाधि प्रदान की गयी है । 

       प्रेरणा का प्रकाश पुंज उनका जीवन 

        वस्तुतः स्वर्गीय हरि ठाकुर का सुदीर्घ साहित्यिक और सार्वजनिक जीवन उन हजारों , लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का प्रकाश पुंज है ,जो अपने देश और अपनी धरती के लिए कुछ करना चाहते हैं । वरना यह मनुष्य देह भी क्या है ,जो जन्म लेकर यूँ ही निरुद्देश्य मर -खप जाती है ,लेकिन जिन लोगों के जीवन का पथ उतार -चढ़ाव से  भरे दुर्गम पर्वतों से  होकर गुजरता है और जिनकी जीवन यात्रा उस पथरीले पथ पर मानवता के कल्याण का मकसद लेकर चलती है , वे   इतिहास बनाकर  लोगों के दिलों में हरि ठाकुर की तरह हमेशा के लिए यादगार बनकर रच -बस जाते हैं ।

    -स्वराज्य करुण 

Friday, November 28, 2025

(समस्या ) आख़िर कब समझेंगे लोग? लेखक -स्वराज्य करुण

  कई लोग यह मानकर चलते हैं कि नागरिक ज़िम्मेदारी का अभाव हमारे लिए राष्ट्रीय शर्म की नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गर्व की बात  है ! कई लोग  सार्वजनिक जगहों को  बहुत बेशर्मी से गंदा करते रहते हैं,लेकिन अपने घरों को साफ़ -सुथरा रखते हैं.यह देखकर आश्चर्य होता है कि जनता के रूपयों से जनता के लिए बनने वाली चीजों का जनता ही सत्यानाश करती रहती है! जिन दीवारों पर लिखा रहता है कि यहाँ पर पान, गुटखा खाकर थूकना और पेशाब करना मना है, जुर्माने की भी चेतावनी लिख दी जाती है,  फिर भी लोग उन्हें  गंदा करने  की अपनी गंदी हरकत छोड़ नहीं पाते.


                                                 


सरकारी अस्पतालों, सरकारी दफ्तरों और सरकारी बैकों की सीढियों के कोनों, उनके परिसरों और आसपास की दीवारों को कई लोग पान की पीक से रंग देते हैं.  रेल्वे स्टेशनों और रेलगाड़ियों के शौचालयों की भी ऐसी ही दुर्गति देखने को मिलती है.सरकार शहरों में अच्छी भली, साफ -सुथरी सड़कें बनवाती है, लेकिन जनता को उन्हें गंदा करने में कोई हिचक नहीं होती. आख़िर ये सड़कें जनता के टैक्स के लाखों -करोड़ों रुपयों से ही तो बनती हैं. लेकिन यह जानते हुए भी उन सड़कों पर गाड़ियों से आते -जाते थूकना और पान की पीक उलीचना लोग अपना अधिकार समझते हैं. यहाँ तक कि अगर किसी गली -मोहल्ले में किसी के घर या  किसी की दुकान के सामने कोई साफ -सुथरी नई सड़क बनी हो तो उस घर या दुकान के मालिक  अपना आंगन समझ कर रोज सवेरे  पानी उलीचकर उसे धोते हैं, ऐसे में चाहे डामर की सड़क हो या सीमेंट कंक्रीट की, धीरे -धीरे उनका उखड़ना तय रहता है. 

    अच्छी -भली सड़कों के किनारे चाय -नाश्ते की कोई दुकान या गुमटी हो, कोई छोटा होटल हो तो उनके मालिक अपने बर्तन धोकर उसका पानी उसी साफ़ -सुथरे रास्ते  पर फेंकते रहते हैं. घरों, दुकानों के सामने से कोई नाली निकली हो तो उनके लोग प्लास्टिक के खाली बोतलों और पॉलीथिन की खाली थैलियों को उस नाली में डालना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानते हैं. फलस्वरूप नालियां बजबजाने लगती हैं.ऐसे लोगों के बारे में कब तक लिखें, कहाँ तक लिखें और क्या -क्या लिखें? आख़िर कब समझेंगे लोग?

       -स्वराज्य करुण 

(पुरानी स्मृतियाँ )अचानक हुई मुलाकात एक संन्यासी कवि से /लेखक -स्वराज्य करुण


   (आलेख : स्वराज्य करुण )

कई घूमन्तु साधु -संन्यासी कवि भी होते हैं । चार साल पहले की बात है ।निर्गुण ब्रम्ह के उपासक और संन्यासी  बाबा निरालम्ब दाश से  23नवम्बर 2021को मुझे अचानक मिलने का सौभाग्य मिला। तब मालूम हुआ कि वे कवि भी हैं । उन दिनों वे 94 साल के थे।  मेरी शुभकामनाएँ हैं कि वे जहाँ भी रहें,स्वस्थ और सकुशल रहें और निरंतर काव्य सृजन करते रहें ।      मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि  ओड़िया भाषा  में वे अब तक 7 पुस्तकें लिख चुके हैं।इनमें से  6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । इस वर्ष (2021में) आपकी  छठवीं  पुस्तक 'संन्यास  लक्षण ' का प्रकाशन हुआ है । इसके प्रकाशक भी वे स्वयं हैं । 


                                               


उनकी  अन्य पुस्तकों की तरह यह भी ओड़िया में  लिखे उनके आध्यात्मिक गीतों का संग्रह है।  उनकी अन्य 5 प्रकाशित पुस्तकें है --(1)नर -रत्न गीता,(2)नारी रत्न गीता (3)चारपदिया भजन (4) छांद भजन और (5)हित वाणी   । सातवीं काव्य पुस्तक 'चौंतीसा माधुरी' अभी प्रेस में है। यह तो चार साल पहले की बात है । सातवीं पुस्तक शायद अब तक छप चुकी होगी।   बाबाजी  अलेख महिमा सम्प्रदाय (सत्य महिमा धर्म )के अनुगामी हैं। उनकी सभी रचनाएँ इस सम्प्रदाय के विचारों पर आधारित हैं।अलेख महिमा सम्प्रदाय का मुख्यालय ओड़िशा के जरोंदा (जिला --ढेंकानाल)में है। सुखदेव बाबा वहाँ के प्रमुख हैं।चूंकि  सम्प्रदाय का उदगम ओड़िशा में है ,इसलिए वहाँ के अलावा  सीमावर्ती छत्तीसगढ़  के सरहदी इलाकों के गांवों में भी इस सम्प्रदाय के अनुयायी मिल जाते हैं।    

     बाबा निरालम्ब दाश से मेरी अचानक मुलाकात छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में महानदी के तटवर्ती और ओड़िशा प्रांत के सीमावर्ती ग्राम सरिया में हुई, जहाँ सत्य महिमा आश्रम परिसर में वे ठहरे हुए थे ।ओड़िशा राज्य की सीमा सरिया से सिर्फ़ दस -पन्द्रह किलोमीटर रह जाती है। बाबाजी आश्रम परिसर में सुबह की गुनगुनी धूप सेंक रहे थे । संन्यासी हैं ,इसलिए अपने जन्म स्थान और  घर -परिवार के बारे में कुछ नहीं बताते ।उन्होंने सिर्फ इतना  बताया कि वह 1962 में इस सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। सोहेला(जिला -बरगढ़)के पास ग्राम चकर केन आश्रम में उन्होंने शंभूचरण बाबा से दीक्षा ली थी। यह पूछने पर कि सांसारिक जीवन से संन्यास क्यों ले लिया ,उन्होंने कहा -दैवीय इच्छा के सामने मानवीय इच्छाओं की भला क्या बिसात ? 

बाबा निरालम्ब दाश का आश्रम ओड़िशा के बालेश्वरडीह (कूदोपाली ,नेरीमुण्डा)में है ,जो सरिया से ज्यादा दूर नहीं है। वह कुछ अस्वस्थ हैं ,इसलिए सरिया आश्रम के भक्तगण उन्हें वहाँ से सरिया लाकर उनकी देखभाल कर रहे हैं। बाबाजी की नेत्र ज्योति इस उम्र में भी ठीक ठाक है ,लेकिन श्रवण शक्ति कमज़ोर हो गयी है। फिर भी उन्होंने मेरी कई जिज्ञासाओं का समाधान किया। बाबाजी की पुस्तकों का प्रकाशन उनके बालेश्वरडीह स्थित सत्य महिमा आश्रम के बैनर पर हुआ है। अपनी छठवीं पुस्तक के लेखक और प्रकाशक भी वह स्वयं हैं।

   सत्य महिमा आश्रम, सरिया के संचालक और वरिष्ठ  साहित्यकार त्रिलोचन पटेल के अनुसार अलेख महिमा धर्म के अनुयायी आपको पश्चिम बंगाल ,असम,आंध्र और गुजरात मे भी मिल जाएंगे।इस सम्प्रदाय के  कुछ विचार और व्यवहार जैन और बौद्ध धर्म से मिलते जुलते हैं।जैसे -सूर्यास्त के पहले भोजन । अलेख महिमा सम्प्रदाय के मानने वालों की मुख्य रूप से 2 श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी गृहस्थ भगतों की है ,जो एक दूसरे के साथ परस्पर भातृ भाव रखकर सांसारिक जीवन यापन करते हैं।दूसरी श्रेणी संन्यासियों की है ,लेकिन इनमें भी तीन प्रकार के संन्यासी होते हैं --(1)त्यागी (2)गैरिक कोपिन धारक और (3)वल्कल धारक साधु । ये लोग आम तौर पर एक गाँव में सिर्फ़ एक रात रुकते हैं।सभी श्रेणियों के अनुयायी निर्गुण ब्रम्ह की उपासना करते हैं। पश्चिम ओड़िशा से लगे हुए छत्तीसगढ़ के  ग्राम भूथिया ,रक्सा ,दुरुगपाली और परसरामपुर सहित  कई अन्य गाँवों में भी  इनके आश्रम  हैं। (आलेख  -स्वराज्य करुण)

 


 

Thursday, November 27, 2025

(आलेख ) खर्चे ही खर्चे / लेखक -स्वराज्य करुण

इंसान की ज़िन्दगी में खर्चे ही खर्चे हैं । खर्चो का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अगर आप अरबों रुपयों के आर्थिक साम्राज्य वाले नामी गिरामी उद्योगपति हों, करोड़ों की पूँजी वाले बड़े व्यापारी हों, लाखों -करोड़ों रूपयों की मज़दूरी लेने वाले फ़िल्मी आदमी या फ़िल्मी औरत हों तो कोई बात नहीं,खर्च तो आप भी करते हैं, लेकिन आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन निम्न मध्यमवर्गीय, यानी हम जैसों की ज़िन्दगी में खर्चों का कोई ठिकाना नहीं रहता। खर्च करो, तभी ज़िन्दगी की गाड़ी चलती है । जन्म से लेकर अंतिम साँस लेने तक हमारी ज़िन्दगी में खर्चे ही खर्चे हैं । संतान जन्म लेने पर उसके पालन -पोषण का खर्चा, और गृहस्थी चलाने के लिए हर दिन नून ,तेल ,लकड़ी (अब रसोई गैस) का खर्चा तो चलता ही रहता है , कभी रसोई गैस का स्टोव ख़राब हो जाए ,कभी घर के सामने के गेट का पल्ला टूट जाए ,कभी कूलर या सीलिंग फेन बिगड़ जाए , कभी टीव्ही ख़राब हो जाए , बल्ब बदलवाना पड़ जाए , टीव्ही और मोबाइल फोन रिचार्ज करवाना जरूरी हो जाए तो खर्चे उठाने ही पड़ते हैं । 

 ! हर महीने बिजली बिल का भुगतान करना ही पड़ता है, किराये के मकान में रहते हों तो मकान किराया देना ही पड़ता है । कभी बाइक पकंचर हो जाए या उसकी सर्विसिंग करवानी पड़ जाए ,उसमें पेट्रोल डलवाना पड़ जाए , कभी घर में आटा, दाल, चावल , तेल या रसोई गैस खत्म हो जाए , बाज़ार से साग-भाजी ,आलू ,प्याज लाना पड़ जाए तो भी खर्चा ही खर्चा ।इन सबसे भी राहत मिले तो अचानक किसी को तबियत ख़राब होने पर डॉक्टर की फ़ीस और दवाइयों के लिए जेब ढीली करनी पड़ जाए तो फिर खर्चे ही खर्चे। बच्चों की स्कूल- कॉलेज की फीस और उनकी कापी -पुस्तकों के खर्चे भी इसमें जोड़ लीजिए । रिश्तेदारियों में जाने -आने और शादी -ब्याह में होने वाले खर्चो को भी लिस्ट में शामिल कर लीजिए । अगर आप किसान हैं, तो खेती -किसानी का खर्चा भी ज़िन्दगी के खर्चो की सूची में जोड़ना ही पड़ेगा ।आप अगर कर्मचारी या अधिकारी हैं, व्यापारी हैं, तो इनकम टैक्स में होने वाले खर्चे को भी मत भूलिए ।

यानी ज़िन्दगी में खर्चों की लिस्ट थकने या रुकने का नाम ही नहीं लेती । ऊपर से ये महँगाई भी बिना थके ,बिना रुके बढ़ी चली जा रही है! ये सिलसिला बहुत ज़माने से चला आ रहा है। याद आने लगता है वह पुराना फ़िल्मी गाना -आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपैय्या! या फिर वर्ष 1973 में आयी फ़िल्म रोटी ,कपड़ा और मकान का- 'महँगाई मार गयी ' वाला वह गाना ,जिसकी दो लाइनों में महँगाई का पूरा दृश्य उभर कर आ जाता है -

*पहले मुट्ठी में पैसे लेकर 

झोली भर राशन लाते थे ,

अब झोली में पैसे जाते हैं

और मुट्ठी में राशन लाते हैं।*

 यानी ऐसा लगता है कि इंसान और महँगाई का रिश्ता बहुत पुराना है। हम 50 साल पहले भी महँगाई की मार सहते हुए रोते-गाते थे और आज भी महँगाई का रोना-गाना चल ही रहा है। कभी -कभी सोचता हूँ - जब से वस्तु विनिमय के स्थान पर वित्तीय मुद्राओं का प्रचलन शुरू हुआ, ये रिश्ता शायद तभी से कायम हुआ है । कहीं यह पूँजीवादी व्यवस्था की देन तो नहीं ?  कहीं यह पूँजीवादी व्यवस्था की देन तो नहीं ?  -स्वराज करुण

Tuesday, November 11, 2025

(पुस्तक -चर्चा ) रजत कृष्ण साहित्य के स्टीफन हॉकिंग (आलेख ; स्वराज्य करुण )

 जहाँ से मैं आता हूँ 

कविता के इस देश में...

    *****

ये रजत कृष्ण की कविता 'छत्तीस जनों वाला घर 'की प्रारंभिक पंक्ति है.रजत कृष्ण  आधुनिक हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं.उनका जन्म 26 अगस्त 1968 को छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित ग्राम लिमतरा में हुआ था. 

सिर्फ़ 12 साल की उम्र में वह  मसक्युलर डिस्ट्राफी नामक बीमारी  के शिकार हो गए थे.मांस -पेशियों को बहुत कमजोर बना देने वाली इस लाइलाज बीमारी से उनकी बहन का निधन हो गया था.लेकिन रजत ने हिम्मत नहीं हारी.घर -परिवार की विभिन्न समस्याओं का सामना करते हुए उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की.पिता जोहन राम साहू के निधन के बाद परिवार को भी संभाला.पिताजी ने रजत के बड़े भाई मोहित के लिए जब पान ठेले की व्यवस्था की थी,उन दिनों रजत सातवीं में पढ़ते थे.   स्कूल की छुट्टी होने पर वे शाम के वक़्त इस पान दुकान के संचालन में बड़े भाई का हाथ बँटाते थे .


            


  वर्तमान में रजत छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले में स्थित शासकीय महाविद्यालय,बागबाहरा में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक हैं.  मोटराराइज्ड व्हील चेयर पर चलते हैं. वह अदम्य साहस के साथ  तमाम चुनौतियों का मुकाबला करते हुए एक रचनात्मक जीवन जी रहे हैं और एक से बढ़कर एक बेहतरीन कविताओं का सृजन कर रहे हैं. इसे देखते हुए उनके साहित्यिक मित्रों ने उनकी तुलना ऑक्सफोर्ड में जन्मे महान खगोल विज्ञानी स्वर्गीय स्टीफन हॉकिंग से की है,  जो 21साल की उम्र में मोटर न्यूरौन की  व्याधि से पीड़ित हो गए थे और जिन्होंने 76 साल की जीवन यात्रा में 55 साल  व्हील चेयर पर बैठकर ही कई बड़े अनुसंधान किए. साहित्यकार नंदन और भास्कर चौधुरी ने 'रजत कृष्ण साहित्य के स्टीफन हॉकिंग'शीर्षक से उन पर केंद्रित 240 पेज की एक पुस्तक का सम्पादन किया है. इसमें रजत के जीवन और साहित्य सृजन  पर उनसे जुड़े देश भर के अनेक साहित्यकारों के आलेख शामिल हैं.इसका विमोचन 2नवंबर 2025 को रजत के गृह नगर बागबाहरा में किया गया.इसे नई दिल्ली के न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है. पुस्तक 399 रूपए की है, लेकिन हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के लिए यह एक ज़रूरी किताब है. 

   रजत ने 'सर्वनाम'के सम्पादक रहे स्वर्गीय विष्णु चंद्र शर्मा के सम्मान में 'अंतिम साँसों तक सीखने वाले सर्जक ' शीर्षक से एक आलेख लिखा था,जिसे इस संकलन में प्रकाशित किया गया है. इसके अलावा इसमें रजत की कुछ चयनित कविताओं सहित उनके कुछ लेख और सम्पादकीय भी हैं.   संग्रह में रजत के साहित्य लेखन पर जोधपुर (राजस्थान ) के डॉ. रमाकांत शर्मा ने 'आंचलिक रसगंध के कवि ' शीर्षक से लेख लिखा है.दिल्ली के महेश दर्पण ने 'एक अनिवार्य उपस्थिति', दिल्ली के ही एकांत श्रीवास्तव ने 'छत्तीस पंखुड़ियों वाला फूल ', दुमका (झारखण्ड)के सुशील कुमार ने 'लोकभाषा और कविता' और बाँदा (उत्तर प्रदेश)के केशव तिवारी ने 'रजत एक योद्धा' शीर्षक से कवि के प्रति अपने विचार व्यक्त किए हैं, वहीं जम्मू के अग्निशेखर ने रजत की एक कविता की पंक्ति 'इस बखत सबसे बड़ी सजा है किसान होना ' को अपने लेख का शीर्षक बनाया है. संकलन में कुसमुंडा (कोरबा )के कामेश्वर पाण्डेय का लेख 'रजत कृष्ण : जिसे साहित्य ने संजोया'भी बहुत महत्वपूर्ण है. इनके अलावा दुर्ग के अंजन कुमार, कोमा (राजिम )के निर्मल आनंद, कवर्धा के अजय चंद्रवंशी, रायपुर के इंद्र राठौर, बागबाहरा के पीयूष कुमार,  सुषमा निर्मलकर,कृष्णानंद दुबे और हाथीगढ़ (बागबाहरा)के डॉ. विजय कुमार सहित कई विशिष्ट जनों द्वारा कवि रजत प्रति अपनी -अपनी भावनाएँ व्यक्त की गईं हैं .रजत कृष्ण ने लघु पत्रिकाओं के अर्थशास्त्र पर अपनी बात रखी है, जिसमें उन्होंने  साहित्यिक पत्रिका 'सर्वनाम 'के सम्पादन के दौरान आयी कुछ दिक्क़तों का भी उल्लेख किया है.इसके साथ ही उन्होंने इस लेख में' मुक्तिबोध ' और 'संदर्श'जैसी लघु पत्रिकाओं के प्रकाशन में आयी कठिनाइयों का भी जिक्र किया है.रजत से विजय सिंह और नंदन की आत्मीय बातचीत भी इसमें प्रकाशित है.रजत कृष्ण पर अपनी पाँच छोटी -छोटी कविताओं के साथ भास्कर चौधुरी ने भी एक आलेख लिखा है, जिसका शीर्षक है -अदम्य साहस और इच्छा शक्ति का दूसरा नाम है साहित्यकार रजत कृष्ण उर्फ़ प्रोफेसर डॉ. कृष्ण कुमार साहू. संकलन में रजत कृष्ण का लिखा आलेख -समकालीन कविता में स्त्री स्वर'भी पठनीय और विचारणीय है.

    किताब 'साहित्य के स्टीफन हॉकिंग 'में विजय प्रकाश द्वारा संकलित एक आलेख 'रजत कृष्ण के जीवन संघर्ष पर आधारित सफलता की कहानी के रूप में है,जो राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद की एक पुस्तक में भी प्रकाशित है. इसमें 12साल की उम्र में रजत को मसक्युलर डिस्ट्राफी नामक असाध्य बीमारी होने और और हाई स्कूल तक आते -आते चलने -फिरने और उठने-बैठने में असमर्थ हो जाने का उल्लेख है.इसमें यह भी लिखा गया है कि रजत धैर्य और हिम्मत के साथ पढ़ाई करते रहे और भाइयों के सहयोग से पान ठेला भी चलाते रहे.

       रजत कृष्ण ने जीवन की कठिन परिस्थितियों  में हिम्मत नहीं हारी और  अध्यापन कार्य जारी रखते हुए साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर अपना एक मुकाम बनाया है.उन्हें हिन्दी के अत्यंत सम्मानित और वरिष्ठ साहित्यकार, दिल्ली के विष्णु चंद्र शर्मा ने वर्ष 2002  में अपनी प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका'सर्वनाम'के अतिथि सम्पादक का दायित्व सौंपा, फिर 2006 में उन्हें सम्पादक की जिम्मेदारी दे दी,जिसे उन्होंने छत्तीसगढ़ के बागबाहरा जैसे कस्बे में रहते हुए एक दशक तक  बखूबी निभाया.वर्ष 2004 में रजत ने जगदलपुर (बस्तर) से प्रकाशित, विजय सिंह की साहित्यिक पत्रिका 'सूत्र' का भी उनके आग्रह पर अतिथि सम्पादक के रूप में सम्पादन किया.रजत कृष्ण के साहित्य पर पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में वर्ष 2010 में पीएच. डी. हो चुकी है, जिसका विषय था -रजत कृष्ण ; रचनात्मकता का जीवन और जीवन की रचनात्मकता. रजत के दो कविता संग्रह(1)वर्ष 2011में 'छत्तीस जनों वाला घर ' और (2) वर्ष 2020 में 'तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना ' प्रकाशित हो चुके हैं. उनके गंभीर साहित्य सृजन से प्रभावित होकर और उनकी शारीरिक व्याधि को देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें वर्ष 2004में मोटराइज्ड व्हील चेयर प्रदान किया था.समय -समय पर उन्हें अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है.रजत के साथ उनके साहित्यिक मित्रों और आत्मीय जनों द्वारा समय -समय पर किया गया पत्र -व्यवहार इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. रजत द्वारा उन्हें लिखे गए पत्र भी इसमें सम्मिलित हैं. संकलन में शामिल रजत की कई कविताओं में ग्राम्य जीवन और आम जनता की भावनाएँ पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रकट होती हैं.उनकी एक कविता के इस अंश में किसानों के दर्द को महसूस कीजिए -    

      *खेतों का मन आज भारी है,

        कुछ और किसानों के 

       बिकने की आज पूरी तैयारी   है / आ रहे हैं सौदागर 

       कहाँ न कहाँ से, 

        धरती मईया का सौदा करने,

          कैसा यह आपद काल,     

          मिट्टी भी जैसे आज हिम्मत हारी है.

     'छत्तीस जनों वाला घर 'शीर्षक कविता  में रजत ने अपना परिचय कुछ इस तरह दिया है -

     छत्तीसगढ़ के 

     एक छोटे -से जनपद 

      बागबाहरा में 

      छत्तीस जनों वाला 

      एक घर है /

     जहाँ से मैं आता हूँ 

     कविता के इस देश में.

रजत निरंतर लिखते रहें,  कविताएँ रचते रहें, जिनमें उनकी संवेदनाओं के रंग खिलें और जिनसे हमारा यह देश और हमारी यह दुनिया ख़ूब रंगीन और खूबसूरत बने.  रजत को बहुत -बहुत शुभकामनाएँ.

आलेख -स्वराज्य करुण 

 '

Sunday, November 2, 2025

(आलेख )साहित्य -सृजन से भी साकार हुआ सबका सपना (लेखक -स्वराज्य करुण )

 (आलेख ; स्वराज्य करुण


छत्तीसगढ़ प्रदेश की स्थापना के 25 साल पूरे हो गए हैं ।  राज्य  निर्माण का यह रजत जयंती वर्ष है ।परस्पर सहमति और सदभावना के वातावरण में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के जरिए छत्तीसगढ़ प्रदेश का अस्तित्व में आना एक ऐतिहासिक घटना है। आज़ादी के लगभग तिरेपन साल बाद भारत के मानचित्र पर एक नवम्बर सन 2000 को इक्कीसवीं सदी के प्रथम नये राज्य के रूप में और देश के 26 वें नये प्रदेश के रूप में छत्तीसगढ़ का उदय हुआ । 

 नये राज्य के निर्माण में यहाँ के राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ  सांस्कृतिक कर्मियों, पत्रकारों, समाचार पत्र -पत्रिकाओं और साहित्यकारों का भी बराबरी का योगदान रहा है। इसमें  समाज के सभी वर्गों की सराहनीय भूमिका थी ।रायपुर में लम्बे समय तक सबकी भागीदारी से अखंड धरना भी हुआ था, जिसे लोग आज भी याद करते हैं ।  साहित्यिक रचनाओं से राजनीति को भी दिशा मिलती है ।राज्य निर्माण के लिए समय -समय पर हुए राजनीतिक जन आंदोलनों को रचनात्मक ऊर्जा और दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य  छत्तीसगढ़ अंचल के साहित्यकारों की रचनाओं ने किया । 

   इस आलेख में हम छत्तीसगढ़ प्रदेश के निर्माण में साहित्यकारों की  सृजनात्मक भूमिका की चर्चा करेंगे ।किसी भी सार्वजनिक विषय के लिए जन -चेतना के विकास और विस्तार में साहित्य उत्प्रेरक की भूमिका में होता है । हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम में इसके कई उदाहरण मिलते हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, लघुकथा, नाटक, निबंध और व्यंग्य जैसी अलग -अलग विधाओं में अपने लेखन के जरिए साहित्यकार जन - भावनाओं को व्यक्त करते हैं ।

 छत्तीसगढ़ पहले  एक भौगोलिक इलाका माना जाता था । यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोकगीतों, लोकनृत्यों, लोक नाटकों, ग्रामीण त्योहारों, साहित्यिक रचनाओं और अनेक ऐतिहासिक तथ्यों  से यह प्रमाणित हुआ कि देश के अन्य प्रदेशों की तरह छत्तीसगढ़ भी इस विशाल भारत -भूमि की एक सांस्कृतिक इकाई है और  अलग राज्य के रूप में  इसके उभरने की तमाम संभावनाएँ मौज़ूद हैं  ।

    छत्तीसगढ़ को  राज्य का दर्जा दिलाने का सपना सबका था। यह सपना आम जनता के साथ -साथ यहाँ के साहित्यकार भी बहुत समय से देखते आ रहे थे।  आंचलिक कवियों के गीतों में भी यह जन -भावना ख़ूब झलकती थी । यह कहना गलत नहीं होगा कि विभिन्न विधाओं में साहित्य -सृजन के जरिए साहित्यकारों ने भी सकारात्मक जनमत बनाकर अपने और आम जनता के इस सपने को साकार किया है। भले ही उनमें से कई साहित्यकारों की रचनाओं में छत्तीसगढ़ राज्य की मांग अलग से प्रतिध्वनित नहीं हुई, लेकिन उनके साहित्य में इस अंचल की आम जनता के सुख -दुःख को अभिव्यक्ति मिली । 

  अंचल के लोकगीतों पर, यहाँ की लोक संस्कृति और  यहाँ के रीति -रिवाजों पर,यहाँ की सामाजिक -आर्थिक समस्याओं पर और यहाँ के दर्शनीय स्थलों पर भी साहित्यकारों ने ख़ूब लिखा । उनके लेखन से देश और दुनिया में छत्तीसगढ़ को एक विशेष पहचान मिली और यहाँ का मूल्यवान साहित्य भंडार और भी अधिक समृद्ध हुआ ।साहित्यकारों का सृजन रंग लाया और एक नये राज्य के रूप में सबका सपना साकार हुआ । अनेक साहित्यकार अपने  इस सपने के साकार होने के पहले ही इस भौतिक संसार से चले गए, लेकिन उनकी साहित्य -साधना व्यर्थ नहीं गई ।  छत्तीसगढ़ का रंग- बिरंगा साहित्यिक कैनवास बहुत दूर तक फैला हुआ है । इसमें हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और आंचलिक बोलियों की रचनाओं के कई रंग खिलते नज़र आते हैं  । 

  'छत्तीसगढ़ -मित्र' का आगमन

   प्रदेश के साहित्यिक संसार में 'छत्तीसगढ़ -मित्र ' के आगमन से एक नया वातावरण बना, जब 125 साल पहले  पहले वर्ष 1900 के जनवरी महीने में  साहित्यकार पंडित माधव राव सप्रे ने अपने साथी रामराव चिंचोलकर के साथ मिलकर पेंड्रा से इस मासिक पत्रिका का सम्पादन  शुरु किया  । इस अंचल में समाचारों और विचारों के प्रकाशन के लिए यह उस दौर की पहली पत्रिका थी ।  इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की बुनियाद रखी गई । इसे हम साहित्यिक -पत्रकारिता भी कह सकते हैं, क्योंकि इसमें  मुख्य रूप से साहित्यिक चिंतन पर आधारित रचनाएँ प्रकाशित की जाती थीं ।स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सहकारिता आंदोलन के प्रमुख नेता वामन राव लाखे इसके प्रकाशक थे । इस पत्रिका का मुद्रण रायपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस में होता था ।

बंद होने के 110 साल बाद फिर 

 शुरु हुआ 'छत्तीसगढ़ मित्र

आर्थिक समस्याओं के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र 'का प्रकाशन तीन साल बाद दिसम्बर 1902 में बंद करना पड़ा, लेकिन छत्तीसगढ़ में साहित्य और पत्रकारिता के विकास की राह पर उनका यह ऐतिहासिक प्रयास मील का पत्थर साबित हुआ । लगभग 110  साल बाद नये सिरे से इसका प्रकाशन रायपुर से सितम्बर 2012 में शुरु हुआ  ।  वर्तमान में इसके सम्पादक डॉ. सुशील त्रिवेदी और प्रबंध सम्पादक डॉ. सुधीर शर्मा हैं ।

अलग राज्य की परिकल्पना आधुनिक युग में विगत एक शताब्दी से कुछ पहले भी 

छत्तीसगढ़ की परिकल्पना एक राज्य के रूप में एक शताब्दी से कुछ पहले भी की जाने लगी थी।उन दिनों अपनी पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' की नियमावली में माधव राव सप्रे जी ने इस विशाल अंचल का उल्लेख  'छत्तीसगढ़ विभाग ' के नाम से किया था। यानी सौ साल से अधिक पहले सप्रेजी जैसे विद्वान लेखक ,साहित्यकार और पत्रकार  इस इलाके की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं को देखते हुए इसे  भारत  के एक अलग भौगोलिक विभाग (शायद राज्य )के रूप में देखने लगे थे।उनकी पत्रिका  के तो शीर्षक में ही 'छत्तीसगढ़ 'नाम  जुड़ा हुआ था । इससे भी यह संकेत मिलता है कि सप्रे जी और 'छत्तीसगढ़ मित्र' के  उनके साथियों के मन में भी कहीं  कहीं छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना उमड़ -घुमड़ रही होगी 

सप्रे जी की  मर्मस्पर्शी  कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' उनकी इस पत्रिका में वर्ष 1901में प्रकाशित हुई थी, जिसे उन दिनों भारत के हिन्दी जगत में काफी प्रशंसा  मिली  । 

वर्ष 1906 के खंड-काव्य 'दानलीला' में 

           भी छत्तीसगढ़ प्रान्त

ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत  के दौरान जब यह इलाका सी.पी .एंड बरार (मध्य प्रान्त एवं बरार ) प्रशासन के अधीन था ,उस समय वर्ष 1906 में राजिम क्षेत्र के ग्राम चमसूर निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,सामाजिक कार्यकर्ता ,कवि और लेखक स्वर्गीय पंडित सुंदरलाल शर्मा ने अपने खंड  काव्य  'दानलीला' में  प्रकाशन स्थल ' सी.पी.एंड बरार प्रान्त  के बदले ' छत्तीसगढ़ प्रान्त ' अंकित करवाया था । इस प्रकार उन्होंने भी छत्तीसगढ़ की परिकल्पना एक अलग प्रान्त (राज्य )के रूप में की थी ।  ललित मिश्रा द्वारा सम्पादित और वर्ष 2007 में  'युग प्रवर्तक : पंडित सुन्दर लाल शर्मा 'शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में भी इसका उल्लेख है । पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने अछूतोद्धार के लिए  जन जागरण में भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई । उनका जन्म ग्राम चमसूर में 21दिसम्बर 1881 को हुआ था । निधन 28 दिसम्बर 1940 को हुआ ।

पहला छत्तीसगढ़ी व्याकरण छपा 140 साल पहले 

 छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण 140 साल पहले छप चुका था  । यह वर्ष 1885 में प्रदेश के धमतरी नगर में लिखा गया था । इसके रचनाकार थे व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय । अपने महाग्रंथ 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में स्वर्गीय हरि ठाकुर ने प्रदेश की 51 महान विभूतियों के साथ हीरालालजी का भी परिचय दिया है। उन्होंने लिखा है कि छत्तीसगढ़ी व्याकरण की रचना में 'कृष्णायन'  महाकाव्य के रचयिता बिसाहूराम ने भी हीरालालजी को  सहयोग दिया था।  

        लगभग 88 साल पहले आया 

           हल्बी का पहला व्याकरण

   यह भी उल्लेखनीय है कि 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण 'के प्रकाशन के  52 साल बाद यानी आज से 88 साल पहले वर्ष 1937 में राज्य के बस्तर अंचल की प्रमुख सम्पर्क भाषा 'हल्बी'का व्याकरण भी सामने आया, जब  'हल्बी भाषा बोध'शीर्षक से इसका प्रकाशन हुआ। जगदलपुर के ठाकुर पूरन सिंह  हल्बी व्याकरण की इस प्रथम पुस्तक के लेखक थे । लगभग आठ दशक बाद वर्ष 2016 में उनके पौत्र और जगदलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार विजय सिंह के प्रयासों से इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ । 

 पहला छत्तीसगढ़ी नाटक 

 छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष रह चुके, बिलासपुर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक के अनुसार पहला छत्तीसगढ़ी नाटक आज से 120 साल पहले छपा था । उन्होंने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार 'में लिखा है कि   पंडित लोचन प्रसाद पांडेय के वर्ष 1905 के नाटक 'कलिकाल' को छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला नाटक माना जा सकता है ,जिसकी भाषा में  लरिया बोली की छाप मिलती हैउल्लेखनीय है कि लरिया बोली छत्तीसगढ़ के ओड़िशा से लगे रायगढ़ जिले के कई गाँवों में प्रचलित है ।पंडित लोचनप्रसाद पांडेय रायगढ़ के पास ग्राम बालपुर के निवासी थे ,लेकिन रायगढ़ उनका कर्मक्षेत्र रहा।

छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला उपन्यास

  रायगढ़ के पास महानदी के किनारे ग्राम बालपुर  के  पाण्डेय बंशीधर शर्मा छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार माने जाते हैं । उन्होंने ' हीरू के कहिनी ' शीर्षक छत्तीसगढ़ी उपन्यास लिखा था, जो आज से लगभग सौ साल पहले वर्ष 1926 में पहली बार प्रकाशित हुआ था ।   उनके इस छत्तीसगढ़ी उपन्यास का  दूसरा संस्करण इसके लगभग 74 साल बाद, वर्ष 2000 में राज्य बनने के सिर्फ़ डेढ़ महीने पहले डॉ. राजू पाण्डेय के सौजन्य से नये स्वरूप में प्रकाशित हुआ। द्वितीय संस्करण का सम्पादन रायगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार ईश्वर शरण पाण्डेय ने किया  । इस छत्तीसगढ़ी उपन्यास में ब्रिटिश युग के गुलाम भारत के छत्तीसगढ़ के गाँवों, किसानों और मज़दूरों की  दुर्दशा का मार्मिक चित्रण है।  छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार पाण्डेय बंशीधर शर्मा का जन्म वर्ष 1892 में और निधन 1971 में हुआ। उनका पुश्तैनी गाँव बालपुर वर्तमान में जांजगीर -चाम्पा जिले में है।

अमर शहीद वीर नारायण सिंह पर पहला उपन्यास

  वर्ष 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ संघर्ष में छत्तीसगढ़ की सोनाखान जमींदारी के वीर नारायण सिंह ने भी अपने प्राणों की आहुति दी थी. उनके वीरता पूर्ण संघर्ष और बलिदान पर पहला उपन्यास '1857 सोनाखान ' शीर्षक से वर्ष 2022 में प्रकाशित हुआ । यह उपन्यास रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार आशीष सिंह ने लिखा था । विगत 7सितम्बर 2025 को रायपुर स्थित जवाहर लाल नेहरू स्मृति मेडिकल कॉलेज अस्पताल (मेकाहारा )में उनका निधन हो गया । उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का लेखन और सम्पादन किया था । उनका लेखन मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की उन महान विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित रहा है ,जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था।  आशीष छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरि ठाकुर के सुपुत्र थे । 

  पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 

 नाटकों की तरह आधुनिक युग में कथा साहित्य पर आधारित फिल्मों को भी दृश्य -काव्य माना जाता है । इस अंचल में दृश्य -काव्य के रूप में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे सन्देस' वर्ष 1965 में प्रदर्शित हुई। लेखक और निर्माता -निर्देशक मनु नायक की यह फिल्म छुआछूत के खिलाफ़ जन -जागरण के साथ -साथ सहकारिता के महत्व को रेखांकित करती है ।

प्रदेश का पहला हिन्दी व्यंग्य उपन्यास

       रायपुर जिले के ग्राम सकलोर में जन्मे विश्वेन्द्र ठाकुर का व्यंग्य उपन्यास'किस्सा बहराम चोट्टे का ' भी छह दशक पहले ख़ूब चर्चित और प्रशंसित हुआ था । छत्तीसगढ़  में छपा पहला हिन्दी व्यंग्य उपन्यास था ।वर्ष 1962 में प्रकाशित इस  उपन्यास को कुछ विद्वानों ने  स्वतंत्र भारत में हिन्दी का पहला व्यंग्य उपन्यास माना  है । उपन्यास का दूसरा संस्करण तिरेसठ साल बाद इस वर्ष 2025 में प्रकाशित हुआ है, जिसका विमोचन स्वर्गीय विश्वेन्द्र जी के जन्म दिन पर 25 अक्टूबर को रायपुर में किया गया। 

पहले भी ख़ूब हुआ साहित्य सृजन

 छत्तीसगढ़ में साहित्य सृजन राज्य बनने के पहले भी ख़ूब होता था ,आज भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।  साहित्यकारों के बिना साहित्यिक वातावरण भला कैसे बन सकता है ? जिस लेखन में समाज और संसार की बेहतरी की सोच हो , वही सच्चा साहित्य है। ऐसा साहित्य ही जनमत का निर्माण करता है, जिसके सार्थक नतीजे मिलते हैं । 

साहित्यिक जनमत के उत्साहजनक नतीजे

  साहित्य सृजन से निर्मित सकारात्मक जनमत के तीन प्रमुख उत्साहजनक नतीजे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।नये राज्य की सरकारों ने भी यहाँ के साहित्यिक -जनमत का सदैव हार्दिक स्वागत किया है । राज्य गठन के सिर्फ़ सात वर्ष बाद विधानसभा में सर्व सम्मति से विधेयक पारित हुआ और प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया । वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन हुआ ।छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2019 में सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. नरेंद्र देव वर्मा के लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीत 'अरपा पैरी के धार -महानदी हे अपार* को राज्य -गीत का दर्जा दिया  ।डॉ. वर्मा द्वारा वर्ष 1973 में रचित इस गीत में 'छत्तीसगढ़ -महतारी'  की वंदना है । 

राज्य निर्माण आंदोलन में 

साहित्यकारों की भागीदारी

 इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस राज्य के गठन में  राजनीतिक आंदोलनों का अपना ऐतिहासिक महत्व रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के लिए जन आंदोलनों में यहाँ के अनेक साहित्यकारों की सक्रिय भागीदारी थी ।रायपुर के वरिष्ठ साहित्यकार हरि ठाकुर छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच के संयोजक बनाए गए थे । राजिम के संत कवि पवन दीवान भी अपनी कविताओं के माध्यम से लगातार जन -जागरण करते रहे । एक बड़ी संख्या उन साहित्यकारों की भी है , जिन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के लिए किसी आंदोलन में  प्रत्यक्ष रूप से तो हिस्सा नहीं लिया, लेकिन वे अपनी रचनाओं के माध्यम से, परोक्ष रूप से   भी लगातार जन - जागरण में लगे रहे । इन रचनाकारों ने छत्तीसगढ़ की जन - भावनाओं को, यहाँ के आर्थिक पिछड़ेपन को और संभावित राज्य की  साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान को अपनी लेखनी से लगातार  रेखांकित किया । उन्होंने अपनी कविताओं ,कहानियों ,उपन्यासों  नाटकों और अन्य रचनाओं में अंचल की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं को, जनता की आशाओं और आकांक्षाओं  को उजागर किया। परिणामस्वरूप देश के कर्णधारों को भी यह मानना पड़ा कि आंचलिक अस्मिता के साथ छत्तीसगढ़ में भौगोलिक और प्रशासनिक दृष्टि से भी एक अलग राज्य बनने की  तमाम विशेषताएँ मौज़ूद हैं । 

छत्तीसगढ़ जागरण गीत 

 कविताओं  के माध्यम से   छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन को  दिशा देने का एक महत्वपूर्ण प्रयास वर्ष 1977 में हुआ ,जब वरिष्ठ साहित्यकार, भिलाई नगर निवासी स्वर्गीय विमल कुमार पाठक के सम्पादन में आंचलिक कवियों का सहयोगी संकलन 'छत्तीसगढ़ जागरण गीत ' के नाम से सामने आया।  प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर द्वारा प्रकाशित इस गीत - संग्रह की रचनाओं से जन - जागरण का शंखनाद  हुआ। 

सीमावर्ती राज्यों का सांस्कृतिक प्रभाव 

  देश के जिन राज्यों ( मध्यप्रदेश , उत्तरप्रदेश , झारखण्ड ,महाराष्ट्र  ओड़िशा ,आंध्रप्रदेश और तेलंगाना )की सीमाएं छत्तीसगढ़ से लगी हुई हैं ,वहाँ की भाषा ,बोली और संस्कृति का प्रभाव यहाँ के जन -जीवन और लोक साहित्य पर भी स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। इन लोक भाषाओं और बोलियों में लिखने -रचने वाले साहित्यकार भी बहुत हैं, जिनमें से अधिकांश की अभिव्यक्ति अपने अंचल विशेष में ही सीमित रह जाती है। हालांकि अब रेडियो और टेलीविजन के साथ -साथ इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के आधुनिक मंचों से उनके लिए अभिव्यक्ति के नये अवसर  उपलब्ध हुए हैं ।हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं के साथ सम्बलपुरी ओड़िया (कोसली),  हल्बी ,भतरी , गोंडी ,कुड़ुख , सादरी (सरगुजिहा)जैसी रंग -बिरंगी बोलियों के सम्मोहक संसार को अपने में समाए छत्तीसगढ़ प्रदेश का साहित्य भी विविधताओं से भरपूर है। लेकिन तमाम विविधताओं के बावज़ूद भारतीय संस्कृति की तरह उसकी आत्मा भी एक है।

वर्ष 1956 में युवा कवियों की एक नई शुरुआत

  पिछले कुछ दशकों के यहाँ के साहित्यिक परिदृश्य पर अगर निगाह डालें तो हम देख सकते हैं कि छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने व्यावसायिकता के मायाजाल से ऊपर उठकर रचनाएँ लिखीं हैं और स्थानीय स्तर के छोटे -छोटे सामूहिक प्रयासों के जरिए किताबें छपवायी हैं। लेखकों का सहकारी संघ बनाकर रायपुर के कुछ युवा कवियों ने वर्ष 1956 में एक नयी शुरुआत की ,जब उन्होंने 'नये स्वर ' शीर्षक से एक संयुक्त काव्य संग्रह निकाला। इसमें अंचल के छह रचनाकारों -- हरि ठाकुर , गुरुदेव काश्यप चौबे , सतीश चंद्र चौबे ,नारायणलाल परमार ,ललित मोहन श्रीवास्तव और देवीप्रसाद वर्मा 'बच्चू जांजगीरी ' की कविताएँ शामिल हैं।इसके बाद इन्हीं रचनाकारों के संगठन लेखक सहयोगी प्रकाशन  द्वारा  नये स्वर -2 और नये स्वर -3 का भी प्रकाशन किया गया । वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक के अनुसार 'नये स्वर ' को छत्तीसगढ़ का 'तार सप्तक' भी कहा जा सकता है ।स्वर्गीय हरि ठाकुर ने ' नये स्वर ' के प्रथम प्रकाशन की अपनी भूमिका में लिखा है -- " हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है । द्विवेदी युग में छत्तीसगढ़ ने भी हिन्दी साहित्य और भाषा को अपनी लेखनी से पुष्ट किया ।उस युग के कुछ साहित्यिकों और कवियों ने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की थी।      नये स्वर (प्रथम ) की भूमिका में स्वर्गीय जगन्नाथ प्रसाद भानु , पंडित लोचन प्रसाद पांडेय , मुकुटधर पांडेय , पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , माधवराव सप्रे , मेदिनी प्रसाद पांडेय , मावली प्रसाद श्रीवास्तव , बलदेव प्रसाद मिश्र ,सुंदरलाल शर्मा ,सैयद मीर अली मीर  आदि अनेक  कवियों और लेखकों की साहित्य साधना का उल्लेख किया गया गया है।  हरि ठाकुर के अनुसार --" स्वर्गीय पंडित सुंदरलाल शर्मा ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों में अनेक  काव्य ग्रंथ  लिखे।छायावादी युग में भी छत्तीसगढ़ पीछे नहीं रहा ।स्वर्गीय कुंजबिहारी चौबे के काव्य ने छत्तीसगढ़ के मस्तक को बहुत ऊँचा  उठा दिया। स्वर्गीय चौबे का स्वर प्रखरता और विद्रोह से भरा हुआ था ।उनका मूल स्वर प्रगतिवादी था ।स्वर्गीय महादेव प्रसाद 'अतीत' छत्तीसगढ़ के ' निराला ' थे। प्रकाशन के अभाव ने उनकी रचनाओं को निगल लिया ।"  

छत्तीसगढ़ी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास

  वरिष्ठ साहित्यकार ,  भाषा विज्ञानी और छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. विनय कुमार पाठक ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार ' में छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा में है।बिलासपुर के प्रयास प्रकाशन द्वारा इसका पहला संस्करण वर्ष 1971में, दूसरा संस्करण वर्ष 1975 में और तीसरा संस्करण वर्ष 1977में प्रकाशित किया गया था ।लेखक डॉ. पाठक ने इसके गद्य साहित्य खंड में लिखा है कि आरंग मे प्राप्त सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला उदाहरण माना  जा सकता है ।यह कलचुरि राजा अमरसिंह का शिलालेख है ।डॉ . पाठक ने अपने इस लघु शोध ग्रंथ  में छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य की विकास यात्रा को कहानी ,उपन्यास , नाटक और एकांकी ,निबंध और समीक्षा,  अनुवाद और छत्तीसगढ़ी कविता  के क्षेत्र में हुए कार्यों को रेखांकित किया है।    छत्तीसगढ़ी भाषा में रचित  डॉ. विनय कुमार पाठक की लगभग 106 पन्नों की यह छोटी -सी पुस्तक एक महत्वपूर्ण संदर्भ -ग्रंथ है।इसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ी साहित्य की विकास यात्रा को क्रमशः मौखिक परम्परा(प्राचीन साहित्य ), आदिकाल मध्यकाल ,चारण काल और वीरगाथा काल से लेकर लिखित परम्परा यानी वर्ष 1900 से अब तक के अलग -अलग काल खंडों में प्रस्तुत किया है।

साहित्यकार डॉ. खूबचन्द बघेल की ऐतिहासिक भूमिका*

  स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और साहित्यकार  स्वर्गीय डॉ. खूबचन्द बघेल  ने  गांधीवादी सत्याग्रह के साथ  अपने  साहित्यिक लेखन के जरिए भी आज़ादी के आंदोलन में ऐतिहासिक योगदान दिया। इसके साथ ही साथ उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए भी जन जागरण के उद्देश्य से  ऐतिहासिक भूमिका निभाई ।उन्हें नये राज्य के स्वप्न-दृष्टा के रूप में सम्मान के साथ याद किया जाता है ।उन्होंने देश की आज़ादी के बाद राज्य निर्माण के लिए संघर्ष को गति देने वर्ष 1956 में राजनांदगांव में 'छत्तीसगढ़ी महासभा 'और वर्ष 1967 में रायपुर में 'छत्तीसगढ़ भातृ संघ ' का गठन किया।वह हिन्दी और छत्तीसगढ़ी ,दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने 'ऊंच -नीच ' , 'करम छड़हा' 'जरनैल सिंह ' और 'लेड़गा सुजान के गोठ ' जैसे लोकप्रिय नाटकों की रचना की।  डॉ. बघेल  साहित्यकार होने के अलावा राजनीतिज्ञ भी थे।  देश की आज़ादी के बाद वर्ष 1947 में बनी प्रांतीय सरकार में उन्हें संसदीय सचिव बनाया गया था ,लेकिन कुछ ही समय बाद  वह इस्तीफ़ा देकर छत्तीसगढ़ की जनता के बीच आ गए ।  वह वर्ष 1951 से 1962 तक विधायक और वर्ष 1967 से  1969 तक  राज्यसभा सांसद भी रहे।  रायपुर जिले के ग्राम पथरी में 19 जुलाई 1900 को जन्मे डॉ. बघेल का निधन 22 फरवरी 1969 को हुआ। 

महाग्रंथ 'गांधी मीमांसा 'के रचयिता पंडित  रामदयाल तिवारी

 रायपुर के साहित्यकार स्वर्गीय पंडित रामदयाल तिवारी ऐसे तपस्वी साहित्यकार थे ,जिन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दिनों में वर्ष 1935 में  महात्मा गांधी  के विचारों की समालोचना पर आधारित 36 अध्यायों में लगभग 850 पृष्ठों  के विशाल ग्रंथ ' गांधी  मीमांसा ' की रचना की थी और  पूरे देश का ध्यान छत्तीसगढ़ की ओर आकर्षित किया था। इस ग्रंथ में महात्मा गांधी के विचारों की रचनात्मक समालोचना है।   तिवारीजी का जन्म 23 जुलाई 1892 को रायपुर में हुआ था। वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे ।  अपने जन्म स्थान और गृहनगर (रायपुर)  में ही 21 अगस्त 1942 को दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल में मात्र 50 वर्ष की आयु में तिवारी जी का निधन हो गया। इतनी अल्पायु में ही वह  हिन्दी संसार को अपनी प्रकाशित ,अप्रकाशित रचनाओं का अनमोल खज़ाना सौंप गए। 

  अविस्मरणीय योगदान

छत्तीसगढ़ की आम जनता के सुख -दुःख को और यहाँ के विभिन्न अंचलों की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं को कविता, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि अलग -अलग विधाओं की अपनी  हिन्दी और छत्तीसगढ़ी रचनाओं के माध्यम से सशक्त अभिव्यक्ति देने और राज्य के रूप में इस अंचल की पहचान बनाने में अनेक  साहित्यकारों का अविस्मरणीय योगदान रहा है ।उन सबकी साहित्यिक भूमिका को इतिहास में रेखांकित किया जाएगा । साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए रायगढ़ के पंडित मुकुटधर पाण्डेय, बिलासपुर के पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी और दुर्ग के डॉ. सुरेन्द्र दुबे  को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया जा चुका है । दुर्भाग्य से ये तीनों साहित्यिक दिग्गज अब इस दुनिया में नहीं हैं ।

   रायगढ़ के पंडित लोचन प्रसाद पांडेय, बंशीधर पांडेय , बन्दे अली फ़ातमी , आनंदी सहाय शुक्ल , मुस्तफ़ा हुसैन मुश्फिक , गुरुदेव कश्यप, डॉ. राजू पाण्डेय, चिरंजीव दास,डॉ. बलदेव साव और तिलक पटेल , बिलासपुर के हृदय सिंह चौहान,डॉ .पालेश्वर शर्मा ,पण्डित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र', कपिलनाथ कश्यप और श्रीकांत वर्मा  ',  बस्तर (जगदलपुर )  के  लाला जगदलपुरी ,सोनसिंह पुजारी, रघुनाथ महापात्र ,गुलशेर खाँ  शानी, और ग़नी आमीपुरी, धमतरी के  नारायणलाल परमार ,  इंदिरा परमार, भगवतीलाल सेन ,मुकीम भारती, त्रिभुवन पांडेय और सुरजीत नवदीप,अम्बिकापुर के अनिरुद्ध नीरव और डॉ. कुंतल गोयल और दुर्ग के कोदूराम दलित , डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप ', विमल कुमार पाठक ,रघुवीर अग्रवाल 'पथिक'  , मुकुंद कौशल और दानेश्वर शर्मा का साहित्य -सृजन भी बहुत लोकप्रिय रहा है । बागबाहरा के  प्रभंजन शास्त्री,गजेन्द्र तिवारी , हरिकृष्ण श्रीवास्तव और मेहतर राम साहू ,महासमुंद के चेतन आर्य और लतीफ़ घोंघी ,राजिम  के पवन दीवान ,कृष्णा रंजन, पुरुषोत्तम अनासक्त और लक्ष्मण मस्तुरिया  ,रायपुर के  केयूर भूषण ,हरि ठाकुर ,डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा ,आशीष सिंह, बद्रीविशाल परमानंद ,हेमनाथ यदु ,डॉ. मन्नूलाल यदु ,विनोदशंकर शुक्ल , स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी , रूप नारायण वर्मा 'वेणु ', मधुकर खेर , रमेश नैयर,प्रभाकर चौबे ,विभु कुमार ,मायाराम सुरजन,ललित सुरजन ,  देवीसिंह चौहान ,डॉ. राजेन्द्र सोनी और   सुशील यदु भी अपनी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं की रचनाओं के लिए याद किए जाते हैं ।

 बालोद के सलीम अहमद ' जख़्मी बालोदवी, 'कोंडागांव के हरिहर वैष्णव तथा  पिथौरा के अनिरुद्ध भोई और  मधु धांधी सहित विभिन्न क्षेत्रों के  कई  बेहतरीन रचनाकार हुए, जिनकी रचनाओं की अपनी ही रंगत है ।

 राजनांदगांव जिला  साहित्य के तीन महारथियों की कर्मभूमि के रूप में प्रसिद्ध है । डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी , डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र और गजानन माधव मुक्तिबोध ने इस कस्बाई शहर में रहकर अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना से राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया। धमतरी जिले के मगरलोड निवासी वरिष्ठ कवि (स्वर्गीय )डॉ. दशरथ लाल निषाद 'विद्रोही' ने आंचलिक खान -पान , रीति -रिवाज और जीवन शैली सहित छत्तीसगढ़ की सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं पर  कई पुस्तकों की रचना की है। 

        वर्तमान दौर के साहित्यकार

छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजनशील रचनाकारों की एक लम्बी सूची बन सकती है । इनमें उपन्यास, कहानी, कविता,निबंध, नाटक, लघुकथा और व्यंग्य  आदि सभी विधाओं के साहित्यकार शामिल किए जा सकते हैं ।  वर्तमान दौर के प्रमुख और सक्रिय साहित्यकारों में भिलाई नगर के डॉ. परदेशी राम वर्मा, रवि श्रीवास्तव, कनक तिवारी,विनोद साव, शरद कोकास,ललित कुमार वर्मा, लोक बाबू, नासिर अहमद सिकंदर विनोद मिश्र और मुमताज़, दुर्ग के  अरुण कुमार निगम ,संजीव तिवारी,कमलेश चंद्राकर, दीनदयाल साहू, विजय वर्तमान ,बलदाऊ राम साहू , ठाकुरदास ' सिद्ध ', दीक्षा चौबे,और संजय दानी भी हैं । रा

रायपुर के विनोद कुमार शुक्ल, डॉ. चित्तरंजन कर , संजीव बख्शी, रामेश्वर वैष्णव ,गिरीश पंकज ,डॉ. सुशील त्रिवेदी, डॉ. सुधीर शर्मा,  परमानंद वर्मा ,डॉ. संकेत ठाकुर, शीलकांत पाठक, जीवेश प्रभाकर, अनिल कुमार शुक्ला, जयप्रकाश मानस ,रमेश अनुपम, चेतन भारती,  जागेश्वर प्रसाद ,भगतसिंह सोनी,  राजेन्द्र ओझा, मीर अली 'मीर', रामेश्वर शर्मा , सुशील भोले, अनिल भतपहरी, शकुंतला तरार,अनामिका शर्मा, मृणालिका ओझा, अखतर अली,केवल कृष्ण, आनन्द हर्षुल और डॉ. माणिक विश्वकर्मा 'नवरंग ',खैरागढ़ के डॉ.जीवन यदु 'राही' और संकल्प पहाटिया, महासमुंद के अशोक शर्मा, ईश्वर शर्मा, श्लेष चंद्राकर और बंधु राजेश्वर खरे, तुमगांव के शशि कुमार शर्मा, भाटापारा के बलदेव सिंह भारती, हथबंध (भाटापारा ) के चोवाराम वर्मा 'बादल 'और अभनपुर के ललित शर्मा (कुमार ललित ) की साहित्यिक सृजनशीलता भी प्रभावित करती है  । 

      गंडई पंडरिया के डॉ. पीसीलाल यादव,  कवर्धा के गणेश सोनी 'प्रतीक ' पांडुका के काशीपुरी कुंदन तथा नगरी (जिला -धमतरी )की डॉ. शैल चंद्रा और उसी क्षेत्र की श्रीमती अमिता दुबेराजिम के दिनेश चौहान, प्रिया देवांगन 'प्रियू ', राजिम के पास के ग्राम कोमा मांझी अनंत,  पथिक तारक,  पलारी के पोखन लाल जायसवाल और पूरन जायसवाल, बालको नगर (कोरबा )के जीतेन्द्र वर्मा 'खैरझिटिया ' धमतरी के रंजीत भट्टाचार्य, निकष परमार, सरिता दोशी और डुमनलाल ध्रुव, बिलासपुर के डॉ. विनय कुमार पाठक, राघवेंद्र दुबे, डॉ. विवेक तिवारी, केशव शुक्ला और देवधर दास महंत की साहित्य साधना भी अनवरत चल रही है । 

    अम्बिकापुर के विजय गुप्त, श्याम कश्यप 'बेचैन'  श्रीश मिश्रा और उमाकांत पाण्डेय,रायगढ़ के कस्तूरी दिनेश, बसंत राघव,हरकिशोर दास, रमेश शर्मा,  सनत कुमार और प्रकाश गुप्ता 'हमसफ़र '  कोसीर (सारंगढ़)के लक्ष्मीनारायण लहरे 'साहिल ',खैरागढ़ के डॉ.जीवन यदु 'राही ', संकल्प पहटिया,  जांजगीर के सतीश कुमार सिंह और विजय राठौर ,बागबाहरा के रजत कृष्ण,  पीयूष कुमार, रूपेश तिवारी और धनराज साहू, बसना के बद्रीप्रसाद पुरोहितऔर मीनकेतन दास, पिथौरा के शिवशंकर पटनायक,स्वराज्य करुण तथा प्रवीण प्रवाह भी अपनी -अपनी विधाओं में साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। इन रचनाकारों के अलावा भी प्रदेश के विभिन्न इलाकों के अनेक कवि और  लेखक  छत्तीसगढ़ के जन-  जीवन को, यहाँ की जनभावनाओं को और  माटी की महिमा को विभिन्न विधाओं की अपनी रचनाओं में लगातार स्वर दे रहे हैं ।मगरलोड के वरिष्ठ  साहित्यकार पुनुराम साहू 'राज ' विगत कई दशकों से छत्तीसगढ़ी साहित्य सृजन के लिए समर्पित हैं ।  मगरलोड के पास ग्राम बोड़रा निवासी वीरेन्द्र सरल व्यंग्य लेखन में सक्रिय हैं और 'कार्यालय तेरी अकथ कहानी 'जैसे अपने कई प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए हैं ।जगदलपुर (बस्तर )के विजय सिंह, हिमांशु शेखर झा और सुभाष पाण्डेय ने हिंदी नई कविताओं के सृजन में अपनी नई पहचान बनायी है।जगदलपुर के ही जोगेन्द्र महापात्र जैसे कई वरिष्ठ रचनाकार अपनी साहित्य साधना से हल्बी और भतरी सहित वहाँ की  लोकभाषाओं को लगातार  समृद्ध बना रहे हैं  । राजिम के पास ग्राम कोमा में पले-बढ़े एकांत श्रीवास्तव ने हिन्दी नई कविताओं में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है  । बस्तर संभाग की लौह अयस्क नगरी  बचेली में जन्मे राजीव रंजन प्रसाद  वर्तमान में फ़रीदाबाद स्थित भारत सरकार के उपक्रम राष्ट्रीय जल विद्युत निगम (एन. एच. पी. सी.)में वरिष्ठ प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने बस्तर अंचल की पृष्ठ भूमि पर 'आमचो बस्तर'जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों की रचना की है । 

       सपना तो साकार हुआ, लेकिन अब आगे क्या?

  छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों ने वर्षों पहले जो सपना देखा था , पच्चीस वर्ष पहले  राज्य निर्माण के साथ ही वह साकार हो गया है।लेकिन साकार हुए इस सपने को सार्थकता तभी मिलेगी ,जब हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि यह सपना आख़िर किसके लिए था ?निश्चित रूप से यह उस विशाल जन समुदाय का सपना था ,जिसमें लाखों -लाख किसानों और मज़दूरों सहित जनता का हर वह मेहनतकश तबका शामिल है ,जिसे मिलाए बिना छत्तीसगढ़ प्रदेश का नक्शा बन ही नहीं सकता था। छत्तीसगढ़ महज एक राज्य नहीं , बल्कि एक बहुरंगी संस्कृति है।बस्तर से सरगुजा तक , दुर्ग से सरायपाली तक , महानदी से इन्द्रावती तक ,राजिम से रतनपुर तक ,रायपुर से रामानुजगंज तक , महासमुंद से मनेन्द्रगढ़ तक ,  और मैनपाट से बैलाडीला तक  हजारों -हजार रंगों से सुसज्जित है  इस विशाल धरती का  आंचल ।  रंग -बिरंगी बोलियाँ हैं ,इन्द्रधनुषी लोकगीत हैं ,सबका अपना -अपना लोक साहित्य है,सम्मोहक छटा बिखेरते लोकनृत्य हैं ,मेले -मड़ई हैं, तीज -त्यौहार हैं । हर गाँव के अपने ग्राम देवता और ग्राम देवियां हैं । आधुनिकता की अंधाधुंध रफ़्तार वाली हृदय विहीन पाषाण -संस्कृति के फैलते मायाजाल के बावज़ूद ,छत्तीसगढ़ की यह बहुरंगी मानवीय संस्कृति हम सबकी एक अनमोल धरोहर है ।इसे संभाल कर रखने और पहले से भी ज़्यादा सजाने और संवारने की जरूरत है ।

आलेख -स्वराज्य करुण