Wednesday, December 17, 2025

लाला जगदलपुरी ; तिरानवे साल की ज़िन्दगी में 77 साल की सुदीर्घ साहित्य -साधना /आलेख -स्वराज्य करुण

 साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी की आज 17 दिसम्बर को 105वीं जयंती 

तिरानवे साल की ज़िन्दगी में 77साल की सुदीर्घ साहित्य -साधना

(आलेख -  स्वराज्य करुण )

 जिन्होंने 93 साल की अपनी जीवन -यात्रा के 77साल साहित्य -साधना में लगा दिए,ऐसे समर्पित साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी की आज 17 दिसम्बर 2025 को 105वीं जयंती है. उन्हें विनम्र नमन । हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर तो वह थे ही, छत्तीसगढ़ और बस्तर के लोक साहित्य के  भी मर्मज्ञ थे। उन्होंने अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना से छत्तीसगढ़ और बस्तर के वनांचल को देश और दुनिया में साहित्यिक और सांस्कृतिक पहचान दिलाने का श्रम-साध्य कार्य समर्पित भाव से किया।  उनके जगदलपुर शहर को देश और दुनिया में साहित्यिक पहचान भी उनके नाम  से मिली ।

 अफ़सोस कि उनकी तकरीबन पौन सदी से भी अधिक लम्बी  साहित्य- साधना विगत 14 अगस्त 2013 को अचानक हमेशा के लिए थम गयी ,जब अपने गृहनगर जगदलपुर में उनका देहावसान हो गया। इसी जगदलपुर में उनका जन्म 17 दिसम्बर 1920 को हुआ था।   उन्होंने ऋषि -तुल्य सादगीपूर्ण  जीवन जिया । धोती और कुर्ता उनका लिबास था । हर शाम वह अपने गृह नगर में पैदल घूमते और स्थानीय लोगों और साहित्यकारों से मिलते थे । उन दिनों उर्दू शायर ग़नी आमीपुरी भी जीवित थे, जिनकी ड्रायक्लिनिंग की छोटी -सी दुकान में वह अक्सर आते और बैठा करते थे। कुछ स्थानीय कवि भी लालाजी और ग़नी जी से मिलने वहाँ आ जाते थे ।

                                                              


लाला जगदलपुरी एक समर्पित साहित्य साधक थे। उन्हें तपस्वी साहित्य महर्षि भी कहा जा सकता है । वह पत्रकार भी थे। उन्होंने स्वर्गीय तुषार कांति बोस द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक 'बस्तरिया' का कई वर्षों तक सम्पादन किया, जो हल्बी लोकभाषा का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र था ।वर्ष 2020 में उनके सौवें जन्म वर्ष के उपलक्ष्य में  जगदलपुर स्थित शासकीय जिला ग्रंथालय का नामकरण उनके नाम किया गया। उनके सम्मान में  यह निश्चित रूप से यह एक  स्वागत योग्य निर्णय था।   यह  ग्रंथालय जगदलपुर के शासकीय बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय परिसर में स्थित है।  लाला जी को छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर राजधानी रायपुर में आयोजित राज्योत्सव 2004 में प्रदेश सरकार की ओर से *पंडित सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान*  से नवाजा गया था। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने उन्हें और बिलासपुर के वरिष्ठ साहित्यकार पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी को संयुक्त रूप से यह सम्मान प्रदान किया था।

   लाला जगदलपुरी ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी सहित बस्तर अंचल की हल्बी और भतरी लोकभाषाओं में भी साहित्य सृजन किया। उनकी प्रमुख हिन्दी पुस्तकों में वर्ष 1983 में प्रकाशित  ग़ज़ल संग्रह 'मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश '  वर्ष 1992 में प्रकाशित काव्य संग्रह 'पड़ाव ',वर्ष 2005 में प्रकाशित आंचलिक कविताएं और वर्ष 2011 में प्रकाशित ज़िन्दगी के लिए जूझती गज़लें तथा गीत धन्वा शामिल हैं। मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे भी उनका स्नेह और सानिध्य मिला था और उनके द्वारा सम्पादित तथा  वर्ष 1986 में प्रकाशित छत्तीसगढ़ के  चार कवियों  के सहयोगी काव्य संग्रह 'हमसफ़र 'में उन्होंने मेरी कविताओं को भी शामिल किया था । संकलन में  बहादुर लाल तिवारी , लक्ष्मीनारायण पयोधि और ग़नी आमीपुरी की भी  हिन्दी कविताएं शामिल हैं। 

   मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल  द्वारा वर्ष 1994 में प्रकाशित लाला जगदलपुरी की पुस्तक 'बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति ' ने छत्तीसगढ़ के इस आदिवासी अंचल पर केन्द्रित एक प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ के रूप में काफी प्रशंसा अर्जित की। वर्ष 2007 में इस ग्रंथ का तीसरा संस्करण प्रकाशित किया गया। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर हरिहर वैष्णव द्वारा सम्पादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक " लाला जगदलपुरी समग्र ' का भी प्रकाशन हो चुका है। उनकी हिन्दी ग़ज़लों का संकलन 'मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश ', शीर्षक से आंदोलन प्रकाशन जगदलपुर के भरत बेचैन द्वारा वर्ष 1983 में प्रकाशित किया गया था। इसमें शामिल उनकी एक ग़ज़ल इस प्रकार है -


*दुर्जनता की पीठ ठोंकता 

सज्जन कितना बदल गया है !

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दहकन का अहसास कराता,

चंदन कितना बदल गया है , 

मेरा चेहरा मुझे डराता, 

दरपन कितना बदल गया है !

आँखों ही आँखों में  सूख गई 

हरियाली अंतर्मन की ,

कौन करे विश्वास कि मेरा 

सावन कितना बदल गया है !

पाँवों के नीचे से खिसक-खिसक 

जाता सा बात-बात में ,

मेरे तुलसी के बिरवे का 

आँगन कितना बदल गया है ! 

भाग रहे हैं लोग मृत्यु के 

पीछे-पीछे बिना बुलाए,

जिजीविषा से अलग-थलग 

यह जीवन कितना बदल गया है !

प्रोत्साहन की नई दिशा में 

देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ ,

दुर्जनता की पीठ ठोंकता

 सज्जन कितना बदल गया है !

                 ***

हमारी आज की दुनिया ,आज की समाज व्यवस्था और हमारे आस -पास के आज के वातावरण का वर्णन करती इस ग़ज़ल की हर पंक्ति अपने -आप में बहुत स्पष्ट है। यह ग़ज़ल सकेतों ही संकेतों में हमें बहुत कुछ कह रही है।  

छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर द्वारा लाला जी की  पुस्तक 'बस्तर की लोकोक्तियाँ ' वर्ष 2008 में प्रकाशित की गयी। उनकी हल्बी लोक कथाओं का संकलन लोक चेतना प्रकाशन जबलपुर द्वारा वर्ष 1972 में प्रकाशित किया गया। लाला जी ने प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों का  भी हल्बी में अनुवाद किया था । यह अनुवाद संकलन 'प्रेमचंद चो बारा कहनी ' शीर्षक से वर्ष 1984 में वन्या प्रकाशन भोपाल ने प्रकाशित किया था।   

                  मरणोपरांत छपी पाँच किताबें 

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 लालाजी के मरणोपरांत उनकी पाँच किताबों का प्रकाशन हुआ है । घर पर उनकी बिखरी पड़ी रचनाओं को सहेजने और सम्पादित कर पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाने का सराहनीय कार्य उनके अनुज स्वर्गीय केशव लाल श्रीवास्तव के सुपुत्र विनय कुमार श्रीवास्तव ने किया है ।हाल के वर्षों में विनय जी के सम्पादन में   लाला जी की पाँच किताबें छप चुकी हैं। ये हैं (1) छोटी -छोटी कविताओं का संकलन बूँद -बूँद सागर  (2) बिखरे मोती ( 3)  आंचलिक कविताएँ :समग्र '  (4) बच्चों की कविताओं का संकलन 'बाबा की भेंट ' और (5) अप्रकाशित गद्यात्मक रचनाओं का संकलन 'बस्तर माटी की गूँज

।  इनमें से पाँचवे संकलन 'बस्तर माटी की गूँज' का सम्पादन विनय जी के साथ उनकी छोटी बहन  डॉ. आभा श्रीवास्तव ने भी किया है । साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी को विनम्र नमन ।

   आलेख -स्वराज्य करुण 

2 comments:

  1. विनम्र श्रद्धांजलि, साहित्य महर्षि के लेखन को नमन

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  2. बहुत -बहुत धन्यवाद. 🙏.

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