(आज 27 मई को जयंती पर विशेष)
आलेख : स्वराज करुण
साहित्य और पत्रकारिता के नक्शे पर छत्तीसगढ़ को देश और दुनिया में पहचान दिलाने वाली दिग्गज विभूतियों में स्वर्गीय डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी का नाम भी स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। वह आधुनिक हिन्दी साहित्य गगन के चमकदार सितारे थे ,जो अपनी रचनाओं से लगभग छह दशकों तक सम्पूर्ण हिन्दी संसार को आलोकित करते रहे। सचमुच ऋषितुल्य था उनका व्यक्तित्व । उन्होंने अपनी 77 वर्षीय जीवन - यात्रा के लगभग 60 वर्ष एक तपस्वी की तरह देवी सरस्वती की उपासना में अर्पित कर दिए। आज 27 मई को उनकी जयंती है। इस उपलक्ष्य में उन्हें याद करते हुए आइए आज डालते हैं उनकी जीवन यात्रा के साथ रचना संसार पर एक नज़र।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में बख्शीजी की गिनती द्विवेदी युग के महान लेखकों और साहित्यिक पत्रकारों में होती है। साहित्यकार और पत्रकार होने के अलावा उन्होंने स्कूल अध्यापक और कॉलेज प्राध्यापक के रूप में शिक्षा के क्षेत्र में भी अपनी भूमिकाओं का बड़ी कुशलता से निर्वहन किया ।
उनका जन्म छत्तीसगढ़ के वर्तमान राजनांदगांव जिले के अंतर्गत एक छोटे -से रियासती मुख्यालय खैरागढ़ में 27 मई सन 1894 में हुआ था। यह वही खैरागढ़ है जहाँ एशिया का पहला संगीत एवं कला विश्वविद्यालय है , जो खैरागढ़ रियासत की राजकुमारी इंदिरा के नाम पर विगत लगभग छह दशकों से संचालित हो रहा है। इसकी स्थापना 14 अक्टूबर 1956 में हुई थी । इस अनोखे विश्वविद्यालय ने खैरागढ़ का नाम देश -विदेश में रौशन तो किया ही ,लेकिन इसकी स्थापना से पहले वहाँ की माटी में जन्मे साहित्य मनीषी बख्शीजी की रचनाओं से यह कस्बाई शहर भी देश और दुनिया की साहित्यिक बिरादरी में प्रसिद्ध हो गया था।। रायपुर के दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल (डी.के.अस्पताल )में 28 दिसम्बर 1971 को बख्शीजी का निधन हो गया ।
उनके पिता का नाम पुन्नालाल बख़्शी और माता का नाम मनोरमा देवी था। पदुमलाल जी की प्रारंभिक शिक्षा खैरागढ़ में हुई ,जहाँ पण्डित रविशंकर शुक्ल उनके स्कूल के प्रधान अध्यापक थे ,जो आगे चलकर देश के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और वर्ष 1947 में देश की आज़ादी के 9 साल बाद 1956 में बने मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने । बख्शीजी की साहित्य साधना वर्ष 1911 में शुरू हो चुकी थी। तब वह मात्र 17 वर्ष के किशोर थे । उन दिनों उनकी एक रचना जबलपुर से छपने वाली 'तारिणी ' नामक पत्रिका में छपी । यह एक अंग्रेजी कहानी का भावानुवाद था। मिडिल उत्तीर्ण होने के बाद उन्होंने खैरागढ़ के विक्टोरिया हाई स्कूल में प्रवेश लिया था । वर्ष 1911की मेट्रिक परीक्षा में वह फेल हो गए थे ,लेकिन अगले साल इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद उन्होंने बनारस के सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में दाखिला लिया और वर्ष 1916 में वहाँ से बी.ए.की उपाधि हासिल की। वर्ष 1913 में उनका विवाह मण्डला के ग्राम महाराजपुर निवासी हरिप्रसाद श्रीवास्तव की सुपुत्री लक्ष्मीदेवी के साथ सम्पन्न हुआ । बी.ए. उत्तीर्ण होने के बाद वर्ष 1916 में बख्शीजी को स्टेट हाई स्कूल राजनांदगांव में संस्कृत शिक्षक के पद पर नियुक्ति मिल गयी । उन्हीं दिनों उनका एक निबन्ध 'सोना निकालने वाली चींटियां ' शीर्षक से उस जमाने की प्रसिद्ध पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशित हुआ। सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी 'इण्डियन प्रेस' की इस पत्रिका के सम्पादक थे। यह पत्रिका इलाहाबाद से छपती थी। बख्शीजी वर्ष 1920 में इस पत्रिका के सहायक सम्पादक नियुक्त किए गए उन्हें महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे दिग्गज साहित्यकार और पत्रकार के मार्गदर्शन में काम करने का अवसर मिला । उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए अगले ही साल जनवरी 1921में उन्हें पदोन्नत कर 'सरस्वती ' का प्रधान सम्पादक बना दिया गया।
स्वतंत्रता संग्राम का दौर था और पूरे भारत में राष्ट्रीय चेतना की लहर चल रही थी। बख्शीजी ने भी 'सरस्वती ' पत्रिका के माध्यम से आज़ादी के आंदोलन की धार को तेज करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने इस पत्रिका में 'देश की दशा ' और 'संसार की गति ' शीर्षक से दो स्तंभ शुरू किए ,जिनसे पत्रिका की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। वर्ष 1925 में उन्होंने अपने पिता पुन्नालाल बख़्शी के निधन के बाद कुछ पारिवारिक कारणों से इस पद से इस्तीफा दे दिया और अपने घर खैरागढ़ लौट आए। प्रकाशकों के अनुरोध पर वर्ष 1927 में उन्होंने पुनः 'सरस्वती' के सम्पादक पद का कार्यभार संभाल लिया ।लेकिन वर्ष 1929 में कुछ कारणों से फिर इस्तीफा दे कर खैरागढ़ आ गए और वर्ष 1930 में एक बार फिर स्टेट हाई स्कूल राजनांदगांव में अध्यापक बन गए । वहाँ वर्ष 1934 तक अध्यापन कार्य के बाद वह अपने गृह नगर खैरागढ़ लौट गए , जहाँ विक्टोरिया हाई स्कूल में वर्ष 1935 से 1949 तक उन्होंने अंग्रेजी के अध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दी। राज्य सरकार ने इस हाई स्कूल का नामकरण उनके नाम पर किया है। आज यह पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला के नाम से संचालित हो रहा है। उन्होंने कुछ समय तक नरहरदेव हाई स्कूल कांकेर में भी शिक्षकीय कार्य किया। अपने गृह नगर खैरागढ़ में रहकर उन्होंने वर्ष 1952 से 1956 तक पुनः 'सरस्वती' का सम्पादन किया ।
दरअसल स्वास्थ्यगत कारणों से उनके लिए इलाहाबाद में नियमित रूप से रह पाना असंभव था ,लेकिन प्रकाशकों का आग्रह था कि वह अपने घर में रहकर ही इसके सम्पादन का दायित्व पुनः संभालें । उन्होंने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया । सहायक सम्पादक देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त' स्वयं पत्रिका की प्रकाशन सामग्री लेकर बख्शीजी से सम्पादन करवाने के लिए इलाहाबाद से खैरागढ़ आते-जाते थे। यह बख्शीजी की प्रतिभा और विद्वता का ही कमाल था कि उन्हें वर्ष 1920 से 1956 तक 36 वर्षों में चार अलग -अलग कालखण्डों में 'सरस्वती' जैसी राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिका की सम्पादकीय कमान संभालने का अवसर मिला । ।वर्ष 1920 में सहायक सम्पादक ,वर्ष 1921 में प्रधान सम्पादक और वर्ष 1927 से 1929 तक तथा वर्ष 1952 से 1956 तक पुनः सम्पादकीय दायित्व । एक पत्रकार के लिए यह निश्चित रूप से सम्मान की बात थी । बख्शीजी में साहित्य और पत्रकारिता की अभिरुचि किशोरवय से ही अंकुरित हो चुकी थी ,जो युवावस्था से लेकर जीवन पर्यन्त और भी अधिक पुष्पित और पल्लवित होती रही।। वह मित्रों के साथ मिलकर खैरागढ़ से हस्तलिखित वार्षिक पत्रिका 'जन्म भूमि ' लगातार तीन वर्षों तक निकालते रहे। उन्होंने 'सरस्वती ' पत्रिका की नौकरी छोड़कर खैरागढ़ वापस आने पर वहाँ के रियासती शासन के समाचार पत्र ' प्रजाबंधु ' का भी कुछ समय तक सम्पादन किया। यह वही खैरागढ़ है जहाँ एशिया का पहला संगीत एवं कला विश्वविद्यालय है जो खैरागढ़ रियासत की राजकुमारी इंदिरा के नाम पर विगत लगभग छह दशकों से संचालित हो रहा है। बख्शीजी ने रायपुर से प्रकाशित छत्तीसगढ़ के प्रथम दैनिक 'महाकोशल' के साहित्य सम्पादक के रूप में वर्ष 1955 में रविवारीय अंकों का भी सम्पादन किया। वह बी.ए. पास थे ,लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी महत्वपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों को देखते हुए वर्ष 1959 में उन्हें दिग्विजय कॉलेज राजनांदगांव में हिन्दी का प्राध्यापक नियुक्त किया गया । उन दिनों छत्तीसगढ़ अंचल के कॉलेज सागर विश्वविद्यालय के अधीन संचालित होते थे। पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति हुआ करते थे। उन दिनों राज्यपाल विश्वविद्यालयों के 'कुलपति ' कहलाते थे । वर्तमान में उन्हें कुलाधिपति'कहा जाता है।
बख्शीजी की रचनाएं विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी शामिल थीं। इस आधार पर भी विशेष प्रकरण मानकर उन्हें दिग्विजय कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक के पद पर नियुक्त किए जाने के प्रस्ताव पर विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने अपनी सहमति प्रदान कर दी। इतना ही नहीं बल्कि उपकुलपति पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र ने बख्शीजी को डी.लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित करने का भी प्रस्ताव रखा ,जिसे विश्वविद्यालय की कार्य परिषद ने सहर्ष अनुमोदित कर दिया। यही पण्डित द्वारिका प्रसाद मिश्र आगे चलकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इस बीच बख्शीजी ने 20 अगस्त 1959 को दिग्विजय कॉलेज राजनांदगांव में प्राध्यापक का पद संभाला और मृत्यु पर्यन्त यानी 1971 तक वहाँ अपनी सेवाएं देते रहे।
पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी का रचना संसार बहुत व्यापक है। वह धीर -गंभीर चिन्तक तो थे ही ,समीक्षक ,निबन्ध लेखक ,नाट्य लेखक, कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में भी उन्हें भरपूर प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा मिली। दिसम्बर 1960 में डॉ.हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय (सागर विश्वविद्यालय ) ने अपने दीक्षांत समारोह में बख़्शी जी को डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (डी.लिट्)की मानद उपाधि से सम्मानित किया। इसके पहले वर्ष 1949 में उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा'साहित्य वाचस्पति ' की उपाधि से नवाजा गया था । वर्ष 1965 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के रायपुर अधिवेशन में भी बख़्शीजी को सम्मानित किया गया । उन्हें अपने समय के अनेक दिग्गज साहित्यकारों का स्नेह और सानिध्य मिला । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अलावा मुंशी प्रेमचंद , मैथिलीशरण गुप्त ,सुमित्रानन्दन पंत, भगवतीचरण वर्मा , सुभद्राकुमारी चौहान , महादेवी वर्मा ,सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', कामताप्रसाद गुरु ,लोचनप्रसाद पाण्डेय , रामानुजलाल श्रीवास्तव ,डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र और गजानन माधव मुक्तिबोध सहित अनेक वरिष्ठ और विशिष्ट साहित्यकारों से उनका निकटतम साहित्यिक सम्पर्क रहा।
बख़्शी जी के उपन्यासों में'कथाचक्र', 'भोला' और 'वे दिन ' उल्लेखनीय हैं। उनके लिखे नाटकों के तीन संकलन भी पुस्तकों के रूप में काफी चर्चित हुए ,जिनमें वर्ष 1916 में प्रकाशित 'प्रायश्चित' , वर्ष 1959 में प्रकाशित ' भोला ' और वर्ष 1965 में छपी 'त्रिपथगा' शामिल हैं।उंन्होने विभिन्न विषयों पर बड़ी संख्या में निबन्ध भी लिखे,जो उन दिनों पत्र -पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपे लेकिन पुस्तक रूप में उनका पहला निबंध संग्रह 'साहित्य चर्चा ' शीर्षक से वर्ष 1937 में प्रकाशित हुआ था । इसके बाद 'कुछ' शीर्षक से वर्ष 1948 में तथा 'और कुछ ' शीर्षक से वर्ष 1950 में दो निबंध संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कुल 14 निबंध संग्रह हैं। इनमें कुल 218 निबंध संकलित हैं। मुझे याद आ रहा है कि 'क्या लिखूँ ' शीर्षक से उनका एक निबंध वर्ष 1973-74 में मध्यप्रदेश हायर सेकेंडरी बोर्ड के पाठ्यक्रम में भी शामिल था। यह उनका बड़ा ही दिलचस्प निबंध है। इसमें लेखक अपनी दो छात्राओं -अमिता और नमिता को दो अलग -अलग विषय देकर उन पर निबंध लिखने के लिए कहते हैं। एक का विषय होता है -'दूर के ढोल सुहावने होते हैं 'जबकि दूसरे को 'समाज सेवा ' पर निबंध लिखना होता है। अपने विद्यार्थियों और पाठकों को निबंध कला की जानकारी देने के लिए उन्होंने 'क्या लिखूँ ' शीर्षक से निबंध रचना की थी ,जो निबंध विधा में रुचि लेने वाले नये लेखकों के लिए भी काफी उपयोगी है। बख्शीजी ने बच्चों के लिए भी बहुत लिखा। बाल -साहित्य के अंतर्गत 'कथा वाटिका , गद्य सुषमा , मातृभूमि जैसी उनकी अनेक पुस्तकें तत्कालीन मध्य प्रान्त और बरार (सी.पी.एंड बरार )और मध्यप्रदेश सरकार की प्राथमिक शालाओं से लेकर मिडिल और हाई स्कूलों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल थीं।। हिन्दी साहित्य संसार में कहानीकार के रूप में भी उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इनमें 'झलमला ' , 'गुड़िया ' छत्तीसगढ़ की आत्मा' ,' मेरो तो गिरधर गोपाल' , 'मोटर स्टैंड' 'चक्करदार चोरी ' 'गोमती ' आदि की गिनती हिन्दी की कालजयी कहानियों में होती है। उनकी कहानियों में मानव जीवन के सुख -दुःख की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति है। कहानी 'छत्तीसगढ़ की आत्मा " में 'कारी' नामक ममतामयी स्त्री पात्र के सहज -सरल आत्मीय स्वभाव को बख्शीजी ने बड़े ही मार्मिक अंदाज़ में व्यक्त किया है। बख्शीजी के समग्र रचना संसार को ' बख़्शी ग्रंथावली 'के नाम से आठ खण्डों में प्रकाशित किया गया है। प्रदेश सरकार की संस्था-छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी ,रायपुर द्वारा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर 'साहित्य की बगिया का माली ' शीर्षक से गणेश शंकर शर्मा की पुस्तक वर्ष 2007 में प्रकाशित की गयी थी । आलेख में उल्लेखित कई तथ्य उनकी इस पुस्तक से साभार लिए गए हैं।
छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी राजनांदगांव देश के तीन महान साहित्यकारों की कर्मभूमि के रूप में भी प्रसिद्ध है । पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी सहित डॉ.बल्देवप्रसाद मिश्र और गजानन माधव मुक्तिबोध ने यहाँ अपनी साहित्य -साधना से इस शहर के साथ -साथ सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का भी गौरव बढ़ाया है। इन तीनों साहित्य मनीषियों के सम्मान में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा वहाँ त्रिवेणी परिसर और मुक्तिबोध स्मारक की भी स्थापना की गयी है। यह परिसर एक संग्रहालय के रूप में है । प्रबुद्धजनों के साथ -साथ वर्तमान पीढ़ी के लेखकों और कवियों के लिए भी यह एक साहित्यिक तीर्थ है , जहाँ तीनों विभूतियों के जीवन और साहित्य सृजन से जुड़े छायाचित्रों , उनके महत्वपूर्ण पत्रों , दैनिक उपयोग की वस्तुओं और उनकी साहित्यिक पुस्तकों आदि को सुव्यवस्थित रूप से प्रदर्शित किया गया है। राष्ट्रीय स्तर के अनेक लेखक और कवि समय -समय पर यहाँ आते रहे हैं। भौतिक रूप से आज बख्शीजी भले ही हमारे बीच नहीं हैं ,लेकिन अपनी अमिट रचनाओं की मूल्यवान धरोहर के साथ वह हमारी यादों में हमेशा मौज़ूद रहेंगे ।
आलेख : स्वराज करुण