-स्वराज करुण
दुनिया को बहुत जल्द दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराने एक ऐसे भारतीय शहर का पता चल जाएगा ,जो अभी धरती माता के गर्भ से धीरे -धीरे बाहर आ रहा है । यह भूला -बिसरा शहर भारत के प्राचीन इतिहास में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के ग्राम रींवा में ज़मीन के नीचे दबा हुआ था ,जो निकट भविष्य में हमें नज़र आएगा । राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से अनुमति लेकर यहाँ उत्खनन शुरू करवाया है । रायपुर जिले में आरंग तहसील के इस गाँव 40 ऐसे टीले हैं जो पुरातत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं ।फिलहाल इनमें से दो टीलों में उत्खनन चल रहा है ,जो राज्य सरकार के पुरातत्व सलाहकार डॉ .अरुण कुमार शर्मा के मार्गदर्शन में करीब तीन हफ़्ते पहले शुरू हुआ है ।
भारत सरकार द्वारा वर्ष 2017 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित 86 साल के डॉ .शर्मा को छत्तीसगढ़ सहित देश के लगभग 20 राज्यों में पुरातात्विक उत्खनन का 45 वर्षों का लम्बा तजुर्बा है । वह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में वरिष्ठ अधिकारी रह चुके हैं । हाल के वर्षों में उन्होंने छत्तीसगढ़ के दो प्राचीन शहर सिरपुर और राजिम में भी उत्खनन कार्यो का नेतृत्व किया है ।
भारतीय पुरातत्व पर अंग्रेजी में उनकी 52 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । वयोवृद्ध डॉ शर्मा इस उम्र में भी पूरे जोश और जज़्बे के साथ रींवा गाँव में दक्षिण कोशल के भूमिगत इतिहास को खोदने और खँगालने में लगे हुए हैं । वह छत्तीसगढ़ के ही धरतीपुत्र हैं ।शायद यह भी 86 साल की उम्र में उनके युवा जोश और जज़्बे का एक प्रमुख कारण है । वह रोज सुबह 8 बजे साइट पर पहुँच जाते हैं और अपने विभागीय सहयोगियों और स्थानीय मजदूरों के साथ शाम 5 बजे तक उत्खनन गतिविधियों में लगे रहते हैं ।
डॉ. शर्मा कहते हैं -रींवा गाँव में 40 ऐसे टीले हैं ,जिनमें भारत और दक्षिण कोशल के वैभवशाली इतिहास के अनेक मूल्यवान तथ्य दबे हुए हैं । इन सबके उत्खनन में कम से कम 5 साल का वक्त लग सकता है ।फिलहाल हम लोगों ने 20 टीलों के उत्खनन का लक्ष्य रखा है । पुरातात्विक उत्खनन बहुत सावधानी से और वैज्ञानिक पद्धति से करना होता है । इन 20 टीलों में से वर्तमान में दो टीलों पर उत्खनन चल रहा है ।इनमें से एक टीला मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग 53 के किनारे स्थित है । यह किसी बौद्ध स्तूप के आकार का है । इसकी 9 परतों में से 7 का उत्खनन हो चुका है । इसमें किसी महात्मा की अस्थियाँ हो सकती हैं । इसे मौर्यकालीन बौद्घ स्तूप माना जा रहा है ,जो मिट्टी का बना हुआ है । डॉ. अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि यह छत्तीसगढ़ में अब तक के उत्खनन में प्राप्त मिट्टी का पहला बौद्ध स्तूप है। इसके पहले सिरपुर में पत्थरों से और भोंगपाल (बस्तर )में ईंटों से निर्मित स्तूप मिल चुके हैं ।रींवा में दूसरा उत्खनन एक विशाल तालाब के पास हो रहा है ,जहाँ आसपास आम और पीपल आदि के कई बड़े -बड़े वृक्ष और बबूल की कँटीली झाड़ियाँ भी हैं । छिन्द के भी कुछ पेड़ वहाँ पर हैं ।
अब तक के उत्खनन में इस टीले से कुछ स्वर्ण , कुछ रजत और कुछ ताम्र मुद्राएं भी मिली हैं । इनके अलावा मिट्टी के दीये और बर्तन तथा हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुओं के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं । स्वर्ण मुद्राओं में से एक पर ब्राम्ही लिपि में "कु' शब्द अंकित है । डॉ .शर्मा इसे कुमारगुप्त के समय का मानते हैं । सजावटी मालाओं में गूँथने के लिए उपयोग में लायी जाने वाली छोटी -छोटी मणि कर्णिकाओ का ज़खीरा भी मिला है । डॉ. शर्मा के अनुसार ये तमाम अवशेष ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के याने लगभग 2200 वर्ष पुराने हैं । वह कहते हैं -सुदूर अतीत में रींवा कोई गाँव नहीं ,बल्कि एक बड़ा शहर और प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था ।महानदी इसके नज़दीक से बहती थी । तत्कालीन समय में पेड़ों की अत्यधिक कटाई होने के कारण नदी के किनारों पर भी कटाव हुआ । इस वज़ह से महानदी यहाँ से 8 किलोमीटर दूर खिसक गयी । रींवा से 50 किलोमीटर पर छठवीं -आठवीं सदी में शैव ,वैष्णव और बौद्ध मतों के त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध सिरपुर भी महानदी के किनारे स्थित है । छत्तीसगढ़ के प्रयाग राज के नाम से मशहूर राजिम महानदी ,पैरी और सोंढूर नदियों के संगम पर है। पुरातत्व वेत्ता डॉ .अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि प्राचीन काल में राजिम और सिरपुर से ओड़िशा के समुद्र तटवर्ती शहर कटक तक जल मार्ग से व्यापार होता था । इतना ही नहीं ,सिरपुर से सूरत (गुजरात) तक कारोबार स्थल -मार्ग से भी होता था । सिरपुर में हुए उत्खनन में दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार भी मिला है ,जहाँ दोमंजिला दुकानें हुआ करती थीं ।एक ऐसी मुहर (सील ) भी वहाँ मिली है ,जिस पर फ़ारसी लिपि में 'बन्दर-ए-मुबारक सूरत ' लिखा हुआ है । उल्लेखनीय है कि सूरत गुजरात का बंदरगाह शहर है ।
बहरहाल हम एक बार फिर लौट आते हैं रींवा गाँव की ओर । डॉ .अरुण कुमार शर्मा अपनी यादों में दर्ज इतिहास के पन्ने पलटते हुए कहते हैं - रींवा गाँव दरअसल वीर भूमि है । इसे रींवा गढ़ के नाम से भी जाना जाता है । गढ़ याने किला । यहाँ पर भी मिट्टी से निर्मित एक बड़ा किला (मडफ़ोर्ट )था , जिसके सुरक्षा घेरे के रूप में मिट्टी की मज़बूत दीवारें थीं । आधुनिक ज्ञान -विज्ञान के इस दौर में दूर संवेदी भू -उपग्रह के जरिए भी इसकी पुष्टि हो चुकी है । रींवा गढ़ का उल्लेख अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड कनिंघम ने भी अपने अभिलेखों में किया है ।
अगर यह इतना बड़ा शहर था तो जमींदोज क्यों हो गया ? इस सवाल पर डॉ .अरुण शर्मा कहते हैं - पुराने समय में भयानक बाढ़ ,भूकम्प और महामारी जैसी आपदाओं के समय लोग अपने गाँव या शहर छोड़कर अन्यत्र पलायन कर जाते थे और बस्तियां वीरान हो जाती थीं ।यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा ।समय के प्रवाह में इस बस्ती के भवनों पर सैकड़ों वर्षों तक धूल और मिट्टी की परतें चढ़ती गयीं और वो जमींदोज हो गयीं ।
फ़िलहाल उत्खनन जारी है । भूमिगत इतिहास के पन्नों पर जमी सैकड़ों वर्षों की धूल हटाई जा रही है । डॉ .अरुण कुमार शर्मा जैसे वरिष्ठतम पुरातत्ववेत्ता की पारखी आंखें अपनी गहन इतिहास दृष्टि से उन्हें पलटने और पढ़ने में लगी हैं । उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके गहन अध्ययन ,उत्खनन और अनुसंधान से एक बहुत पुराना भूला -बिसरा शहर फिर हमारे सामने होगा । टाइम मशीन भले ही काल्पनिक हो, लेकिन प्रत्यक्ष में हो रहे इस कार्य से शायद हम दो हज़ार साल से भी ज्यादा पुराने ज़माने को और उस दौर की इंसानी ज़िन्दगी को महसूस तो कर सकेंगे ! वह एक रोमांचक एहसास होगा ।
-स्वराज करुण
दुनिया को बहुत जल्द दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराने एक ऐसे भारतीय शहर का पता चल जाएगा ,जो अभी धरती माता के गर्भ से धीरे -धीरे बाहर आ रहा है । यह भूला -बिसरा शहर भारत के प्राचीन इतिहास में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के ग्राम रींवा में ज़मीन के नीचे दबा हुआ था ,जो निकट भविष्य में हमें नज़र आएगा । राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से अनुमति लेकर यहाँ उत्खनन शुरू करवाया है । रायपुर जिले में आरंग तहसील के इस गाँव 40 ऐसे टीले हैं जो पुरातत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं ।फिलहाल इनमें से दो टीलों में उत्खनन चल रहा है ,जो राज्य सरकार के पुरातत्व सलाहकार डॉ .अरुण कुमार शर्मा के मार्गदर्शन में करीब तीन हफ़्ते पहले शुरू हुआ है ।
भारत सरकार द्वारा वर्ष 2017 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित 86 साल के डॉ .शर्मा को छत्तीसगढ़ सहित देश के लगभग 20 राज्यों में पुरातात्विक उत्खनन का 45 वर्षों का लम्बा तजुर्बा है । वह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में वरिष्ठ अधिकारी रह चुके हैं । हाल के वर्षों में उन्होंने छत्तीसगढ़ के दो प्राचीन शहर सिरपुर और राजिम में भी उत्खनन कार्यो का नेतृत्व किया है ।
भारतीय पुरातत्व पर अंग्रेजी में उनकी 52 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । वयोवृद्ध डॉ शर्मा इस उम्र में भी पूरे जोश और जज़्बे के साथ रींवा गाँव में दक्षिण कोशल के भूमिगत इतिहास को खोदने और खँगालने में लगे हुए हैं । वह छत्तीसगढ़ के ही धरतीपुत्र हैं ।शायद यह भी 86 साल की उम्र में उनके युवा जोश और जज़्बे का एक प्रमुख कारण है । वह रोज सुबह 8 बजे साइट पर पहुँच जाते हैं और अपने विभागीय सहयोगियों और स्थानीय मजदूरों के साथ शाम 5 बजे तक उत्खनन गतिविधियों में लगे रहते हैं ।
डॉ. शर्मा कहते हैं -रींवा गाँव में 40 ऐसे टीले हैं ,जिनमें भारत और दक्षिण कोशल के वैभवशाली इतिहास के अनेक मूल्यवान तथ्य दबे हुए हैं । इन सबके उत्खनन में कम से कम 5 साल का वक्त लग सकता है ।फिलहाल हम लोगों ने 20 टीलों के उत्खनन का लक्ष्य रखा है । पुरातात्विक उत्खनन बहुत सावधानी से और वैज्ञानिक पद्धति से करना होता है । इन 20 टीलों में से वर्तमान में दो टीलों पर उत्खनन चल रहा है ।इनमें से एक टीला मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग 53 के किनारे स्थित है । यह किसी बौद्ध स्तूप के आकार का है । इसकी 9 परतों में से 7 का उत्खनन हो चुका है । इसमें किसी महात्मा की अस्थियाँ हो सकती हैं । इसे मौर्यकालीन बौद्घ स्तूप माना जा रहा है ,जो मिट्टी का बना हुआ है । डॉ. अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि यह छत्तीसगढ़ में अब तक के उत्खनन में प्राप्त मिट्टी का पहला बौद्ध स्तूप है। इसके पहले सिरपुर में पत्थरों से और भोंगपाल (बस्तर )में ईंटों से निर्मित स्तूप मिल चुके हैं ।रींवा में दूसरा उत्खनन एक विशाल तालाब के पास हो रहा है ,जहाँ आसपास आम और पीपल आदि के कई बड़े -बड़े वृक्ष और बबूल की कँटीली झाड़ियाँ भी हैं । छिन्द के भी कुछ पेड़ वहाँ पर हैं ।
अब तक के उत्खनन में इस टीले से कुछ स्वर्ण , कुछ रजत और कुछ ताम्र मुद्राएं भी मिली हैं । इनके अलावा मिट्टी के दीये और बर्तन तथा हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुओं के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं । स्वर्ण मुद्राओं में से एक पर ब्राम्ही लिपि में "कु' शब्द अंकित है । डॉ .शर्मा इसे कुमारगुप्त के समय का मानते हैं । सजावटी मालाओं में गूँथने के लिए उपयोग में लायी जाने वाली छोटी -छोटी मणि कर्णिकाओ का ज़खीरा भी मिला है । डॉ. शर्मा के अनुसार ये तमाम अवशेष ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के याने लगभग 2200 वर्ष पुराने हैं । वह कहते हैं -सुदूर अतीत में रींवा कोई गाँव नहीं ,बल्कि एक बड़ा शहर और प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था ।महानदी इसके नज़दीक से बहती थी । तत्कालीन समय में पेड़ों की अत्यधिक कटाई होने के कारण नदी के किनारों पर भी कटाव हुआ । इस वज़ह से महानदी यहाँ से 8 किलोमीटर दूर खिसक गयी । रींवा से 50 किलोमीटर पर छठवीं -आठवीं सदी में शैव ,वैष्णव और बौद्ध मतों के त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध सिरपुर भी महानदी के किनारे स्थित है । छत्तीसगढ़ के प्रयाग राज के नाम से मशहूर राजिम महानदी ,पैरी और सोंढूर नदियों के संगम पर है। पुरातत्व वेत्ता डॉ .अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि प्राचीन काल में राजिम और सिरपुर से ओड़िशा के समुद्र तटवर्ती शहर कटक तक जल मार्ग से व्यापार होता था । इतना ही नहीं ,सिरपुर से सूरत (गुजरात) तक कारोबार स्थल -मार्ग से भी होता था । सिरपुर में हुए उत्खनन में दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार भी मिला है ,जहाँ दोमंजिला दुकानें हुआ करती थीं ।एक ऐसी मुहर (सील ) भी वहाँ मिली है ,जिस पर फ़ारसी लिपि में 'बन्दर-ए-मुबारक सूरत ' लिखा हुआ है । उल्लेखनीय है कि सूरत गुजरात का बंदरगाह शहर है ।
बहरहाल हम एक बार फिर लौट आते हैं रींवा गाँव की ओर । डॉ .अरुण कुमार शर्मा अपनी यादों में दर्ज इतिहास के पन्ने पलटते हुए कहते हैं - रींवा गाँव दरअसल वीर भूमि है । इसे रींवा गढ़ के नाम से भी जाना जाता है । गढ़ याने किला । यहाँ पर भी मिट्टी से निर्मित एक बड़ा किला (मडफ़ोर्ट )था , जिसके सुरक्षा घेरे के रूप में मिट्टी की मज़बूत दीवारें थीं । आधुनिक ज्ञान -विज्ञान के इस दौर में दूर संवेदी भू -उपग्रह के जरिए भी इसकी पुष्टि हो चुकी है । रींवा गढ़ का उल्लेख अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड कनिंघम ने भी अपने अभिलेखों में किया है ।
अगर यह इतना बड़ा शहर था तो जमींदोज क्यों हो गया ? इस सवाल पर डॉ .अरुण शर्मा कहते हैं - पुराने समय में भयानक बाढ़ ,भूकम्प और महामारी जैसी आपदाओं के समय लोग अपने गाँव या शहर छोड़कर अन्यत्र पलायन कर जाते थे और बस्तियां वीरान हो जाती थीं ।यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा ।समय के प्रवाह में इस बस्ती के भवनों पर सैकड़ों वर्षों तक धूल और मिट्टी की परतें चढ़ती गयीं और वो जमींदोज हो गयीं ।
फ़िलहाल उत्खनन जारी है । भूमिगत इतिहास के पन्नों पर जमी सैकड़ों वर्षों की धूल हटाई जा रही है । डॉ .अरुण कुमार शर्मा जैसे वरिष्ठतम पुरातत्ववेत्ता की पारखी आंखें अपनी गहन इतिहास दृष्टि से उन्हें पलटने और पढ़ने में लगी हैं । उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके गहन अध्ययन ,उत्खनन और अनुसंधान से एक बहुत पुराना भूला -बिसरा शहर फिर हमारे सामने होगा । टाइम मशीन भले ही काल्पनिक हो, लेकिन प्रत्यक्ष में हो रहे इस कार्य से शायद हम दो हज़ार साल से भी ज्यादा पुराने ज़माने को और उस दौर की इंसानी ज़िन्दगी को महसूस तो कर सकेंगे ! वह एक रोमांचक एहसास होगा ।
-स्वराज करुण