Friday, February 24, 2012
Sunday, February 19, 2012
रिश्ते सारे सिमट गए !
शहरी जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी !
साँसों में है ज़हर-धुंआ ,आँखों में पानी !!
साँसों में है ज़हर-धुंआ ,आँखों में पानी !!
रिश्ते सारे सिमट गए 'अंकल-आंटी' में !
भूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
भूल गए हम काका-काकी ,नाना-नानी !!
देखो -देखो चमक-दमक से भरी दुकानें !
मोल-भाव में बदल गयी प्यार की वाणी !!
मोल-भाव में बदल गयी प्यार की वाणी !!
फूलों की महक ,पंछी की चहक मिले कहाँ !
हो रही गायब हरियाली जानी-पहचानी !!
हो रही गायब हरियाली जानी-पहचानी !!
यादों के धुंधले परदे पर तस्वीर गाँव की !
देख-देख कर दिल बहलाए जिन्दगानी !!
(चित्र : google के सौजन्य से )
Wednesday, February 8, 2012
नक्कालों से सावधान !
सावधान ! होशियार !! अपनी मौलिक रचनाओं की पुस्तक छपवाना , अपनी कविताओं और कहानियों को ब्लॉग पर या फेस बुक पर डालना अब किसी भी रचनाकार के लिए खतरे से खाली नहीं है. कुछ लोग जिन्हें कुछ भी लिखना-पढ़ना नहीं आता , इन दिनों किसी भी कविता संग्रह से , कहानी संकलन से , ब्लॉग से या किसी के फेस बुक से मौलिक लेखकों और कवियों का मैटर जस का तस उठाकर पत्र- पत्रिकाओं में और सहयोगी आधार पर छपने वाले संग्रहों में स्वयं के नाम से छपवाने लगे हैं . कई अखबारों में तो लेखकों के नाम के बिना भी कई आलेख छपे हुए मिलते हैं ऐसे शौकिया और विज्ञापन आधारित अखबारों के कथित सम्पादक इन रचनाओं को किसी वेबसाईट या ब्लॉग से आसानी से डाऊनलोड कर उनका बेजा उपयोग कर रहे हैं .
साहित्यिक नक़लबाजी और चोरी की ऐसी घटनाएं अक्सर सामने नहीं आ पाती. इसके कुछ व्यावहारिक कारण होते हैं .एक तो यह कि किसी रचनाकार की कोई किताब एक बार छपने और पाठकों तक पहुँचने के बाद वह सार्वजनिक हो जाती है और एक हाथ से दूसरे ,तीसरे,चौथे तक पहुँचते हुए कहाँ-कहाँ कौन-कौन से हाथों में जाती है, कितने लोगों की अच्छी-बुरी नज़रों से गुज़रती है, इसका ध्यान रखना किसी भी रचनाकार के लिए संभव नहीं है . दूसरी बात यह कि अगर उसे मालूम हो भी जाए कि उसकी रचना की नक़ल उतार ली गयी है और वह धड़ल्ले से भी चल रही है, तो सामान्य आर्थिक हालात वाले अधिकाँश रचनाकार उसके लिए छोटी-मोटी आपत्ति दर्ज करने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं . जिंदगी की आपा-धापी में उनके पास किसी तरह की मुकदमेबाजी के लिए न तो इतना वक्त होता है और न ही बेहिसाब पैसा .सूचना प्रौद्योगिकी के इस ज़माने में इंटरनेट ,वेबसाईट , ब्लॉग और फेसबुक जैसे सामाजिक-सम्पर्क माध्यमों ने साहित्यिक नकल चोरी को और भी आसान बना दिया है. जन-संचार के इन नए संसाधनों ने स्थानीय रचनाकारों को ग्लोबल ज़रूर बना दिया है ,लेकिन उनकी बौद्धिक सम्पदा की रक्षा कर पाने में वह असमर्थ है. अगर इनमे आपकी कोई रचना आ भी गयी ,तो दुनिया के किस कोने में, कौन से देश में बैठा कौन व्यक्ति उसका क्या इस्तेमाल कर रहा है ,आपको तत्काल भला कैसे मालूम हो पाएगा ?
''सामूहिक जन हित चिन्तन हो,
मेहनतकश यह जन-जीवन हो,
किसी एक की नहीं ये धरती,
इस पर सबका श्रम सिंचन हो !''
इसी तरह दूसरी कथित क्षणिका भी मेरी एक कविता की ही पंक्तियाँ हैं--
'' इस देश की बगिया को हम संवारेंगे
ये हंसते फूल ,गाते भ्रमर भी हैं अपने ,
मेहनत से सींचेंगे सपनों के खेतों को,
जागरण के सारे प्रहर भी हैं अपने !''
उपरोक्त दोनों काव्यांश वर्ष २००२ में प्रकाशित बाल गीतों के मेरे संग्रह ' हिलमिल सब करते हैं झिलमिल ' की दो रचनाओं में से हैं.जिनकी शीतल नागपुरी ने नकल कर ली है.यहाँ तक तो चलो ठीक है कि शीतल नागपुरी ने मेरे जैसे किसी साधारण रचनाकार की कविताओं की पंक्तियों को को स्वयम की बता कर किसी सहयोगी कविता संग्रह में छपवा लिया है ,लेकिन आश्चर्य ये भी है कि उन्होंने प्रसिद्ध शायर दुष्यन्त कुमार की एक लोकप्रिय गज़ल की चार पंक्तियों को भी अपने नाम से छपवाने में कोई परहेज नहीं किया है .ये पंक्तियाँ हैं --
''कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए !''
हैरानी की बात है कि न्यू ऋतम्भरा साहित्य मंच द्वारा प्रकाशित यह अखिल भारतीय साहित्य संग्रह संत एवं क्रांतिकारी कवि कबीर को समर्पित है . गनीमत है कि शीतल नागपुरी जैसे किसी कथित कवि ने संत कबीर के दोहों को इसमें अपने नाम से नहीं छपवाया . वरना कबीर हमारे बीच होते तो क्या सोचते ? बहरहाल अपनी रचनाओं की चोरी हो जाने के डर से कोई भी रचनाकार साहित्य-सृजन बंद तो नहीं कर सकता,पर उसके संज्ञान में ऐसी कोई घटना आती है ,तो वह पत्र-पत्रिकाओं समेत ब्लॉग और फेस बुक आदि नए सामाजिक नेटवर्क के ज़रिये उसे उजागर तो कर ही सकता है. नक्कालों को रंगे हाथ हम भले ही पकड़ न पाएं ,लेकिन उन्हें बेनकाब तो किया ही जा सकता है.
--- स्वराज्य करुण Tuesday, February 7, 2012
सुख का गोरी नाम न लेना ...!
हमारे देश में आम तौर पर हर गाँव की सरहद पर किसी मौन तपस्वी की तरह बरगद का एक उम्र दराज़ पेड़ ज़रूर मिलता है.वह अपनी घनी छाया से राहगीरों को सुख-शान्ति का एहसास कराता है. गर्मियों की तपती दोपहरी में उसकी छाया गाँव के चरवाहों और मवेशियों को सुकून देती है. उसकी सघन छायादार डालियों में पंछी थकान मिटाते हैं और अपनी संगीतमयी स्वर लहरियों से माहौल को खुशनुमा बनाते हैं . गाँव की सरहद का वह बरगद उस बुजुर्ग अभिभावक की तरह होता है, जो परिवार के हर सदस्य पर अपना स्नेह न्यौछावर करता है और जिसकी नजदीकियां हर किसी को लुभाती हैं . वह कभी जटा-जूट धारी साधू-सन्यासी जैसा लगता है,तो कभी कुछ और . जो उसे जिस रूप में देखना चाहे ,देख सकता है,लेकिन उसके प्रत्येक रूप में परोपकार के भावों से भरी छाया ज़रूर होती है . मरहूम शायर जनाब सलीम अहमद 'ज़ख़्मी ' बालोदवी की शायरी को भी शायद इसी जटा बिखेरे बूढ़े बरगद ने अपनी घनी छाँव में संवेदनाओं के नए रंग दिए होंगे ,तभी तो उनकी हर गज़ल में इंसानी ज़ज्बात समंदर की लहरों की तरह छलकते नज़र आते हैं.