Monday, January 9, 2012
Thursday, January 5, 2012
(गीत ) मानव कितना विवश है !
नये साल में इस आँगन में कुछ भी नया नहीं है ,
लगता है जैसे साल पुराना अब तक गया नहीं है !
काले धन का यह काला
व्यापार जस का तस है,
धन -पशुओं के आगे आज
मानव कितना विवश है !
बंदी बन कर बेगुनाह को अंधियारे की कैद मिली
यह बेदर्द क़ानून है जिसके दिल में दया नहीं है !
पढ़-लिख बेरोजगार घूमते
इस नये भारत को देखो,
लोकतंत्र की मंडी में हर दिन
सपनों की तिजारत को देखो !
लूटकर जनता के धन को इतराते हैं जो खूब यहाँ ,
उन शैतानी आँखों में कुछ भी शर्म-ओ -हया नहीं है !
--- स्वराज्य करुण
Wednesday, January 4, 2012
वस्तु-विनिमय प्रणाली का पुनर्जन्म !
इतिहासकारों के अनुसार हजारों साल पहले मानव-सभ्यता और संस्कृति के विकास क्रम में जब आर्थिक लेन-देन के लिए मुद्राओं का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था , उन दिनों लोग वस्तु-विनिमय प्रणाली से काम चला लेते थे. अनाज के बदले पशु धन और पशु धन के बदले अनाज का लेन-देन हुआ करता था . लोग अपने गाँव के लोहार से लोहे का औजार, बढाई से लकड़ी का सामान , बुनकर से कपड़े बनवाते तो उन्हें इन सामानों की कीमत का भुगतान अनाज के रूप में करते थे .लगता है कि वस्तु-विनिमय की वही पुरानी परम्परा दोबारा लौट कर आ रही है , इक्कीसवीं सदी के इस आधुनिक युग में कम से कम हमारे देश के कुछ राज्यों के बाज़ारों में आप और हम इसे आसानी से महसूस कर सकते हैं .
वस्तु-विनिमय प्रणाली का पुनर्जन्म तो हुआ है, लेकिन पहले की तुलना में इसमें एक फर्क यह है कि आज यह एकतरफा है .यानी सामान खरीदकर रूपए भुगतान के बाद अगर आपको बाकी पैसे वापस चाहिए तो दुकानदार चिल्हर नहीं होने की बात कहकर कोई भी छोटा -मोटा सामान आपको थमा देगा, जिसकी ग्राहक को भले ही ज़रूरत ना हो. कुछ दिनों पहले आकाश के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ . मेडिकल स्टोर से 96 रूपए के टेबलेट खरीदकर भुगतान के लिए एक सौ रूपए का नोट देने पर दुकानदार ने चार रूपए वापस न करते हुए आकाश को चाकलेट की चार टिकिया थमा दी. अगले दिन उसी मेडिकल स्टोर से आकाश ने कुछ और दवाइयां खरीदी .बिल एक सौ चार रूपए का हुआ .उसने सौ के नोट के साथ दुकानदार की तरफ चाकलेट की वही चार टिकिया बढ़ा दी ,तो उसने सौ का नोट तो रख लिया .लेकिन चाकलेट की टिकिया के बदले चार रूपए नगद मां...गने लगा. बात नहीं बनी और आकाश दवाइयां वापस कर सौ का नोट वापस लेकर लौट गया. आज कल चिल्हर सिक्के या एक रूपए और दो रूपए के नोट बाज़ार में मुश्किल से ही नज़र आते हैं .क्या वज़ह है ,कोई बताने वाला नहीं है.
सिक्के तो शायद सिक्के गलाने वालों के हाथों गायब हो रहे हैं,लेकिन एक और दो रूपए के नोट क्यों और कहाँ विलुप्त हो रहे हैं ? चिल्हर की समस्या के कारण दुकानदार अपने ग्राहक को चाकलेट या कोई माउथ-फ्रेशनर जैसी चीज थमाकर बीच का रास्ता निकालना चाहता है , लेकिन ग्राहक अगर वस्तु के रूप में किसी चीज की कीमत का भुगतान करना चाहे ,तो दुकानदार उसे लेने से इंकार कर देता है . यानी यह लेन-देन एकतरफा होता है . बाज़ार में चिल्हर की किल्लत से निजात पाने के लिए वस्तु-विनिमय की हजारों वर्ष पुरानी और विलुप्त हो चुकी परिपाटी का नया जन्म एक नए रूप में हो चुका है. देखते हैं -आगे चलकर यह परिपाटी और कौन से नए आकार में हमारे सामने होगी और हम बाज़ार से सामान खरीदते हुए कैसे उसका सामना करेंगे ?
- स्वराज्य करुण
Monday, January 2, 2012
क्या उसके आने का कोई अर्थ है ?
क्या नए साल में डीजल-पेट्रोल ,आटे-दाल का बाज़ार भाव कुछ कम होगा ? क्या मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्चा कम होगा ? क्या दवाइयों की कीमतें घटेंगी ? क्या अस्पतालों में गम्भीर बीमारियों के इलाज के खर्च में और डाक्टरों की फीस में कोई कमी आएगी ? क्या परिवार के लिए गुज़ारे लायक मकान सस्ते में खरीदे जा सकेंगे ? क्या देश और दुनिया के करोड़ों बेरोजगारों को इस नए साल में कोई नौकरी मिलेगी ? कोई रोजगार मिलेगा ?
क्या पर्यावरण की रक्षा के लिए हरे-भरे जंगलों को बचाया जा सकेगा ? क्या इस नए वर्ष में किसानों के स्वाभिमान की रक्षा के लिए खेती को भी उद्योग का दर्जा मिल पाएगा ? क्या दुनिया के विभिन्न देशों के बीच तनातनी खत्म होगी ? क्या रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के कलंक से समाज को मुक्ति मिल सकेगी ? क्या कृष्ण-कन्हैया के देश हमारे भारत में शराब के बदले दूध की नदियाँ बहेंगी ? क्या मिलावटखोरों और मुनाफ़ाखोरों का साम्राज्य खत्म होगा ? क्या इस नए साल में सरकारी और गैर सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन में ,मालिक और मजदूर की कमाई में ज़मीन-आसमान का अमानवीय फर्क खत्म हो पाएगा ? क्या परिश्रम और योग्यता का कहीं कोई सम्मान होगा ? क्या विदेशी बैंकों में जमा देशी डकैतों की अरबों-खरबों रूपयों की काली कमाई देश में वापस लायी जा सकेगी और उसे देश की तरक्की के कामों में लगाया जा सकेगा ?
अगर यह सब हो पाए ,तब तो साल २०१२ के आने का कोई मतलब है वरना २०११ में ही क्या खराबी थी ? यह सब तो कल यानी २०११ में भी था जैसे -तैसे इन सबको हम झेल ही रहे थे ! वर्ष २०१२ अगर २०११ से कुछ अलग दिखे तब तो उसके आने का कोई अर्थ है , वरना उसका आना व्यर्थ है. मेरे ख़याल से अगर ये तमाम सवाल वर्ष २०११ में भी बिना जवाब के रह गए थे , जिंदगी फिर भी चल रही थी किसी तरह, इसलिए शायद वही ठीक था हमारे लिए .लेकिन भाई लोगों ने २०११ को नौ दो ग्यारह होने के लिए मजबूर कर दिया . --- स्वराज्य करुण