घोटालों का घी और
असत्य का अमृत पी कर
अँधेरे की रजाई ओढ़
चैन की नींद सो रही है
मेरे देश की प्रगति /
जिन हाथों में उसे
झकझोर कर जगाने की
ताकत है, वो भी ऊंघ रहे हैं
थकान के बोझ से /
गुलामी की भयानक यादों में
दब कर दिल ही दिल में घुट रही है
मेरे वतन की आज़ादी /
बिखरने लगे हैं सपने विकास के ,
जैसे बिखरते हैं महल ताश के /
बिक रहे हैं खेत जिनमें
बन रही है कॉलोनियां ,
लिख रहे हैं फिर भी कुछ लोग
तरक्की और समृद्धि की
नकली कहानियां /
सब जानते हैं लोहे-लक्कड़ के
कारखाने में पैदा नहीं होते चावल- गेहूं ,
सरसों, ज्वार-बाजरा ,
अनाज के लिए ज़रुरी होता है
धरती माँ का आँचल ,
जिसे फाड़ कर फेंकने को
तत्पर हैं कुछ धन-पशु पागल /
खेतों में हर दिन खड़ी हो रही
धुंआ उगलती चिमनियां
मिट रहे हैं नदी -नाले ,
जैसे मिट रही जिस्म से धमनियां
कट रहे जंगल बेहिसाब
टिमटिमाते दिए की तरह
बुझने लगे हैं खुशहाली के ख्वाब ?
स्वराज्य करुण
असत्य का अमृत पी कर
अँधेरे की रजाई ओढ़
चैन की नींद सो रही है
मेरे देश की प्रगति /
जिन हाथों में उसे
झकझोर कर जगाने की
ताकत है, वो भी ऊंघ रहे हैं
थकान के बोझ से /
गुलामी की भयानक यादों में
दब कर दिल ही दिल में घुट रही है
मेरे वतन की आज़ादी /
बिखरने लगे हैं सपने विकास के ,
जैसे बिखरते हैं महल ताश के /
बिक रहे हैं खेत जिनमें
बन रही है कॉलोनियां ,
लिख रहे हैं फिर भी कुछ लोग
तरक्की और समृद्धि की
नकली कहानियां /
सब जानते हैं लोहे-लक्कड़ के
कारखाने में पैदा नहीं होते चावल- गेहूं ,
सरसों, ज्वार-बाजरा ,
अनाज के लिए ज़रुरी होता है
धरती माँ का आँचल ,
जिसे फाड़ कर फेंकने को
तत्पर हैं कुछ धन-पशु पागल /
खेतों में हर दिन खड़ी हो रही
धुंआ उगलती चिमनियां
मिट रहे हैं नदी -नाले ,
जैसे मिट रही जिस्म से धमनियां
कट रहे जंगल बेहिसाब
टिमटिमाते दिए की तरह
बुझने लगे हैं खुशहाली के ख्वाब ?
स्वराज्य करुण