साहित्य साधना एक ऐसी खेती के समान है, जो इंसान के दिल की ज़मीन पर कहीं भी हो सकती है . इसके लिए सिर्फ भावनाओं के बीज और संवेदनाओं के खाद-पानी की ज़रूरत होती है. सच्चा साहित्य साधक उस कर्मठ किसान के जैसा होता है ,जो गर्मी के मौसम में तेज धूप की मार , चौमासे में बारिश की बौछार और जाड़े के दिनों में कड़ाके की ठण्ड के प्रहार सहकर भी सम्पूर्ण मनोयोग से अपने कार्य को तपस्या मान कर उसमे लगा रहता है. किसान की मेहनत से उगने वाले अनाज से न सिर्फ उसके परिवार का पेट भरता है,बल्कि देश और दुनिया की भी भूख मिटती है. साहित्य साधक अगर वाकई किसान हो ,तो वह अपनी दोनों भूमिकाओं में एक मौन तपस्वी की तरह मानवता की भलाई के लिए काम कर सकता है- खेतों में हल और कागज पर कलम चला कर वह दोनों तरीकों से समाज की सेवा कर सकता है .यह सौभाग्य भी वाकई बड़े भाग्य से मिल पाता है .
यह हमारा भी सौभाग्य है कि आचार्य डॉ.दशरथ लाल निषाद'विद्रोही ' को ऐसा सौभाग्य मिला है , जिसके हर एक पल को मूल्यवान मान कर वह एक किसान और एक साहित्यकार के रूप में समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते जा रहे हैं और उनकी पारखी कलम से छत्तीसगढ़ की तमाम ज्ञात-अज्ञात और अल्प-ज्ञात खूबियाँ हमारे सामने आ रही हैं. जैसे किसान को कभी अपनी मेहनत और अपनी फसल के प्रचार की ज़रूरत नहीं होती , जंगल के फूलों को अपना विज्ञापन करवाने की कोई फ़िक्र नहीं होती , ठीक उसी तरह आचार्य 'विद्रोही जी भी आत्म-प्रचार के मोह से हमेशा दूर -दूर रहते आए हैं . कृषि-संस्कृति और ऋषि -संस्कृति वाले भारत के कृषि-प्रधान राज्य छत्तीसगढ़ में खेती के ज़रिये धरती माता और साहित्य सृजन के माध्यम से राष्ट्र की सेवा में लगे आचार्य डॉ. दशरथ लाल निषाद की अब तक बीस किताबें छप चुकी है. ,जबकि उनकी चौबीस किताबें प्रकाशन के इंतज़ार में हैं. वह हिन्दी और छत्तीसगढ़ी , दोनों ही भाषाओं में समान रूप से साहित्य सेवा में लगे हैं . उन्होंने कहानी ,कविता , निबन्ध यानी साहित्य की हर विधा में खूब लिखा है . पिछले करीब पचास वर्षों से लगातार लिख रहे हैं. वह सचमुच यहाँ की कृषि-संस्कृति के ऋषि -तुल्य साहित्यकार हैं.
महानदी और पैरी नदी के मध्य भाग में ग्राम मगरलोड उनकी कर्म-भूमि है . यह धमतरी जिले का कस्बानुमा गाँव है ,जिसे अब नगर पंचायत का दर्जा मिल गया है, लेकिन ग्राम्य-जीवन के अपनत्व भरे सहज-आत्मीय संस्कार वहाँ आज भी कायम हैं. इसी गाँव के नज़दीक ग्राम तेंदूभाँठा में २० नवंबर १९३८ को उनका जन्म हुआ . जीवन के उतार-चढ़ाव से भरे कठिन सफर में अपनी राह बनाते हुए उन्होंने जहां हिन्दी साहित्य रत्न की परीक्षा पास कर 'आचार्य' की मानद उपाधि हासिल की ,वहीं आयुर्वेद विशारद की परीक्षा में भी सफल हुए .उन्हें आंचलिक साहित्यकार और एक अनुभवी आयुर्वेद चिकित्सक के रूप में अच्छी पहचान मिली .
साहित्य वह, जिसमे सबके हित की बात हो. . स्वान्तः सुखाय हो कर भी साहित्य का झुकाव और जुड़ाव कहीं न कहीं अपने समय और समाज के हित में ज़रूर होता है. डॉ.दशरथ लाल निषाद 'विद्रोही की रचनाओं में भी एक समर्पित साहित्य साहित्य साधक का सामाजिक सरोकार बहुत साफ़ नज़र आता है. वर्ष १९७५ में आपात काल का विरोध करते हुए लोकतंत्र की रक्षा के लिए उन्होंने गिरफ्तार होना और जेल जाना सहर्ष स्वीकार किया और जेल में ७२० घंटे तक मौन धारण कर अपने फौलादी व्यक्तित्व से सबको चकित भी कर दिया .आपातकाल के कुख्यात क़ानून 'मीसा ' में उन्हें बंदी बनाया गया था. उन्हीं दिनों उन्होंने 'मीसा के मीसरी 'शीर्षक कविता लिखी और इसी शीर्षक से वर्ष २००८ में उनका एक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुआ ,जिसमे देशभक्तिपूर्ण तीस कविताएँ शामिल हैं .वह छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन में भी सक्रिय रहे. साहित्य सृजन और समाज सेवा के लिए उन्हें विभिन्न संस्थाओं से अब तक ५२ पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं .
छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र होने के नाते डॉ. निषाद को यहाँ के जन-जीवन , खान-पान, रहन-सहन , रीति-रिवाज , जंगल-पहाड़ और पेड़-पौधों के साथ-साथ इस माटी की कला-संस्कृति की भी गहरी जानकारी है. वर्ष २००३ में प्रकाशित उनकी ४८ पृष्ठों की छत्तीसगढ़ी कविता-पुस्तिका में राज्य की धरती पर उगने वाली उन्हत्तर किस्म की भाजियों का और उनके आयुर्वेदिक महत्व का दिलचस्प वर्णन है . उनका एक संग्रह'छत्तीसगढ़ के कांदा ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है . इसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ की उपजाऊ भूमि पर मिलने वाले ४१ प्रकार के कंद-मूलों का उल्लेख करते हुए सेहत के लिए उनके फायदे भी गिनाए हैं . पिज्जा और बर्गर वाली शहरी संस्कृति में पलती-बढ़ती हमारी आज की पीढ़ी को शायद इन भाजियों और कंद-मूलों के नाम भी ठीक-ठीक याद नहीं होंगें,उनकी पहचान कर पाना तो बहुत दूर की बात है. क्या कोई बता सकता है -गूमी भाजी, कोलियारी भाजी , मकोइया भाजी .भेंगरा भाजी ,सेम्भर भाजी कैसी होती है ? इनका स्वाद कैसा होता है ? क्या कोई बता पाएगा -जिमी कांदा, कलिहारी कांदा , गुलाल कांदा , केंवट कांदा ,ढुलेना कांदा, डांग कांदा , करू कांदा ,जग मंडल कांदा , बनराकस कांदा ,बरकान्दा और केशरुआ कांदा कैसे होते हैं और मानव-स्वास्थ्य के लिहाज से उनका क्या गुण-धर्म है ? डॉ.निषाद की दोनों पुस्तिकाओं में इन सब जिज्ञासाओं का समाधान हमें मिल जाएगा.सजना -संवरने की आदत हर इंसान में होती है. महिलाओं में यह नैसर्गिक स्वभाव होता है. श्रृंगार तो नारी की पहचान है. छत्तीसगढ़ में श्रृंगार की परम्परा और उसके पारम्परिक तौर-तरीकों पर डॉ. निषाद ने अपनी किताब 'छत्तीसगढ़ के सिंगार' में प्रकाश डाला है. वे कहते हैं-"'आम तौर पर सोलह श्रृंगार की चर्चा होती है ,लेकिन छत्तीसगढ़ में सोलह तो क्या , बत्तीस और चौंसठ तक श्रृंगार गिनाए जा सकते हैं. ये अलग बात है कि आधुनिकता और पाश्चात्य फैशन के इस दौर में अनेक मूल, प्राचीन और पारम्परिक श्रृंगार अब लुप्त होने लगे हैं." उन्होंने अपनी इस कृति में छत्तीसगढ़ की 'गोदना 'प्रथा का उल्लेख करते हुए इसे एक्यूपंचर चिकित्सा पद्धति की तरह स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी उपयोगी बताया है. उनका कहना है कि सुहागन के प्रतीक 'गोदना' को मृत्यु के बाद भी देह के साथ रहने वाला अमिट और श्रेष्ठ श्रृंगार माना गया है.
छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन में 'बासी' खाने की परिपाटी यहाँ के निवासियों को एक अलग पहचान दिलाती है. रात के पके हुए चांवल को मांड और पानी मिला कर अगले दिन सवेरे और दोपहर तक भी खाया जा सकता है. भोजन के बाद रात्रि भोजन के बाद शेष रह गए भात से भी 'बासी' तैयार हो सकती है. विधिपूर्वक खाएं तो यह बासी भात काफी स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है. खास तौर पर मेहनतकश किसानों और मजदूरों का यह प्रिय भोजन है. डॉ. निषाद ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ के बासी ' में अमरित बासी, चटनी बासी , बोरे बासी , दही बासी , कोदो बासी और पेज बासी जैसे बासी भात के कई प्रकारों का वर्णन करते हुए उनकी विशेषताओं का भी उल्लेख किया है. उन्होंने अपनी एक अन्य पुस्तक 'छत्तीसगढ़ के मितानी ' में यहाँ के जन-जीवन में मानव-मानव के बीच प्रचलित सामाजिक रिश्तों की दोस्ताना परम्पराओं का विवरण दिया है . एक दूसरे के साथ महाप्रसाद , भोजली, गंगाजल ,जैसे आत्मीय रिश्तों में बंधने की रीति और विधि के साथ-साथ मितानी अर्थात दोस्ती की आजीवन चलने वाली यह परम्परा आधुनिकता के तूफ़ान में डाल से अलग हुए पत्तों की तरह विलुप्त होने लगी है ,जिसे सुरक्षित रखने की हर कोशिश देश और प्रदेश की सामाजिक समरसता के लिए बहुत ज़रूरी है.
ग्रामीण जीवन में रचे-बसे सहज-सरल व्यक्तित्व ,लेकिन धीर-गंभीर कृतित्व के धनी डॉ. निषाद को देख कर पूर्व प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री की याद अनायास आ जाती है. उन्हीं की तरह के छोटे कद ,लेकिन देश-हित और समाज-हित की बड़ी सोच वाले डॉ, निषाद की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन मगरलोड के साहित्यकारों की संस्था 'संगम साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति ने किया है. इसी कड़ी में समिति द्वारा अक्टूबर २०१० में उनके समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन विशेष रूप से उल्लेखनीय है. . ग्रन्थ का संपादन साहित्यकार श्री पुनूराम साहू 'राज' ने किया है. इसमें डॉ. निषाद की रचनाधर्मिता पर उनके पारिवारिक सदस्यों , मित्रों, शुभचिंतकों और प्रशंसकों सहित अनेक साहित्यकारों के आलेख शामिल हैं .अभिनन्दन ग्रन्थ में संत कवि पवन दीवान ने अपने संक्षिप्त शुभकामना सन्देश में बिल्कुल ठीक लिखा है- ''दशरथ लाल जी निषाद एक संघर्षशील साहित्यकार हैं. वे छत्तीसगढ़ की पहचान हैं. उनके साहित्य का अध्ययन किए बिना कोई छत्तीसगढ़ का दर्शन नहीं पा सकता."
मुझे भी लगता है कि छत्तीसगढ़ की आत्मा को जानने- पहचानने और समझने के लिए सबसे पहले हमें डॉ. दशरथ लाल निषाद 'विद्रोही' जैसे धरती-पुत्रों के व्यापक अनुभव संसार को और उनकी भावनाओं को दिल की गहराई से महसूस करना होगा . ---
स्वराज्य करुण