भ्रूण ने जब अलसायी-सी
आँखें अपनी खोली ,
गर्भाशय की दीवारों पर
प्रश्नों के अनगिन पोस्टर देखे !
दुनिया भर में इंसानों से
इंसानों की दूरी बढ़ती
पर्वत जैसे वर्तमान पर
नफ़रत की विष-बेल है चढ़ती !
भीतर भी है अन्धकार
बाहर भी अंधियारा है ,
भीतर लेकिन अन्धकार में
गर्भाशय की प्यार भरी गर्माहट है ,
बाहर रोटी के लिए
दबे पाँव पिछले दरवाजे
आते लोगों की आहट है !
देखो बाहर सारी दुनिया
भटक रही है
अंधियारे में पता पूछते हुए सूर्य का ,
कहाँ है सूरज ? कहाँ सवेरा ?
उधर है सूरज ,इधर अन्धेरा !
यहाँ सवालों की दुनिया में
अंधियारा ही अंधियारा है ,
इसीलिए तो भ्रूण को अपना
गर्भाशय ही प्यारा है !
स्वराज्य करुण
Thursday, September 30, 2010
Wednesday, September 29, 2010
अनपढ़ रह जाना अच्छा है !
वैसे तो हर इंसान जग में ईश्वर का ही बच्चा है ,
स्वराज्य करुण
फिर भी उसका दावा है कि एक वही तो सच्चा है !
राम-रहीम की जन्म भूमि के झगडों में ही उलझे सब ,
कौन झाँकने जाए किसके घर का चूल्हा कच्चा है !
आज रुदन के बीच ये कैसी ज़हरीली आवाजें हैं ,
शीश महल के हर कोने में सिर्फ सियासत रक्षा है !
जो कहते हैं खुद को मानवता का रक्षक दावे से ,
आज उन्होंने इंसानों को खुले आम फिर भक्षा है !
जाति-धर्म के भेद-भाव में पढ़े-लिखे भी बहक गए
इससे तो अनपढ़ रह जाना मित्र बहुत ही अच्छा है !
पूजा के पावन पर्वत पर !
अपने इस गीत से पहले मेरी यह गुजारिश है आपसे -
दुआ करो गीत ऐसा गाने की नौबत न आए ,
उसकी सखी-सहेली बन कोई सियासत न आए !
हर चमन में बहारों का मौसम हँसता-खिलता हो ,
रंग-बिरंगे फूलों के चेहरों पे दहशत न आए !
अब पेश है यह गीत ,जो १९९३ के मंदिर-मस्जिद विवाद से निर्मित खौफनाक माहौल की याद दिलाता है -
पूजा के पावन पर्वत पर !
सूर्योदय से पहले ही अब हो जाती है शाम यहाँ ,
कैसी तेरी दुनिया मेरे मौला ,मेरे राम यहाँ !
धर्म-ध्वजा के नाम देखो चमक रहे हैं चाकू
पूजा के पावन पर्वत पर चढ़ गए चोर -डाकू !
मानवता की अस्मत लुट गयी, देश हुआ बदनाम यहाँ ,
कैसी तेरी दुनिया मेरे मौला ,मेरे राम यहाँ !
कल थे जो सुख-दुःख के साथी आज हुए क्यों अनजाने ,
कौन ज़हर के बीज बो रहा , फ़ुरसत किसे है पहचाने !
पथरीली मूरत की खातिर मचा है कत्ले-आम यहाँ ,
कैसी तेरी दुनिया मेरे मौला, मेरे राम यहाँ !
बच्चे तुझको ढूंढ रहे हैं सड़कों- कूड़ेदानो में
मै भी तुझको ढूंढ रहा फटेहाल इंसानों में !
लेकिन उनका कहना है तू बसा अवध के धाम यहाँ ,
कैसी तेरी दुनिया मेरे मौला ,मेरे राम यहाँ !
कब निकलेगा तू अवध की खून सनी दीवारों से
कब निकलेगा तू मज़हब के घुटन भरे गलियारों से !
इस दुनिया को प्रेम-प्यार के कब देगा पैगाम यहाँ ,
कैसी तेरी दुनिया मेरे मौला ,मेरे राम यहाँ !
स्वराज्य करुण
Tuesday, September 28, 2010
स्याह गर्भाशय में फिर भी !
ऐसा जादू जमा तुम्हारा मतलब के व्यापार से ,
बहुत कमाया बहुत बनाया मज़हब के व्यापार से !
पहले तो सौदागर जैसे आए हमारे देश में ,
फिर ले आए सात पीढियां सात समंदर पार से !
कुछ उत्तर कुछ दक्षिण में तो , कुछ पूरब कुछ पश्चिम ,
धरती का दम घुट जाए है अब तो इनके भार से !
भाई-भाई से बैर बढ़ा कर घर-आँगन में युद्ध कराया ,
भारत माँ के टुकड़े कर गए नफरत की तलवार से !
विष का पौधा रोपा तुमने हरियर आँचल सूख गया ,
निर्मम मौत मरी मानवता अपने हाहाकार से !
स्याह गर्भाशय में फिर भी एक नयी रचना की आशा ,
अपनी धड़कन तेज कर गयी शिशु की मधुर पुकार से !
स्वराज्य करुण
बहुत कमाया बहुत बनाया मज़हब के व्यापार से !
पहले तो सौदागर जैसे आए हमारे देश में ,
फिर ले आए सात पीढियां सात समंदर पार से !
कुछ उत्तर कुछ दक्षिण में तो , कुछ पूरब कुछ पश्चिम ,
धरती का दम घुट जाए है अब तो इनके भार से !
भाई-भाई से बैर बढ़ा कर घर-आँगन में युद्ध कराया ,
भारत माँ के टुकड़े कर गए नफरत की तलवार से !
विष का पौधा रोपा तुमने हरियर आँचल सूख गया ,
निर्मम मौत मरी मानवता अपने हाहाकार से !
स्याह गर्भाशय में फिर भी एक नयी रचना की आशा ,
अपनी धड़कन तेज कर गयी शिशु की मधुर पुकार से !
स्वराज्य करुण
Sunday, September 26, 2010
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !
(अमर शहीद भगत सिंह की जयन्ती 27 सितम्बर पर विशेष )
आलेख : स्वराज्य करुण
उम्र के चौबीसवें वसंत को पार करने से पहले ही वह नौजवान गहन अध्ययन और चिंतन के जरिए देश और समाज पर अपने अनमोल विचारो की गहरी छाप छोड़ कर और भारत-माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देकर हमें अलविदा कह गया ! वास्तव में यह हमारे वतन के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक अविस्मरणीय घटना है, लेकिन विडम्बना है कि आज हम ऐसे ऐतिहासिक प्रसंगों को भूलते जा रहे है, जिन्हें याद रखना आज़ादी और लोकतंत्र की रक्षा के लिए बहुत ज़रूरी है. ज़रा सोचिए ! उम्र केवल तेईस साल और छह महीने के आस-पास, लेकिन देश की आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी सरकार से सीधे टकरा जाने का हौसला ! जवानी की दहलीज पर जब ज्यादातर युवा हसीन सपनों की रंगीन दुनिया में खोए रहते हैं, उसने अपनी जिंदगी के असली मकसद को समझा और अपनी उम्र के युवाओं को संगठित कर हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की स्थापना की , अपने जैसे विचारों वाले देशभक्तों को जोड़ कर क्रांतिकारी आंदोलन का संचालन किया और अंत में गिरफ्तार हो कर इन्कलाब जिंदाबाद के नारों के साथ फांसी की सजा का आत्मीय स्वागत करते हुए आजादी के महायज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी ! मै ज़िक्र कर रहा हूँ अमर शहीद भगत सिंह का जिनकी सत्ताईस सितम्बर को जयन्ती है, जिनके ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा आज भी शोषितों और वंचितों के दिलों में नए उत्साह का संचार करता है .
शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था , जो अब पाकिस्तान में है. अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें 23 मार्च 1931 को लाहौर की जेल में उनके दो साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे पर मौत की सज़ा दे दी .दुर्भाग्य से आज अमर शहीद भगतसिंह का जन्म स्थान और शहादत-स्थल दोनों पकिस्तान में हैं पर इससे उनके महान संघर्ष और बलिदान का महत्व कम नहीं हो जाता. उन्होंने एक अविभाजित और अखंड भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ,लेकिन इतिहास ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि उनकी शहादत के करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15 अगस्त 1947 को भारत की आज़ादी के समय देश का बंटवारा कर दिया. जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है – ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘.लेकिन आज तो हमें अमर शहीद भगत सिंह को उनकी जयन्ती पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की.
अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है . आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ. उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए . भगत सिंह का इरादा किसी को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया .
शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था , जो अब पाकिस्तान में है. अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें 23 मार्च 1931 को लाहौर की जेल में उनके दो साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे पर मौत की सज़ा दे दी .दुर्भाग्य से आज अमर शहीद भगतसिंह का जन्म स्थान और शहादत-स्थल दोनों पकिस्तान में हैं पर इससे उनके महान संघर्ष और बलिदान का महत्व कम नहीं हो जाता. उन्होंने एक अविभाजित और अखंड भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ,लेकिन इतिहास ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि उनकी शहादत के करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15 अगस्त 1947 को भारत की आज़ादी के समय देश का बंटवारा कर दिया. जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है – ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘.लेकिन आज तो हमें अमर शहीद भगत सिंह को उनकी जयन्ती पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की.
अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है . आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ. उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए . भगत सिंह का इरादा किसी को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया .
भगत की उम्र उस वक्त सिर्फ बाईस साल थी , जब उन्होंने भारत माता की मुक्ति के लिए अपने क्रांतिकारी मिशन के तहत अंग्रेजों की विधान सभा में जन-भावनाओं का धमाका किया था . जेल की काल-कोठरी में भी भगत सिंह अपने क्रांतिकारी –चिंतन में लगे रहे . उन्होंने अपने साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर लटकाए जाने के महज तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को एक लंबा पत्र लिख कर साफ़ शब्दों में कहा – हमें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए. हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी ,जब तक कि शक्तिशाली लोगों ने भारतीय जनता और मेहनतकश मजदूरों की आमदनी के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है. चाहे वे अंग्रेज-पूंजीपति हों या भारतीय पूंजीपति... हो सकता है कि यह लड़ाई विभिन्न दशाओं में अलग-अलग स्वरुप धारण करते हुए चले.. निकट भविष्य में अंतिम युद्ध लड़ा जाएगा ,जो निर्णायक होगा .साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं. यही वह लड़ाई है ,जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है .इस युद्ध को न तो हमने शुरू किया है और न ही यह हमारे जीवन के साथ खत्म होगा .हम आपसे किसी दया की विनती नहीं करते ...हमें युद्ध-बंदी मान कर फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए. अपने देश के लिए मर मिटने की ऐसी चाहत देख कर भगत और उनके साथियों के क्रांतिकारी ज़ज्बे को सलाम करने की इच्छा भला किस देश-भक्त को नहीं होगी ?
समाज –नीति, राजनीति ,राष्ट्र-नीति और अर्थ-नीति सहित मानव जीवन के हर पहलू का भगत सिंह ने गहरा अध्ययन किया था ,जो उनके वैचारिक आलेखों में साफ़ झलकता है .इन्कलाब जिंदाबाद के विचारोत्तेजक नारे को जन-जन की आवाज़ बना देने वाले भगत सिंह ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ 22 दिसंबर 1929 को’माडर्न-रिव्यू’ नामक पत्रिका के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय को लिखे पत्र में यह स्पष्ट किया था कि इन्कलाब जिंदाबाद क्या है ? उन्होंने इस पत्र में बहुत साफ़ शब्दों में लिखा - इस वाक्य में इन्कलाब (क्रांति ) शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है . लोग आम-तौर पर जीवन की परम्परागत दशाओं से चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से कांपने लगते हैं . यही एक अकर्मण्यता की भावना है , जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की ज़रूरत है . क्रांति की इस भावना से मानव-समाज की आत्मा स्थायी रूप से जुड़ी रहनी चाहिए. यह भी ज़रूरी है कि पुरानी व्यवस्था हमेशा न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए जगह खाली करती रहे .ताकि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके . यही हमारा अभिप्राय है ,जिसे दिल में रख कर हम ‘इन्कलाब जिंदाबाद ‘ का नारा बुलंद करते हैं .
तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए- ‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए . यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं . एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था .इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है . देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी .
क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ! क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?बहरहाल चलते-चलते किसी अज्ञात शायर के आज़ादी के तराने की इन दो पंक्तियों को ज़रा गुनगुना तो लीजिए
क्या हुआ गर मर गए अपने वतन के वास्ते
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !
तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए- ‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए . यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं . एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था .इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है . देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी .
क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ! क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?बहरहाल चलते-चलते किसी अज्ञात शायर के आज़ादी के तराने की इन दो पंक्तियों को ज़रा गुनगुना तो लीजिए
क्या हुआ गर मर गए अपने वतन के वास्ते
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !
Saturday, September 25, 2010
मार्केट और मार-काट !
दोस्तों ! मेरा सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है . इसलिए मै अंग्रेजी के 'मार्केट ' और हमारी हिन्दी के 'मार-काट' शब्द में कोई खास फर्क महसूस नहीं कर पा रहा हूँ . उच्चारण में भले ही फर्क लगे ,लेकिन दुनियादारी के नज़रिए से सोचें तो आज की दुनिया में दो अलग-अलग भाषाओं के ये दोनों ही शब्द लिखने और बोलने में अंतर के बावजूद एक ही सिक्के के दो पहलू नज़र आते हैं . अर्थ इनका अलग-अलग है , पर आर्थिक दृष्टि से दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं . अंग्रेजी में जिसे मार्केट कहते हैं , याने कि बाज़ार, वहां आखिर नहीं दिखने वाले 'मार-काट 'के सिवाय और क्या होता है ? महंगाई की मार झेल रहे हम जैसे बेचारे ग्राहकों पर वहां कीमतों की दोहरी मार पड़ती है कि नहीं और हमारी जेब वहां काटी जाती है कि नहीं ? एक रूपए के सामान को दस रूपए में और पांच रूपए के माल को पच्चीस रूपए में बेच कर क्या 'बाज़ार ' ग्राहकों की जेब नहीं काटता ? यह नेक काम वह कौन से माल पर कितने 'मार्जिन ' से करता है , हमारी भोली आँखें नहीं देख पाती , लेकिन मैंने यह ज़रूर देखा है कि बाज़ार अपने दोनों हाथों में दो तरह के चाकू रखता है - एक चतुराई का चाकू और दूसरा मुनाफे का ! भले ही जेब काटने का यह काम मार्केट बड़ी सफाई से करता है , लेकिन महंगाई की बेरहम और बेशर्म 'मार ' के साथ वह चतुराई और मुनाफे के चाकूओं से हमारा कितना कुछ 'काट' लेता है ? तब मै 'मार्केट ' और 'मार-काट ' में शाब्दिक तौर पर न सही , लेकिन आर्थिक दृष्टि से कोई फर्क क्यों और कैसे महसूस करूं ? मै तो अंग्रेज़ी और हिन्दी के उन गुमनाम शब्द-शिल्पियों को तहे -दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ , जिन्होंने क्रमशः 'मार्केट' और 'मार-काट ' शब्दों का निर्माण किया , जो भौतिक रूप से न सही पर भावनात्मक रूप से तो एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं ! ! खूब जमता है रंग ! जब मिल-बैठते हैं दोनों संग-संग ! मतलब' 'मार्केट' और 'मार-काट' ! फिर तो दोनों ही शब्द एक-दूसरे में समाहित हो कर एक-दूजे के अर्थ को ज़मीन पर सार्थक बनाते नज़र आते हैं ! दोनों शब्दों और उनके निर्माताओं को मेरा सादर प्रणाम ! हे शब्द-शिल्पियों ! मेरा आमंत्रण स्वीकार करो ! मै तुम्हारा अभिनन्दन करना चाहता हूँ !
- स्वराज्य करुण
- स्वराज्य करुण
Wednesday, September 22, 2010
यह बेकार की जिद है पगले !
मस्जिद के भीतर मंदिर था कि मंदिर के भीतर मस्जिद है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
धरती की छाती पर लाखों मंदिर-मस्जिद खड़े हुए हैं ,
जिनके आँगन लोग हजारों भूखे-प्यासे पड़े हुए हैं !
नासमझों की नासमझी का कैसा है यह खेल-तमाशा ,
कर्फ्यू के काले साये में बेघर पंछी डरे हुए हैं !
गड़े हुए मुर्दे न उखाडो , कुछ भी न मिलेगा यह निश्चित है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
कमर टूट गयी महंगाई से मेहनत करते पीढ़ी -दर -पीढ़ी
मुफ्तखोर के हाथों में ही नाच रही सफलता सीढ़ी !
मज़हब उसके मंसूबों का रक्षक बन कर तना हुआ है
उसके ही नापाक इरादों के कीचड में सना हुआ है !
लाशों के अम्बार पे बैठा, हंसता जैसे कोई गिद्ध है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
बन भी जाए गर मंदिर-मस्जिद तो क्या गरीबी मिट जाएगी ,
बेकारी की गहन समस्या पलक झपकते हट जाएगी ?
झोपड़ियों की स्याह छाँव में आ जाएगी क्या खुशहाली ,
बोलो क्या गारंटी दोगे कोई हाथ न होगा खाली ?
भूखे-पेट भजन क्या होगा , यह सच्चाई स्वयं-सिद्ध है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
वह मज़हब का व्यापारी है मज़हब ही व्यापार है उसका ,
सिर्फ मतलब का है पुजारी , मज़हब ही हथियार है उसका !
उसके सारे दांव -पेंच को जनता भी अब जान गयी है ,
उसके नकाबपोश चेहरे को ठीक-ठीक पहचान गयी है !
आओ उसका नकाब उतारें , इसमें ही हम सबका हित है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
- स्वराज्य करुण
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
धरती की छाती पर लाखों मंदिर-मस्जिद खड़े हुए हैं ,
जिनके आँगन लोग हजारों भूखे-प्यासे पड़े हुए हैं !
नासमझों की नासमझी का कैसा है यह खेल-तमाशा ,
कर्फ्यू के काले साये में बेघर पंछी डरे हुए हैं !
गड़े हुए मुर्दे न उखाडो , कुछ भी न मिलेगा यह निश्चित है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
कमर टूट गयी महंगाई से मेहनत करते पीढ़ी -दर -पीढ़ी
मुफ्तखोर के हाथों में ही नाच रही सफलता सीढ़ी !
मज़हब उसके मंसूबों का रक्षक बन कर तना हुआ है
उसके ही नापाक इरादों के कीचड में सना हुआ है !
लाशों के अम्बार पे बैठा, हंसता जैसे कोई गिद्ध है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
बन भी जाए गर मंदिर-मस्जिद तो क्या गरीबी मिट जाएगी ,
बेकारी की गहन समस्या पलक झपकते हट जाएगी ?
झोपड़ियों की स्याह छाँव में आ जाएगी क्या खुशहाली ,
बोलो क्या गारंटी दोगे कोई हाथ न होगा खाली ?
भूखे-पेट भजन क्या होगा , यह सच्चाई स्वयं-सिद्ध है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
वह मज़हब का व्यापारी है मज़हब ही व्यापार है उसका ,
सिर्फ मतलब का है पुजारी , मज़हब ही हथियार है उसका !
उसके सारे दांव -पेंच को जनता भी अब जान गयी है ,
उसके नकाबपोश चेहरे को ठीक-ठीक पहचान गयी है !
आओ उसका नकाब उतारें , इसमें ही हम सबका हित है ,
यह बेकार की जिद है पगले ! यह बेकार की जिद है ! !
- स्वराज्य करुण
Tuesday, September 21, 2010
शब्दों की ज़मीन पर जिंदगी के दो चित्र !
(१)
आंसुओं की खामोशी में , कोलाहल के बीच जिंदगी ,
उगा रही है फसल दर्द की ,खून-पसीना सींच ज़िंदगी !
जानवरों की तरह उम्र की गाड़ी में हम फंदे हुए हैं,
पर्वत लदे हुए हैं इस पर ,भार उमर भर खींच जिंदगी !
पत्थर ढोते हुए पहाड़ों पर से देखो चला काफिला
गुजर रही है धीरे-धीरे कभी ऊंच और नीच जिंदगी !
कौन सुनेगा तेरी पीड़ा ,अपने में मशगूल यहाँ सब
होठों पर रख ले तू उंगली ,मत ज़ोरों से चीख जिंदगी !
छीन ले जा कर उन हाथों से , कैद हैं जिनमे तेरे सपने ,
किन्तु समय के इस शहर में मांग कभी मत भीख जिंदगी !
छीन ले जा कर उन हाथों से , कैद हैं जिनमे तेरे सपने ,
किन्तु समय के इस शहर में मांग कभी मत भीख जिंदगी !
(२)
उलझनों का फैला आकाश जिंदगी,
बन गयी है एक ज़िंदा लाश जिंदगी !
निराशा के जंगल में चीख रहा सन्नाटा,
सो रही है सपनों के पास जिंदगी !
दूर कहीं उम्र के जल रहे हैं गाँव ,
कैसे बचाएं हम आवास जिंदगी !
दौडती ज्यों बेतहाशा चाहतों की हिरणी,
मरीचिकाओं में है कैद प्यास ज़िंदगी !
पतझर के आकाश का मैं हूँ सितारा ,
मेरे नसीब में कहाँ मधुमास जिंदगी !
खुद को पहचानना भी मुश्किल है बहुत ,
आईने में सूरत की तलाश ज़िंदगी !
स्वराज्य करुण
Monday, September 20, 2010
खुले आम धोखाधड़ी और हम खामोश !
खुले बाज़ार में खुले आम हो रही धोखाधड़ी के बावजूद आखिर हम और आप खामोश क्यों हैं ? क्या सिर्फ इसलिए कि बैठे-ठाले क्यों किसी से पंगा लिया जाए ? लेकिन एक पल के लिए जरा गंभीरता से विचार करें ! क्या आप और हम दिन-रात सिर्फ इसलिए मेहनत करते हैं कि हमारी मेहनत की कमाई इसी तरह धोखाधड़ी करने वालों की भेंट चढ़ती रहे ? हम दो रूपए का सामान दस रूपए में और दस रूपए का सामान सौ रूपए में खरीद कर अपने गाढ़े पसीने की कमाई को अपनी ही आँखों के सामने लुट जाने दें और उन सामानों को बनाने और बेचने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मालामाल होते रहें ? क्या हम इन धोखेबाज लुटेरों को हमारी जेबों पर खुले आम डाका डालने दें ? महंगाई डायन की बेरहम मार से वैसे भी हम खस्ताहाल हैं .नीम पर करेला वाली बात यह कि ये लुटेरे हमारी बची-खुची कमाई को भी निचोड़ लेना चाहते हैं .
आखिर कौन हैं ये धोखेबाज अपराधी, जिनके लिए यह सम्पूर्ण मानव-समाज मुनाफे का खुला बाज़ार बन गया है ,या नहीं तो बना दिया गया है, जहाँ दया ,करुणा और परोपकार जैसे मानवीय मूल्य भी अब मुनाफे के तराजू पर तौले जाते है ! यही कारण है कि बाज़ार में किसी भी सामान को बेचने की कीमत तय करने का अधिकार तो उसे बनाने और बेचने वालों के हाथ में है ,लेकिन उसे खरीदने वाले हम ग्राहकों को यह अधिकार नहीं है कि हम उनसे यह पूछ सकें कि दरअसल उसे बनाने में खर्चा कितना आया है, या लागत कितनी आयी है ? विक्रय -मूल्य तो घोषित रहता है ,पर लागत मूल्य को बड़ी चालाकी से छुपा लिया जाता है . सिर्फ इसलिए कि मनमाने तरीके से मुनाफ़ा कमाने और मालामाल होने का रहस्य तो इसी लागत-मूल्य में छुपा हुआ है .क्या यह अजीब नहीं लगता कि खुले बाज़ार की अर्थ-व्यवस्था में विक्रय-मूल्य तो खुला हुआ है ,लेकिन लागत-मूल्य की जानकारी गोपनीयता के गर्भ में कैद है , जबकि सूचना के अधिकार और पारदर्शिता के इस युग में हम यह दावा करते नहीं थकते कि हम एक खुले समाज में रहते हैं !
मिसाल के तौर पर पीने के पानी को ही देखें, जिसे एक अनमोल तोहफे के रूप में कुदरत ने हमें मुफ्त में दिया है , लेकिन बड़ी-बड़ी कम्पनियां इंसान को मिले ईश्वर के इस वरदान को छीन कर खुले आम पानी का व्यापार कर रही हैं. कुदरत ने नदी-नाले भी धरती को और धरती-पुत्रों को मुफ्त में दिए हैं , लेकिन ये कम्पनियां उन्हें भी अपनी जागीर समझ कर उन पर कब्जा कर रही हैं और वहां से मुफ्त का पानी खींच कर उसे .प्लास्टिक की पारदर्शी बोतलों में भर कर एक-एक बोतल पानी पंद्रह से बीस रूपए में बेच कर करोड़ों का मुनाफ़ा लूट रही हैं .रेल्वे स्टेशनों , बस-स्टेशनों और विमान-तलों में , या फिर और कहीं भी वक्त-ज़रुरत पर हम मजबूर होकर पानी का यह बोतल खरीदते हैं , जिसे बनाने में निर्माता को कितनी लागत आयी ,यह जानने की न तो हमें कोई दिलचस्पी होती है और न ही फ़ुरसत ! अगर हो भी तो हम अकेले कर भी क्या लेंगे ?
एक ब्रांडेड कंपनी के टूथपेस्ट का ट्यूब और गहरे चटक रंग का उसका डिब्बा मेरे हाथों में है , डिब्बे पर टूथपेस्ट की तथाकथित खूबियों का अंग्रेज़ी में बखान करते हुए मात्र डेढ़ सौ ग्राम की इस सामग्री की अधिकतम खुदरा कीमत छापी गयी है - सत्तावन रुपए. एक अन्य कंपनी के ब्रांडेड केश तेल की सिर्फ एक सौ बीस मिलीलीटर की एक छोटी -सी बोतल पर उसका अधिकतम खुदरा मूल्य एक सौ छत्तीस रुपए अंकित है. फ़ूड सप्लीमेंट और साबुन ,तेल , टूथपेस्ट आदि घरेलू सामान बेचकर दुनिया भर में अरबों -खरबों डालरों का व्यापार कर रही एक नेट वर्किंग कंपनी का कोई भी सामान भारतीय रुपए के हिसाब से सौ -दो सौ रुपए से कम कीमत का नहीं होता .ज़रा ध्यान दीजिये , टूथपेस्ट हो या केश तेल , नहाने का साबुन हो या कपड़ा धोने का पावडर . पैकेट या डिब्बा चाहे चाय का हो या चीनी का, या फिर जीवनरक्षक दवाओं का , उन पर विक्रय मूल्य की जानकारी तो प्रिंट कर दी जाती है , लेकिन उनकी प्रति यूनिट लागत के बारे में कोई सूचना नहीं होती और न ही हम ग्राहक इस बारे में जानने की कोशिश करते हैं ?
काफी ज़द्दोज़हद के बाद कुछ साल पहले जब क़ानून बना, तब कहीं आज ग्राहक को प्रिंट रेट के नाम पर भले ही वह सही हो या गलत, इस तथाकथित अधिकतम खुदरा मूल्य की जानकारी मिल रही है.लेकिन क्या हम कभी यह जानने की कोशिश करते हैं कि कंपनियों अथवा उत्पादकों द्वारा अपने किसी भी प्रोडक्ट पर अधिकतम खुदरा कीमत के साथ उसका लागत मूल्य क्यों नहीं छपवाया जाता ? अपने उत्पादन की लागत बताने में उन्हें संकोच क्यों होता है ? जब कोई भी कंपनी अपने किसी प्रोडक्ट के प्रत्येक पांच,दस, पचास या सौ -डेढ़ सौ ग्राम से लेकर हजार -दो हज़ार ग्राम या उससे भी ज्यादा वज़न के पैकेट पर खुदरा विक्रय मूल्य छाप सकती हैं ,तो लागत मूल्य छापने में क्या हर्ज़ है ? साथियों ! क्या एक ग्राहक होने के नाते हममे से कोई यह बता सकता है कि उसके द्वारा खरीदी गयी अधिकतम खुदरा मूल्य छपी किसी वस्तु की अधिकतम निर्माण लागत क्या होगी ? एक बड़े शहर के मेडिकल बाज़ार में जब कुछ माह पहले अधिकारियों ने छापा मारा तो वे यह देख कर हैरान रह गए कि सामान्य सर्दी -जुकाम में इस्तेमाल की जाने वाली एक या दो रुपए की टेबलेट कई गुना अधिक कीमत पर बेची जा रही थी. केस भी दर्ज हुए ,लेकिन बाद में क्या हुआ, कोई खबर नहीं आयी.यह भी सोचने वाली बात है कि बहुत से डॉक्टर किसी एक बीमारी के इलाज के लिए मरीज़ को काफी महंगी दवाई लिखकर पर्ची थमा देते हैं ,जबकि उसी बीमारी के लिए कुछ डॉक्टर सस्ती दवाई से मरीज़ को ठीक कर देते हैं. मेडिकल मार्केट में एक ही बीमारी की एक दवा कई अलग-अलग नामों से अलग -अलग प्रिंट रेट पर बिकती है. कपड़े खरीदने जाएँ तो वहां अलग -अलग कंपनियों के रेडीमेड कपड़े चाहे शर्ट हो या पेंट , साड़ी हो या सलवार , एक ही प्रकार की वस्तु होने के बावजूद उनका विक्रय मूल्य अलग-अलग होता है . वही हाल मकान अथवा भवन निर्माण उद्योग का है. इसमें ज़मीन की कीमत , सीमेंट , रेत, ईट -गारे सहित कुछ अन्य निर्माण सामग्री और मानव श्रम को मिलाकर हिसाब लगाएं तो मालूम होगा कि वास्तविक लागत से कई गुना ज़्यादा कीमत पर मकान बेचा जाता है. नया ज़माना उपभोक्ता संस्कृति का है . बाज़ार में तो हर व्यक्ति उपभोक्ता है . चाहे फैक्ट्री का मालिक हो या कोई सामान्य मजदूर , जिंदा रहने के लिए हर किसी को रोटी ,कपड़ा और मकान चाहिए . इलाज के लिए औषधि चाहिए . लेकिन ऐसा लगता है कि उत्पादन कंपनियों को इस नैतिकता से कोई लेना -देना नहीं है कि उपभोक्ता के रूप में हर इंसान एक -दूसरे पर आश्रित है.
बिस्कुट , ब्रेड सूखी मिठाई, शरबत जैसी खाने -पीने की कई चीजें तो अपनी वास्तविक लागत से कई गुना ज्यादा कीमत पर बेची जा रही हैं . लगभग दो दशक पहले महाराष्ट्र विधान सभा में वहां के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. श्रीकांत जिचकर ने २३ जुलाई १९९० को यह मामला उठाया था कि एक ब्रांडेड कंपनी के साबुन का उत्पादन खर्च प्रति नग सिर्फ एक रुपए आता है ,जबकि लोकल टैक्स सहित वह मुम्बई में पांच रुपए में और नागपुर में पौने छह रुपए में बिकता है .उन्होंने तथ्यों के साथ यह भी बताया था कि एक ब्रांडेड कंपनी का स्कूटर उन दिनों के हिसाब से फैक्ट्री में सात हज़ार में तैयार होकर बाज़ार में साढ़े तेरह हज़ार रुपए में बेचा जा रहा है और एक ब्रांडेड कंपनी की कार छियासठ हज़ार में बन कर एक लाख बाईस हज़ार में बिक रही है. डॉ. जिचकर ने एकदम सही कहा था कि वास्तव में किस वस्तु पर उत्पादन खर्च कितना है , यह जानने का अधिकार आम जनता को मिलना चाहिए और इसके लिए कानूनी प्रावधान भी किया जाना चाहिए . ज़रा पीछे मुड़कर यह देखना भी दिलचस्प होगा कि उन्हीं दिनों संसद में मुखर वक्ता और प्रखर सांसद श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने भी इस ज्वलंत मसले पर आवाज़ उठाई थी लगभग बीस वर्ष पहले समाचार पत्रों में कुछ पाठकों ने 'सम्पादक के नाम पत्र ' जैसे वैचारिक स्तंभों में इस विषय पर विचार -विमर्श का एक रचनात्मक अभियान भी चलाया था. जिसकी शुरुआत पोस्टकार्ड पर मेरे लिखे हुए एक छोटे से पत्र से हुई थी. उसकी प्रतिक्रिया में कई पत्र छपे .ऐसे ही एक पत्र में महेश पालीवाल ने लिखा- ' अगर निर्माताओं द्वारा वस्तुओं में लागत मूल्य नहीं लिखा जाता , तो इसका साफ़ -साफ़ मतलब है कि उपभोक्ताओं के प्रति खुले आम बेईमानी की जा रही है'.सागर विश्वविद्यालय के छात्र समीर की प्रतिक्रिया थी-' वस्तुओं में विक्रय मूल्य तो अंकित किया जाता है ,लेकिन लागत मूल्य को गोपनीय रखना आम जनता के प्रति सरासर बेईमानी के सिवाय और कुछ नहीं .'
यह बात सही है कि उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रकर बाज़ार पहुँचने तक मज़दूरी भुगतान , परिवहन खर्च , और लोकल टैक्स आदि मिलाकर किसी वस्तु की कीमत तय होती है.कच्चे माल का खर्च भी उसमे जोड़ना पड़ता है . उस पर उत्पादक कंपनी और दुकानदार का मुनाफ़ा भी जुड़ता है. इन सबको जोड़कर किसी वस्तु का अगर अधिकतम खुदरा मूल्य तय किया जा सकता है और उसे वस्तु के पैकेट पर प्रिंट किया जा सकता है , तो लागत मूल्य तय करने और उसे अपने प्रोडक्ट में छापने में भला क्या दिक्कत है ? मुझे लगता है कि लागत मूल्य की गोपनीयता में ही कंपनियों के अधिकतम और अंधाधुंध मुनाफे का रहस्य छिपा है और यही राज़ है डायन की तरह आज की बढ़ती महंगाई का. देश में सूचना का अधिकार तो लागू हो गया है , अब देखना यह है कि उपभोक्ताओं को लागत मूल्य जानने का अधिकार कब मिलेगा ? आपका क्या कहना है ?
आखिर कौन हैं ये धोखेबाज अपराधी, जिनके लिए यह सम्पूर्ण मानव-समाज मुनाफे का खुला बाज़ार बन गया है ,या नहीं तो बना दिया गया है, जहाँ दया ,करुणा और परोपकार जैसे मानवीय मूल्य भी अब मुनाफे के तराजू पर तौले जाते है ! यही कारण है कि बाज़ार में किसी भी सामान को बेचने की कीमत तय करने का अधिकार तो उसे बनाने और बेचने वालों के हाथ में है ,लेकिन उसे खरीदने वाले हम ग्राहकों को यह अधिकार नहीं है कि हम उनसे यह पूछ सकें कि दरअसल उसे बनाने में खर्चा कितना आया है, या लागत कितनी आयी है ? विक्रय -मूल्य तो घोषित रहता है ,पर लागत मूल्य को बड़ी चालाकी से छुपा लिया जाता है . सिर्फ इसलिए कि मनमाने तरीके से मुनाफ़ा कमाने और मालामाल होने का रहस्य तो इसी लागत-मूल्य में छुपा हुआ है .क्या यह अजीब नहीं लगता कि खुले बाज़ार की अर्थ-व्यवस्था में विक्रय-मूल्य तो खुला हुआ है ,लेकिन लागत-मूल्य की जानकारी गोपनीयता के गर्भ में कैद है , जबकि सूचना के अधिकार और पारदर्शिता के इस युग में हम यह दावा करते नहीं थकते कि हम एक खुले समाज में रहते हैं !
मिसाल के तौर पर पीने के पानी को ही देखें, जिसे एक अनमोल तोहफे के रूप में कुदरत ने हमें मुफ्त में दिया है , लेकिन बड़ी-बड़ी कम्पनियां इंसान को मिले ईश्वर के इस वरदान को छीन कर खुले आम पानी का व्यापार कर रही हैं. कुदरत ने नदी-नाले भी धरती को और धरती-पुत्रों को मुफ्त में दिए हैं , लेकिन ये कम्पनियां उन्हें भी अपनी जागीर समझ कर उन पर कब्जा कर रही हैं और वहां से मुफ्त का पानी खींच कर उसे .प्लास्टिक की पारदर्शी बोतलों में भर कर एक-एक बोतल पानी पंद्रह से बीस रूपए में बेच कर करोड़ों का मुनाफ़ा लूट रही हैं .रेल्वे स्टेशनों , बस-स्टेशनों और विमान-तलों में , या फिर और कहीं भी वक्त-ज़रुरत पर हम मजबूर होकर पानी का यह बोतल खरीदते हैं , जिसे बनाने में निर्माता को कितनी लागत आयी ,यह जानने की न तो हमें कोई दिलचस्पी होती है और न ही फ़ुरसत ! अगर हो भी तो हम अकेले कर भी क्या लेंगे ?
एक ब्रांडेड कंपनी के टूथपेस्ट का ट्यूब और गहरे चटक रंग का उसका डिब्बा मेरे हाथों में है , डिब्बे पर टूथपेस्ट की तथाकथित खूबियों का अंग्रेज़ी में बखान करते हुए मात्र डेढ़ सौ ग्राम की इस सामग्री की अधिकतम खुदरा कीमत छापी गयी है - सत्तावन रुपए. एक अन्य कंपनी के ब्रांडेड केश तेल की सिर्फ एक सौ बीस मिलीलीटर की एक छोटी -सी बोतल पर उसका अधिकतम खुदरा मूल्य एक सौ छत्तीस रुपए अंकित है. फ़ूड सप्लीमेंट और साबुन ,तेल , टूथपेस्ट आदि घरेलू सामान बेचकर दुनिया भर में अरबों -खरबों डालरों का व्यापार कर रही एक नेट वर्किंग कंपनी का कोई भी सामान भारतीय रुपए के हिसाब से सौ -दो सौ रुपए से कम कीमत का नहीं होता .ज़रा ध्यान दीजिये , टूथपेस्ट हो या केश तेल , नहाने का साबुन हो या कपड़ा धोने का पावडर . पैकेट या डिब्बा चाहे चाय का हो या चीनी का, या फिर जीवनरक्षक दवाओं का , उन पर विक्रय मूल्य की जानकारी तो प्रिंट कर दी जाती है , लेकिन उनकी प्रति यूनिट लागत के बारे में कोई सूचना नहीं होती और न ही हम ग्राहक इस बारे में जानने की कोशिश करते हैं ?
काफी ज़द्दोज़हद के बाद कुछ साल पहले जब क़ानून बना, तब कहीं आज ग्राहक को प्रिंट रेट के नाम पर भले ही वह सही हो या गलत, इस तथाकथित अधिकतम खुदरा मूल्य की जानकारी मिल रही है.लेकिन क्या हम कभी यह जानने की कोशिश करते हैं कि कंपनियों अथवा उत्पादकों द्वारा अपने किसी भी प्रोडक्ट पर अधिकतम खुदरा कीमत के साथ उसका लागत मूल्य क्यों नहीं छपवाया जाता ? अपने उत्पादन की लागत बताने में उन्हें संकोच क्यों होता है ? जब कोई भी कंपनी अपने किसी प्रोडक्ट के प्रत्येक पांच,दस, पचास या सौ -डेढ़ सौ ग्राम से लेकर हजार -दो हज़ार ग्राम या उससे भी ज्यादा वज़न के पैकेट पर खुदरा विक्रय मूल्य छाप सकती हैं ,तो लागत मूल्य छापने में क्या हर्ज़ है ? साथियों ! क्या एक ग्राहक होने के नाते हममे से कोई यह बता सकता है कि उसके द्वारा खरीदी गयी अधिकतम खुदरा मूल्य छपी किसी वस्तु की अधिकतम निर्माण लागत क्या होगी ? एक बड़े शहर के मेडिकल बाज़ार में जब कुछ माह पहले अधिकारियों ने छापा मारा तो वे यह देख कर हैरान रह गए कि सामान्य सर्दी -जुकाम में इस्तेमाल की जाने वाली एक या दो रुपए की टेबलेट कई गुना अधिक कीमत पर बेची जा रही थी. केस भी दर्ज हुए ,लेकिन बाद में क्या हुआ, कोई खबर नहीं आयी.यह भी सोचने वाली बात है कि बहुत से डॉक्टर किसी एक बीमारी के इलाज के लिए मरीज़ को काफी महंगी दवाई लिखकर पर्ची थमा देते हैं ,जबकि उसी बीमारी के लिए कुछ डॉक्टर सस्ती दवाई से मरीज़ को ठीक कर देते हैं. मेडिकल मार्केट में एक ही बीमारी की एक दवा कई अलग-अलग नामों से अलग -अलग प्रिंट रेट पर बिकती है. कपड़े खरीदने जाएँ तो वहां अलग -अलग कंपनियों के रेडीमेड कपड़े चाहे शर्ट हो या पेंट , साड़ी हो या सलवार , एक ही प्रकार की वस्तु होने के बावजूद उनका विक्रय मूल्य अलग-अलग होता है . वही हाल मकान अथवा भवन निर्माण उद्योग का है. इसमें ज़मीन की कीमत , सीमेंट , रेत, ईट -गारे सहित कुछ अन्य निर्माण सामग्री और मानव श्रम को मिलाकर हिसाब लगाएं तो मालूम होगा कि वास्तविक लागत से कई गुना ज़्यादा कीमत पर मकान बेचा जाता है. नया ज़माना उपभोक्ता संस्कृति का है . बाज़ार में तो हर व्यक्ति उपभोक्ता है . चाहे फैक्ट्री का मालिक हो या कोई सामान्य मजदूर , जिंदा रहने के लिए हर किसी को रोटी ,कपड़ा और मकान चाहिए . इलाज के लिए औषधि चाहिए . लेकिन ऐसा लगता है कि उत्पादन कंपनियों को इस नैतिकता से कोई लेना -देना नहीं है कि उपभोक्ता के रूप में हर इंसान एक -दूसरे पर आश्रित है.
बिस्कुट , ब्रेड सूखी मिठाई, शरबत जैसी खाने -पीने की कई चीजें तो अपनी वास्तविक लागत से कई गुना ज्यादा कीमत पर बेची जा रही हैं . लगभग दो दशक पहले महाराष्ट्र विधान सभा में वहां के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. श्रीकांत जिचकर ने २३ जुलाई १९९० को यह मामला उठाया था कि एक ब्रांडेड कंपनी के साबुन का उत्पादन खर्च प्रति नग सिर्फ एक रुपए आता है ,जबकि लोकल टैक्स सहित वह मुम्बई में पांच रुपए में और नागपुर में पौने छह रुपए में बिकता है .उन्होंने तथ्यों के साथ यह भी बताया था कि एक ब्रांडेड कंपनी का स्कूटर उन दिनों के हिसाब से फैक्ट्री में सात हज़ार में तैयार होकर बाज़ार में साढ़े तेरह हज़ार रुपए में बेचा जा रहा है और एक ब्रांडेड कंपनी की कार छियासठ हज़ार में बन कर एक लाख बाईस हज़ार में बिक रही है. डॉ. जिचकर ने एकदम सही कहा था कि वास्तव में किस वस्तु पर उत्पादन खर्च कितना है , यह जानने का अधिकार आम जनता को मिलना चाहिए और इसके लिए कानूनी प्रावधान भी किया जाना चाहिए . ज़रा पीछे मुड़कर यह देखना भी दिलचस्प होगा कि उन्हीं दिनों संसद में मुखर वक्ता और प्रखर सांसद श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने भी इस ज्वलंत मसले पर आवाज़ उठाई थी लगभग बीस वर्ष पहले समाचार पत्रों में कुछ पाठकों ने 'सम्पादक के नाम पत्र ' जैसे वैचारिक स्तंभों में इस विषय पर विचार -विमर्श का एक रचनात्मक अभियान भी चलाया था. जिसकी शुरुआत पोस्टकार्ड पर मेरे लिखे हुए एक छोटे से पत्र से हुई थी. उसकी प्रतिक्रिया में कई पत्र छपे .ऐसे ही एक पत्र में महेश पालीवाल ने लिखा- ' अगर निर्माताओं द्वारा वस्तुओं में लागत मूल्य नहीं लिखा जाता , तो इसका साफ़ -साफ़ मतलब है कि उपभोक्ताओं के प्रति खुले आम बेईमानी की जा रही है'.सागर विश्वविद्यालय के छात्र समीर की प्रतिक्रिया थी-' वस्तुओं में विक्रय मूल्य तो अंकित किया जाता है ,लेकिन लागत मूल्य को गोपनीय रखना आम जनता के प्रति सरासर बेईमानी के सिवाय और कुछ नहीं .'
यह बात सही है कि उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रकर बाज़ार पहुँचने तक मज़दूरी भुगतान , परिवहन खर्च , और लोकल टैक्स आदि मिलाकर किसी वस्तु की कीमत तय होती है.कच्चे माल का खर्च भी उसमे जोड़ना पड़ता है . उस पर उत्पादक कंपनी और दुकानदार का मुनाफ़ा भी जुड़ता है. इन सबको जोड़कर किसी वस्तु का अगर अधिकतम खुदरा मूल्य तय किया जा सकता है और उसे वस्तु के पैकेट पर प्रिंट किया जा सकता है , तो लागत मूल्य तय करने और उसे अपने प्रोडक्ट में छापने में भला क्या दिक्कत है ? मुझे लगता है कि लागत मूल्य की गोपनीयता में ही कंपनियों के अधिकतम और अंधाधुंध मुनाफे का रहस्य छिपा है और यही राज़ है डायन की तरह आज की बढ़ती महंगाई का. देश में सूचना का अधिकार तो लागू हो गया है , अब देखना यह है कि उपभोक्ताओं को लागत मूल्य जानने का अधिकार कब मिलेगा ? आपका क्या कहना है ?
Sunday, September 19, 2010
परछाइयों की दौड़ है !
प्यार की मंजिल नहीं है तेरे शहर में
नादान कोई दिल नहीं है तेरे शहर में !
खून एक-दूजे का हर किसी के हाथ ,
कौन अब कातिल नहीं है तेरे शहर में !
नफरत की एक छोटी चिंगारी बहुत है,
बारूद कुछ मुश्किल नहीं है तेरे शहर में !
अब हवा में तैरती नहीं है बांसुरी ,
अपनों की महफ़िल नहीं है तेरे शहर में !
दूर तक परछाइयों की दौड़ है यहाँ
कुछ भी तो हासिल नहीं है तेरे शहर में !
इस शहर को गाँव की तरह बना सके ,
क्या कोई काबिल नहीं है तेरे शहर में !
स्वराज्य करुण
Saturday, September 18, 2010
आधी आबादी को भी बराबरी का अधिकार
लोकतंत्र में जनता के मूल्यवान मतों से चुनी हुई सरकारों का जनता के प्रति क्या फ़र्ज़ होता है, इसे देखना और समझना हो, तो आप छत्तीसगढ़ को देखें और यहाँ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण कार्य-शैली को समझने की कोशिश करें , जिन्होंने स्कूली बालिकाओं और आंगनबाडी कार्यकर्ताओं को मुफ्त सायकल देने की लोकप्रिय योजनाओं की सफल शुरुआत कर उन्हें कामयाबी के साथ अमलीजामा भी पहनाया . खेतिहर महिला श्रमिकों को खेतों में काम के समय बारिश में भीगने से बचाने के लिए निःशुल्क बरसाती (रेन-कोट ) देने की योजना शुरू की . अब उन्होंने भवन -निर्माण उद्योग में लगी महिला-मजदूरों के लिए निःशुल्क सायकल वितरण की योजना का आगाज़ किया है.यह महिलाओं को सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से ऊर्जावान बनाने के रमन सरकार के नेक इरादे की एक अनोखी झलक है. छत्तीसगढ़ में महिला-पुरुष जनसंख्या लगभग बराबरी पर है. राज्य में एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की आबादी 989 है ,जो केरल के बाद देश में दूसरे नंबर पर है. इसलिए भी छत्तीसगढ़ में महिलाओं को हर क्षेत्र में पुरुषों के सम-कक्ष अधिकार देकर विकास की मुख्य धारा में स्वाभिमान के साथ उनके समानांतर खड़े होने का अवसर दिया जा रहा है .
राज्य की आधी आबादी को शेष आधी आबादी की बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए पिछले करीब सात वर्ष में ऐसे कई शानदार कदम उठाए गए हैं, जिनसे महिला-सशक्तिकरण के लिए रमन-सरकार की वचनबद्धता का परिचय मिलता है मिसाल के तौर पर 9724 ग्राम-पंचायतों , 146 जनपद-पंचायतों और 18 जिला-पंचायतों में क्रमशः पंच-सरपंच , अध्यक्ष और सदस्य के चुनाव में उनके लिए पदों का आरक्षण तैतीस प्रतिशत से बढ़ा कर पचास प्रतिशत कर दिया गया है इसके उत्साहजनक नतीजे देखे गए..इस वर्ष इन तीनों श्रेणियों की पंचायतों के आम-चुनाव में डेढ़ लाख से ज्यादा पदों के लिए मतदान हुआ ,जिसमे आधे से अधिक याने कि करीब 86 हजार पदों पर महिलाएं काबिज़ हुईं ,जो आज गाँवों के विकास में निर्णायक -भूमिका में हैं . राज्य में महिलाओं के लगभग चौहत्तर हजार स्वयं-सहायता समूह हैं ,जिनमे साढ़े आठ लाख से ज्यादा महिलाएं सदस्य हैं . उनके द्वारा छोटी-छोटी बचतों के जरिए बैंकों में तिरेपन करोड़ रूपए से भी ज्यादा राशि की बचत की गयी है. उन्हें छत्तीसगढ़ महिला कोष से अपने समूह के लिए पचास हजार रूपए तक ऋण दिया जा रहा है . मात्र साढ़े छह प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर इन महिला समूहों को विभिन्न व्यवसायों के लिए ऋण मिल सकता है .सार्वजनिक वितरण प्रणाली की करीब साढ़े दस हजार उचित मूल्य दुकानों में से दो हजार 229 दुकानें महिला स्वयं-सहायता समूहों को सौंपी गयी है.यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि डेढ़ लाख से ज्यादा स्कूली-बालिकाओं और चौंतीस हजार से ज्यादा आँगन-बाड़ी कार्यकर्ताओं को मुफ्त सायकल देने के बाद अब महिला-श्रमिकों को निःशुल्क देने की योजना वाकई छत्तीसगढ़ की महिलाओं के जीवन में बदलाव की बयार ले कर आयी है .
अब ये कर्मवीर महिलाएं अपने कर्म-क्षेत्र में सायकल से आना-जाना करेंगी. इससे उनका समय बचेगा और वे काम खत्म होने के बाद जल्द -से-जल्द घर पहुँच सकेंगी.सायकल के पहिए उनके जीवन में विकास की गति बढ़ा कर उन्हें खुशहाली की ओर ले जाएँगे . इस योजना में महिलाओं को यह विकल्प भी दिया गया है कि अगर वे सायकल नहीं लेना चाहती हैं ,तो राज्य सरकार उन्हें निःशुल्क सिलाई -मशीन देगी ताकि वे कपड़े सिलकर अपने घर-परिवार के लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी हासिल कर सकें ..इसके लिए उन्हें सिलाई-प्रशिक्षण भी दिया जाएगा. डॉ. रमन सिंह की सरकार ने गरीबी-रेखा से ऊपर याने कि ए.पी .एल.श्रेणी के उन मेहनतकश मजदूरों को भी राष्ट्रीय स्वस्थ्य बीमा योजना में शामिल करने का फैसला किया है, जो असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं उन्हें इस बीमा योजना के तहत सरकारी और निजी क्षेत्र के पंजीकृत अस्पतालों में एक साल में अपने परिवार के लिए तीस हज़ार रूपए तक निःशुल्क इलाज की सुविधा मिलेगी. इसके लिए उन्हें स्मार्ट-कार्ड दिए जाएंगे. सूबे के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने राजधानी रायपुर में 17 सितम्बर को श्रम और सृजन के देवता भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती के मौके पर शहीद स्मारक भवन में हुए एक समारोह में दो सौ महिला-श्रमिकों को सायकल और असंगठित-क्षेत्र के मज़दूरों को स्वास्थय -बीमा योजना का स्मार्ट कार्ड देकर इन योजनाओं की शुरुआत कर दी.उन्होंने इस मौके पर भवन-निर्माण उद्योग में राज-मिस्त्री , प्लंबर , इलेक्ट्रीशियन जैसे कार्यों में लगे करीब ढाई सौ श्रमिकों को निःशुल्क औज़ार देकर राज्य के सभी ऐसे श्रमिकों के लिए मुफ्त औजार वितरण की योजना का भी शुभारम्भ किया.
मुख्यमंत्री ने यह भी ऐलान किया कि इस साल राज्य में भवन-निर्माण से जुड़े लगभग दस हजार मजदूरों को उनकी दक्षता बढ़ाने के लिए सरकारी खर्च पर दो-तीन माह का प्रशिक्षण दिलाया जाएगा . इस ट्रेनिंग में हर मजदूर पर दस हज़ार रूपए का खर्च प्रदेश सरकार देगी भगवान विश्वकर्मा की जयन्ती राज्य सरकार की पहल पर छत्तीसगढ़ श्रम दिवस के रूप में भी मनाई जाती है.ऐसे में श्रमिकों के हित में इस प्रकार की कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत के लिए इससे अच्छा दिन और क्या हो सकता था ? श्रम-दिवस के मौके पर छत्तीसगढ़ की श्रम-शक्ति को मुख्य मंत्री के हाथों सचमुच एक बड़ा सम्मान मिला है . इन योजनाओं के सकारात्मक नतीजे निश्चित रूप से ज़ल्द सामने आएँगे .यह कहने का ठोस आधार भी है . उदाहरण ले लीजिए . राज्य में हाई-स्कूल और हायर-सेकेंडरी स्कूल स्तर पर अनुसूचित-जातियों , जन-जातियों और गरीबी-रेखा श्रेणी की बालिकाओं को मुफ्त सायकल देने की योजना का सबसे अच्छा असर ये हुआ है कि स्कूलों में हमारी बेटियों की चहल-पहल एकदम से बढ़ गयी है .सवेरे और शाम छत्तीसगढ़ की इन बेटियों को झुण्ड के झुण्ड सायकलों से स्कूल आते-जाते देखना उनके माँ-बाप के साथ-साथ हम जैसे आम-नागरिकों के लिए भी सचमुच काफी सुकून भरा अनुभव होता है.कि हमारी बेटियाँ सायकल से स्कूल जा रही हैं ! बेटियाँ पढ़ेंगी , आगे बढेंगी और अपने घर -परिवार राज्य और देश का नाम रौशन करेंगी .यह सुकून भरा अनुभव पहले कहाँ था ?
पहले किसने सोचा था कि बढ़ती महंगाई के इस दौर में छत्तीसगढ़ के छत्तीस लाख से ज्यादा गरीब परिवारों को सिर्फ एक रूपए और दो रूपए किलो में हर महीने पैंतीस किलो के हिसाब से बेहद किफायती चावल मिलेगा . दो किलो नमक मुफ्त मिलेगा , किसानों को सिंचाई के लिए पांच हार्स पावर के पम्पों पर सालाना छह हज़ार यूनिट बिजली निःशुल्क मिलेगी, उन्हें खेती के लिए सहकारी समितियों से सिर्फ तीन प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर सबसे सस्ते क़र्ज़ की सुविधा मिलेगी, गरीब परिवारों के ह्रदय-रोग से पीड़ित बच्चों के दिलों के खर्चीले ऑपरेशन सरकारी खर्च पर होंगे , लाखों स्कूली बच्चों को पाठ्य पुस्तकें मुफ्त मिलेंगी, गाँव-गाँव में सड़कों का जाल बिछेगा, खेती के लिए सिंचाई-सुविधाओं का विस्तार होगा और सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में 11.49 की विकास दर के साथ छत्तीसगढ़ विकास की राह पर भारत के अन्य सभी राज्यों से काफी आगे निकल जाएगा . डॉ. रमन सिंह की सरकार ने जनता को यह सुकून भरा अहसास दिलाया.इसी कड़ी में भवन-निर्माण में लगी महिला-श्रमिकों के लिए मुफ्त सायकल की योजना और सायकल के विकल्प में सिलाई मशीन देने की पेशकश यह साबित करती है कि महिला-सशक्तिकरण की भावना को ज़मीन पर साकार करने की सार्थक पहल छत्तीसगढ़ में हो रही है. इस योजना के साथ-साथ प्रदेश के भवन-निर्माण श्रमिकों को निःशुल्क औजार वितरण और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में स्मार्ट कार्ड वितरण की शुरुआत से एक बार फिर मेहनतकश गरीबों के प्रति रमन सरकार की सामाजिक प्रतिबद्धता को साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है .
स्वराज्य करुण
राज्य की आधी आबादी को शेष आधी आबादी की बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए पिछले करीब सात वर्ष में ऐसे कई शानदार कदम उठाए गए हैं, जिनसे महिला-सशक्तिकरण के लिए रमन-सरकार की वचनबद्धता का परिचय मिलता है मिसाल के तौर पर 9724 ग्राम-पंचायतों , 146 जनपद-पंचायतों और 18 जिला-पंचायतों में क्रमशः पंच-सरपंच , अध्यक्ष और सदस्य के चुनाव में उनके लिए पदों का आरक्षण तैतीस प्रतिशत से बढ़ा कर पचास प्रतिशत कर दिया गया है इसके उत्साहजनक नतीजे देखे गए..इस वर्ष इन तीनों श्रेणियों की पंचायतों के आम-चुनाव में डेढ़ लाख से ज्यादा पदों के लिए मतदान हुआ ,जिसमे आधे से अधिक याने कि करीब 86 हजार पदों पर महिलाएं काबिज़ हुईं ,जो आज गाँवों के विकास में निर्णायक -भूमिका में हैं . राज्य में महिलाओं के लगभग चौहत्तर हजार स्वयं-सहायता समूह हैं ,जिनमे साढ़े आठ लाख से ज्यादा महिलाएं सदस्य हैं . उनके द्वारा छोटी-छोटी बचतों के जरिए बैंकों में तिरेपन करोड़ रूपए से भी ज्यादा राशि की बचत की गयी है. उन्हें छत्तीसगढ़ महिला कोष से अपने समूह के लिए पचास हजार रूपए तक ऋण दिया जा रहा है . मात्र साढ़े छह प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर इन महिला समूहों को विभिन्न व्यवसायों के लिए ऋण मिल सकता है .सार्वजनिक वितरण प्रणाली की करीब साढ़े दस हजार उचित मूल्य दुकानों में से दो हजार 229 दुकानें महिला स्वयं-सहायता समूहों को सौंपी गयी है.यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि डेढ़ लाख से ज्यादा स्कूली-बालिकाओं और चौंतीस हजार से ज्यादा आँगन-बाड़ी कार्यकर्ताओं को मुफ्त सायकल देने के बाद अब महिला-श्रमिकों को निःशुल्क देने की योजना वाकई छत्तीसगढ़ की महिलाओं के जीवन में बदलाव की बयार ले कर आयी है .
अब ये कर्मवीर महिलाएं अपने कर्म-क्षेत्र में सायकल से आना-जाना करेंगी. इससे उनका समय बचेगा और वे काम खत्म होने के बाद जल्द -से-जल्द घर पहुँच सकेंगी.सायकल के पहिए उनके जीवन में विकास की गति बढ़ा कर उन्हें खुशहाली की ओर ले जाएँगे . इस योजना में महिलाओं को यह विकल्प भी दिया गया है कि अगर वे सायकल नहीं लेना चाहती हैं ,तो राज्य सरकार उन्हें निःशुल्क सिलाई -मशीन देगी ताकि वे कपड़े सिलकर अपने घर-परिवार के लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी हासिल कर सकें ..इसके लिए उन्हें सिलाई-प्रशिक्षण भी दिया जाएगा. डॉ. रमन सिंह की सरकार ने गरीबी-रेखा से ऊपर याने कि ए.पी .एल.श्रेणी के उन मेहनतकश मजदूरों को भी राष्ट्रीय स्वस्थ्य बीमा योजना में शामिल करने का फैसला किया है, जो असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं उन्हें इस बीमा योजना के तहत सरकारी और निजी क्षेत्र के पंजीकृत अस्पतालों में एक साल में अपने परिवार के लिए तीस हज़ार रूपए तक निःशुल्क इलाज की सुविधा मिलेगी. इसके लिए उन्हें स्मार्ट-कार्ड दिए जाएंगे. सूबे के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने राजधानी रायपुर में 17 सितम्बर को श्रम और सृजन के देवता भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती के मौके पर शहीद स्मारक भवन में हुए एक समारोह में दो सौ महिला-श्रमिकों को सायकल और असंगठित-क्षेत्र के मज़दूरों को स्वास्थय -बीमा योजना का स्मार्ट कार्ड देकर इन योजनाओं की शुरुआत कर दी.उन्होंने इस मौके पर भवन-निर्माण उद्योग में राज-मिस्त्री , प्लंबर , इलेक्ट्रीशियन जैसे कार्यों में लगे करीब ढाई सौ श्रमिकों को निःशुल्क औज़ार देकर राज्य के सभी ऐसे श्रमिकों के लिए मुफ्त औजार वितरण की योजना का भी शुभारम्भ किया.
मुख्यमंत्री ने यह भी ऐलान किया कि इस साल राज्य में भवन-निर्माण से जुड़े लगभग दस हजार मजदूरों को उनकी दक्षता बढ़ाने के लिए सरकारी खर्च पर दो-तीन माह का प्रशिक्षण दिलाया जाएगा . इस ट्रेनिंग में हर मजदूर पर दस हज़ार रूपए का खर्च प्रदेश सरकार देगी भगवान विश्वकर्मा की जयन्ती राज्य सरकार की पहल पर छत्तीसगढ़ श्रम दिवस के रूप में भी मनाई जाती है.ऐसे में श्रमिकों के हित में इस प्रकार की कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत के लिए इससे अच्छा दिन और क्या हो सकता था ? श्रम-दिवस के मौके पर छत्तीसगढ़ की श्रम-शक्ति को मुख्य मंत्री के हाथों सचमुच एक बड़ा सम्मान मिला है . इन योजनाओं के सकारात्मक नतीजे निश्चित रूप से ज़ल्द सामने आएँगे .यह कहने का ठोस आधार भी है . उदाहरण ले लीजिए . राज्य में हाई-स्कूल और हायर-सेकेंडरी स्कूल स्तर पर अनुसूचित-जातियों , जन-जातियों और गरीबी-रेखा श्रेणी की बालिकाओं को मुफ्त सायकल देने की योजना का सबसे अच्छा असर ये हुआ है कि स्कूलों में हमारी बेटियों की चहल-पहल एकदम से बढ़ गयी है .सवेरे और शाम छत्तीसगढ़ की इन बेटियों को झुण्ड के झुण्ड सायकलों से स्कूल आते-जाते देखना उनके माँ-बाप के साथ-साथ हम जैसे आम-नागरिकों के लिए भी सचमुच काफी सुकून भरा अनुभव होता है.कि हमारी बेटियाँ सायकल से स्कूल जा रही हैं ! बेटियाँ पढ़ेंगी , आगे बढेंगी और अपने घर -परिवार राज्य और देश का नाम रौशन करेंगी .यह सुकून भरा अनुभव पहले कहाँ था ?
पहले किसने सोचा था कि बढ़ती महंगाई के इस दौर में छत्तीसगढ़ के छत्तीस लाख से ज्यादा गरीब परिवारों को सिर्फ एक रूपए और दो रूपए किलो में हर महीने पैंतीस किलो के हिसाब से बेहद किफायती चावल मिलेगा . दो किलो नमक मुफ्त मिलेगा , किसानों को सिंचाई के लिए पांच हार्स पावर के पम्पों पर सालाना छह हज़ार यूनिट बिजली निःशुल्क मिलेगी, उन्हें खेती के लिए सहकारी समितियों से सिर्फ तीन प्रतिशत वार्षिक ब्याज पर सबसे सस्ते क़र्ज़ की सुविधा मिलेगी, गरीब परिवारों के ह्रदय-रोग से पीड़ित बच्चों के दिलों के खर्चीले ऑपरेशन सरकारी खर्च पर होंगे , लाखों स्कूली बच्चों को पाठ्य पुस्तकें मुफ्त मिलेंगी, गाँव-गाँव में सड़कों का जाल बिछेगा, खेती के लिए सिंचाई-सुविधाओं का विस्तार होगा और सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में 11.49 की विकास दर के साथ छत्तीसगढ़ विकास की राह पर भारत के अन्य सभी राज्यों से काफी आगे निकल जाएगा . डॉ. रमन सिंह की सरकार ने जनता को यह सुकून भरा अहसास दिलाया.इसी कड़ी में भवन-निर्माण में लगी महिला-श्रमिकों के लिए मुफ्त सायकल की योजना और सायकल के विकल्प में सिलाई मशीन देने की पेशकश यह साबित करती है कि महिला-सशक्तिकरण की भावना को ज़मीन पर साकार करने की सार्थक पहल छत्तीसगढ़ में हो रही है. इस योजना के साथ-साथ प्रदेश के भवन-निर्माण श्रमिकों को निःशुल्क औजार वितरण और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में स्मार्ट कार्ड वितरण की शुरुआत से एक बार फिर मेहनतकश गरीबों के प्रति रमन सरकार की सामाजिक प्रतिबद्धता को साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है .
स्वराज्य करुण
Friday, September 17, 2010
गीत
युद्ध के मैदान में !
, आंसुओं की वृष्टि है और दुखों की सृष्टि है ,
तुम मेरी करुणा हो सुनो युद्ध के मैदान में !
संघर्ष है कठिन बहुत
जीवन -मरण का प्रश्न है.
इस तरफ मायूसियाँ
उस ओर खूब जश्न है !
वेदनाएं रिसती हैं , आंसुओं की वृष्टि है ,
सितारों के नम हैं नयन नीले आसमान में !
गांव हैं सुनसान और
शून्य हैं पगडंडियां.
जीवन की भाग-दौड़ में
सपनों की बिकती मंडियां !
हर तरफ अंधेरी दृष्टि है , और दुखों की सृष्टि है,
तुम्हीं तो हो आशा का नया सूर्य इस विहान में !
स्वराज्य करुण
.
Thursday, September 16, 2010
हरियाली के हत्यारों की अब खैर नहीं !
हरियाली के हत्यारों को अब सावधान हो जाना चाहिए . उनकी पर्यावरण-विरोधी हरकतों पर अब जनता और भी ज्यादा पैनी नज़र रखेगी .हरियर छत्तीसगढ़ वृक्षारोपण महाभियान के प्रणेता, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने प्रदेश की जनता को यह अधिकार दिया है . उन्होंने राजधानी रायपुर में वन-विभाग के मुख्यालय ' अरण्य-भवन ' में एक निः शुल्क कॉल-सेंटर ' खुलवाया है ,जहां राज्य के किसी भी इलाके से कोई भी नागरिक टोल-फ्री टेलीफोन नंबर 1800-233-8888 डायल कर पेड़-पौधों और वनों के खिलाफ होने वाले किसी भी अपराध की सूचना तुरंत दे सकेगा .वन्य-प्राणियों के अवैध शिकार की जानकारी भी इस नंबर पर दी जा सकेगी.ऐसी सूचनाओं पर फ़ौरन जांच होगी और दोषी लोगों पर कार्रवाई की जाएगी . अब छत्तीसगढ़ भारत का पहला ऐसा राज्य है , जहां वनों और वन्य-प्राणियों की रक्षा के लिए निःशुल्क कॉल-सेंटर खोल कर आम-जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है . वन-मंत्री श्री विक्रम उसेंडी ने कल 15 सितम्बर की शाम 'अरण्य-भवन' में इस निःशुल्क कॉल-सेंटर का शुभारम्भ किया. जो 16 सितम्बर से हर शासकीय कार्य-दिवस में सवेरे 10.30 बजे से शाम 5.30 बजे तक चालू रहेगा .
मुख्यमंत्री को इस वर्ष विगत नौ जनवरी को छत्तीसगढ़ राज्य कर्मचारी संघ के प्रतिनिधि-मंडल ने रायपुर में उनके घर पर नए साल की सौजन्य-मुलाक़ात के दौरान एक ज्ञापन सौंप कर यह सुझाव दिया था कि पेड़-पौधों और वनों की रक्षा के लिए ऐसा कॉल -सेंटर खोला जाना चाहिए , जहां हरियाली बचाने के लिए आम-जनता की ओर से वन-विभाग को उपयोगी सूचनाएं तुरंत मिल सके.सार्वजनिक-वितरण प्रणाली के तहत राशन-दुकानों पर निगाह रखने के लिए जनता को निःशुल्क कॉल-सेंटर की सुविधा देने वाला पहला राज्य भी छत्तीसगढ़ है ,जहां डॉ. रमन सिंह द्वारा प्रारम्भ यह कॉल-सेंटर पिछले करीब पौने तीन साल से चल रहा है .इसके बेहतर नतीजे आए हैं . सरकारी राशन की अवैध निकासी की अब कोई हिमाकत नहीं कर सकता, क्योंकि जनता सब देख रही है और संचार-क्रांति ने आज लगभग हर तीसरे-चौथे व्यक्ति के हाथों में मोबाइल-फोन थमा दिया है. राशन समय पर नहीं पहुंचे ,या फिर उसकी अवैध-निकासी की भनक लगे , तो कोई भी नागरिक निःशुल्क कॉल-सेंटर को फोन पर खबर दे सकता है . इसके फलस्वरूप अब छत्तीसगढ़ में राशन-वितरण में शिकायतें काफी कम हो गयी है . इसी कड़ी में वनों की रक्षा के लिए कॉल-सेंटर खोलने का सुझाव मुख्यमंत्री को काफी पसंद आया .उन्होंने वन-विभाग को इस दिशा में ज़रूरी कार्रवाई के निर्देश दिए और जनता को यह सुविधा मिल गयी .
बिगड़ता पर्यावरण आज सभी लोगों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है.ग्लोबल-वार्मिंग की गंभीर चुनौती दुनिया के सामने है. औद्योगिक -प्रदूषण का धुआं हमारे प्राण-वायु ऑक्सीजन को लगातार सोख रहा है . इसमें दो राय नहीं कि पर्यावरण को बचाने में हरियाली की सबसे बड़ी भूमिका होती है और हरियाली के लिए पेड़-पौधों का होना बहुत ज़रूरी है,जो हमें बादल और वर्षा के साथ-साथ भरपूर ऑक्सीजन भी देते हैं . ऐसे में पेड़-पौधों को बचाना और अपने परिवार के सदस्यों की तरह उनकी देख-भाल करना हम सबकी ज़िम्मेदारी बनती है. इसी नेक इरादे से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने जनता को निःशुल्क कॉल सेंटर की एक महत्वपूर्ण सुविधा दी है .उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका भरपूर लाभ छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश को और आगे चल कर पूरी दुनिया को मिलेगा . इस जन-कल्याणकारी पहल के लिए मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद .
- स्वराज्य करुण
मुख्यमंत्री को इस वर्ष विगत नौ जनवरी को छत्तीसगढ़ राज्य कर्मचारी संघ के प्रतिनिधि-मंडल ने रायपुर में उनके घर पर नए साल की सौजन्य-मुलाक़ात के दौरान एक ज्ञापन सौंप कर यह सुझाव दिया था कि पेड़-पौधों और वनों की रक्षा के लिए ऐसा कॉल -सेंटर खोला जाना चाहिए , जहां हरियाली बचाने के लिए आम-जनता की ओर से वन-विभाग को उपयोगी सूचनाएं तुरंत मिल सके.सार्वजनिक-वितरण प्रणाली के तहत राशन-दुकानों पर निगाह रखने के लिए जनता को निःशुल्क कॉल-सेंटर की सुविधा देने वाला पहला राज्य भी छत्तीसगढ़ है ,जहां डॉ. रमन सिंह द्वारा प्रारम्भ यह कॉल-सेंटर पिछले करीब पौने तीन साल से चल रहा है .इसके बेहतर नतीजे आए हैं . सरकारी राशन की अवैध निकासी की अब कोई हिमाकत नहीं कर सकता, क्योंकि जनता सब देख रही है और संचार-क्रांति ने आज लगभग हर तीसरे-चौथे व्यक्ति के हाथों में मोबाइल-फोन थमा दिया है. राशन समय पर नहीं पहुंचे ,या फिर उसकी अवैध-निकासी की भनक लगे , तो कोई भी नागरिक निःशुल्क कॉल-सेंटर को फोन पर खबर दे सकता है . इसके फलस्वरूप अब छत्तीसगढ़ में राशन-वितरण में शिकायतें काफी कम हो गयी है . इसी कड़ी में वनों की रक्षा के लिए कॉल-सेंटर खोलने का सुझाव मुख्यमंत्री को काफी पसंद आया .उन्होंने वन-विभाग को इस दिशा में ज़रूरी कार्रवाई के निर्देश दिए और जनता को यह सुविधा मिल गयी .
बिगड़ता पर्यावरण आज सभी लोगों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है.ग्लोबल-वार्मिंग की गंभीर चुनौती दुनिया के सामने है. औद्योगिक -प्रदूषण का धुआं हमारे प्राण-वायु ऑक्सीजन को लगातार सोख रहा है . इसमें दो राय नहीं कि पर्यावरण को बचाने में हरियाली की सबसे बड़ी भूमिका होती है और हरियाली के लिए पेड़-पौधों का होना बहुत ज़रूरी है,जो हमें बादल और वर्षा के साथ-साथ भरपूर ऑक्सीजन भी देते हैं . ऐसे में पेड़-पौधों को बचाना और अपने परिवार के सदस्यों की तरह उनकी देख-भाल करना हम सबकी ज़िम्मेदारी बनती है. इसी नेक इरादे से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने जनता को निःशुल्क कॉल सेंटर की एक महत्वपूर्ण सुविधा दी है .उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका भरपूर लाभ छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश को और आगे चल कर पूरी दुनिया को मिलेगा . इस जन-कल्याणकारी पहल के लिए मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद .
- स्वराज्य करुण
भूल गए सब गाँव की दुनिया !
पाँव -पाँव कांटे ही कांटे ,
गाँव-गली की धूल नहीं है ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है !
भूल गए सब गाँव की दुनिया
पीपल, पनघट, छाँव की दुनिया
दौड़ आए हैं दूर-दूर तक ,
मिली नहीं सदभाव की दुनिया !
यह कैसी बगिया है जिसमे
तितली ,भौरें ,फूल नहीं हैं ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है .!
चीख रही है जाने कब से
बेगानों के बीच ज़िन्दगी ,
इंसानों को ढूंढ रही है
इंसानों के बीच ज़िन्दगी !
चेहरों के बहते समंदर में देखो
जहाज़ों पर मस्तूल नहीं है ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है !
- स्वराज्य करुण
गाँव-गली की धूल नहीं है ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है !
भूल गए सब गाँव की दुनिया
पीपल, पनघट, छाँव की दुनिया
दौड़ आए हैं दूर-दूर तक ,
मिली नहीं सदभाव की दुनिया !
यह कैसी बगिया है जिसमे
तितली ,भौरें ,फूल नहीं हैं ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है .!
चीख रही है जाने कब से
बेगानों के बीच ज़िन्दगी ,
इंसानों को ढूंढ रही है
इंसानों के बीच ज़िन्दगी !
चेहरों के बहते समंदर में देखो
जहाज़ों पर मस्तूल नहीं है ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है !
- स्वराज्य करुण
Wednesday, September 15, 2010
सब कुछ गायब !
बच्चों की मुस्कान है गायब ,
फूलों की पहचान है गायब !
दुनिया की भीड़ भरी बस्ती में,
हैं लोग बहुत, इंसान है गायब !
सीने में तलवार घोंप कर,
हाथों के निशान हैं गायब !
चिकने-चौड़े राज-पथों पर ,
सच का तो सम्मान है गायब !
भोगी अब भगवान हो गया ,
रोगी के पंछी -प्राण हैं गायब !
गाँव उजड़े , नगर बस गए ,
भूमि-पुत्र नादान हैं गायब !
मन की बात कहूं भी कैसे ,
मन का तो मेहमान है गायब !
-स्वराज्य करुण
फूलों की पहचान है गायब !
दुनिया की भीड़ भरी बस्ती में,
हैं लोग बहुत, इंसान है गायब !
सीने में तलवार घोंप कर,
हाथों के निशान हैं गायब !
चिकने-चौड़े राज-पथों पर ,
सच का तो सम्मान है गायब !
भोगी अब भगवान हो गया ,
रोगी के पंछी -प्राण हैं गायब !
गाँव उजड़े , नगर बस गए ,
भूमि-पुत्र नादान हैं गायब !
मन की बात कहूं भी कैसे ,
मन का तो मेहमान है गायब !
-स्वराज्य करुण
ये कैसी हवा चली !
देखो दबे पांव चल रही हवा ,
इधर-उधर कहीं उछल रही हवा !
सूरज के सामने है रोशनी का संकट ,
अँधेरे की आग में जल रही हवा !
बादलों की बांहों में कहीं रो रही ,
धरती की गोद में मचल रही हवा !
कभी अनुकूल, तो कभी प्रतिकूल है ,
बार- बार दल बदल रही हवा !
- स्वराज्य करुण
इधर-उधर कहीं उछल रही हवा !
सूरज के सामने है रोशनी का संकट ,
अँधेरे की आग में जल रही हवा !
बादलों की बांहों में कहीं रो रही ,
धरती की गोद में मचल रही हवा !
कभी अनुकूल, तो कभी प्रतिकूल है ,
बार- बार दल बदल रही हवा !
- स्वराज्य करुण