Tuesday, June 21, 2022

छत्तीसगढ़ के दिवंगत कवि मधु धान्धी



छत्तीसगढ़ के दिवंगत कवि मधु धान्धी का आज जन्म दिन है।  उन्हें विनम्र नमन । उनके जन्म दिन की पूर्व संध्या पर कल राजधानी रायपुर के दैनिक ' चैनल इंडिया में उनके काव्य सृजन पर प्रकाशित मेरा आलेख ---


 

Sunday, June 19, 2022

छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के युग प्रवर्तक साहित्यकार पण्डित माधवराव सप्रे

(जयंती 19 जून पर विशेष )

आलेख --स्वराज्य करुण

सच्चाई की धार पर चलने वाली पत्रकारिता का रास्ता हमेशा से ही काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। देश और समाज की भलाई के लिए उच्च आदर्शो के साथ किसी पत्र – पत्रिका के सम्पादन और प्रकाशन में कितनी दिक्कतें आती हैं, इसे पण्डित माधवराव सप्रे जैसे मनीषी पत्रकार की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा से समझा जा सकता है।  उन्होंने 122 साल पहले वर्ष सन 1900 में छत्तीसगढ़ के पेण्ड्रा (जिला -बिलासपुर) जैसे छोटे कस्बे में  ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के रूप में इस प्रदेश के लिए पत्रकारिता की बुनियाद रखी, जिसे हम यहाँ निरंतर विकसित हो रही पत्रकारिता की गंगोत्री भी कह सकते हैं। वह छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के युग प्रवर्तक थे। इस प्रदेश की पत्रकारिता का युग सप्रेजी से शुरू होता है। वह अपने दौर के बड़े साहित्यकार भी थे। इसलिए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में साहित्य और पत्रकारिता का अनोखा समन्वय देखा जा सकता है।

आम तौर पर दैनिक अख़बारों में समाचारों की प्रधानता होती है, जबकि साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक कालखंडों में प्रकाश्य अथवा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं को वैचारिक प्रकाशन माना जाता है। इनमें चिन्तन प्रधान लेखों, कहानियों, कविताओं आदि से परिपूर्ण साहित्यिक रचनाओं का भी  समावेश रहता है। इस दृष्टि से हम ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ को एक वैचारिक और साहित्यिक पत्रिका भी मान सकते हैं और सप्रे जी को एक साहित्यिक पत्रकार। उनके द्वारा रचित ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है।
वह भारत में अंग्रेजी हुकूमत का दौर था। मुद्रण तकनीक अपने बाल्यकाल से गुज़र रही थी। आज की तरह कम्प्यूटर आधारित अत्याधुनिक छपाई मशीनें तब नहीं होती थीं। रेडियो और टेलीविजनका ज़माना नहीं था। इंटरनेट जैसे संचार नेटवर्क के होने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था। तब ऐसे समय में साधन-संसाधन विहीन इस बेहद पिछड़े इलाके से हिन्दी में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का  प्रकाशन प्रारंभ होते ही देश के हिन्दी संसार में हलचल मच गई। इसके प्रकाशक थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वामन राव लाखे, जिनके नाम पर आज रायपुर में एक सरकारी हायरसेकंडरी स्कूल के साथ-साथ लाखेनगर भी है। यहाँ सप्रे जी के नाम पर माधवराव सप्रे शासकीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल भी दशकों से चल रहा है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय का संचालन वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर द्वारा विगत 38 वर्षों से  किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने सप्रे जी के सम्मान में पण्डित माधवराव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता सम्मान निधि की भी स्थापना की है।

जीवन यात्रा

सप्रे जी का जन्म मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला -दमोह)में 19 जून 1871 को और निधन 23 अप्रैल 1926 को छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मिडिल स्कूल तक बिलासपुर में और एंट्रेंस (हाई स्कूल ) तक रायपुर में हुई। उच्च शिक्षा उन्होंने कॉलेज शिक्षा जबलपुर, ग्वालियर और नागपुर में प्राप्त की। नागपुर के हिस्लाप कॉलेज से बी.ए. उत्तीर्ण होने के बाद वह 1899 में पेण्ड्रा में स्थानीय राजकुमार के शिक्षक बने। बीसवीं सदी के उस प्रारंभिक दौर में भारत में स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय तथा सामाजिक पुनर्जागरण की लहर चल रही थी। उन्हीं दिनों 29 वर्षीय सप्रे जी ने पेण्ड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का सम्पादन करते हुए छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की भी बुनियाद रखी। सप्रे जी के साथ पण्डित रामराव चिंचोलकर भी इसके सम्पादक थे। रामराव जी उनके मित्र और सहपाठी थे। इसका पहला अंक जनवरी 1900 में प्रकाशित हुआ था। सप्रे जी पत्रिका के व्यवस्थापक भी थे। वह इस पत्रिका को ‘पुस्तक’ कहा करते थे। पत्रिका का मुद्रण रायपुर और नागपुर के प्रिंटिंग प्रेसों में कराया जाता था।

हिन्दी भाषा की उन्नति और विद्यार्थियों की सहायता का उद्देश्य

उन्होंने प्रथम अंक में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की चौदह सूत्रीय नियमावली भी प्रकाशित की थी, जिसमें पत्रिका प्रकाशन के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया था। नियमावली के कुछ बिन्दुओं को देखिए -(1) यह मासिक पुस्तक शुद्ध, सरल हिन्दी भाषा में हर महीने की आखिरी तारीख़ को, जिले रायपुर, मध्यप्रदेश से प्रसिद्ध होती है। (2)राज्य प्रकरण तथा वादग्रस्त धर्म विषयों को छोड़कर, साहित्य तथा शास्त्र के विषयों का इसमें समावेश किया जाएगा। (3)छत्तीसगढ़ विभाग में विद्या की वृद्धि करने के लिये, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुँचाने के लिये  और हिन्दी भाषा  की उन्नति के लिये, यथमति, यथाशक्ति तन, मन, धन से प्रयत्न करना-यही इस पुस्तक के प्रकाशकों का मूल उद्देश्य है। (4)उपरोक्त उद्देश्य सिद्ध करने हेतु छत्तीसगढ़ के विद्यार्थियों को स्कालरशिप दी जायेगी दी जायेगी और ग्रंथकारों को द्रव्य द्वारा उत्तेजन दिया जायेगा। इस विषय के खुलासेवार नियम अभी बन रहे हैं। ग्राहकों तथा आश्रयदाताओं का उत्साह देखकर प्रथम वर्ष के अनुभव के पश्चात प्रकट किये जावेंगे। सम्प्रति इस पुस्तक का अग्रिम (अगाऊ) वार्षिक मूल्य डाक महसूल सहित केवल डेढ़ रुपया ही नियत किया गया है। बिंदु (6)- राजा, महाराजा, श्रीमान जमींदारों से उनके सम्मानार्थ 5 रूपये वार्षिक मूल्य। (7)सभा, पुस्तकालय और विद्यार्थियों से अग्रिम वार्षिक मूल्य केवल सवा रुपया और (8) -छत्तीसगढ़ विभाग के सब हिन्दी पाठशालाओं के अध्यापक तथा छात्र वर्गों से केवल एक रूपया वार्षिक मूल्य।

इन बिंदुओं के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन हिन्दी भाषा की उन्नति और छत्तीसगढ़ विभाग यानी तत्कालीन छत्तीसगढ़ अंचल (वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य) में साहित्य और विशेष रूप से शिक्षा के प्रसार का एक पवित्र ध्येय लेकर प्रारंभ किया गया था। लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण सिर्फ़ 36 अंक प्रकाशित हो पाए और  तीन साल में  (दिसम्बर 1902 में)  प्रकाशन बंद करना पड़ गया। सप्रेजी तथा उनके सहयोगियों के अनेक रचनात्मक सपने अधूरे रह गए। 

साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रति समाज में उन दिनों भी थी उदासीनता

साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं के प्रति समाज के सम्पन्न और समर्थ वर्ग में उदासीनता उन दिनों भी हुआ करती थी। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय रायपुर ने वर्ष 2010 में  ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रथम वर्ष 1900 में छपे 12 अंकों का संकलन एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था। इसमें पत्रिका के प्रत्येक अंक में छपे लेख आदि विस्तार से यथावत दिये गए हैं। परिशिष्ट में ‘ग्राहकों को सूचना’ शीर्षक से व्यवस्थापक यानी सप्रे जी का एक पत्र भी छपा है। ग्राहकों के नाम इस सूचना में उन्होंने लिखा था –

 -“आज पांच महीने से ‘छत्तीसगढ़ मित्र ‘आपकी सेवा कर रहा है। यह काम सर्वथैव द्रव्य द्वारा साध्य है। हमने अपने कई मित्रों को इस आशा से पुस्तकें भेजीं कि वे इसको निज कार्य समझ अवश्य सहाय होंगे। पर अब खेदपूर्वक लिखना पड़ा कि हमारी सब आशा निरर्थक हुई। कई लोगों ने तो यह कहकर अंक लौटा दिया कि हमारे पास और भी दूसरे पत्र आया करते हैं -हमें फुरसत नहीं है और कई लोगों ने यह कहकर कि यह तो मासिक पुस्तक है, समाचार पत्र होता तो लेते। इसी तरह कुछ न कुछ बहाना बनाकर किसी ने पहिला, किसी ने दूसरा, किसी ने तीसरा और चौथा अंक वापस कर दिया है। जिन लोगो ने मित्र को आश्रय देने के भय से अंक लौटा दिये हैं, उनसे हमारा कुछ भी कहना नहीं है। पर जिन महानुभावों के पास से एक भी अंक लौट कर नहीं आया उनसे हमारी यही विनती है कि आप कृपापूर्वक ‘मित्र’  की न्योछावर शीघ्र भेज दीजिए। हम आशा करते हैं कि छत्तीसगढ़ विभाग के राजा, महाराजा, श्रीमान, जमींदार तथा सर्वसाधारण लोग और अन्यान्य प्रदेशों के सभ्य महोदय, जिनके पास “छत्तीसगढ़ मित्र ” भेजा गया है, शीघ्र ही अपनी-अपनी उदारता प्रगट कर हमें द्रव्य की सहायता देवेंगे। उनके सत्कार्य से ‘मित्र’ को अपना कर्त्तव्य कर्म करने के लिए द्विगुणित अधिक उत्साह प्राप्त होगा ।आप तो स्वयं विचारवान हैं। आपके लिये इतनी ही सूचना बहुत है ।”

सप्रे जी की इस अपील का बहुत ज़्यादा असर नहीं हुआ और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन बन्द करने के अलावा उनके सामने और कोई उपाय भी नहीं था। उनकी इस सूचनात्मक अपील से यह भी पता चलता है कि साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आर्थिक मोर्चे पर हमेशा  संघर्ष करना पड़ता है ।  आज से एक शताब्दी पहले की साहित्यिक पत्रकारिता में यह संघर्ष और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हुआ करता था।

ऐसा था हमारा ‘छत्तीसगढ़ मित्र’

 ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रत्येक अंक में सामाजिक, शैक्षणिक और साहित्यिक विषयों पर विद्वानों के लेख आदि प्रकाशित किए जाते थे। प्रेरक प्रसंगों का भी समावेश होता था। विभिन्न सामाजिक आयोजनों और समाज में घटित घटनाओं के संक्षिप्त समाचार भी छापे जाते थे। प्रथम अंक जनवरी 1900 में रायपुर में 16 तारीख़ को आयोजित कायस्थ सभा के प्रथम वार्षिकोत्सव का समाचार भी छपा हैl पत्रिका के इस प्रवेशांक में अंक में ‘आत्म परिचय’ के अंतर्गत पत्रिका प्रकाशन के उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा ‘भाषा में ग्रंथ लेखन की आवश्यकता’ शीर्षक एक आलेख में तत्कालीन समाज में हिन्दी भाषा में ग्रंथों (पुस्तकों ) की कमी होने पर चिन्ता प्रकट की गई है। प्रेस के मैनेजर गफ़्फ़ार साहिब के बीमार हो जाने के कारण मार्च-अप्रैल 1900 का अंक संयुक्तांक के रूप में प्रकाशित करना पड़ा था। इसकी सूचना भी प्रकाशित की गई है। पत्रिका में ‘सुभाषित रत्न’ शीर्षक से संस्कृत ग्रंथों के श्लोक उनके हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित किए जाते थे, वहीं ‘प्रेरित पत्र’ के अंतर्गत पाठकों के पत्र भी छापे जाते थे। देश के विभिन्न राज्यों में  ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की ख्याति पहुँची तो अनेक पुस्तकें और पत्रिकाएँ भी इसमें समीक्षा और चर्चा के लिए आने लगीं। उनका उल्लेख ‘पुस्तक प्राप्ति’ कॉलम में किया जाता था। इसी तरह ‘प्रेरित पत्र’ स्तंभ में सम्पादक के नाम विभिन्न विषयों पर पाठकों से आने वाले पत्र प्रकाशित किए जाते थे, इस डिस्क्लेमर के साथ कि ‘पत्र प्रेरकों के मत के लिए सम्पादक जवाबदार नहीं है ।

 सौ साल पहले भी शहर में होती थी पेयजल समस्या

जुलाई 1900 के अंक में रायपुर के किन्हीं सतपाल जी का पत्र छपा है। उन्होंने 25 जुलाई 1900 के अपने इस पत्र में जहाँ रायपुर में ‘सरस्वती भुवन’ पुस्तकालय के लिए शुभ मुहूर्त किए जाने की जानकारी दी है, वहीं शहर की पेयजल समस्या का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं –“खेद की बात है कि करीब एक महीने से अधिक दिन हो गये, शहर के सब नल बन्द रहते हैं। सिर्फ़ शाम सबेरे दो घंटे पानी मिलता है। कई नलों में बहुत देरी से सबेरे पानी आता है। इस आपत्ति से धर्मिष्ठ लोगों के प्रातः स्नान में विघ्न हुआ। बेचारे पथिक लोग दोपहर के समय नलों को ऐंठते रह जाते हैं। पानी नहीं मिलता।”

रसीले समाचारों की मांग करते थे पाठक

हालांकि पत्रिका घाटे में चल रही थी, फिर भी सप्रे जी के कुशल सम्पादन में यह पत्रिका इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि पाठकगण इसे साप्ताहिक बनाने की मांग करने लगे। कुछ पाठक पत्रिका की विषय वस्तु से सहमत नहीं थे और इसमें रसीले समाचारों की मांग करते थे। मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित पुस्तक ‘माधवराव सप्रे :व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ में लेखक संतोष कुमार शुक्ल ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के सम्पादक को मिले एक पाठक के मज़ेदार पत्र का उल्लेख किया है। यह पत्र ‘छत्तीसगढ़ी’ नामक किसी पाठक ने व्यंग्यात्मक लहज़े में लिखा था। शुक्ल जी के अनुसार सप्रेजी की साहित्य, भाषा और पत्रकारिता के प्रति मौलिक आस्था थी। वे यह समझे थे कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र से साहित्यिक पत्र निकालकर जीवित रखना आसान न होगा। फिर भी उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के स्वरूप में परिवर्तन नहीं किया। उन्हें सुझावात्मक अनेक पत्र भी प्राप्त हो रहे थे।

अजी, एडिटर साहेब, सुन लीजिये,  हमारी सलाह बहुत अच्छी है ….

शुक्ल जी की उपरोक्त पुस्तक के अनुसार एक छत्तीसगढ़ निवासी ने तो बड़ा कड़ा पत्र लिखा –” अब जो हो, हम साफ कहते हैं कि हमें तुम्हारे पत्र की चाह नहीं है। डेढ़ रूपये मुफ़्त में देना पड़ता है। हाँ, अगर आप हमारी सलाह सुनें तो अलबत्ते हम आपके ग्राहक हो सकते है और कई जुटा भी दे सकते हैं। सलाह और कुछ नहीं है। बस यही है कि आप अपने पत्र को साप्ताहिक कर दीजिए, शिक्षा और साहित्य की शुष्क बातों को छोड़कर मसालेदार लड़ाई की ख़बरें सुनाइए, रसीले समाचारों से पत्र का कलेवर पूर्ण कीजिए, समस्यापूर्ति के दस, पांच कालम भर दीजिए, विविध रसयुक्त, श्रृंगार रस प्रधान, अद्भुत घटनामय ऊट पटांग उपन्यासों की भरमार रखिए और बात -बात में सम्पादकों से लड़ते रहिये। यदि यह न हो सके तो राज्य प्रकरण में हाथ डालिए, वर्तमान राज्य प्रबन्ध विषयक तीव्र लेख लिखिये, गवर्मेन्ट पर खूब टीका कीजिये, सरकारी प्रत्येक कार्य में दोष दिखलाइये, किसी मान्य व्यक्ति पर कुछ आक्षेप लाइए, किसी सभ्य पुरुष की मानहानि कीजिये और अपने देश भाइयों में राजद्रोह नहीं, राजभक्ति फैलाइये। यदि यह भी न हो सके तो आर्य धर्म का आंदोलन मचाइये और घर में फूट का बीज बो समाज को अस्त-व्यस्त कर दीजिए। जब तक आप हमारी यह सलाह न सुनेंगे, आपको छत्तीसगढ़ मित्र के बदौलत हर साल नुकसानी ही सहनी पड़ेगी। अजी, एडिटर साहेब, सुन लीजिये, हमारी सलाह बहुत अच्छी है। उसके अनुसार चलोगे तो पैसा भी कमाओगे और नाम भी मिलाओगे। नहीं तो हम सच कह देते हैं कि आपके पत्र को हम नहीं चाहते।….” आपका एक छत्तीसगढ़ी”

 घाटे के बावज़ूद प्रकाशन जारी रखने का संकल्प

शुक्ल जी की पुस्तक ‘ माधवराव सप्रे : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ के अनुसार ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रथम वर्ष के अंकों मुद्रण कार्य के लिए कय्यूमी प्रेस रायपुर को 499 रूपये 8 आने का भुगतान किया गया था। दूसरे वर्ष में मुद्रण कार्य देशसेवक प्रेस नागपुर में कराया गया था और कुल 474 रूपये6 आने खर्च हुआ था, जो प्रथम वर्ष की अपेक्षा कम था, लेकिन पहले वर्ष 175 रूपये 12 आने घाटा हुआ था, जो दूसरे वर्ष में घटकर 118 रूपये 9 आने हो गया। इससे प्रकाशक और सम्पादकों को काफी आशा बंधी थी कि यदि तीसरे वर्ष भी सभी का पूरा -पूरा सहयोग मिलता गया तथा परिश्रम की रफ़्तार कम नहीं हुई तो तीसरे वर्ष घाटा न होगा। यद्यपि सम्पादकों को ज्ञात था कि तीसरा वर्ष कड़ी परीक्षा का होगा ।इसलिए सम्पादकों ने वर्ष 1901 का वार्षिक आय -व्यय का लेखा प्रस्तुत करते हुए लिखा था कि ‘मित्र’ के निकलने के पहिले ही हमने सोच लिया था कि हमें घटी के सिवाय कुछ लाभ न होगा, परंतु छत्तीसगढ़ में विद्या की वृद्धि, स्वदेश में ज्ञान का प्रसार, नागरी  की उन्नति और हिन्दी साहित्य में सत्य समालोचना द्वारा सत्य विचार की जागृति करने के हेतु जिस समय हमने ‘मित्र’ को जन्म दिया, उसी समय हमने यह भी दृढ़ संकल्प कर लिया था कि इस कार्य में चाहे जैसी हानि और कठिनाई सहनी पड़े, पर हम तीन वर्ष तक इसे अवश्य चलावेंगे। हमारे संकल्पानुसार परमात्मा की कृपा से दो वर्ष बीत गये और हमारे दुर्भाग्य से दोनों वर्ष हमें घाटा ही उठाना पड़ा। अब यह तीसरा वर्ष है। देखना चाहिये कि इसका क्या परिणाम होता है? यदि इस वर्ष भी ऐसी ही घटी उठानी पड़ी तो समझ लीजिये कि आपके प्रिय ‘मित्र’ को सौ वर्ष पूरे हो चुके और फिर, बड़े दुःख से लिखना पड़ता है कि यही इसकी आयु का अन्तिम वर्ष भी होगा !!!.

हालांकि ‘मित्र’ में छपे इस मार्मिक पत्र को पढ़कर कुछ पाठकों ने मदद की पेशकश भी की, लेकिन शायद वह पर्याप्त नहीं थी और इसी वजह से’ छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन तीन साल से ज़्यादा हो न सका।

 लगी थी ‘राजद्रोह ‘ की धारा : हुए थे गिरफ़्तार

सप्रे जी ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन बंद होने के बाद नागपुर में राष्ट्रीय चेतना सम्पन्न प्रबुद्धजनों के सहयोग से ‘हिन्दी केसरी ‘ नामक साप्ताहिक पत्र के सम्पादन और प्रकाशन का दायित्व संभाला। इसका पहला अंक 13 अप्रैल 1907 को छपा। यह साप्ताहिक दरअसल महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक के मराठी साप्ताहिक ‘केसरी’ में छपने वाले विचारों को हिन्दी भाषी इलाकों में जन -जन तक पहुँचाने के लिए शुरू किया गया था। इसमें अंग्रेज हुकूमत की जन विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ के ख़िलाफ़ कई विचारोत्तेजक लेख छपते थे। वर्ष 1908 में प्रकाशित चार आलेखों को लेकर ब्रिटिश प्रशासन ने सप्रेजी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का आरोप लगाकर भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा किया गया। उनके साथ एक अन्य समाचार पत्र ‘देश सेवक ‘ के सम्पादक कोल्हटकर जी भी इसी धारा के तहत गिरफ्तार हुए थे।

मराठी ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद

पण्डित माधवराव सप्रे हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक द्वारा मराठी में रचित ग्रंथ ‘गीता रहस्य ‘(श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र)का हिन्दी में अनुवाद किया था, जो सन 1916 में प्रकाशित हुआ। मूल ग्रंथ मराठी में सन 1915 में छपा था। उल्लेखनीय है कि तिलक जी ने 900 पृष्ठों के इस महान ग्रंथ की रचना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मंडाले (म्यांमार) की जेल में कारावास की अवधि में 2 नवम्बर 1910 से 30 मार्च 1911 के बीच (सिर्फ़ 5 माह में) की थी। सप्रे जी ने चिन्तामणि विनायक वैद्य के लिखे ‘महाभारत के उपसंहार’ नामक ग्रंथ का भी हिन्दी अनुवाद किया था, जो ‘महाभारत -मीमांसा’ शीर्षक से वर्ष 1920 में प्रकाशित हुआ था। सप्रे जी द्वारा अनुवादित कृतियों में समर्थ श्री रामदास के  मराठी ग्रंथ ‘दासबोध ‘ का हिन्दी अनुवाद भी उल्लेखनीय है। उन्होंने नागपुर से वर्ष 1906 में मासिक’ हिन्दी ग्रंथमाला’ का प्रकाशन भी प्रारंभ किया था। पत्रकार के अलावा एक बड़े साहित्यकार के रूप में भी सप्रेजी का हिन्दी जगत में बहुत सम्मान था। देहरादून में वर्ष 1924 में 9 नवम्बर से 11 नवम्बर तक आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पन्द्रहवां अधिवेशन उनकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था। 

 उन्होंने दी जागृति की ज्योति

पुस्तक ‘माधवराव सप्रे : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ‘ में  ‘अपनी बात’ के अंतर्गत संतोष कुमार शुक्ल ने लिखा है -“सप्रेजी ने स्वयं को गढ़ा था। उन्होंने भारतीय चिंतन को अपनी परिपूर्णता में पहचाना था और उसे आम आदमी तक पहुँचाने के लिए जो माध्यम चुने, वे थे साहित्य और पत्रकारिता। इसके लिए भी उन्होंने जो पथ चुना, वह मूक सेवा का था। उसे उन्होंने आत्मीय स्वर दिया, ऐसी जागृति की ज्योति दी, जिसके प्रकाश में उसने चेतना पाई, मुखर होकर अपनी भाषा में अपने भाव व्यक्त करने की शक्ति पाई। वे केवल 55 वर्ष जिए, पर उनका प्रत्येक दिन उद्देश्यपूर्ण रहा।”

वाकई,  किसी विद्वान ने क्या ख़ूब कहा है — ज़िंदगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। आयु की दृष्टि से सप्रे जी की 55 वर्ष की छोटी -सी जीवन यात्रा उपलब्धियों के लिहाज़ से वाकई बहुत बड़ी और गौरवपूर्ण थी। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को उनकी ऐतिहासिक देन हमेशा यादगार बनी रहेगी।

आलेख-स्वराज्य करुण


Wednesday, June 8, 2022

(पुस्तक चर्चा) रावण के अपराध -बोध और पश्चाताप की महागाथा : अग्नि -स्नान

          (आलेख : स्वराज करुण )
कालजयी महाकाव्य 'रामायण ' के राम भारतीय समाज और संस्कृति के रोम -रोम  में रमे हुए हैं। लोक आस्था और विश्वास के प्रतीक के रूप में भारत की धरती के कण -कण में उनकी महिमा व्याप्त है। वह भारतीय संस्कृति के लोक नायक हैं। आशा और विश्वास के आलोक पुंज हैं।  लेकिन जिस प्रकार दिन और रात हमारी पृथ्वी और प्रकृति के दो अनिवार्य पहलू हैं ,उसी तरह किसी भी ऐतिहासिक और पौराणिक घटना पर आधारित कथाओं और महाकाव्यों में नायकों  और खलनायकों  का होना भी अनिवार्य है। नायक अच्छाई का और खलनायक बुराई का प्रतीक होते हैं और दोनों के बीच संघर्ष में नायक विजयी होता है। 
     खलनायक की पराजय मनुष्य को हमेशा सदमार्ग पर चलने का संदेश दे जाती है।महर्षि वाल्मीकि रचित संस्कृत महाकाव्य 'रामायण' और उस पर आधारित महाकवि तुलसीदास के अवधी महाकाव्य 'रामचरितमानस'  का भी यही संदेश है। इन महाकाव्यों के पौराणिक प्रसंगों पर इस आधुनिक युग मे  कई नाटक भी  लिखे गए हैं । रामलीलाओं का नाट्य  मंचन तो पता नहीं ,कब से होता चला आ रहा है !  फिल्में भी बनी हैं , टेलीविजन सीरियल भी आए हैं और उपन्यास भी लिखे गए हैं। 
   लेकिन हिन्दी में 'रामायण' के  खलनायक 'रावण ' पर केंद्रित उपन्यासों में  सिर्फ आचार्य चतुरसेन के "वयं रक्षामः' की याद आती है। निश्चित रूप से वह उनका  एक अत्यंत महत्वपूर्ण और कालजयी उपन्यास है।   इसी कड़ी में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार शिवशंकर पटनायक का  उपन्यास 'अग्नि स्नान'  भी है , जो  'वयम रक्षामः 'की तुलना में अब तक कम प्रचारित है। लेकिन प्रवाहपूर्ण भाषा में पौराणिक घटनाओं का रोचक और रोमांचक वर्णन अग्नि -स्नान ' के पाठकों को भी अंत तक अपने मोहपाश में बांधकर रखता है

इस उपन्यास का मूल संदेश यही है कि व्यक्ति कितना ही विद्वान क्यों न हो ,शारीरिक ,सामाजिक ,आर्थिक,राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से कितना ही  बलशाली क्यों न हो , सिर्फ़ एक चारित्रिक दुर्बलता उसे पतन के गर्त में ढकेल देती है । रावण  निश्चित रूप से महाप्रतापी था।  वेदों और पुराणों का महापंडित और भाष्यकार था । रक्ष -संस्कृति का प्रवर्तक था । उसने स्वयं वेदों की अनेक ऋचाओं के साथ  महातांडव मंत्र की भी रचना की थी। वह परम शिवभक्त था। 
उसकी कठिन तपस्या से प्रभावित होकर भगवान शिव ने उसे नाभिकुण्ड में अमृत होने का वरदान दिया था ।  उसने अपने  तत्कालीन समाज में अनार्यो को एकता के सूत्र में बांधने के लिए  रक्ष -संस्कृति की स्थापना की थी । लेकिन काम -वासना के उसके चारित्रिक दुर्गुण ने , सत्ता के अहंकार ने , मायावती , वेदवती , रंभा और सीता जैसी नारियों के अपमान ने उसे युद्ध के मैदान में राम के अग्नि बाणों से शर्मनाक पराजय के साथ अग्नि -स्नान के लिए बाध्य कर दिया।
          आत्मग्लानि की आत्मकथा
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   रावण की हार तो हुई ,लेकिन पत्नी मंदोदरी और भ्राता विभीषण को छोड़कर उसके समूचे वंश का नाश हो गया।  उपन्यास 'अग्नि -स्नान ' रावण के अपराध बोध और पश्चाताप की महागाथा है। उसकी आत्मग्लानि की आत्मकथा है। हालांकि इसमें उसके व्यक्तित्व की विशेषताओं को भी  उभारा गया है। 
             श्रीराम के हॄदय की विशालता 
 वहीं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के हॄदय की विशालता को भी प्रेरणास्पद ढंग से उपन्यास में  रेखांकित किया गया है। रणभूमि में रावण अग्नि बाणों से आहत होकर मृत्यु शैया पर है। राम अपने भ्राता लक्ष्मण को उससे राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजते हैं। वह कहते हैं -"महाप्रतापी ,महापंडित व महान शिव भक्त लंकेश को मैंने  पुनः प्राण तथा चेतना इसलिए प्रदान की है,ताकि अनुज लक्ष्मण लंकाधिपति से सम्यक ज्ञान ,विशेषकर राजनीति से संबंधित शिक्षा प्राप्त कर सके। " 
      श्रीराम के व्यक्तित्व से प्रभावित रावण 
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राम के व्यक्तित्व से रावण भी प्रभावित हो गया था।
लक्ष्मण को शिक्षा प्रदान करने से पहले रावण उनसे कहता है -- "अल्पायु में ही राघवेंद्र श्री राम ने साधन -विहीन होकर भी जिस कला ,चातुर्य तथा व्यवहार बल से अबोध ,अज्ञानी वानर ,भालुओं को संगठित कर अपराजेय माने जाने वाले लंकाधिपति तथा समस्त समय -वीर राक्षसों को पराजित कर दिया ,उनका व्यक्तित्व ही राजनीति का सार है। भला फिर किसी राजनैतिक ज्ञान की महत्ता कहाँ रह जाती है ?" 
   लक्ष्मण को रावण की शिक्षा आज भी        प्रेरणादायक
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  इसके बावजूद  रावण जिस तरह लक्ष्मण को अपने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ राजनीति की शिक्षा देते हैं ,वह आज के समय में भी प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राजनीतिज्ञ के लिए जानने ,समझने और प्रेरणा ग्रहण करने लायक है। वह कहता है --"राजा को अनासक्त भाव से मनोविकारों यथा -काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद तथा मत्सर पर विजय प्राप्त करनी चाहिए ,क्योंकि ये राजा को सार्थक उत्थान से रोकते हैं।राजा को द्यूत ,मदिरा और स्त्री-प्रसंग से भी अनिवार्य रूप से बचना चाहिए ,क्योंकि ये विवेक को नष्ट करते हैं। अविवेकी राजा में उत्तम निर्णय लेने का गुण नहीं होता ,तथा वह आगत परिणामों को भी नज़र -अंदाज़ कर जाता है,जिससे वह नष्ट तो होता ही है ,उसके कारण राज्य की प्रजा का जीवन भी नारकीय हो जाता है।" 
      मृत्यु शैया पर पड़े रावण की आँखों में उसके वैभवशाली और शक्तिशाली राजकीय जीवन की प्रत्येक घटना किसी चलचित्र की तरह तैर रही है। वह स्वयं इनका वर्णन कर रहा है। इसमें  इस महाप्रतापी के  पश्चाताप की और आत्मग्लानि की  अनुगूंज भी है। उसे अपने जीवन की प्रत्येक घटना फ्लैशबैक में याद आ रही है। अपने पितामह ऋषि पुलस्त्य पत्नी मंदोदरी और भाई विभीषण  की नसीहतें भी उसे पतन के मार्ग पर चलने से रोक नहीं पायी।
            रक्ष -संस्कृति का नष्ट होना 
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 उसने जिस अच्छे  उद्देश्य से  रक्ष -संस्कृति की स्थापना की थी ,वह उसके ही अविवेकपूर्ण  कार्यो की वजह से नष्ट  होती चली गयी। उसने ताड़का को नैमिषारण्य और वज्रमणि (सूर्पनखा)को दंडकारण्य का प्रभार सौंपा था। ताड़का और वज्र मणि के सैनिक रक्ष संस्कृति के विपरीत आचरण करते हैं। एक स्थान पर रावण कहता है --"ताड़का ,सुबाहु, मारीच तथा राक्षस -सेना ने मेरे द्वारा स्थापित संस्कृति के विरुद्ध आचरण किया था ,जबकि यज्ञ में विघ्न उपस्थित करना ,ऋषियों को अपमानित करना ,उनके आश्रमों को क्षति पहुँचाना तथा निरंकुश व मर्यादा विहीन आचरण करना वर्जित था। रावण आगे कहता है -- वास्तव में नियंत्रण के अभाव में राक्षसों की संख्या में तो कल्पनातीत वृद्धि हुई थी ,किंतु संस्कृति का भाव उनमें लेशमात्र भी नहीं था।मुझे यह स्वीकारने में संकोच नहीं है कि उनका आचरण मात्र धर्म -विपरीत ही नहीं ,अत्यंत निम्न कोटि का था।वे दुर्दांत पशु की तरह आचरण कर रहे थे।सभी आत्म केन्द्रित व पर-पीड़क हो गए थे। उनमें लंकाधिपति रावण के प्रति गर्व तो ताव,किन्तु भय नहीं था। मुझे निश्चय ही अपनी संस्कृति से अनुराग था। मैंने संस्कृति के उन्नयन के लिए जिस साधना ,त्याग व युद्धबल का प्रयोग किया था ,वे सभी मुझे निरर्थक प्रतीत होने लगे थे। किसी भी संस्कृति में दया ,क्षमा ,त्याग ,संवेदनशीलता,जीवन -मूल्यों के प्रति आस्था ,धर्म ,चिंतन-दर्शन आदि तो आवश्यक हैं,साथ ही संस्कृति को अहिंसक भाव से भी युक्त होना चाहिए।किन्तु मैं जो अब राक्षसों के कृत्यों को देख रहा था ,उनकी संस्कृति में तो केवल बर्बरता,पर -पीड़ा ,हिंसा तथा अधार्मिकता की ही प्रबलता थी। मैंने शोषण ,अत्याचार तथा उत्पीड़न के विरुद्ध इस संस्कृति की कामना की थी ,किन्तु देवों अथवा आर्यों से कहीं अधिक तो राक्षस ही शोषण ,उत्पीड़न तथा अत्याचार को बढ़ावा दे ही नहीं रहे थे ,अपितु मूर्तरूप में उसे क्रियान्वित भी कर रहे थे।स्थिति तो यह थी कि जितना सत्ता -मद मुझे नहीं था ,उससे कहीं अधिक उनमें व्याप्त हो गया था । स्पष्ट प्रतीत होने लगा था कि राक्षस का अर्थ ही आतंक ,अत्याचार और बलात्कार था।" 
 अविवेकपूर्ण आचरण से पतन की ओर 
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रावण के इस कथन से  हालांकि यह प्रकट होता है कि रक्ष -संस्कृति को लेकर उसका  चिंतन  मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण था , लेकिन वह स्वयं अविवेकपूर्ण आचरण की वजह से पतन की ओर अग्रसर हो रहा था।  उसके विद्वतापूर्ण व्यक्तित्व का एक आदर्श पहलू यह भी था कि लंका विजय के लिए प्रस्थान के पहले जब  श्रीराम समुद्र के किनारे भगवान शिव की प्राण प्रतिष्ठा करना चाह रहे थे और उन्हें इस कार्य के लिए ब्राम्हण पुरोहित नहीं मिल रहा था ,तब इस बारे में  सुनकर रावण ने स्वप्रेरणा से यह कार्य करने निर्णय लिया और एक पुरोहित का रूप धारण कर , राम की सेना के बीच आया और उनके हाथों यज्ञ सम्पन्न करवाकर शिव लिंग की स्थापना की। यह स्थान रामेश्वरम के नाम से प्रसिद्ध है।
      सदगुणों के बावज़ूद विरोधाभासी चरित्र 
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   इस प्रकार के अनेक सदगुणों  के बावज़ूद रावण के चरित्र में भयानक  विरोधाभास था। उसने असुराधिपति तिमिधवज की पत्नी मायावती से छलपूर्वक बलात्कार किया । जो उसकी (रावण की )पत्नी मंदोदरी की बड़ी बहन थी।  बलात्कार के मानसिक आघात से पीड़ित तो थी ही ,उसका पति तिमिधवज आर्यों और देवों की सेना से हुए  एक युद्ध में मारा भी गया था। इस  दोहरी मानसिक पीड़ा ने मायावती को सती के रूप में अग्नि-स्नान के लिए बाध्य कर दिया था। उसने अपने भाई कुबेर के पुत्र जल कुबेर की प्रेयसी रंभा से बलात्कार किया। ब्रम्हर्षि कुशध्वज की पुत्री वेद कन्या वेदवती से उसकी तपस्या के दौरान  बलात्कार का प्रयास किया ,जिसने अग्नि प्रज्ज्वलित कर अपनी रक्षा की और  व धरती में समा गई। लेकिन उसने रावण को श्राप दिया कि वह अगले जन्म में विदेह जनक सूता के रूप में,अयोनिजा जानकी के रूप में जानी जाएगी और उसकी मृत्यु का कारण बनेगी। वही वेदवती राजा जनक की पुत्री सीता के रूप में स्वयंवर में भगवान श्रीराम को वरण करती है, जिसका अपहरण  रावण द्वारा छलपूर्वक किया जाता है और जिसकी खोज में राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ वानरों की सेना लेकर लंका की ओर प्रस्थान करते हैं। उपन्यास में भगवान श्रीराम द्वारा किष्किंधा नरेश वानर राज बाली की छलपूर्वक वध किये जाने की घटना का भी उल्लेख है।
              श्रीराम के समक्ष पश्चाताप
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     इन समस्त घटनाओं का वर्णन मरणासन्न अवस्था मे रावण करता है।अंत मे वह युद्ध भूमि में ही भगवान श्रीराम के समक्ष पश्चाताप करते हुए अपने तमाम अपराधों को स्वीकारता है। वह कहता है -"तुमने अग्नि -बाण चलाकर मेरा सर्वस्व जला दिया।श्रीराम तुमने उचित किया।दसकंधर रावण की नियति यही है कि वह अग्नि -दग्ध होता रहे।आगत में जो नारी -अस्मिता को खंडित करने का प्रयास करेगा अथवा सामाजिक मूल्यों एवं मानवीय संवेदनाओं का हनन करने का घिनौना कृत्य करेगा,वह रावण की नियति को प्राप्त कर अग्नि -स्नान को बाध्य होगा।रावण ने भले ही गो -लोक प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है ,पर उसके कृत्य रावण को जीवित रखेंगे और समय स्वयमेव श्रीराम का रूप लेकर उसे अग्नि -स्नान कराता रहेगा। आगत के लिए यही सत्य , शाश्वत रूप में स्वीकार्य होगा ,क्योंकि रावण की नियति ही है अग्नि -स्नान ।"  रावण के प्रायश्चित से भरे इन वाक्यों के साथ ही 256 पृष्ठों के इस उपन्यास का समापन होता है।

   शिवशंकर पटनायक : पौराणिक उपन्यासों के        लेखक 
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उपन्यासकार शिवशंकर पटनायक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। वह महासमुन्द जिले के तहसील मुख्यालय पिथौरा के रहने वाले हैं। विगत कुछ वर्षों में उनके अनेक कहानी संग्रह ,निबंध संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। इनमें  रामायण और महाभारत के पात्रों पर केन्द्रित उपन्यास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।  माता कौशल्या की आत्मकथा को उन्होंने 'कोशल नंदिनी ' के रूप में उपन्यास के सांचे में ढाला है तो 'आत्माहुति' केकैयी के जीवन पर आधारित है। वहीं ' भीष्म प्रश्नों की शरशैय्या पर' , 'कालजयी कर्ण'  और 'एकलव्य' महाभारत के इन चर्चित चरित्रों पर केन्द्रित हैं।  इन कृतियों ने यह साबित कर दिया है कि शिवशंकर पटनायक  पौराणिक उपन्यासों के भी  सिद्धहस्त लेखक हैं।   प्राचीन महाकाव्यों के पौराणिक चरित्रों पर अलग -अलग उपन्यास लिखना कोई मामूली  बात नहीं है। इसके लिए उनकी भावनाओं को ,उनकी संवेदनाओं को ,उनके भीतर की मानसिक उथल -पुथल को हृदय की गहराइयों से महसूस करने वाला लेखक ही इस  कठिन चुनौती को स्वीकार कर सकता है । पौराणिक घटनाओं के  तथ्यपूर्ण  वर्णन के लिए प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना पड़ता है ,जिन्हें कथोपकथन में और पात्रों के संवादों में अपनी कल्पनाशीलता के साथ सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने पर ही एक बेहतरीन उपन्यास की रचना होती है। इस नज़रिए से देखें तो अपने अनेक पौराणिक उपन्यासों की श्रृंखला में 'अग्नि -स्नान' शिवशंकर पटनायक का एक सफल और कालजयी उपन्यास है।
      आलेख  -- स्वराज करुण

Tuesday, June 7, 2022

आज नंगी लाश भी नचवा रहे हैं लोग !


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लक्ष्मण मस्तुरिया का पहला 
हिन्दी कविता संग्रह : सिर्फ़ सत्य के लिए 
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          (आलेख - स्वराज करुण)
छत्तीसगढ़ी भाषा के लोकप्रिय जन कवि लक्ष्मण मस्तुरिया आज अगर हमारे बीच होते तो 73 साल के हो चुके होते , लेकिन उनका कवि हृदय उस वक्त भी अपनी रचनाओं में युवा दिलों की धड़कनों को स्वर दे रहा होता। बिलासपुर जिले के ग्राम मस्तूरी में 7 जून 1949 को जन्मे  लक्ष्मण मस्तुरिया की ज़िंदगी का सफ़र राजधानी रायपुर में 3 नवम्बर 2018 को अचानक हमेशा के लिए थम गया । उनके लाखों चाहने वाले श्रोता और प्रशंसक स्तब्ध रह गए । लेकिन लगता नहीं कि वो अब हमारे बीच नहीं हैं  ,क्योंकि  एलबमों में संरक्षित उनके सदाबहार गानों की अनुगूंज , जनता के होठों पर गाहेबगाहे  उन  गीतों की गुनगुनाहट और  किताबों में शामिल उनकी कविताएँ हमें एहसास दिलाती हैं कि वे आज भी यहीं कहीं हमारे आस- पास ही मौज़ूद हैं।
     उनकी कविताओं में  छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण भारत के आम जनों की ,मज़दूरों और किसानों की भावनाएँ तरंगित होती हैं ।   उनका जनप्रिय और कालजयी गीत है -- 'मोर संग चलव गा ' जिसमें समाज के गिरे ,थके ,लोगों से   साथ चलने का आव्हान है। आकाशवाणी के रायपुर केंद्र से सत्तर के दशक में जब पहली बार यह प्रसारित हुआ तो कर्णप्रिय संगीत के साथ इसके शब्दों ने  जनता को सम्मोहित कर लिया । लोग झूम उठे। तब से लेकर अब तक  विगत लगभग पाँच दशकों  में इस गीत ने लोकप्रियता का ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि आज भी यह आम जनता की जुबान पर है। यहाँ तक कि परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों  और एक -दूसरे के प्रतिस्पर्धी प्रत्याशियों भी  अपने चुनाव प्रचार के दौरान  रैलियों और आम सभाओं में लाउडस्पीकर पर इस गीत को बजवाते देखा  जा सकता है।। मस्तुरिया जी के ऐसे कई छत्तीसगढ़ी गीत हैं ,जिनके ऑडियो वीडियो कैसेट और एलबम काफी लोकप्रिय हुए हैं। उनकी छत्तीसगढ़ी कविताओं के  प्रकाशित संकलनों में (1)हमू बेटा भुइंया के (2) गंवई -गंगा (3) घुनही बंसुरिया (4) छत्तीसगढ़ के माटी  शामिल है ,वही एक खंड काव्य 'सोनाखान के आगी' भी प्रकाशित हो चुका है ,जो यहाँ के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अमर शहीद ,सोनाखान के वीर नारायण सिंह के नेतृत्व में 1857 में अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ हुए विद्रोह पर आधारित है। 
    आम जनता के बीच   लक्ष्मण मस्तुरिया की पहचान एक अत्यंत लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी कवि और गायक के रूप में है ,उन्होंने छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए भी कई भावुक और कर्णप्रिय गीत लिखे। लेकिन यह अधिकांश लोगों को नहीं मालूम कि उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी में भी खूब कविताएँ लिखीं।  उनकी हिन्दी कविताओं का पहला  संकलन 'सिर्फ़ सत्य के लिए 'वर्ष 2008 में राजधानी रायपुर की साहित्यिक संस्था 'सृजन सम्मान 'द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसमें उनकी 71 कविताएँ शामिल हैं । इनमें मुक्त छंद की रचनाओं के साथ -साथ छन्दबद्ध रचनाएँ भी हैं । पहली कविता है --गाँवों की ओर। इसमें लक्ष्मण कहते हैं --

"लौट चलो गाँवों की ओर ,
गौतम -गाँधी मिलेंगे , 
गलियों ,चौपाल पर ,
खेतों की मेड़ ,
नदी ,नालों और ताल पर ।
मुक्त करो प्राण पंख 
सभ्यता की डोर।
शहरों की भीड़ में 
खो गया विवेक ,
रास्ते बहुत बने ,पर 
आदमी वह एक, 
रुंध रहे दिल -दिमाग ,
दहलाते शोर। 
रुपयों के पीछे बस 
भाग रहा आदमी ,
प्रतिस्पर्धा -धूर्तता में 
नाच रहा आदमी ,
पंगु व्यवस्था में बढ़ा
डंडे का जोर।"

संग्रह की शीर्षक कविता 'सिर्फ़ सत्य के लिए ' में आज के विसंगतिपूर्ण लोकतंत्र में सिर झुकाकर जीने को मज़बूर आम नागरिक की पीड़ा  अभिव्यक्त होती है । कवि इस बेरहम व्यवस्था पर तंज कसते हुए उस दलित ,शोषित मनुष्य से कहता है --

"मस्तक जरा झुकाकर जी , सर को यहाँ बचा कर जी , 
सबके सब पद्मासन में ,तेरा क्या सिंहासन में ।
कंचन बिखरा आंगन पर ,कंकर तेरे दामन भर , 
अपने हिस्से के रजकण को अपना तिलक बनाकर जी।
छूना मत अनजाने मे, बैठे  सर्प ख़जाने में ,
निर्धन की क्या हस्ती है ,धनवालों की बस्ती है। 
अपनी खरी मजूरी पर तू रूखी -सूखी खाकर जी।
पग -पग अत्याचार बढ़ा ,झूठों का सत्कार बढ़ा ,
छल जो किया अदाओं ने ,तमगे दिए सभाओं ने।
देख ,समझ मत लेकिन उंगली दांतो तले दबाकर जी।
तूने जितना भी देखा ,वह सब पानी पर रेखा।
पाँव-पाँव में कंटक है ,जीवन सब पर संकट है।
बीच डगर पर पड़े हुए ये सारे शूल उठाकर जी। 
है बिसात क्या भवनों की ,शोभा कितनी ,गहनों की ।
हर श्रृंगार अधूरा है ,सारा वैभव धूरा है।
सिर्फ़ सत्य के लिए स्वयं की अंतर ज्योति  जलाकर जी।"

किसी भी सच्चे कवि की संवेदनाएँ  सम्पूर्ण सृष्टि यहाँ तक कि रूखी -सूखी घास के प्रति भी  होती है । कवि कफ़न ढूंढती लाश और युद्ध के विनाश से भी दुःखी होता है।लक्ष्मण मस्तुरिया 'दुःख  है 'शीर्षक कविता में  कहते हैं --

"सबको अपनी प्यास का दुःख है ,
मुझे धरा ,आकाश का दुःख है।
टूट गिरी जो उस शबनम को 
रूखी -सूखी घास का दुःख है।
फिक्र तुम्हें है नागफनी की ,
मुझको मगर  पलाश का दुःख है।
चार गिरह जो कफ़न ढूंढती ,
बदक़िस्मत उस लाश का दुःख है।
कभी बात रोटी तक पहुँची 
और कभी आवास का दुःख है।
फूँके जो आबाद घरों को ,
ऐसे युद्ध विनाश का दुःख है। "

 कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी वह काव्य पाठ करते थे ,जहाँ सैकड़ों ,हजारों श्रोता उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे ,क्योंकि उनकी रचनाओं में आम जनता के दिलों की आवाज़ गूंजती थी। उनमें आम जनों का दर्द झलकता और छलकता था। मंचीय कवि सम्मेलनों में वह ख़ूब जमते थे ,लेकिन उन्हें कवि सम्मेलनों में कुछ कवियों द्वारा हास्य कविता के नाम पर परोसा जाने वाला विदूषकीय  फूहड़पन बिल्कुल पसंद नहीं था। मंचीय  कविता की आड़ में होने वाली  चुटकुलेबाजी से उन्हें सख़्त नफ़रत थी। उनके  इस हिन्दी काव्य संग्रह के दो मुक्तकों में इसे महसूस किया जा सकता है--

      (1)
"डंडे को बेलन क्या कहना 
टुनटुन को हेलन क्या कहना।
चुटकुले सुनाने वाले मंच को 
कवि सम्मेलन क्या कहना।
     (2)
चारों ओर चलन बिक रहा है ,
असहाय मेरा वतन दिख रहा है।
इस कारण राष्ट्र रतन मिट रहा है,
चिंतन और लेखन बिक रहा है।"

लोकतंत्र के नाम पर आज के सियासी माहौल को देखकर भी वह बहुत क्षुब्ध रहते थे।  साहित्यिक मंचों के साथ -साथ राजनीतिक मंचों के वातावरण से वह  निराश थे। उनकी यह निराशा इस संग्रह की 'मंच पर ' शीर्षक कविता में  व्यंग्य के रूप में प्रकट हुई है --

"मंच पर विदूषक बनकर आ रहे हैं लोग 
वर्जनाएं भूलकर सब गा रहे हैं लोग।
बात पहुँची है यहाँ तक इस नई तहज़ीब में ,
आज नंगी लाश भी नचवा रहे हैं लोग।"

संग्रह में मुक्त छंद की उनकी कविता 'रंगे सियार बैठे हैं ' देश और समाज के वर्तमान माहौल पर निशाना साधती है। वह जनता को 'रंगे सियारों ' से सावधान करते हैं।कुछ पंक्तियाँ देखिए --

"संभल कर रहना साथियों ,
रंगे सियार बैठे हैं, 
पराये कंधों से बन्दूक चलाने वाले बैठे हैं।
यहाँ सुकर्म आदर्शों का मोल 
कौन समझेगा ?
जो जितना होगा पैंतरेबाज , 
उतना और चमकेगा।"

संग्रह की कविताओं पर छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विनोद शंकर शुक्ल ने 'संस्कृति की बदसूरती के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की कविताएँ " शीर्षक अपनी भूमिका के अंत में लिखा है --" लक्ष्मण मस्तुरिया की हिंदी कविताएँ मंचवादी नहीं हैं। वे मुग्ध करने या वाह -वाह करने के लिए नहीं लिखी गई हैं। वे पाठक या श्रोता को अपने समय और परिवेश की विसंगतियों पर सोच -विचार के लिए उत्तेजित करने वाली कविताएँ हैं। विलुप्त होती मनुष्यता की चिन्ता उनकी मूल धुरी है।समय और समाज की विसंगतियों से कवि की टकराहट के विविधकोणी छायाचित्र उनमें उपस्थित हैं। "संग्रह में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शोभाकांत झा का अभिमत भी प्रकाशित किया गया है। उन्होंने लिखा है --" कविता भी एक कला है ,सृजन है ,सौन्दर्यमूलक सत्याग्रह है और है मनुष्य में निहित एक बेहतर संसार की मांग। इस मांग और समाधान के बीच से लक्ष्मण मस्तुरिया का कविता संग्रह 'सिर्फ़ सत्य के लिए 'उपजा है।" इन रचनाओं के संदर्भ में दोनों विद्वान साहित्यकारों की ये टिप्पणियाँ बहुत मूल्यवान हैं।
     वास्तव में लक्ष्मण मस्तुरिया की ये हिन्दी कविताएँ  मानव हृदय की कोमल भावनाओं के साथ गाँव ,शहर ,देश और समाज की जीवन व्यापी हलचल और आज के मनुष्य के दुःख -दर्द का एक जीवंत दस्तावेज है।- स्वराज करुण