Wednesday, May 27, 2020

शायद अब न दिल मिलेंगे न हाथ !


               -- स्वराज करुण 
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये !
हाथ मिलाते रहने से दिल भी कभी न कभी मिल ही जाते हैं । ऐसा मानकर शायर ने ऐसा लिखा होगा, ,लेकिन  क्या अब ऐसा नहीं लग रहा निदा फ़ाज़ली साहब की ग़ज़ल की यह लोकप्रिय पंक्ति वर्षों बाद सिर्फ़ चार महीने के भीतर  अप्रासंगिक हो गयी है ?  क्या दिल और क्या हाथ ! अब तो शायद  दोनों का ही मिलना मुश्किल है ।
    सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी इंसानों को असामाजिक बना रही है। आँखों से नज़र नहीं आने वाले एक सूक्ष्म वायरस ने मानव सभ्यता के सामाजिक ताने -बाने को तहस -नहस कर दिया है। अब कहा जा रहा है कि इंसानों को इसी वायरस के साथ जीना है ,जो उन्हें न तो हाथ मिलाने देंगे और न ही दिल ! (स्वराज करुण ) दुकानों में ,बाज़ारों में अगल -बगल या आमने -सामने खड़े या बैठे इंसान मन ही मन एक -दूसरे को सन्देह की नज़र से देख रहे हैं। भले ही कोई मास्क लगाया हुआ ही क्यों न हो ! मित्रता में या नाते -रिश्तेदारियों में  एक -दूसरे के घर आना -जाना लगभग बन्द हो गया है। एक ही शहर या गाँव में लोगों का स्वाभाविक और परम्परागत मेल -जोल समाप्ति की ओर है। गरीबों तथा निम्न आय और मध्यम आय वालों की ज़िन्दगी भी गहरी चिन्ता और बेचैनी में गुज़र रही है।
     खौफ़ का ऐसा माहौल बन गया है कि अगर किसी के घर में नल की टोंटी ख़राब हो जाए तो प्लम्बर को और इस भयानक गर्मी   बिजली का  कोई उपकरण जैसे कूलर ख़राब हो जाए तो इलेक्ट्रीशियन को बुलाने के बारे में दस बार सोचना पड़ता है ! दूध और सब्जी बेचने वाले छोटे कारोबारियों को भी सन्देह घेरे में कैद कर दिया गया है । शादी -ब्याह ,तीज -त्यौहार और मेले -ठेलों की रौनक और रंगत भी अब फ़ीकी पड़ने लगी है। विवाह और मृतक संस्कार में शामिल होने के लिए सरकार द्वारा तय संख्या में ही लोगों को आना है और  उसके लिए अगर एक जिले से दूसरे जिले में या एक राज्य से दूसरे राज्य में आना -जाना हो तो कतारबद्ध होकर सरकारी अनुमति लेना जरूरी हो गया है। 
     यानी इंसान अपने ही देश में विदेशी जैसा हो गया है ,जिसे पासपोर्ट और वीजा के लिए आवेदन करना पड़ता है। जन - जीवन की स्वाभाविकता विलुप्त होती जा रही है। आख़िर कब ख़त्म होगा यह उद्विग्न और विचलित कर देने वाला माहौल ?
   सन्दर्भ --चायनीज कोरोना वायरस 

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