Tuesday, October 1, 2019

(आलेख ) देश को मदिरालय चाहिए या भोजनालय ,मधुशाला चाहिए या पाठशाला ?

                              - स्वराज करुण 
   हर साल जब हम दो अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी  की जयंती मनाते हैं तो मद्य - निषेध या शराबबन्दी को लेकर उनके  प्रेरक विचारों और अथक प्रयासों की याद स्वाभाविक रूप से आ ही जाती है । उन्होंने एक आज़ाद भारत के साथ एक नशामुक्त भारत का भी ख़्वाब देखा था । उनका यह सपना कैसे पूरा हो ,इस पर हम सबको गंभीरता से विचार करना चाहिए । जब  उनके आदर्श विचारों के अनुरूप स्वच्छ भारत अभियान चलाकर देश को गन्दगी से मुक्त करने की कोशिश हो सकती है , जब  सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्ति का  राष्ट्रीय अभियान शुरू किया जा सकता है ,  तो उनकी 150 वीं जयन्ती पर पूर्ण शराबबन्दी का राष्ट्रीय अभियान भी क्यों नहीं चल सकता ? 
   दुर्भाग्य से हमारे देश में  आजकल दूध -दही की दुकानों से ज्यादा ग्राहकों की भीड़ शराब की दुकानों में उमड़ती नज़र आती है । आम तौर पर जिसे हम विदेशी शराब कहते हैं ,वो भी देशी शराब की तरह हमारे ही देश में बनती है । खैर , वैसे भी शराब चाहे विदेशी हो या स्वदेशी ,वैध हो या अवैध , किसी भी दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक तो हो नहीं सकती ।  इसके बावज़ूद दोनों तरह की शराब के प्रति  स्वदेशी ग्राहकों में दीवानगी की हद से भी ज़्यादा आकर्षण बढ़ रहा है ,  जो वास्तव में देश के  भविष्य के लिए घातक है ।    किसी भी तरह के अधिकृत या अनाधिकृत  आंकड़ों पर न भी जाएं तो भी मदिरालयों में बढ़ता शराबियों का सैलाब हमें  साफ नज़र आता है। ऐसे में हमें इस सवाल का जवाब ढूंढना ही पड़ेगा कि आख़िर हम अपनी वर्तमान और भावी पीढ़ी को और देश के भविष्य को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि देश और देशवासियों के लिए   मदिरालय ज़रूरी हैं  या  भोजनालय ?   लोग मदिरालयों में पैसे देकर बीमारियों की बोतल  ख़रीदते हैं ,जबकि भोजनालय चाहे जैसे भी हों , वहाँ मिलने वाले  कम से कम दो वक्त के भोजन की थाली मनुष्य के पेट की आग बुझाकर उसे स्वस्थ और ऊर्जावान बनाती है । हमें यह भी तय करना होगा कि देश को आज नशेबाज पीढ़ी बनाने के लिए मधुशालाओं की ज़रूरत है या संस्कारवान और सुशिक्षित पीढ़ियों के निर्माण के लिए  पाठशालाओं की ?

    गाँधीजी ने  शराब के गंभीर हानिकारक परिणामों  से  चिन्तित होते हुए अपनी पुस्तक 'मेरे सपनों का भारत ' में  लिखा है - 

     " यदि मुझे एक घंटे के लिए भारत का डिक्टेटर (तानाशाह ) बना दिया जाए ,तो मेरा पहला काम यह होगा कि शराब की दुकानों को हमेशा के लिए बंद करवा दिया जाए और कारखानों के मालिकों को अपने मजदूरों के लिए ऐसी मनुष्योचित परिस्थितियों का  निर्माण करने और उनके हित में ऐसे उपाहार -गृह और मनोरंजन-गृह खोलने के लिए मजबूर किया जाए ,जहाँ मजदूरों को ताजगी देने वाले निर्दोष शीतल-पेय और उतना ही निर्दोष मनोरंजन मिल सके । " गाँधीजी का ये भी कहना था कि हमें  ऊपर से ठीक दिखायी देने वाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिए कि शराब-बंदी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं ,उन्हें उसकी सुविधाएं मिलनी ही चाहिए । यह राज्य का कोई कर्त्तव्य नहीं है कि वह अपनी प्रजा को कुटेवों के लिए अपनी ओर से सुविधाएं दे.हम वेश्यालयों को अपना व्यापार  चलाने के लिए अनुमति-पत्र नहीं देते .इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रवृत्ति पूरा करने की सुविधाएं नहीं देते ।"  

   उन्होंने  'मेरे सपनों का भारत ' में आगे यह भी लिखा है -- " शराब की आदत मनुष्य की आत्मा का नाश कर देती है और उसे धीरे-धीरे पशु बना डालती है.वह पत्नी , माँ और बहन में भेद करना भूल जाता है.शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होने वाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों से होने वाली हानि की अपेक्षा असंख्य गुनी  ज्यादा है .कारण,बीमारियों से तो  केवल शरीर को हानि पहुँचती है ,जबकि शराब आदि से शरीर और आत्मा ,दोनों का नाश हो जाता है । "   
       
   इस वर्ष जब हम गाँधीजी की 150 वीं जयन्ती मना रहे हैं ,तो  ऐसे में शराब की सामाजिक बुराई  के ख़िलाफ़ जन जागरण की दृष्टि से उनके ये अनमोल विचार आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं।  इसमें  दो राय नहीं कि शारीरिक हानि के साथ -साथ सामाजिक प्रदूषण फैलाने में भी शराब और शराबियों का बहुत बड़ा आपराधिक योगदान होता है । आम तौर पर शराबखोरी को जायज ठहराने के लिए  लोग 'वैध ' और 'अवैध ' मदिरा में फ़र्क करते हैं ,जबकि  जो चीज मनुष्य के लिए प्राणघातक है ,पारिवारिक - सामाजिक -सांस्कृतिक पर्यावरण के लिए नुकसान दायक है , उसे वैध -अवैध के रूप में अलग -अलग परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए । ज़हर तो ज़हर होता है  । उसे चाहे 'वैध 'तरीके से पिया जाए या ' अवैध ' तरीके से ,  दोनों ही स्थितियों में वह प्राणघातक होता है ।उसमें  'कानूनी ज़हर' और 'गैरकानूनी ज़हर '  कहकर  भेद नहीं किया जा सकता। यह  गोवंश के रक्षक कृष्ण -कन्हैय्या  का देश है ,जहाँ उनके ज़माने में दूध की नदियाँ बहा करती थीं । यानी दूध -दही का भरपूर उत्पादन होता था ।  लोग उसे पीकर स्वस्थ और बलवान हुआ करते थे ।

   वैसे  आज भी देखा जाए तो हमारे यहाँ दूध -दही की कहीं  कोई कमी नहीं है ,लेकिन भोगवादी और बाज़ारवादी आधुनिक जीवन शैली के आकर्षण में बंधकर भारतीय मनुष्य तेजी से शराबखोरी की घिनौनी आदत का शिकार बन रहा है । भारतीय समाज में कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो आज  शराबखोरी को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जा रहा है ।  इसके फलस्वरूप सामाजिक मर्यादाएं भी टूटती जा रही हैं । आलीशान सितारा होटलों में तो लायसेंसी बीयर-बार चलते ही हैं । इनके अलावा  हराम की कमाई से  बने अमीरों और नवधनाढ्य लोगों के महलनुमा घरों में भी उनके प्राइवेट  ' मिनी बार ' बने हुए हैं,जहाँ परिवार के सदस्य  आधुनिकता के नाम पर  खुलकर मदिरा पान करते हैं । कुछ रसूखदार लोग अपने विशाल बाग -बंगलों में अपना रुतबा दिखाने के लिए शराब -पार्टियों का भी आयोजन करते हैं ।  दूसरी तरफ  चाहे नौकरीपेशा मध्यवर्गीय वेतनभोगी कर्मचारी हो या दिहाड़ी मज़दूर , समाज के हर वर्ग के अधिकांश लोग शराब की दुकानों में जाकर अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मदिराखोरी में नष्ट कर रहे हैं ,जबकि जितना रुपया वह शराब खरीदने में ख़र्च करते हैं ,उससे कहीं कम कीमत में वह स्वयं के लिए और अपने परिवार के लिए पर्याप्त मात्रा में दूध -दही ,घी जैसे स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ ख़रीद सकते हैं , स्वादिष्ट और पौष्टिक सस्ते फल ख़रीद सकते हैं । लेकिन शराबियों को अपने घर -परिवार या बाल -बच्चों की चिन्ता कहाँ होती है ? 
      हिन्दी और उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद की एक मशहूर कहानी 'कफ़न' अगर आपने पढ़ी हो तो उसमें बाप -बेटे घीसू और माधव के चरित्र को याद कीजिए ,जो घर में प्रसव वेदना से कराहती बहू के इलाज के नाम पर गाँव वालों से चंदा इकठ्ठा करते हैं और उन पैसों को अपनी शराबखोरी में उड़ा देते हैं । तब तक उनकी झोपड़ी में बहू तड़फ -तड़फ कर दम तोड़ देती है । कालजयी कथाकार द्वारा यह कहानी लगभग नौ दशक पहले लिखी गयी थी । इससे पता चलता है कि यह समस्या बहुत पुरानी है । शराब का नशा जहाँ गरीबों को और भी गरीब बना देता है और उनमें अच्छे -बुरे की समझ को नष्ट कर देता है ,वहीं यह पैसे वालों को भी धीरे -धीरे बर्बाद करके ख़ाक में मिला देता है । मुझे अपने बचपन की स्कूली किताब  'बालभारती ' में पढ़ी आनन्दराव जमींदार की कहानी की धुँधली -सी याद आ रही है । यह शराब की लत के कारण आनन्दराव की आर्थिक तबाही की एक मार्मिक कहानी है । लेखक का नाम तो  याद नहीं आ रहा ,लेकिन उन्होंने कहानी के माध्यम से समाज को इस नशे से दूर रहने की नसीहत दी है ।  वर्ष 1970 में आयी हिन्दी फीचर फिल्म ' गोपी " में राजेन्द्र कृष्ण का लिखा ,कल्याणजीआनन्द जी द्वारा संगीतबद्ध एक गाना "हे रामचन्द्र कह गए सिया से ,  ऐसा कलजुग आएगा "  महेन्द्र कपूर की आवाज़ में काफ़ी लोकप्रिय हुआ था । इस गाने की दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं  - 

"मन्दिर सूना -सूना होगा 
भरी रहेगी मधुशाला ,
पिता के संग -संग भरी सभा में 
नाचेगी घर की बाला ।" 
  गाने की ये पंक्तियाँ  शराब के कारण समाज में पनप रही   विकृतियों के साथ हमारे नैतिक और  सांस्कृतिक मूल्यों में तेजी से आ रही गिरावट की ओर भी विचारवान और विवेकवान लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं ।  इन दो लाइनों में गीतकार ने यह भी संकेत दिया है कि वर्तमान भारतीय समाज में  मन्दिरों पर मदिरालय ज्यादा भारी पड़ रहे हैं । यह सचमुच एक दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है । लगता है कि पहले की तुलना में यह समस्या आज  और भी ज़्यादा बढ़ गयी है । भारत में शराबखोरी एक गंभीर सामाजिक बीमारी का रूप धारण करती जा रही
    यह भी एक बड़ी विडम्बना है कि   पहले की तुलना में आज देश में शराबखोरी की  समस्या  और भी ज़्यादा बढ़ गयी है । यह एक गंभीर सामाजिक बीमारी का विकराल रूप धारण करती जा रही है । क्या शहर और क्या गाँव , देश का कोई भी इलाका इस बीमारी से अछूता नहीं रह गया है ।इसकी वज़ह से समाज में हिंसा ,हत्या , आत्महत्या , बलात्कार जैसे घिनौनी घटनाओं में वृद्धि हो रही है । राह चलती माताओं -बहनों ,बहु -बेटियों से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ रही हैं ।शराब पीकर वाहन चलाने वाले जहाँ स्वयं गंभीर सड़क हादसों का शिकार होकर प्राण गंवा रहे हैं ,वहीं उनके लड़खड़ाते वाहनों की चपेट में आकर दूसरे भी आकस्मिक रूप से मौत का शिकार बन रहे हैं । सड़कों के किनारे संचालित शराब दुकानों में कई बार नशेड़ियों के बेतरतीब जमावड़े की वज़ह से सार्वजनिक यातायात भी बुरी तरह से अस्त -व्यस्त हो जाता है । समस्या के स्थायी समाधान के लिए उसकी जड़ों को नष्ट करना जरूरी है । भारत को अगर शराबमुक्त राष्ट्र बनाना है तो यहाँ देशी -विदेशी हर तरह की मदिरा के उत्पादन पर शत -प्रतिशत प्रतिबंध लगा देना चाहिए । वैसे पूर्ण शराबबन्दी की अवधारणा से  असहमति रखने वालों में एक भ्रामक धारणा यह भी बनी हुई है कि यह असंभव है ,क्योंकि शराब के कारोबार से सरकारी ख़ज़ाने में राजस्व बढ़ता है ,जबकि सच तो यह है कि शराब के कारण हृदयरोग ,  लीवर  , किडनी और कैन्सर की घातक बीमारियों के शिकार लोगों और दुर्घटनाग्रस्त नशेड़ियों का इलाज करवाने और शराबजनित अपराधों की रोकथाम में सरकार को उससे कहीं ज्यादा धन अपने ख़ज़ाने से खर्च करना पड़ता है।   शराब के नशे की आदत के शिकार नागरिक निठल्लेपन की वज़ह से परिवार और समाज पर बोझ बन जाते हैं और अपने देश के विकास में भी कोई योगदान नहीं दे पाते
    सिर्फ़ मदिरा की बोतलों पर  'शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ' छापकर वैधानिक चेतावनी की खानापूर्ति कर देना पर्याप्त नहीं है ।इससे यह समस्या हल नहीं होने वाली । इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर ईमानदारी से  व्यापक जन जागरण अभियान चलाने की ज़रूरत है । यह अकेले किसी एक सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं ,बल्कि समाज के उन जागरूक नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है जो स्वयं इस नशे से दूर रहते हैं । भले ही उनकी संख्या कुछ कम होगी ,लेकिन अगर वो चाहें तो संगठित होकर इस अभियान में लेखकों ,कलाकारों डॉक्टरों आदि को जोड़ सकते हैं । नशे के दुष्परिणामों के बारे में डॉक्टरों के व्याख्यान आयोजित कर सकते हैं । मीडिया में उनके लेख और इंटरव्यू प्रकाशित और प्रसारित करवा सकते हैं ।नुक्कड़ नाटक ,गीत -संगीत के माध्यम से भी लोगों में जागरूकता  बढ़ाने की कोशिश की जा सकती है । अगर शराब की दुकानें खुली हैं तो खुली रहने दें। कोई किसी को जोर- जबरदस्ती तो उन दुकानों की ओर नहीं ढकेलता और ज़बरन शराब पीने के लिए मजबूर नहीं करता  । मद्यपान की बुरी आदत लोगों को उधर खींच लेती है । आदर्श स्थिति तो यह होगी कि लोग मदिरालयों की तरफ जाएं  ही मत और शराब पियें  ही मत ! फिर देखिए , कैसे बन्द नहीं होगा मदिरा का कारोबार ! लेकिन इसके लिए सामाजिक -चेतना का विस्तार आवश्यक है । 

     -स्वराज करुण 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और ब्लॉगर हैं )

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