Friday, September 6, 2019

(आलेख ) विलुप्त हो रही एक पर्यावरण हितैषी परम्परा !

                                     - स्वराज करुण 
   प्राकृतिक दोना - पत्तलों की पर्यावरण हितैषी परम्परा तेजी से  विलुप्त होती जा रही है । पहले इन्हें पेड़ों के हरे  पत्तों से और अपने  हाथों से बनाया जाता था । सत्यनारायण की कथा का प्रसाद और विवाह आदि समारोहों में नाश्ता और भोजन इनमें परोसा जाता था । 
        उपयोग के बाद लोग इन प्राकृतिक दोना - पत्तलों को किसी एक जगह पर एकत्रित करके रख देते थे या किसी गड्ढे में डाल देते थे ,जहाँ ये मिट्टी में घुल जाते थे । अगर जानवर भी इन पत्तों को खा लें तो उनको कोई नुकसान नहीं होता था । लेकिन अब प्राकृतिक दोना -पत्तल गाँवों से भी गायब होते जा रहे हैं ।

 विभिन्न कारणों से जंगलों का कम होते जाना भी इसका प्रमुख कारण है । पहले  वनों में साल ,सरई ,परसा आदि के वृक्ष काफी संख्या में होते थे ,जिनके पत्तों से  दोना -पत्तल बनाया जाता था । लोगों के घरों के आँगन में या पीछे बाड़ियों में पर्याप्त जगह होती थी ,जहाँ कुँओं के आस -पास केले के भी पौधे लगाए जाते थे ।  बड़े होने पर केले के पत्ते भी भोजन परोसने के काम आते थे ।
                       

     दोना -पत्तल   बनाने की मशीनें आ गयी हैं ,जिनमें मोटे कागजों पर प्लास्टिक ,  पॉलीथिन या कृत्रिम सिल्वर की बारीक परतें चढ़ाकर इन्हें बनाया जा रहा है ,जो स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं । उपयोग के बाद लोग  इन्हें लापरवाही से इधर -उधर फेंक देते हैं। मिट्टी में घुलनशील नहीं होने के कारण ये जमीन में खुले पड़े रहते हैं ।  इससे मिट्टी प्रदूषित होती है और इनमें बचे हुए या  चिपके रह गए  जूठन के सड़ने पर वातावरण में असहनीय  बदबू फैलती है । पर्यावरण भी  दूषित होता है । इस प्रकार के  प्लास्टिक या कृत्रिम सिल्वर कोटेड आधुनिक दोना -पत्तलों को अगर कोई जानवर खा ले तो उसकी मौत भी हो सकती है । 
     दोना -पत्तल बनाने की इन मशीनों की कीमत ज्यादा नहीं होती । इसलिए कोई भी व्यक्ति इस कुटीर उद्योग की स्थापना कर सकता है । स्वरोजगार की दृष्टि से इसमें कोई  बुराई नहीं ,बशर्ते  दोना -पत्तल प्राकृतिक पत्तों से तैयार किए जाएं ।
        -स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )

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